Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

जहाँ-जहाँ मन जाए, वहाँ-वहाँ भगवान् की धारणा करनी चाहिए

चैत्र शुक्ल 2 सम्वत् 1993 (दिनांक 24-3-1936), प्रातःकालराजा साहब सीतामऊ की कोठी पर, स्वर्गाश्रम

भीतरी वैराग्य बड़ी ऊँची वस्तु है; उससे साधन स्वतः होता है। बाहरी त्याग मामूली है। प्रयत्‍न से आन्तरिक त्याग हो सकता है।

प्रश्‍न– ध्यान के समय फालतू बातें, आजकल की भी नहीं, चालीस वर्ष पूर्व की, जो देखी-सुनी हैं, वही आ जाती हैं। क्‍या उपाय करना चाहिए ?

उत्तर– इसका उपाय है कि जब फालतू स्फुरणा आवे, तब एकदम मन को धिक्कार दो कि—‘मूर्ख ! क्‍या करता है ?’ और नहीं माने, तो भगवान् के सामने करुण भाव से पुकार लगाओ—‘हे नाथ ! मुझे कुछ नहीं चाहिये; केवल आपके चिन्तन में एक क्षण भी बाधा न हो।’ यह भावना सकाम हो, तो भी हानि नहीं है। गद्‍गद भाव से प्रार्थना करनी चाहिये।

प्रश्‍न– ऐसा हो जाय कि सबसे घृणा हो जाय कि संसारी भावना ही न हो ?

उत्तर– जब ऐसा ज्ञान हो कि फालतू बातें आई, तो उस समय चित्त में जोश देकर प्रार्थना करना कि—‘प्रभु ! मेरा चिन्तन ऐसा क्‍यों हो रहा है ? प्रभु आपका विस्मरण क्‍यों होता है ? प्रभु ! अहा ! आपकी दया होते हुए भी ऐसा क्‍यों हो रहा है ? प्रभु ! यह पाजी मन मानता नहीं है, क्‍या करूँ ? भगवन् ! दया करो, दया करो ! इसलिए कहता हूँ—‘ प्रभु ! मेरा मन आपके प्रेम में लगा रहे। हे नाथ ! हे प्रभु ! चाहे जैसे हो, आप दया कीजिये।’

मन को फटकार बताओ कि—‘इसमें क्‍या लाभ है ? रे मन ! सोचो तो सही ! अरे, व्यर्थ समय क्‍यों नष्ट करता है ? रे मन ! बुरी आदत छोड़ दे। यह विषय-चिन्तन व्यसन है, और कुछ नहीं है; और उसमें भी पतन है।’ देखो, हम जिसकी निन्दा करते हैं, उसका कुछ नहीं बिगड़ता है, उलटे हमारा ही नुकसान होता है। सदैव मन के द्रष्टा बने रहो। 

प्रश्‍न– जहाँ तक खयाल रहता है, वहाँ तक तो द्रष्टा रहते हैं और जब खयाल नहीं रहे तो उसके अभाव में क्‍या करना चाहिये ?

उत्तर– ज्ञानमार्ग में तो खयाल रहता है। और भी, घड़ी पास में रहे, तो पाँच-पाँच मिनट में सँभाल करता जाय कि मन सावधान है कि नहीं ? सँभालने में सावधानी रहती है कि बीच में व्यवधान हुआ है, उसको सँभालना। और ध्यान चाहे चल रहा है, तो उत्तम ही है; सँभालना है ही नहीं।

जब-जब मन को देखें कि फालतू बात में जाता है, तब-तब खूब रोना, पश्चात्ताप करना चाहिये।

प्रश्‍न– रोना नहीं आता है ?

उत्तर– मन को पूछो कि—‘क्‍या चाहता है ?’ जब वह कहे कि– ‘कुछ नहीं’ तब उसको समझाना चाहिये कि– ‘भैया ! कुचिन्तन करना– यह तेरे फायदे की बात नहीं है। इसको छोड़ो, तो तुमको परम लाभ होगा।’

प्रश्‍न– समझाते समय तो मालूम पड़ जाता है कि अब समझ गया, बिल्कुल सीधा हो गया; अब कभी विषयों में नहीं जायेगा, किन्तु फिर बिगड़ जाता है; जैसे कुत्ते की पूँछ बाँस की नली में रही, तब तक तो सीधी रहती है और नली से निकाली, तो फिर टेढ़ी-की-टेढ़ी।

उत्तर– मन को और इन्द्रियों को ढीला नहीं छोड़ना चाहिये। ढीला छोड़ने से ही तो ये उत्पात करते हैं। सदैव काबू में रखो; सावधानी रखो; सावधान रहो। मन में ऐसा भाव जमा लिया जाय कि भगवान् सर्वत्र हैं, विराजमान हैं।

प्रश्‍न– पदार्थ देखते ही भगवान् की याद नहीं आती है, क्‍या करना चाहिए ? पदार्थ याद रह जाता है।

उत्तर– भागवत में जिस प्रकार बलदेवजी ने बछड़े, ग्वाल-बालों को कृष्णमय देखा था। वहाँ बलदेवजी को केवल कृष्ण ही दिखते थे। ब्रह्माजी ने जब देखा कि—‘मैंने बछड़े चुरा लिये हैं, तो कृष्ण ने क्‍या किया ?’ – ऐसा सोचकर जब देखने लगे, तो ऊपर से तो बछड़े, ग्‍वाल-बाल बराबर दिखते थे, किन्तु अन्दर तो केवल मात्र कृष्ण-ही-कृष्ण दिखे। इसी प्रकार जिस पदार्थ में मन जाय, तो ऊपर से तो पदार्थ है ही, किन्तु भीतर उनमें कृष्ण, अपने इष्टदेव को ही देखे– ऐसा करने से पदार्थ याद नहीं रहकर कृष्ण ही याद रहेंगे।

जैसे काँच का महल बना हुआ है और उसमें जिधर देखो, उधर महल-ही-महल दिखता है, तो संसार के स्थान में काँच की कल्पना करना और अपने बिम्ब को इष्टदेव का बिम्ब देखना, तो सर्वत्र एक वही दिखेगा। सर्वत्र वही है—रोम-रोम में, पत्ते‌-पत्ते में, कण-कण में केवल वही है। निश्चित बुद्धि से देखो–

सन्‍तुष्‍टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पित मनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
(गीता 12/14)

तथा जो ध्यानयोग में युक्त हुआ, निरन्तर लाभ-हानि में सन्तुष्ट है तथा मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए, मेरे में दृढ़ निश्चय वाला है, वह मेरे में अर्पण किये हुए मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मेरे को प्रिय है।

बुद्धि को दृढ़ता से अर्पण करो। मन से चिन्तन करो, बुद्धि से निश्चय करो तो वह प्राप्‍त होता है।

एक ईश्वर भक्त था, वह भगवान् की पूजा किया करता था। उसकी भावना यह थी कि सब में भगवान् हैं। इस प्रकार की भावना करते-करते एक दिन वह पुष्प चढ़ाने लगा, तो साक्षात् भगवान्। पूजा की जो सामग्री उठावे तो भगवान् ही दिखे; साक्षात् उसमें हँस रहे हैं ! दूसरा पुष्प लेने गया तो वृक्ष में साक्षात् भगवान् मूर्तिमान विराज रहे हैं; वहाँ भी यही हाल है। अब क्‍या करना ! अब तो पूजा वह हो गयी। फिर कहता है कि– हे भगवन् ! तुम-ही-तुम दिखते हो ! मुग्ध हो जाता है। बोला; फिर स्तुति की, कहता है– भगवन् ! आपकी मैं कैसे पूजा करूँ ? आप तो सब जगह दिखते हो, पूजा किसकी, कैसी करूँ ? पुष्प कैसे चढाऊँ ? जिसको उठाता हूँ, वही तुम हो, तो इससे तो हमारा काम बन्द होता है।’

प्रभु प्रगट होकर बोलते हैं कि—‘तुम्हारा यह स्वभाव, कि पूजा कैसे करूँ, सो तुम्हारी असली पूजा तो यही है।’

भक्त बोला—‘बिना पूजा किये रहा नहीं जाता।’

प्रभु बोले—‘तुम्हारी पूजा समाप्‍त हो गई।’

बात तो इस प्रकार है कि प्रभु को सबमें देखना ही ‘सीय राममय’ है।

जहाँ-जहाँ मन जाय, वहाँ-वहाँ से हटाकर प्रभु में लगावे।

प्रश्‍न– विषय देखने से विषयाकार वृत्ति होकर, वही चिन्तन होता है। क्‍या करना चाहिए ?

उत्तर– इसलिये–

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥
(गीता 6/26)

जिसका मन वश में नहीं हुआ हो, उसको चाहिये कि यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस कारण से सांसारिक पदार्थों में विचरता है, उस-उससे रोककर बारम्बार परमात्मा में ही निरोध करे।

–इसको काम में लाना, इसके अनुसार चलना चाहिये, यानी कुवासनाओं का त्याग विवेक-वैराग्य से करना चाहिये। विवेक यह कि ‘सब फालतू है– ऐसा मन को समझाना।’ वैराग्य— ‘कुवृत्तियों की आदत को निर्बल करना ही वैराग्य है।’ इस प्रकार सब त्याग देना चाहिये, क्‍योंकि ये सब त्याज्य हैं, घृणित हैं। एक तो वस्तु से धोखे की बात है; क्षणिक होने से दुःखदायी है और साथ ही चौरासी लाख योनियों का कारण है, दुःख-योनि है।

इसलिये ऐसा सोचना कि—‘प्रभु दिव्य स्वरूप हैं। कहाँ वह आनन्द और कहाँ यह दुःख ! कितना अन्तर है !’

प्रभु के दिव्य स्वरूप का ध्यान और रूप, गुण का चिन्तन अच्छा बढ़ाना चाहिये। महात्मा लोग कहते हैं कि– चिन्तन छूटने का कारण ही क्‍या है, जबकि प्रभु सर्वव्यापी हैं, घट-घट में हैं, आश्चर्य है ! ‘अरे मन ! प्रभु को छोड़कर, आनन्द को छोड़कर कहाँ विषयों में जाता है ?’ इस प्रकार समझाने से मन समझता है और जो साक्षात् अमृत हैं, उनको चाहता है; और जैसे दूध का प्याला मीठा है, उसमें सर्प ने मुँह लगा दिया है, तो समझ गये कि यह त्याज्य है, यानी संसारी भोग मीठे दिखते हैं, किन्तु मायारूपी सर्पिणी का मुँह लगा हुआ है– ऐसा सोचकर वह त्याग देता है। जब यह ज्ञान हो गया कि यह दूध विष-रूप है, ऐसा सोचकर उधर नहीं जाता है। यदि इतना देखते, सोचते हुए भी यह प्रभु तक नहीं जाता है, तो समझो कि अभी इसने भोगों को विष समझा ही नहीं। इस विष को संसारी नहीं समझते हैं और समझने की आवश्यकता भी नहीं समझते हैं। हाँ, ज्ञानी समझते हैं। सो, मन को समझाओ कि—‘अरे मन ! यह क्‍या करता है ? खबरदार ! शान्त हो।’

प्रश्‍न– यह मन क्रमशः समझेगा, या नहीं ! हमको तो भरोसा नहीं आता। इसका हठ देखते हुए शंका-सी होती है। यह धोखा देता है। क्‍या हालत है, समझ में नहीं पड़ता। क्‍या करना चाहिये ? 

उत्तर– मन में खूब साहस रखना चाहिये। मनुष्य की भावना यह हो कि यह मन तो ऐसा है; अच्छा होगा कि नहीं; तब सोचो कि– पूर्व संचित पाप से ही कुवासना आई है, इसको छोड़ो। मन तो पाजी है, समय-समय पर साधक को धोखा देता है, क्‍योंकि काम-क्रोध आदि शत्रु हैं, इनको मार डालो। ये हमको कुमार्ग पर क्‍यों चलावें ? हम नहीं चलेंगे।

भगवान् स्वतः कहते हैं कि भरोसा रखना चाहिये–

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य  येऽपि स्युः  पापयोनयः।
स्‍त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
(गीता 9/32)

 हे अर्जुन ! स्‍त्री, वैश्‍य और शूद्रादिक तथा पापयोनि वाले भी जो कोई हों, वे भी मेरे शरण होकर तो परम गति को ही प्राप्‍त होते हैं।

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥
(गीता 8/14)

हे अर्जुन ! जो पुरुष मेरे में अनन्यचित्त से स्थित हुआ, सदा ही निरन्तर मेरे को स्मरण करता है, उस निरन्तर मेरे में युक्‍त हुए योगी के लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् सहज ही प्राप्‍त हो जाता हूँ। – इन भगवद्वाक्‍यों पर विचार कर भरोसा रखो और भावना रखो कि भगवान् की हम पर दया है, चिन्ता क्‍या है ? विजय अवश्य होगी; दर्शन चाहे देरी में हों।

भगवच्चर्चा और भगवद्दया ऐसी वस्तु हैं कि इनके समान कोई चीज नहीं है, इनके आगे किसी की नहीं चलती है। हर समय इस प्रकार से (भगवच्चर्चा का) मिलना कठिन है और भगवान् ने जो यह (भगवच्चर्चा का) मौका दिया है, वह उनसे मिलने के लिये ही दिया है।

फिर इस प्रकार कहता है कि– ‘प्रभु ! मैं क्‍या प्रायश्चित्त करूँ, कौन-से कठिन व्रत करूँ, जिससे थोड़े समय में ही, जो शेष रहा है, आपको मिल सकूँ ?’

तब समझावे कि– ‘यह संचित पाप का ही कारण है।’ इसका प्रायश्चित्त यही है कि प्रभु का आश्रय लेकर दबा देवे, तो कभी पाप-स्फुरणा आवे ही नहीं–

शौर्यं तेजो धृति‍र्दाक्ष्यं युद्धे चाप्‍यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च  क्षात्रं  कर्म  स्वभावजम्॥
(गीता 18/43)

और शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में भी न भागने का स्वभाव एवं दान और स्वामीभाव अर्थात् निःस्वार्थभाव से सबका हित सोचकर शास्‍त्रानुसार शासन द्वारा प्रेम के सहित पुत्रतुल्य प्रजा को पालन करने का भाव– ये सब क्षत्रियों के  स्वाभाविक कर्म हैं।

इस श्लोक के समान वीरता-धीरता से काम लेना चाहिये। यह तो युद्ध है, करते जाओ; शूरता लगावे, तेज लगावे, यानी ‘क्‍या चीज है तू हमारे सामने’ – ऐसे दबाता रहे। ऐसा धैर्य रखे कि कोई हरकत(कार्यवाही) नहीं। आफत आने दो, जितनी आवें। 

अर्जुन के पास तो शस्‍त्र होते हुए भी प्रभु बैठे थे, ध्यान रखो।

प्रश्‍न– मोह किसे कहते हैं ?

उत्तर– मोह, आसक्ति सांसारिक प्रेम को कहते हैं।

प्रश्‍न– मोह कैसे छूटे ? इससे भगवत्‍प्रेम भी छूट जाता है, क्‍या करूँ ?

उत्तर– इस रोग में अधिकांश लोग फँसे हुए हैं। इसी कारण मनुष्य इसमें बँधे हुए हैं और भगवान् को भूल जाते हैं। पुत्रादि में ममता नहीं होनी चाहिये। ज्ञान होने पर भी हम नहीं चेतते। आसक्ति इसलिये है कि संसार में सुख प्रतीत होता है और सुख की प्रतीति होने से मोह होता है।

प्रश्न– मोह सच्चा है या झूठा ?

उत्तर– प्रतीति काल में सच्चा लगता है। संसार से संसर्ग होता है, वह सच्चा लगता है, इसीलिये ऐसा होता है। रोगी कुपथ्य करता है, तो फल भी कुपथ्य करता है (अर्थात् उसका परिणाम भी दुःख-रूप होता है), इसी प्रकार इस विषय में भी यह कुपथ्य करता है। वास्तव में यह सुख सच्चा नहीं है। गीता – नासतो विद्यते भावो – संसारी भाव कायम नहीं रहता है, इससे सच्चा नहीं रहता; और जितने पदार्थ हैं, यह प्रत्यक्ष है। मनुष्य भोजन करता है और करते-करते छोड़ देता है, क्‍योंकि फिर उसको सुख नहीं होता है, पेट भर जाता है; ऐसे ही पुष्प में सुगंध होती है, उसको एक-दो बार सूँघने पर नफरत हो जाती है। प्रातःकाल फूल सुन्दर एवं सुगंधित था, दोपहर को कुम्हला जाता है, दूसरे दिन सूख जाता है। प्रातःकाल से सायंकाल में ही अन्तर पड़ जाता है, दो दिन बाद तो उसका रूप-रंग भी बदल जाता है। इससे मालूम हुआ कि किसी भी पदार्थ में सुख नहीं होता है।

प्रश्‍न– हर समय सुख नहीं, तो क्षणिक तो होता है।

उत्तर– वह धोखा मात्र है, केवल सुख की कल्पना है और सुख तो उसमें क्षणिक भी नहीं है, क्‍योंकि एक ही पदार्थ सबको अनुकूल नहीं पड़ता है; जैसे मांस खाने वाले को रुचि होती है और नहीं खाने वाले को घृणा होती है; पदार्थ एक ही है, किन्तु भावना पृथक्-पृथक्– दो प्रकार की है। सुन्दर, युवा स्‍त्री विरक्त को बुरी दिखती है, कामी को अच्छी और भोगी को रमणीय दिखती है; यही कल्पना ब्रह्माण्ड में कर लेनी चाहिये। परमात्मा जहाँ हैं, वहाँ आनन्द-ही-आनन्द है और वह विद्यमान है। वास्तव में भोगों में आनन्द नहीं है, सिवाय दुःख के। भोग का नतीजा सब जगह, सब स्थान पर खराब होता है– क्‍या इस लोक में, क्‍या परलोक में। स्‍त्रीगामी को रोग होता है, आयु क्षीण हो जाती है, तेज, वीर्य घट जाता है। सुख क्षणिक और रोग अनन्‍त हैं।

प्रश्‍न– हम समझते हुए भी नहीं समझते; मोह नहीं हटता है, क्‍या करें ?

उत्तर– इस विषय में यह विचारना है कि मनुष्य शरीर की जो प्राप्‍ति है, वह क्षणिक सुख के लिये नहीं है, बल्कि अनन्त सुख के लिये है। इसकी तरफ ध्यान देने से मालूम पड़ता है कि मनुष्य शरीर अन्य योनियों से श्रेष्ठ है। क्षणिक सुख के लिये शरीर नहीं मिला है, क्‍योंकि यह क्षणिक सुख तो अन्य योनियों में भी भोगा है, फिर हमसे तो वेश्या भी अच्छी ! किन्तु वेश्या को जो आनन्द प्रतीत होता है, उतना ही आनन्द कुत्ते को कुतिया से और गदहे को गदही से मिलता है।

जब दधीचि ऋषि के पास इन्द्र गया और मुनि ने देखा तो पूछा कि—‘क्‍यों आये हो ?’

इन्द्र बोला– ‘ज्ञान सीखने।’

मुनि बोले—‘तुमको ज्ञान नहीं बतला सकता, क्‍योंकि तू इन्द्राणी के साथ जो आनन्द करता है, उसी प्रकार कुत्ते को भी कुतिया से आनन्द मिलता है, सो मैं तुमको ज्ञान नहीं दूँगा।’

क्‍योंकि दधीचि ऋषि तो दूसरे ही आनन्द में मग्‍न थे। उन्हें इन्द्र-सुख से घृणा हो आई, क्‍योंकि पदार्थ सब क्षणिक हैं।

प्रश्‍न– हम बलात्कार से संसारी भोगों में जाते हैं, परमेश्वर में नही जाते। क्‍या करें ?

उत्तर– कारण यह है कि हमको जितने मिले, विषयों के संसर्ग का उपदेश करने वाले ही मिले।

प्रश्‍न– इनका तो कहीं व्याख्यान नहीं होता।

उत्तर– किन्तु हमारा कहना तो यह है कि क्रिया-रूप से व्याख्यान ही है। परस्पर खाने-पीने के शौक की बात, शौकीनी की बात के सिवाय दूसरी बात ही नहीं करते। द्वेष तो कुत्ते-बिल्ली में भी होता है, वे भी परस्पर रोटी छुड़ाते हैं। इसके सिवाय जितने मिले, रुपयों का प्रभाव बतलाने वाले ही मिले, भगवान् का प्रभाव बतलाने वाले नहीं मिले। रुपयों का लोभ हमें बचपन से ही लगा है। बाजार में पिता के साथ गये; पेड़ा दिखा, तो रोये; बस, एक पैसा मिल जाता था। कुछ दिन बाद फिर माँगा, तो नहीं मिला; फिर चोरी की। इस रुपये के लिये ही दुनिया में मुकदमे चलते हैं। जिधर देखो, उधर रुपया ही है और रुपये को ही भगवान् मान लिया है ! यदि आज ऐसी खबर दे दें कि अमुक स्थान पर कपड़ा बँटने वाला है, तो अगणित लेने वाले एकत्र हो जायेंगे, किन्तु प्रभु गुणानुवाद में कोई नहीं आयेगा। अहा ! देखो, हम लोग रुपयों के प्रवाह में बह रहे हैं, क्‍या करें ? किन्तु निश्चय करो कि संसार का सब सुख एकत्र करके परमात्म-सुख के एक बूँद की तुलना करो, तो वह एक बूँद भी संसारी सुख से अत्यन्त विलक्षण है। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा को विष के समान समझो। वैराग्य होने पर इत्र-फुलेल का सुख मूत्र सदृश्य लगता है। भला, गुड़ खाने वाले को अमृत का क्‍या पता है !

जिस देश में सूर्य नहीं होता, जहाँ अन्धकार है, वहाँ हम जावें, तो देखेंगे कि वहाँ जुगनू के प्रकाश को ही उत्तम मान रखा है। उनसे कहा कि—‘भाई ! हमारे यहाँ तो दिन भी होता है।’ वे बोले—‘दिन क्‍या चीज होती है ? कितनी बड़ी चीज होती है ?’ हमने कहा कि— ‘उसमें प्रकाश अधिक रहता है।’ तो वे बोले—‘क्‍या सारे जुगनुओं का प्रकाश एकत्र करें, तो उसके बराबर होगा ?’ हमने कहा–  ‘नहीं।’ फिर बोला कि— ‘यदि दियासलाई का प्रकाश करें, तो उसके बराबर हो जायेगा ?’ आखिर वह बोला कि—‘इस पहाड़ को जलावें, तो इसका प्रकाश उसके बराबर हो जायेगा ?’ अभी तक वह सूर्य को झूठ मानता है, किन्तु जब उसको सूर्य के प्रकाश में लाये, तो वह मुग्ध हो गया; किन्तु पहले तो वह जुगनू को ही श्रेष्ठ मानता था। इसी प्रकार हम जुगनू के प्रकाश के समान सुख-भोगों को ही सर्वश्रेष्ठ मान बैठे हैं, इसीलिये उस पूर्ण सुख का कुछ भी अनुभव नहीं होता है, किन्तु जब जो महापुरुष है, वही हमको ज्ञान में ले जाता है और महापुरुष भी कोई एक ही होता है– मनुष्याणां सहस्रेषु – तो हजारों में कोई एक ही ऐसा है; और जो है, उनको हम पहचान नहीं सकते। हाँ, श्रद्धा से, प्रेम से होता है–

तद्विद्धि  प्रणिपातेन  परिप्रश्‍नेन  सेवया।
उपदेक्ष्‍यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥
(गीता 4/34)

तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानी पुरुषों से, भली प्रकार दण्डवत् प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किये हुए प्रश्‍न द्वारा उस ज्ञान को जान; वे मर्म को जानने वाले ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।

कठोपनिषद् में कहा है– उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।

प्रश्‍न– महात्मा लोग कहते हैं कि—‘सेवा, प्रणाम करो’ तो क्‍या वे (सेवा, प्रणाम) चाहते हैं ?

उत्तर– नहीं, ऐसा भाव (वात्सल्य भाव) (साधक के प्रति) प्रेम से होता है और (उसके कल्याण के) भाव से होता है। बछड़ा प्यार से जाता है तो गाय उसे दूध पिलाती है और वह काटता है तो लात मारती है। सो, बात ऐसी है कि श्रद्धा से मिलती है–

श्रद्धावाँल्लभते  ज्ञानं  तत्परः  संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
(गीता 4/39)

हे अर्जुन ! जितेन्द्रिय, तत्पर हुआ, श्रद्धावान् पुरुष ज्ञान को प्राप्‍त होता है। ज्ञान को प्राप्‍त होकर तत्क्षण भगवत्प्राप्‍तिरूप परम शान्ति को प्राप्‍त हो जाता है।

प्रश्‍न– क्‍या करें, ऐसे पुरुष मिलते नहीं; मिलें, तो पहिचाने नहीं जाते। क्‍या करें ? कोई उपाय हो, तो बतलाइये।

उत्तर– हाँ, इसका ऐसा उपाय है कि महापुरुषों का लिपिबद्ध उपदेश भी इसमें सहायक है।

प्रश्‍न– संसार में मोह करते हैं, सो कैसे छूटे ?

उत्तर– प्रभु से प्रार्थना करना कि हमारा मोह छुड़ा दो; और सत्संग से भी छूटता है । दूसरा उपाय यह है कि प्रभु के सामने खूब रोना– इससे प्रभु को दया आ जाती है।

प्रश्‍न– अब हम प्रभु के पास कहाँ जाएँ ?

उत्तर– अरे ! वह प्रभु सब जगह हैं, प्रभु सर्वत्र हैं–  सर्वतः पाणिपादं ……

हमारे दो हाथ हैं, प्रभु के सब जगह हाथ हैं।
हमारे दो आँख हैं, प्रभु के सब जगह आँख हैं।
हमारे दो कान हैं, प्रभु के सब जगह कान हैं।
सब जगह प्रभु-ही-प्रभु भरे हुए हैं; और कुछ भी नहीं है।

सब जगह कान कैसे होते हैं ?

वह इस प्रकार कि यहाँ कोई नहीं है, तो प्रभु हैं और वह सबकी सुनता है और सब जीवों के हाथ-पैर प्रभु के ही मान लें।

सब ओर हाथ-पैर वाला इस प्रकार है– जैसे एक सोने के ढेले में सब प्रकार के गहने हैं; कोई एक भाई विदेश में जाने लगा तो स्‍त्री ने कहा कि–‘मेरे लिये सोने की बँगड़ी लाना’, लड़की ने कहा कि– ‘मेरे लिये सोने की बाली लाना’, किसी ने अँगूठी आदि कहा। उस पुरुष ने सब की बात सुन ली और बाजार से २५ तोला सोने का एक टुकड़ा खरीद लिया। जब वह घर आया और सबने अपनी-अपनी वस्तु माँगी, तो उसने प्रत्येक को वही सोने का टुकड़ा बतला दिया और सबने जान लिया कि हमारी वस्तु इसमें है; इसी प्रकार परमात्मा – 

सर्वेन्‍द्रियगुणाभासं सर्वेन्‍द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥
(गीता 13/14)

और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्तिरहित और गुणों से अतीत हुआ भी अपनी योगमाया से सबको धारण-पोषण करने वाला और गुणों को भोगने वाला है।

सारी इन्द्रियों का भान सब जगह होता है तथा वही चराचर में है–

बहिरन्तश्च    भूतानामचरं   चरमेव   च।
सूक्ष्‍मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥
(गीता 13/15)

तथा वह परमात्मा चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर-रूप भी वही है और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है तथा अति समीप में और दूर में भी स्थित वही है।

इस प्रकार जब सोने के ढेले में सबको संतोष होता है कि इसमें बींटी, बाली आदि सब है, तो जैसे सोने का तत्त्व है, उसी प्रकार प्रभु का तत्त्व है। 

अभिप्राय यह कि हम यहाँ प्रभु के मस्तक पर पुष्प चढ़ायें या भोजन करायें, देखना, सुनना, प्रणाम करें, तो वह प्रभु को ही मिलेगा।  ‘हे प्रभु ! अब तुम्हारे सिवा कोई नहीं है– त्राहि माम् ! आपकी शरण हूँ ! मेरा कोई नहीं ! आपकी शरण हूँ ! शरण लो ! शरण लो !’

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्‍मूढचेता:।
यच्छ्रेयः  स्यान्निश्चितं  ब्रूहि  तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥
(गीता 2/7)

अर्थ‌– कायरतारूप दोष करके उपहत हुए स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपको पूछता हूँ, जो कुछ निश्चय किया हुआ कल्याणकारक साधन हो, वह मेरे लिये कहिये, क्‍योंकि मैं आपका शिष्य हूँ इसलिये आपके शरण हुए मेरे को शिक्षा दीजिये।

इस प्रकार हम रोज-रोज रोते हैं, किन्तु प्रभु देखते हैं कि अभी रोता तो नहीं है। जैसे बालक झूठा ऐं, ऐं करता है, तो माता दया नहीं करती, सो वह प्रभु तो अन्तर्यामी हैं, हम रोवें और वह मिलें नहीं— यह भला कैसे सम्भव हो सकेगा ? जब प्रभु देखते हैं कि अब सच्चा रोता है, तो दर्शन देते हैं।

प्रश्‍न– हम रोएँ कैसे ? संसार में कभी-कभी दुःख मालूम पड़ता है, तब रोते हैं। क्‍या करें ?

उत्तर– भैया ! नहीं रोओगे, तो फिर कब रोओगे ? देखो, अभी तो थोड़ा रोना पड़ेगा और फिर ! फिर अधिक रोना पड़ेगा।

प्रश्‍न– कोई युक्ति या प्रमाण ऐसा हो कि केवल भगवान् में प्रेम हो।

उत्तर– प्रमाण वाले को एक लौकिक सुख और दूसरा भगवत्सुख की तुलना करनी चाहिये। लौकिक सुख अल्प है, भगवत्सुख अनन्त है। इस प्रकार सोचते ही मालूम होने पर उपरामता होती है; और संसारी आराम भी दुःख-रूप है।

प्रश्‍न– सत्‍संग करते हुए भी वह सुख क्‍यों नहीं मिलता है ?

उत्तर– जब उस सुख की प्राप्‍ति होती है, तो यह लौकिक सुख दुःख हो जाता है, जैसे सूर्य के सामने जुगनू। जिस प्रकार अँधेरी रात्रि में तारे बड़े सुन्दर लगते हैं, एक से बढ़कर एक अधिक चमकीले होते हैं, किन्तु जब चन्द्रमा का प्रकाश होता है, तो उस चाँदनी में उन तारों की रोशनी नाश हो जाती है। यदि सब तारों की रोशनी एकत्र करें, तो भी चाँदनी के समान नहीं होगी; और जब प्रातःकाल सूर्योदय होता है, तो चाँदनी भी अच्छी नहीं लगती है, तो फिर तारों की तो बात ही क्‍या है ! सूर्य के सामने तारे नहीं रहते, इसी प्रकार भगवान् के सामने पाप नहीं रहते। तारे रात्रि में ही दिखते हैं दिन में नहीं। तारे– विषय है और चन्द्रमा– वैराग्य है तथा सूर्य– प्रभु का यथार्थ ज्ञान। प्रभु का आनन्द स्वरूप ही सर्वत्र है। साक्षात् प्रभु का स्वरूप प्राप्‍त होने पर पाप दब जाते हैं। वैराग्य-रूपी चन्द्रमा से विषय-रूप तारे सब फीके पड़ जाते हैं; अँधेरी (अज्ञान) रात्रि में ही तारे सुहावने सुख-रूप प्रतीत होते हैं। चाँदनी (वैराग्य) में तारे फीके पड़ जाते हैं और सूर्योदय (प्रभु को प्राप्‍त) होने पर तो तारों का नाम भी नहीं रहता है। सो वैराग्यवान् पुरुषों के संग से वैराग्य होता है और चोर के संग से चोर और व्यापारी के साथ रहने से उसी प्रकार की बुद्धि होगी। वैराग्‍य भोगों के संग से नहीं मिलेगा। भक्ति से तो आनन्द होता है। प्रभु से प्रार्थना करने पर वे असम्भव को भी सम्भव करते हैं; और बिना वृक्ष के कहीं पहले फल मिल सकता है ? इसलिये भक्ति (वृक्ष) से आनन्द (फल) मिलेगा, अपार आनन्द मिलेगा।

सुखमात्यन्‍तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितिश्चलति तत्त्वतः॥
(गीता 6/21)

इन्द्रियों से अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित हुआ यह योगी भगवत्स्वरूप से नहीं चलायमान होता है, वह अत्यन्त सुख को प्राप्‍त होता है। बुद्धि के द्वारा ही अतीन्द्रिय है, जैसे प्रह्लाद आग में भी आनन्द करता था। एक आदमी को एक दुकान पर एक लाख का मुनाफा निकला और दूसरी पर दो हजार का, तो वह दो हजार को भी छोड़ेगा नहीं, क्‍योंकि लोभ है, किन्तु जब उसको मालूम पड़ जायेगा कि दो हजार के काम सँभालने में एक लाख भी चले जायेंगे, तो वह दो हजार को छोड़ देगा, क्‍योंकि कबीरदासजी कहते हैं–

कबिरा मन तो एक है, भावे तहाँ लगाय।
भावे हरि की भक्ति कर, भावे विषय लगाय॥

मन तो एक ही है। या तो उससे भजन ही कर लो, या तो भोग ही भोगो।

प्रश्‍न– तो क्‍या दोनों एक साथ नहीं होंगे ?

उत्तर– हाँ, राजा जनक के समान होने पर दोनों एक ही मन से होते हैं। इसी प्रकार राजा अम्बरीष ने भी किया, परन्तु बात यह थी कि वे राज में थे, किन्‍तु राज भोगते नहीं थे। जैसे सर्प का विष निकालकर उसको भले ही गले में डाल लो, कुछ असर नहीं पड़ेगा, इसी प्रकार संसाररूपी सर्प के जनक, अम्बरीष आदि ने दाँत तोड़ दिये थे, इसीलिये भोग उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे।

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्‍द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
(गीता 2/64)

परन्तु स्वाधीन अन्तःकरण वाला पुरुष राग-द्वेष से रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता अर्थात् स्वच्छता को प्राप्‍त होता है।

राग-द्वेष से रहित महान् पुरुष जो विषयों में रमते हैं, विषय उनको नहीं सताते –

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्‍यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥
(गीता 4/26)

और अन्य योगीजन श्रौत्रादिक सब इन्द्रियों को संयम अर्थात् स्वाधीनता-रूप अग्‍नि में हवन करते हैं, अर्थात् इन्द्रियों को विषयों से रोककर अपने वश में कर लेते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादिक विषयों को इन्द्रिय-रूप अग्‍नि में हवन करते हैं, अर्थात् राग-द्वेषरहित इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करते हुए भी भस्म-रूप करते हैं।

व्यवहार करते-करते आहुति देते हैं। जैसे अग्नि में दी हुई आहुति भस्म हो जाती है और भस्मी का कुछ नहीं होता, ऐसे ही उन योगी पुरुषों का भोजन का यह प्रयोजन कि वे बिना स्वाद ही लेते थे। उनके भीतर जो समता है, वह अमृत है और विषमता है, वह विष है– 

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्‍तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः  स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥
(गीता 12/19)

तथा जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है, अर्थात् ईश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करने वाला है एवं जिस-किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित है, वह स्थिर बुद्धि वाला, भक्तिमान् पुरुष मेरे को प्रिय है।

राग-द्वेष रहित होना ही अमृत है। लोग राग-द्वेष से संसारी भोग भोग रहे हैं, वे लोग नहीं; वे तो राग-द्वेषरहित भोगते थे। जिसका किसी पदार्थ में मोह नहीं, वही उत्तम पुरूष है–

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥
(गीता 2/57)

जो पुरुष सर्वत्र स्‍नेहरहित हुआ उस-उस शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्‍त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।

जनक, अश्वपति आदि संसार का आस्वादन नहीं लेते थे; वे नृप थे।

जो आत्मा में रत है, उसको परम शान्ति है।

एक समय में एक ही वस्तु, एक ही विषय प्राप्‍त होता है। जब यह मालूम हुआ कि प्रभु-प्राप्‍ति में विषय बाधक हैं, दुःख-रूप हैं, तो वह शीघ्र त्याग देता है, उनसे घृणा करने लगता है और शास्‍त्रों में पढ़ी हुई और महापुरुषों द्वारा सुनी हुई बात सीधी मालूम पड़ती है। वैराग्य का आनन्द अति उत्तम आनन्द है। त्रिलोकी का आनन्द भी उसके सामने तुच्छ है। विरागी को देखते ही हमारा मस्तक उनके चरणों में पड़ जाता है। यदि हम भोगी को देखेंगे, तो हमारा मस्तक नहीं झुकेगा, चाहे वह राजा ही हो और संसार में जो सुख है, वह क्षणिक है। यदि किसी महात्मा में वैराग्य नहीं हुआ तो वह किस काम का ? वर्ण, आश्रम, धर्म, आचार उत्तम होने पर भी बिना वैराग्य वह किसी काम का नहीं है।

किसी गृहस्थ ने एक साधु से कहा—‘महाराज ! मेरा घर पवित्र कीजिये।’ साधु बोले—‘भाई ! रसोई क्‍या है ?’ गृहस्थी बोले–  ‘हलुआ, पूड़ी है महाराज !’ साधु बोले— ‘आज तो खीर-पूड़ी होना।’ उसने कहा—‘महाराज ! रोज इस प्रकार खीर बनाने की हमारी शक्ति नहीं है।’

तब साधु बोले—‘भाई ! हम तो सूखी रोटी खा लेंगे।’ तब तो गृहस्थी बोला—‘रोज-रोज बना दूँगा।’ यानी खीर के लिये श्रद्धा नहीं और रोटी के लिये रोज-रोज श्रद्धा हो गयी।

दूसरा बोला—‘महाराज ! भोजन कीजिये।’ तो महाराज बोले–‘दक्षिणा क्‍या है ?’ वह बोला—‘साधु दक्षिणा नहीं लेते, सो मैं वस्‍त्र दूँगा’ और एक वस्‍त्र दिखाया। साधुजी बोले—‘यह नहीं, कम्बल हो; सामने ठंड आ रही है।’ तो अश्रद्धा हो जाती है।

त्याग दो प्रकार के होते हैं— हठ का त्याग और विरक्तता। हठ के त्याग में मान-बड़ाई भी मिलती है और सुख भी मिलता है; विरक्त के त्याग में तो वैराग्य का सुख विलक्षण ही है। संसार के जो पदार्थ उत्तम दिखते हैं, वैरागी को उनसे घृणा होती है। संसारी जिसको त्याग देते हैं, वैरागी को वह प्यारे लगते हैं। जिस वस्तु पर हमारा प्रेम होता है, वैरागी को वह अंगारे के समान भासता है। यदि किसी ने पुष्प की माला वैरागी को डाली, तो वह खुश होता ही नहीं, अपितु अपमान समझता है, ऐसे पुरुष को ही वैरागी समझो; केवल सिर मुँडा लेने से ही वैरागी नहीं होते, किन्तु निन्दा नहीं करनी चाहिये, असल बात तो यह है कि राग के अभाव का नाम वैराग्य है। मोह का नाश होना ही वैराग्य है और वैराग्य ही आनन्द है। यही वैराग्य अन्तिम नहीं है; और तीव्र वैराग्य ही भगवत्प्राप्‍ति कराता है।

प्रश्‍न– वैराग्य कैसे हो ? सुनते तो हैं, समझ भी पड़ता है, किन्तु होता नहीं है ?

उत्तर– विश्वास करके विवेक द्वारा संसारी वृत्ति हटाओ; स्वार्थरहित सेवा करने से, स्वार्थरहित भक्ति करने से अन्त:करण शुद्ध होता है और अन्तःकरण शुद्ध होने पर वैराग्य हो जाता है। वैराग्यवान् पुरुषों का साथ, उनके संग से भी वैराग्य होता है। अहा ! वैराग्यवान् पुरुष कहते हैं कि इसके बाद उपरामता होती है और तभी ध्यान होता है। एक वैराग्य है, तो और कोई युक्ति की आवश्यकता नहीं। हजार उपाय कीजिये, बिना वैराग्य बिना वैराग्य मुक्ति नहीं। बिना वैराग्य साधन भी नहीं होता। जिस प्रकार बने, वैराग्य को तो प्राण देने पर भी नहीं छोड़ना चाहिये, क्‍योंकि इससे कल्याण होता है । यदि नहीं भी हो, तो गीता के अनुसार अथवा “योगिनामेव–” धन, स्‍त्री, प्राणों के त्याग और त्रिलोकी के त्याग से भी वैराग्य मिले, तो ग्राह्य है। 

सार बात यह है कि प्रश्‍न था— संसार की आसक्ति, राग कैसे छूटे ? सो वैराग्य से ही संसार छूटता है।

प्रभु के सामने रोने से कि हे प्रभु ! मेरा प्रेम आप में हो।

भजन ध्यान से अन्तःकरण पवित्र होकर वैराग्य होता है और वैराग्य होकर प्रेम होता है।

निष्काम सेवा से वैराग्य होता है।

संसार में दुःख-दोष देखने से भी वैराग्य होता है।