गीता के तत्त्व को जानने मात्र से मुक्ति
गीता के तत्त्व को जानने मात्र से मुक्ति हो जाती है। जानना उसे कहते हैं– जैसे सत्य बोलना चाहिये, यह सुनकर हम झूठ न बोलें– तो समझना चाहिये कि हम सत्य को जान गये; हमने सुना कि दूध में जहर है– इस बात का हमको तभी विश्वास हुआ माना जाय, जब हम दूध नहीं पीयें। यदि पीते हैं, तो हमारा उसमें विश्वास नहीं है।
परमात्मा सर्वत्र निराकार और साकार रूप में हैं– यह बात समझने पर हमेशा ही हमें परमात्मा के दर्शन होते रहेंगे और आनन्द का पार नहीं रहेगा; बादल के समान तो साकार हैं और आकाश के समान निराकार हैं।
गीता में सातवें अध्याय से बारहवें अध्याय तक भक्ति का वर्णन है। प्रत्येक अध्याय में भिन्न प्रकार से व्यक्त का वर्णन किया गया है। सातवें अध्याय में सबका कारण हूँ; नवें में सब कुछ मैं ही हूँ; दसवें में सार-सार मैं ही हूँ; ग्यारहवें में सब कुछ मेरे में ही है। एक ही सिद्धान्त को मानते हुए भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन किया है।
सातवें में कारण-रूप में कैसे हूँ– ‘सारे संसार में व्यापक हूँ, जैसे जल में रस, वेदों में प्रणव, आकाश में शब्द, सम्पूर्ण प्राणियों में उनका जीवन’; जबकि रस, प्रणव, शब्द और जीवन को छोड़कर शेष बचा ही क्या रहता है, इसलिये कारण-रूप से सब भगवान् ही हैं।
आठवें और नवें अध्याय में दूसरे प्रकार से वर्णन है– ‘जड़ बात को बाद देकर (exclude करके) चैतन्य मैं ही हूँ।’ ‘परम दिव्य को प्राप्त होता है।’ वह पुरूष कैसा है ? – कविं पुराण मनुशासितार….। परम पुरुष की आगे जाकर एकता भी की है–परस्तस्मात्तुभावोन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः। उस परमात्मा को अव्यय, अव्यक्त, अक्षर कहते हैं।
अव्यक्त मूर्ति कहकर नवें अध्याय में कहते हैं– मया ततमिदं सर्वम्।
नवें अध्याय में बतलाते हैं कि– ‘मैं ही वायु की तरह सब जगह व्यापक हूँ। सारा संसार मेरे में ही है।’ फिर कहते हैं कि–‘सब कुछ मेरा ही स्वरूप है। जल में बर्फ की तरह सारे भूत प्राणी मेरे में हैं।’
दसवें में अर्जुन ने पूछा–‘किन-किन भावों में आपका चिन्तन करूँ ?’ तब भगवान् ने सार-सार बात बतलायी और कहा कि–‘छोड़ सब को; यह सब मेरे एक अंश में स्थित है।’
ग्यारहवें में फिर विश्वरूप दिखाया कि– ‘सब मेरे में ही है।’
जो जल का तत्त्व समझ लेता है, उसे बादल में भी जल दिखता है; जिस प्रकार आकाश से ही सब की उत्पत्ति है और आकाश में ही सब है।