Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

धर्मपालन एवं महापुरुषों की महिमा का वर्णन

बैशाख बदी 5, सम्वत् 1993, (दिनांक  12-4-1936)स्वर्गाश्रम

वैश्य का अन्न पवित्र कैसे हो ? ‘कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्’ – यही काम भगवान् ने वैश्य के लिये बतलाया है। अगर ऐसे काम न चले, तो नौकरी, शिल्पकारी आदि करके चलाया जा सकता है, परन्तु वह दो नम्बर है।

न्याय से व्यापार चलाने में धर्म का पालन होता है। जिसमें धर्म का पालन होता है, वही व्यापार पवित्र है। न्याय से व्यापार चलाने से कठिनता जरूर पड़ती है, पर वह कठिनता पहले ही पड़ती है, पीछे कोई कठिनता नहीं पड़ती है।

एक तरफ प्राण और एक तरफ धर्म हो, तो धर्म-पालन के लिये प्राण भी त्याग देना चाहिये।

एक तरफ लाख रुपए और एक तरफ धर्म-पालन हो, तो लाख रूपयों को पेशाब के समान समझकर धर्म का पालन करना चाहिये। 

जैसे राजा हरिश्‍चन्द्र धर्म के लिये अपनी स्‍त्री का आधा वस्‍त्र काटने को तैयार हैं; इतनी आपत्तिकाल में भी राजा हरिश्‍चन्द्र ने अपना धर्म नहीं छोड़ा ! जब राजा हरिश्चन्द्र ने अपनी स्‍त्री का वस्‍त्र काटना चाहा, फिर क्‍या देर थी ? भगवान् उसी समय प्रकट हो गये और कहा कि–‘हे हरिश्चन्द्र ! तेरी इच्छा हो, सो वर माँग !’ हरिश्‍चन्द्र भगवान् से वर माँगता है कि– ‘हे नाथ ! मेरी समस्त नगरी वैकुण्ठ में चली जाय।’ अहा ! धर्म-पालन का कितना महत्त्व है कि एक मनुष्य के धर्म पालन करने से समस्त नगरी का कल्याण हो गया !

राजा हरिश्चन्द्र का पुत्र मर गया था, उसके लिये कफन की जरूरत थी, तब भी राजा हरिश्चन्द्र ने धर्म का त्याग नहीं किया; लोग एक पैसे के लिये धर्म उठाना चाहते हैं और चाहते हैं– भगवत्प्राप्‍ति !

आप में जब ईश्वर का अंश है, तो धर्मपालन के लिये कटिबद्ध होकर चेष्टा करनी चाहिये। धर्म-पालन के वास्ते क्‍या कठिनाई है ? धर्म के पालने के लिये अपना शरीर काम आ जाय, तो बड़े सौभाग्य की बात है !

गोविन्द सिंह के लड़कों को धर्म-पालन करते समय नवाब ने उन्हें भारी लोभ दिया था– ‘यदि तुम दोनों मुसलमान बन जाओ तो नवाब बना दिये जाओगे।’ लड़कों ने कहा कि– ‘हम कुछ भी नहीं चाहते। हम तुम्हारी बात को कभी नहीं सुनेंगे।’ तब नवाब ने उन दोनों लड़कों को दीवाल में चिनवा दिया। जब दीवाल छोटे भाई के गले तक आई, तब बड़ा भाई रोने लगा। तब छोटे भाई ने कहा कि–‘क्‍यों रोते हो ? क्‍या मरने से डरते हो ?’ तब बड़े भाई ने कहा कि– ‘नहीं, नहीं ! मरने से नहीं डरता हूँ। इस बात के लिये रोता हूँ कि तू भगवान् के दरबार में पहले जा रहा है और मैं पीछे !’

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्‍स्‍वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे  निधनं श्रेयः   परधर्मो भयावहः॥
(गीता 3/35)

इसलिये सावधान हुआ स्वधर्म का आचरण करे, क्‍योंकि अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।

चाहे शरीर को सुखा डालिये, परन्तु धर्म नष्ट करने की भावना ही न करे। परमात्मा की प्राप्‍ति मिलती हो, तो उसकी (अर्थात् शरीर की) परवाह न करे। एक बार नहीं, चाहे पाँच बार प्राण जायें, उसका कुछ भय नहीं है। जिस काम के लिये शरीर मिला था, वह काम हो ही गया, फिर धर्म का त्याग क्‍यों करे ?

वैश्य– माँगना भी पड़े, तो भी धर्म-त्याग नहीं करना चाहिये। जिनकी कमजोर आत्मा है, उनके लिये यह कहना है कि जितना धन तुम्हारे प्रारब्ध से मिलना होगा, उतना ही मिलेगा। चोरी करने पर भी बिना प्रारब्ध नहीं मिलता है, तो हम पाप क्‍यों करें ? पाप कभी नहीं करना चाहिए, न्याय से ही पैसा पैदा करना चाहिये। यह लोभी मनुष्यों के लिये आश्वासन है।

नास्तिक की दृष्टि से फिर तीसरी बात बतलायी जाती है। थोड़ी देर के लिये मान लो कि यदि अन्याय से धन हो भी गया, तो उस धन से आते-जाते समय क्लेश ही होगा। उससे न यहीं (इस लोक में) मंगल होगा और न वहीं (परलोक में) मंगल होगा।

व्यापार सत्यता-पूर्वक करना चाहिये। वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती से कम देना और अधिक लेना, वस्तु को बदलकर दूसरी वस्तु दे देना, एक वस्तु में दूसरी खराब वस्तु मिलाकर दे देना अथवा अच्छी ले लेना, नफा, आढ़त, दलाली ठहराकर उससे अधिक लेना व कम देना, या झूठ, कपट, चोरी व जबरदस्ती से दूसरे के हक को लेना– इन सब दोषों का त्याग करना चाहिये। खूब हिम्मत रखनी चाहिये, जिससे धर्म का नाश न हो।

थोड़ा भी वैराग्य होने से ये सब बातें अपने-आप आ जायेंगी। मैंने जो बात आप लोगों को बतलायी है, इससे चौगुनी बात वह आप लोगों को बतला सकता है।

मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा को कुत्ते की विष्ठा के समान समझना चाहिये।

हम लोगों को निन्दा जैसी लगती है, वैसी ही स्तुति लगनी चाहिये। आराम और भोग को तिलांजलि दे देनी चाहिये। यह मनुष्य जब मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा को भी लात मार देता है, तब ब्रह्म को प्राप्‍त होता है, क्‍योंकि उसकी समता में स्थिति है।

ध्यान में जो आनन्द आता है, उसके सामने इन्द्र का आसन नरक के समान प्रतीत होता है।

समता की उपासना ही ब्रह्म की उपासना है।

समता या ध्यान– इन दो में से एक को आज धारण करके ही उठना चाहिये; फिर यदि उद्धार नहीं हो जाय, तो कहो।

निन्दा, स्तुति को समान समझने से सब बातें आप ही आ जायेंगी। मान-अपमान को साधन समझने से बेड़ा पार है। मन के संकल्प को ब्रह्म मानने से भी कल्याण हो जायेगा।

प्राण का आना-जाना भी ब्रह्म है– इससे भी कल्याण हो जायेगा। 

ब्रह्म है, सो सम है; किसी भी चीज में समता को धारण कर लो, समता से मत डिगो, फिर बेड़ा पार है। फिर देखो, कैसी जल्दी उन्नति होती है !

समता मत त्‍यागो, बेड़ा पार है !

समता ही न्याय है, न्याय ही धर्म है, धर्म ही सत्य है और सत्य ही परमात्मा है। साक्षात् परमात्मा का दर्शन चाहो, तो समता का व्यवहार करो।

सबके साथ, सब बातों में समता रखो। सब जगह समता का अर्थ लगाओ। समता की सेवा से मुक्ति, समता के व्यवहार से मुक्ति और समता की खेती से मुक्ति ! यह इतनी दामी चीज है कि इसके समान दुनिया में कोई वस्तु नहीं है। यह काम में लाकर देखो, फिर भगवान् मिलते हैं कि नहीं ?

महापुरुषों की महिमा

भगवान् ने संसार में सबके उद्धार होने के लिये उपाय बतलाया है, चाहे कैसा भी पापी क्‍यों न हो। कितने ही पुरुष तो ध्यानयोग के द्वारा परमात्मा की उपासना करते हैं, कितने ज्ञानयोग के द्वारा और कितने ही निष्काम कर्मयोग द्वारा उपासना करते हैं; इनसे चौथे मूढ़, अज्ञानी पुरुष दूसरों से सुनकर ही उपासना करते हैं, वे भी संसार-सागर को लाँघकर परमात्मा को प्राप्‍त हो जाते हैं।

यदि कोई महान् पुरुष कहते हैं कि–‘तुम मिट्टी उठाकर फेंको’ और वह उनकी आज्ञा मानकर मिट्टी भी फेंकता है, तो उससे उसका कल्याण हो जाता है।

प्रश्न– संसार में महात्मा कैसे खोजे जायँ ?

उत्तर– जिन पर दिल जमे और विश्‍वास हो, उसे ही महात्मा मानना चाहिये; फिर वे जैसा कार्य बतलावें, उसी के अनुसार कार्य करना चाहिये। महान् पुरुष जिस मार्ग से चलते हैं, वही सच्चा मार्ग है।

महान् पुरुषों की पहचान यह है– जिनके द्वारा हमारे में उत्तम गुण आएँ, पापों से हटकर भगवान् का भजन हो, उन्हें ही महान् पुरुष मानना चाहिये। 

महान् पुरुष यह जानते हैं कि यह कैसा पुरुष है और यह क्‍या करेगा– इस सबको सोचकर ही महान् पुरुष साधन बतलाते हैं।

ऐसा कोई महापुरुष हो, जिसकी बात बाध्य होकर काम में लानी पड़े, तो उनकी बात लग सकती है; या कोई कारक पुरुष हो, तो उसकी बात का विशेष असर पड़ता है और वह धारण भी हो जाता है; मेरे में तो यह बात है नहीं। अगर आप धारण करने की चेष्टा करोगे, तो धारण हो सकती है।

पातिव्रत्य-धर्म

स्‍त्रियों के लिए पातिव्रत्य धर्म का पालन करना और भगवान् की भक्ति करना मुख्य कर्तव्य हैं। 

विधवा स्‍त्री जिस प्रकार पति के जीते हुए चलती थी और उसका पति जैसे चाहता था, उसी प्रकार के भावों को काम में लाना उनके लिये पातिव्रत्य धर्म है। जो स्‍त्री पति के मरने पर भी पति के भावों के अनुसार चलती है, वह स्‍त्री पतिव्रता स्‍त्रियों से भी बढ़कर है। स्‍त्रियों के लिये तुलसीदासजी कहते हैं–

एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥

मन, वाणी और शरीर से पति की सेवा करना– यही एक धर्म है– मन से पति का हित-चिन्तन, वाणी से मीठे वचन बोलना और शरीर से उनकी सेवा करनी।

बिनु श्रम नारि परम गति लहई।

जो नारी इस प्रकार से पति की सेवा करती है, वह बिना ही परिश्रम के परम गति को प्राप्त होती है।

उत्तम पतिव्रता के मनमें यह बात रहती है कि स्वप्‍न में भी दूसरा पुरुष नहीं है; और मध्यम पतिव्रता स्‍त्री पर-पुरुष को भाई, पिता और पुत्र के समान देखती है। 

जो नारी पति के प्रतिकूल चलती है, वह दूसरे जन्‍म में कम उम्र में ही विधवा हो जाती है।

जो नारी पति को छोड़कर दूसरे पुरुष से प्रेम करती है, वह सौ कल्प तक रौरव नरक में वास करती है।

हरेक स्‍त्री, पुरुष को इस विषय में खूब ध्यान रखना चाहिये। यदि किसी से ऐसा पाप बनती में आ गया हो, तो भगवान् की शरण में जाना चाहिये। भगवान् कहते हैं कि ‘मेरा भजन करने से मैं सब पापों से मुक्त कर दूँगा।’ और उसे गंगा किनारे यह निश्चय कर लेना चाहिये कि मैं आइन्दा (आगे फिर कभी भी) ऐसा पाप नहीं करूँगा।

जो स्‍त्री अपने पति का अपमान करती है, वह यमपुर में नाना दुःखों को भोगती है। 

स्‍त्री को गाली देना या मारना नहीं चाहिये। स्‍त्रियों को ‘राँड’ – ऐसा भी नहीं कहना चाहिये। वाणी का सुधार करना चाहिये।

पुरुषों को स्‍त्रियों के साथ मित्रता का व्यवहार करना चाहिये। विवाह के समय स्‍त्री-पुरुष दोनों ही प्रतिज्ञा करते हैं। पुरुषों के बीमार पड़ने पर जैसी चेष्टा स्‍त्री करती है, वैसी ही चेष्टा पुरुषों को स्‍त्रियों के लिये करना चाहिये।

सीताजी ने रामचन्द्रजी के साथ जैसा बर्ताव किया, वैसा ही व्यवहार माताओं को अपने पति के साथ करना चाहिये।

माताओं को सीताजी, पार्वतीजी और गौरीजी की उपासना करनी चाहिये।

हमारे यहाँ जैसे सतियों की पूजा होती है, उन्हीं के समान उत्तम बनने की चेष्टा करनी चहिये; स्वधर्म पालन करने वाली स्‍त्री की ऐसी पूजा होती है। जैसे पार्वतीजी ने दक्ष यज्ञ में अपने पति का भाग न देखकर प्राण दे दिये थे और मरते समय यह कह दिया था कि–‘जिस जगह पति का आदर न हो, उस पिता के यहाँ रहना धिक्‍कार है !’ फिर दूसरा जन्‍म पार्वती का हिमाचल के यहाँ हुआ और देवताओं ने खूब कहा कि– ‘तू विष्णु के साथ विवाह कर ले’, परन्तु पार्वती ने शिव के सिवाय और किसी को स्वीकार नहीं किया।

भगवान् रामचन्द्रजी जब वन को जाते हैं, तब सीता भी उनके साथ जाती हैं। आजकल जब उनके पति भजन करने जाते हैं, तब भी स्‍त्रियाँ उनके साथ नहीं जाती हैं; वे बेटे-पोतों के मोह में फँसकर पति के साथ नहीं जाती हैं।

विचार करने की बात है कि श्रीरामचन्द्रजी ने सीताजी को वन के कितने कष्ट दिखलाये, तिस पर भी सीताजी ने साथ नहीं छोड़ा; और वह कहती हैं कि–‘हे नाथ ! आपके वियोग के समान मुझे कोई भी कष्ट नहीं है।’ फिर भी भगवान् ने सीता को समझाया, तब सीता कहती हैं –

ऐसेउ  बचन कठोर सुनि, जौं न  हृदउ बिलगान।
तौ प्रभु बिषम बियोग दुख, सहिहहिं पावँर प्रान॥

‘ऐसे कठोर वचन सुनकर भी जब मेरा हृदय न फटा, तो हे प्रभु ! (मालूम होता है कि) ये पामर प्राण आपके वियोग का भीषण दुःख सहेंगे।’ तब भगवान् ने समझा कि ये मेरे बिना नहीं जी सकती हैं, तब साथ ले गये।

सीता का पति-सेवा में कितना प्रेम था ! पति की सेवा के लिये पति के साथ जाने की जिद (हठ) करने में कोई दोष नहीं है।

पति में कोई बुरा दोष हो, तो समझाकर वह दुर्व्यसन छुड़ाना चाहिये। कोई कटु वचन कहे, तो अपना ही अपराध समझकर, अपनी ही भूल निकालनी चाहिये। जो कोई अपने को गालियाँ भी दे, उसका भी हित चाहना चाहिये। अपने साथ बुराई करे, उसके साथ भी भलाई करनी चाहिये, जैसे राजा युधिष्ठिर ने दुर्योधन के साथ की थी। वही संसार में साधु पुरुष है। इस प्रकार का व्यवहार ही मनुष्य का सुधार करने वाला है। वैरी का सुधार उपकार करने से ही होता है, अतएव इस प्रकार का व्यवहार करना चाहिये।

सीता ने वन में जाकर भगवान् की बड़ी भारी सेवा की। एक समय रावण उसे उठा ले गया और उसने सीताजी से अपने को पति बनाने के लिये कहा। उस समय सीता कैसे कठोर वचन कहती हैं–‘अरे नीच ! ऐसी बातें क्‍यों बकता है ? मिथ्या गाल को क्‍यों बजाता है ? जब रामचन्द्रजी आश्रम में नहीं थे, उस समय चोर के माफिक मुझे उठाकर ले आया ! रामचन्द्रजी इस पाप का फल तुझे तुरन्त ही देंगे।’

इसी माफिक यदि स्‍त्री पर कोई आपत्ति पड़े, तो प्राण देने को तैयार रहे, पर धर्म का त्याग न हो।