दर्शन, स्पर्श के उद्देश्य वालों के लिए साधन
प्रश्न– दर्शन, स्पर्श, भाषण के उद्देश्य को सामने रखने वालों के लिए क्या साधन है ?
उत्तर– साधन यही है कि भगवान् की कृपा से हो सकता है और ऐसे उद्देश्य वाले के लिए साधन यह है कि तन-मन-धन भगवान् के अर्पण करना, संसार के हित के लिये सर्वस्व अर्पण करना, जिसमें देने वाले और लेने वाले– दोनों को आनन्द हो– बस, यही साधन है; जैसे मयूरध्वज का पुत्र रतन कुँवर। इसका आदर्श सामने रखना और इसी प्रकार आनन्द मानना। तन, मन, धन से लोगों को आराम पहुँचाना, जिससे उनको प्रसन्नता हो, उसी के समान हमको भी प्रसन्नता हो–
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥
(गीता 18/67-68)
हे अर्जुन ! इस प्रकार तेरे हित के लिये कहे हुए इस गीतारूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तप-रहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिये और न भक्ति-रहित के प्रति तथा न बिना सुनने की इच्छा वाले के ही प्रति कहना चाहिये एवं जो मेरी निन्दा करता है, उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिये, परन्तु जिनमें ये सब दोष नहीं हों, ऐसे भक्तों के प्रति प्रेम-पूर्वक, उत्साह के सहित कहना चाहिये। क्योंकि जो पुरुष मेरे में परम प्रेम करके, इस परम रहस्य-युक्त गीता शास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा अर्थात् निष्कामभाव से प्रेमपूर्वक मेरे भक्तों को पढ़ावेगा, या अर्थ की व्याख्या द्वारा इसका प्रचार करेगा, वह निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा।
भगवत्प्राप्ति के लिये जो कष्ट उठाना पड़े, उसे करना चाहिये। कठिन नियम साधन करे, तो वह भी ठीक है। माला का काम आरम्भ करना चाहिये और भगवद्गीता का पाठ, अर्थ पर पूर्ण ध्यान देते हुये करना चाहिये; उसमें सवा घंटा अनुमान लगता है। मनुष्य को यह निश्चय मानना चाहिये कि हर एक कार्य कष्ट-साध्य नहीं है, बल्कि सम्भव है।
भगवत्प्राप्ति और साधन कठिन मानने वाले को कठिन और सरल मानने वाले को सरल होता है;
वास्तव में कठिन नहीं है। भक्त लोग भी सरल कहते हैं तथा भगवान् भी गीता 9/2 में–
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥
(गीता 9/2)
यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा तथा सब गोपनीयों का भी राजा एवं अति पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष फल वाला और धर्मयुक्त है, साधन करने को बड़ा सुगम और अविनाशी है।
आसुरी सम्पदा का त्याग और दैवी सम्पदा का ग्रहण करना अमृत तुल्य है। मनुष्य रुपयों के लिये कठिन कार्य कर लेता है, किन्तु इस भगवत्प्राप्ति में, प्रभु की प्राप्ति में कठिनता नहीं है, तो भी नहीं करता है ! जोर देकर, दावे के साथ निश्चय करो कि आसुरी सम्पदा हमारे अन्दर नहीं आ सकती। ऐसा निश्चय करने से फिर नहीं आयेगी। आसुरी सम्पदा है, यह आग है; इसे जान-बूझकर कौन धारण करेगा ? जिस प्रकार दूध के कटोरे के पास सर्प को बैठा हुआ देखकर यह निश्चय होता है कि यह सर्प का जूठा किया हुआ है– ऐसा जान लेने पर जैसे दूध का स्वतः त्याग हो जाता है, उसी प्रकार माया-रूपी सर्पिणी का विष आसुरी सम्पदा है–
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्॥
(गीता 16/4)
और हे पार्थ ! पाखण्ड, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान भी– यह सब आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं।
इस विष को जान-बूझकर सेवन भला कौन करेगा ? – कोई नहीं। ऐसा सोचने पर यह दोष फिर नहीं आ सकेगा।
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥
(गीता 2/55)
श्रीकृष्ण महाराज बोले– हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग देता है, उस काल में आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ स्थिर बुद्धि वाला कहा जाता है।
प्रजहाति- मन में रहने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग देता है।
मनोगतान्- यह इसलिये कि वासना, इच्छा, तृष्णा का त्याग देना ही त्याग है।
तृष्णा– लोभ;
स्पृहा– शरीर निर्वाह की आवश्यकता का नाम है।
कामना– इच्छा।
वासना– प्राप्त वस्तु है। देह में वास-स्थान ही वासना है।
अटल स्थिति– आत्मा, जो विज्ञानानन्दघन परमात्मा है, उसमें स्वरूप की अटल स्थिति है, उसी का नाम अटल स्थिति है।
ध्यान के लिये चलते-फिरते, स्वरूप-सहित नाम जप करो; यदि विस्मरण हो जाय, तो भारी पश्चात्ताप करो।
संसारी पदार्थ यदि पकड़ में आवे, तो उसे छुड़ा देओ।
रोज एकान्त में एक घंटा या डेढ़ घंटा साधन करने का समय है, सो उसको दामी बनाओ। जल्दीबाजी मत करो। यह वर्तमान साधन का सुधार जोर देकर करना चाहिये; अवश्य सफल होगा।
स्वभाव-दोष से ही साधन ढीला है, सो यह चोरी है। मन को समझावे कि भगवान् के निमित्त मन यदि बैठा है, तो फिर संसार का चिन्तन करना निरी मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं है।
अटल विश्वास रखो कि ध्यान अवश्य होगा, जैसे उजाड़ गाय को खूँटा बँधे पानी देते हैं। देखो, इन्द्रियाँ बदमाश हैं; इनके गोलक हैं, वहीं बाँध दो। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का संयम रखो; असंयम से पतन होता है। इन्द्रियों का स्थान ही उनका खूँटा है। मन-इन्द्रियों का पूर्ण संयम रखो, जैसे सईस घोड़े की लगाम खींचकर रखता है। यदि कुछ भी ढिलाई की, तो ये इन्द्रियाँ मार डालती हैं, जैसे उजाड़ गाय के तीक्ष्ण सींग।
घटना यानी आवश्यकता की कमी करना है।