Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

ध्यान का विषय

चैत्र शुक्ल १० सम्वत् १९९३ (दिनांक १-४-१९३६), प्रातःकाल १० बजेस्वर्गाश्रम

ध्यान में सबसे अधिक सहायक वैराग्य है। उत्तम स्थान पर आसन स्थापन करना चाहिए और यदि भगवत्-चिन्तन करते हुए ही हमारी मृत्यु हो जावे, तो इससे अधिक उत्तम कोई वस्तु नहीं है। मन की सारी कामनाएँ त्याग दे। यदि आलस्य आवे, तो आँखें खोलकर और आलस्य नहीं आवे, तो आँखें बंद करके ध्यान लगावे और सोचे कि– ‘यहाँ अटल शान्ति है।’ ज्ञान की बाहुल्यता में आलस्य नहीं रहता है।

प्रशान्तात्मा  विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते  स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥
(गीता ६/१४)

अर्थात्– ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भलीभाँति शान्त अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर, मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होवे।

युक्त आसीत मत्परः से कहते हैं कि– ‘मेरी शरण होकर बैठे’ –इस प्रकार मन को लगावे। यदि नहीं लगे, तो समझावे कि– ‘धिक्‍कार है ! अरे, भला राम से अधिक क्‍या कुछ है ?’

अचिन्‍त्य ध्यान के लिए–

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्‍तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्‍ग्रहम्॥
(गीता ३/२४-२५)

अर्थात् यदि मैं कर्म न करूँ तो यह सब लोक भ्रष्ट हो जाय और मैं वर्णसंकर का करने वाला होऊँ तथा इस सारी प्रजा को हनन करूँ अर्थात् मारनेवाला बनूँ। इसलिए हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही अनासक्त हुआ विद्वान् भी लोक शिक्षा को चाहता हुआ कर्म करे।

(३/२४-२५) का अर्थ उत्तम है। ध्यान में यदि भक्ति होवे, तो अधिक उत्तम है। ऐसे ध्यान में गीता १०/९ का श्लोक सहायक है।

प्रश्न– प्रभु का ध्यान करते हुए भी आनन्द नहीं आता है; क्‍या करें ?

उत्तर– मन्दिर में जाकर प्रतिदिन एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो..... – इस प्रकार प्रतिदिन करने से उत्तम लाभ होता है। यदि सुतीक्ष्ण, हनुमान् आदि के समान लाभ लेना हो, तो मन्दिर की शोभा नहीं देखता हो और केवल स्वरूप का निरीक्षण करना हो, तो केवल स्वरूप का निरन्तर स्मरण करना चाहिए।

नाम का फल– पापों का नाश करता है।

रामायण पढ़ते समय मेरे सामने तो रामजी की मूर्ति आ जाती है। राम का उच्चारण करते ही उनका स्वरूप सामने आ जाना चाहिए और स्वरूप सामने आते ही जीवनी भी सामने आनी चाहिए ही।

जब आसक्तियों का अभाव होता है, तब चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। हम जिस मूर्ति को देखते हैं, उससे भी अधिक उनका स्वरूप है, तो मूर्ति को देखकर हमको भगवान् का स्वरूप याद आ जाना चाहिए।

जप मानसिक से बढ़कर उसको गुप्‍त रखना है; उससे अधिक ध्यान और अर्थसहित है; और उससे ज्यादा निष्कामभाव का महत्त्व है। शरीर में जितने रोम (रोएँ) हैं, वे जपते-जपते खड़े हो जावें, तो समझना चाहिए कि यह सबसे अधिक है। सबमें श्रद्धा ही प्रधान है। रग-रग बोले रामजी ! निर्दोष भी भगवान् की दया से होते हैं। सब तरफ से मन हटकर केवल भगवान् में रह जाय, उसका  उपाय उत्कण्ठा है। जैसे भूखे को रोटी की और प्यासे को पानी की उत्कण्ठा होती है, इसी प्रकार भगवान् की उत्कण्ठा होने से भगवान् मिलते हैं। बीमारी में रोटी खारी लगती है और बीमारी मिटने पर मीठी लगती है; हमारी भगवान् में रुचि होना बीमारी मिटना है। हमको बीमारी है– दुर्गुण, पाप कर्म। इनका कारण है– हृदय में संचित कर्म; और इनकी औषधि है– भगवान् के नामों का जप; इससे सब पापों का नाश; और पाप-नाश होते ही भगवान् से मिलने की उत्कण्ठा। भगवान् के जल्दी मिलने का उपाय है– उत्कण्ठा और इच्छा। इनके बढ़ने से भगवान् शीघ्र मिलते हैं। सदैव कहता रहे– ‘भगवान् कैसे मिलें’, ‘भगवान् कैसे मिलें ?’ बस, जो कोई भी मिले, उसको यही पूछे; और कुछ पूछे ही नहीं। एक आदमी एक महात्मा के पास गया तो वह (महात्मा) बोले कि– ‘पंचाग्‍नि तपो।’ तो वही किया। दूसरे आए, वह बोले कि– ‘केवल दुग्ध-पान करो, अन्न छोड़ो।’ तो वह भी किया। तीसरे आए, वह बोले कि– ‘कुछ मत खाओ, उपवास करो।’ उसने वह भी किया। चौथे बोले– ‘इस प्रकार भगवान् नहीं मिलते, बड़ी कठिनाई से मिलते हैं; जल भी छोड़ दो तो मिलेंगे; और भजन किया करो।’ यह भी किया। पाँचवें बोले– ‘बड़ी कठिन तपस्या से मिलते हैं भैया ! प्रातःकाल से सायँकाल तक सूर्य की आराधना करो।’ वह भी किया। छठवें बोले– ‘भैया ! श्‍वास भी मत लो। ऐसा ध्यान लगाओ, जिससे अपनी सुध भी नहीं रहे।’ वह आदमी सब करता गया कि बस, किसी प्रकार से भगवान् मिलें, भगवान् मिलें।

भगवान् ने देखा कि अब बिना मिले यह नहीं मानेगा, तो बस, झट आ गए। वह भगवान् से कहता है कि– ‘मैंने ऐसा सुना है कि आप तो बड़ी कठिनता से मिलते हैं; और आप तो शीघ्र ही पधारे ?’ भगवान् ने कहा कि– ‘भैया ! मैंने सोचा कि तुम नहीं मानोगे, हठ नहीं छोड़ोगे, इसलिए आ गया।’ मतलब यह नहीं है कि इस प्रकार सबका ही कहना करे, किन्तु भावना श्रेष्ठ होनी चाहिए। जो ऐसी धारणा कर ले कि ‘हमको कितनी भी कठिनाई हो, भगवान् से मिलेंगे’ तो अवश्य मिलेंगे। यदि हमको मिलना ही है, तो कठिनाई क्‍या चीज है ?

जब भगवान् देख लेते हैं कि यह धन्धे में लगा है, मेरे बिना इसका काम चल रहा है, तो वे और भी ढील दे देते हैं। हिम्मत और शूरवीरता से भगवान् शीघ्र मिलते हैं। शूरवीरता ऐसी होवे की अपने-आपको होम देवे। बस, यही धारणा रहे कि प्राण जायँ तो भले ही जायँ, पर भगवान् मिलने चाहिएँ। कटिबद्धता भगवान् से ही माँगे, वही देते हैं। जब दे देते हैं, तो भय किस बात का ? अपने-आपको अर्पण करना ही शरण है। 

सुन्दर सोई सूरमा, लोट पोट हो जाय। ओट कछु राखे नहीं, चोट मुँह पर खाय॥

प्रह्लाद के समान अटल विश्वासी हो जाय। रतनकुँवर के समान हँसता रहे। भगवान् शूरवीर बनाने के लिए ही, केवल पकाने के लिए ही उसकी परीक्षा लेते हैं, जिससे फेल नहीं होवे।