Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

हरदम भगवान् का स्मरण रखें

दिनांक १८-४-१९३७, साढ़े ८ से साढ़े १० बजे तक

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्‍त्‍वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥
(गीता ८/५)

जो अन्त समय में मन से मेरा चिन्तन, ध्यान करता हुआ शरीर त्याग करके जाता है वह मेरे धाम को ही जाता है, क्‍योंकि–

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥
(गीता ८/६)

इसलिए अन्त समय में यदि देवता का चिन्तन रहा, तो उसी के लोक में जायेगा, भगवान् का रहा तो भगवान् में लीन होगा, या अन्य जिसका चिन्तन करेगा, वहीं जायेगा। इसलिए हे अर्जुन ! इस रीति के अनुसार तू सदैव मेरा स्मरण बुद्धि से और मन से ध्यान कर, तो तू मुझ को ही प्राप्‍त होगा।

हम भगवान् पर विश्वास नहीं करते, केवल बात ही करते हैं। यदि विश्वास करें तो वह कभी भी दूर नहीं है। अपना इष्ट जो भी हो, एक ही रखें और उनकी आज्ञा से (उनकी राजी से) दूसरे अन्य देवताओं की पूजा करें; तथा अन्य देवताओं की पूजा करते हुए भी उनसे अपने इष्टदेव का प्रेम ही माँगें; और कुछ नहीं। हमको यह विश्वास हो जाय कि इनकी कृपा से भगवान् में प्रेम हो जायेगा, क्‍योंकि ये भगवान् के समीप रहते हैं, इसलिए इनसे इष्ट का प्रेम माँगने में हानि नहीं है। यदि नहीं भी माँगो, तो और भी उत्तम है। कार्य करते जाओ, तो प्रेम स्वतः ही होगा। प्रभु से प्रेम माँगना सकाम की गिनती में नहीं है। भगवान् पर जिसका जितना प्रेम है, भगवान् का उस पर उतना ही अधिक प्रेम है। जिस प्रकार पतिव्रता स्‍त्री पति से बिछुड़ने पर प्रत्येक से पति के विषय में ही पूछती है, तो ऐसी बात सुनकर उसका पति बड़ा प्रसन्न होता है और कहता है कि– ‘अहा ! इसका कितना प्रेम है।’ इसीलिए भगवान् से ऐसी ही प्रार्थना करो कि– ‘हे भगवन् ! आप मुझे आपमें प्रेम दो, आपका चिन्तन दो।’

चिन्तन और प्रेम एक ही वस्तु है। चिन्तन से प्रेम होता है और प्रेम से चिन्तन होता है; और आतुरता, व्याकुलता से भगवान् शीघ्र मिलते हैं। हमें कहना भर चाहिए कि– ‘प्रभु ! मेरे में शक्ति नहीं है। हे कृपालु, दयालु प्रभु ! दया करो; प्रेम दो भगवन्।’ इस प्रकार व्याकुलभाव से प्रार्थना करनी चाहिए; और एक बात यह भी है– भगवान् ने कहा है कि ‘मुझे ज्ञान, यज्ञ, तप आदि रोक नहीं सकते, किन्तु सत्संगति में मुझे रुकना पड़ता है।’ केवल भगवान् के प्रेम, रहस्य की बात ही करने की चेष्टा करते रहना चाहिए। भगवान् ने भी कहा है– बोधयन्तः परस्परम् (गीता १०/९)– कथन करना भी सत्संग है। मच्चित्ता मद्गतप्राणा– मेरे प्रेम, तत्त्व, रहस्य, प्रभाव का प्रचार करना भी सत्संग है और परस्पर वार्तालाप करना भी सत्संग है। भक्तिमार्ग में सब सुन्दर है। अधिक श्‍लोक बस यही है–

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
(गीता १०/९-१०)

अर्थात्– और वे निरन्तर मेरे में मन लगाने वाले और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन, सदा ही मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरन्तर रमण करते हैं। उन निरन्तर मेरे ध्यान में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञान-रूप योग देता हूँ कि जिससे वे मेरे को ही प्राप्‍त होते हैं।

यह श्लोक गीताभर में एक ही है। इसमें श्लोक ९ का फल १० है, जो इस प्रकार है– ‘मैं उसको ऐसा ज्ञान देता हूँ कि वह मुझको प्राप्‍त हो जाता है।’ मच्चित्ता ही अनन्यचेताः सततम् है। किसी ने कहा कि मछली-सा प्रेम, व्याकुलता होनी चाहिए, तो यहाँ जल तो प्रभु हैं और मछली हमारा मन होना चाहिए– एक क्षण भी जल से अलग नहीं होना; होते ही व्याकुलता होना। जिसके विस्मरण में परम व्याकुलता हो, वही मच्चित्ता है। हर समय भगवान् का स्मरण करने वाले की एक क्षण भी भूल हो जाय तो वह बड़ा पश्चाताप करता है, जिस प्रकार से किसी मनुष्य ने सोने की खान में मजदूर लगाए हैं, लाखों मन सोना रोज आता है और यदि एक दिन मजदूर नहीं मिलें, तो वह बड़ा पश्चात्ताप करता है। भक्त कहता है कि– ‘हे भगवन् ! मैं क्‍या करूँ ? यह मन बड़ा पाजी है। क्‍या करूँ भगवन् ? मरूँ ? कटूँ ? यह आपको भुला देता है। प्रभु दया करो; क्षमा करो।’

इस प्रकार जिसको दुःख होगा, पश्चात्ताप होगा, उसका विस्मरण कैसे होगा भला। उनकी विस्मृति ही हानि है। सच्चा पश्चात्ताप होना ही विश्वास है। विश्वास होने पर वह भूला नहीं जा सकता है। भगवान् में ही चित्त रहे, इसका कोई उदाहरण नहीं हैं; स्‍त्री-संग का आनन्द भी नहीं, देवताओं का भी युक्तिसंगत नहीं, क्‍योंकि ये पदार्थ तो मच्चित्ता वाले को घृणित दिखते हैं।

त्रिलोकी का सुखा नरक-वत् प्रतीत होता है और इतनी बात तो वैराग्य से ही हो जाती है। वैराग्य से अधिक आनन्द उपरामता में है और उपरामता भी इतनी होवे कि संसार में मन जाए ही नहीं। उपरामता से अधिक लाभ ध्यान में है और ध्यान से अधिक लाभ उसकी प्राप्‍ति में है।

गोपियाँ जो कुछ भी वार्तालाप करती थीं, विनोद करती थीं तो केवल भगवान् की ही करती थीं।

कभी-कभी कटाक्ष भी करतीं कि– ‘सखि री ! यह काला भौंरा देखते ही कृष्ण याद आता है। सखि ! ऐसा कोई उपाय बताओ कि कृष्ण को हम भूल जायँ। वह तो बड़ा निर्दयी है।’ इस प्रकार कटाक्ष किया करती थीं, परन्तु यह प्रेम का है। भला, आज हम यहाँ बैठे हैं– स्वर्गाश्रम में, हमें कुछ भी काम नहीं है, बेफिक्र होकर आए हैं, फिर भी प्रेम के अभाव से ही हमारा भगवान् में प्रेम नहीं होता है।

व्याकुलता के लिए आदर्श है– राम तथा सीता का। सीता हरण के पश्चात् रामचन्द्रजी सीता को ढूँढने निकलते हैं। प्रत्येक वृक्ष को पूछते हैं, पत्तों को पूछते हैं– ‘भैया ! क्‍या तुमने सीता को, वैदेही को देखा है ?’ रोते हैं, व्याकुल होते हैं, यह विरह-व्याकुलता से भगवान् हमको शिक्षा देते हैं कि जैसे सीता हमारे लिए व्याकुल हो रही है, मैं उससे अधिक उसके लिए व्याकुल हो रहा हूँ।

इसी प्रकार भगवान् हमको कहते हैं कि– ‘तुम मेरे लिए व्याकुल होते रहोगे, तो मैं भी तुम्हारे लिए व्याकुल होता रहूँगा। तुम मेरे बिना नहीं रुकोगे, तो मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता हूँ।’ जब वर्षा ऋतु आई और मोर बोलने लगे, तो रामचन्द्रजी को सीता की याद आती है।

प्रेम भय से भी होता है जैसे– मारीच को, कंस को। मारीच तो कहता है कि– ‘जब ‘र’ का शब्द आता है, तो मैं डर जाता हूँ।’ भय से चिन्‍तन करने की शिक्षा मारीच से लेनी चाहिए। हमें तो उससे भी अधिक भय मानना चाहिए, क्‍योंकि हमको तो चौरासी लाख योनियों का दुःख ही नहीं, महा-दुःख होगा। हमेशा मौत की स्मृति इसीलिए करना चाहिए कि अन्त समय में नारायण की याद हो आती है कि– ‘चेतो ! मृत्यु आ गई ! नारायण का नाम लो।’

जिस प्रकार मकान में साँप घुस जाय और हमसे पकड़ में नहीं आवे या हजारों रुपए साथ में हों और जंगल में रात हो जाय तो चोर-डाकू का भय रहता है, किन्तु यदि भय ही करना होवे तो मृत्यु का करना चाहिए और यदि प्रेम करना हो, तो प्रभु से करना चाहिए। भगवान् से प्रेम करने की विधि है, पर देर करने की नहीं है। हाँ, प्रेम करने में देर हो, तो आपत्ति नहीं है; और प्रेम भी ऐसा हो, जैसा हमारा प्रेम हमारी देह में है, इससे भी अधिक प्रेम होना चाहिए।

प्राण अर्पण करना यानी हमारा जीवन भगवान् के अर्पण करना है। कोई कह रहा कि हमने सुना है कि– मनुष्य शरीर को भगवान् की प्राप्‍ति होगी, इसलिए यदि हमारा कोई प्राण लेकर भगवान् से मिला देवे, तो हम प्राण देने को तैयार हैं।

जिस प्रकार तुलसीदासजी भाले पर कूद गए थे और भगवान् ने बचाया था। सो, वहाँ तो तुलसीदासजी को विश्वास था कि मेरे प्राण जा नहीं सकते। हमको तो शास्‍त्रों में कोई प्रमाण नहीं मिलता और प्राण गँवाने को तो शास्‍त्र भी निषेध करते हैं कि प्राण नहीं गँवाने चाहिएँ। इन्द्रियों का नाम भी प्राण है, इनको भी भगवान् में लगाना चाहिए। एक तरफ तो भगवान् हों और एक तरफ प्राण हों, तो प्राण त्याग कर देना चाहिए। हमारा जीवन केवल प्रभु के निमित्त ही है; और हमारा कोई भी प्रयोजन नहीं है। भगवान् मिल जायँ, बस। अपना प्राण भगवान् के लिए लगा देवे, वही मद्गतप्राणा है। उसका प्रत्येक कार्य खाना-पीना, सोना-बैठना सब कुछ भगवत् हेतु ही है। उसके पास चर्चा भी भगवान् की ही है और यह सुन-सुनकर वह मुग्ध होता रहता है। और तो और, वह प्रेम में पागल हो जाता है– ‘अहा ! प्रभु की दया, प्रेम, महिमा पर खयाल करो कि वे कितने दयालु हैं।’ हम उनके वियोग को सहन कर रहे हैं, इसीलिए वे भी सहन कर रहे हैं। एक प्रेमी कहता है– ‘हे भगवन् ! आपके गुण, प्रेम, प्रभाव की कथा में ही हमारा काल बीते; सत्संग ही में हमारा समय बीते; आपका दर्शन चाहे मत दीजिए।’

प्रभु में रमण ऐसा करे, जिस प्रकार मछली जल में रमण करती है; और जिसमें रमण करे, उसी में संतुष्ट रहे, उससे अधिक कुछ भी नहीं समझे।

जीवन्मुक्त महात्मा कभी भी संसार से लुभायमान नहीं होते हैं। उनको तो प्रेम से अधिक कुछ भी प्रतीत नहीं होता है– तेषां सतत युक्तानाम् .....। प्रभु से प्रेम होने पर उनकी स्थिति अद्भुत हो जाती है। उनके कान में यदि भगवान् का नाम कहीं से सुनाई पड़ा, तो वे दीपक पर पतंगे की भाँति उसी जगह पर दौड़ पड़ते हैं। उनकी व्याकुलता का ठिकाना नहीं रहता और कहते हैं कि– ‘भगवन् ! आपके गुण प्रभाव की बातें होती रहें; और हमको नरक भी देओ तो कुछ हानि नहीं; बस, वहाँ भी वही सत्संग और गुणानुवाद हों।’ प्रेम हुए बिना ऐसी स्थिति नहीं होती है। गोपियों ने नारद से पूछा कि– ‘हमारी भी कभी सुधि लेते हैं ? याद करते हैं ?’ जब बार-बार पूछने पर नारदजी केवल हाँ भर लेते हैं, तो इतने में तो वे मुग्ध हो जाती हैं ! भगवान् से ऐसा प्रेम होवे कि वे प्रेम में बँध जावें। और जहाँ कीर्तन होता है, वहाँ भी भगवान् रहते हैं, आते हैं; किन्तु हमारे में इतना प्रेम नहीं है, जिसके बल पर भगवान् प्रकट हों। हाँ, आसरा यह रहता है कि भगवान् दीनबन्धु हैं, दयालु हैं, हमारी सुधि लेते हैं।

भगवान् न आवें, तो न सही; भले ही उनके धाम में बैठे रहें, किन्तु हम तो उनके प्रेम में ही मग्‍न रहें। दर्शन का फल हम कथन-कीर्तन से ही ले लेवें। उस समय यदि भगवान् आ भी जावें, तो उनका भी तिरस्कार कर देवें। प्रेमभरी ऐसी चर्चा चलावें कि वे लुक-छिपकर हमारी बातें सुनें और जबर्दस्ती प्रकट हो जावें। तब उनको कह देवें कि– ‘बस, अब चले जाओ यहाँ से।’ जिस प्रकार नरसी मेहताजी कहते हैं– ‘ले जाव तेरी गाँठड़ी।’ कभी-कभी भगवान् अचानक आते हैं।

कर्म से भगवान् का आना– प्रेम-विह्वलता, रोना आदि।

अचानक आना– भक्तों के लिए जैसे प्रह्लादजी आदि। बे-परवाह बनो जैसे ध्रुवजी सरीखे; तो भगवान् व्याकुलता से, प्रेम से, भय से भी आते हैं। सूरदास के लिए तो बिना बुलाए ही आ गए कि कहीं यह गड्ढे में न गिर जाए, इसलिए हाथ पकड़ा, तो सूरदास को बड़ा आनन्द हुआ। जब भगवान् ने हाथ छुड़ाया, तो बिगड़ गए और सुना दिया– बाँह छुड़ाए जात हो, निबल जान कर मोहि। हृदय में भगवान् को बैठा लेना कुछ कठिन है, किन्तु चर्चा करना कुछ सरल है। प्रेम बढ़ाना कुछ सरल है, पर यह तो बस की बात है। चर्चा करने से भी प्रेम बढ़ेगा। सरल-से-सरल उपाय करने लायक सुगम कीर्तन है। उससे शीघ्र प्रगट होते हैं। इसमें तो मन की भी गर्ज नहीं रहती है, चाहे वश होवे कि नहीं। कीर्तन से ही भगवान् प्रसन्न होते हैं। खूब प्रेम होवे, रोमाञ्च होने लगे, तब भगवान् शीघ्र आते हैं– भक्त और महापुरुषों का ऐसा सिद्धान्त है।

ऐसा निश्चय करे कि– ‘भगवन् ! तुम्हारा मिलना आसान है।’  वह आसान है, तो वह आसान भी हो जाता है। यदि भगवान् का आना कठिन होवे, तो फिर लोगों को विश्वास कम होने लगेगा, किन्तु आसान होने से विश्वास होता है और प्रयत्‍न होता है। सबसे जल्दी मिलने का उपाय है– प्रेम-विह्वलता। रोवे, पुकारे तो शीघ्र आते हैं।