Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

भगवान् प्रेम से प्रकट होते हैं

दिनांक ३१-३-१९३६ (सम्वत् १९९३), रामनवमी प्रातःकालस्वर्गाश्रम

हरि ब्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

जैसा मैं बोल रहा हूँ, वैसा ही परमात्मा का स्वरूप है; वही साकार रूप में प्रकट होता है।

प्रभु से प्रेम के लिए प्रार्थना करो कि– ‘प्रभु ! आपमें हमारा प्रेम नहीं है, सो तो जानते ही हो; और आपका प्रत्यक्ष दर्शन तो आपकी दया से ही हो सकता है।’

मन, बुद्धि, दृष्टि– ये समान होनी चाहिएँ। बाहर की मुद्रा विचार और ध्यान-काल में एक रहती है।

सदैव चिन्तन रहने के लिए ऐसा करना कि यदि एक क्षण की भूल हुई, तो मृत्यु के समान समझो। यदि मन स्वीकार नहीं करता है, तो अभी भगवान् के गुणानुवाद में जैसा समय बीत रहा है, यदि ऐसा बीत रहा है, तब तो उत्तम है, नहीं तो प्रभु से प्रार्थना करो।

‘प्रभु ! मेरा मन आपको छोड़कर जावे नहीं’ और पुकारना भी चाहिए– ‘हे नाथ ! हे नाथ !! हे नाथ !!!’ यह करुणा-भाव है। 

प्रश्‍न– मेरे प्रयत्‍न करने पर भी मन समझता नहीं है। यदि भगवान् या भक्त समझावें, तो ही समझ सकता है; और मन पर प्रभाव नहीं पड़ता है, क्‍या करना चाहिए ? भगवान् में मन नहीं है– यह मुझे प्रतीत होता है।

उत्तर– बात ऐसी है कि इसकी सँभाल रखने से मन स्वाभाविक ही वश में हो जायेगा। हर समय यही सोचना कि– (१) समता होना (२) शान्ति– प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्। उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥ (गीता ६/२७) (३) प्रसन्नता (४) भगवान् के विरह की व्याकुलता– इनको सदैव सँभालते रहना चाहिए और भगवान् को सँभालने का फल भी वही उपरोक्त चार वस्तुएँ हैं।

मन का भागने का कारण इसका पूर्वाभ्यास होना है। इसके लिए अभ्यास और वैराग्य– दो ही उपाय हैं। आसक्ति काटने के लिए वैराग्य उपाय है। अभ्यास करने के लिए चिन्तन उपाय है। प्रभु से मिलने में जो विलम्ब हो रहा है, वह चिन्तन है। इस शरीर को ठेके की मोटर समझो। इससे जितना काम लेते बने, ले लिया जाय। समय की तरफ खयाल रहने से मनुष्य कुछ कर सकता है।

प्रश्‍न यह मन आगे तरक्‍की नहीं करता है, क्‍या करना चाहिए ?

उत्तर– एकान्त में बैठने के बाद– (१) नाम (२) स्वरूप (३) चिन्तन (हाव-भाव, प्रकाश लीला) (४) क्रीड़ा (५) गुण (प्रभु कैसे हैं, उनमें यह गुण है, वह गुण है आदि)– समता, शान्ति, दया, प्रेम, ज्ञान और वैराग्य। एकान्त में व्यवहार रूप से समय बिताना।

ध्यानकाल में जैसे सन्ध्या आदि वाणी द्वारा हो रहा है, तो मन से भगवान् के स्वरूप का चिन्तन करो। साकार रूप का चिन्तन और भी उत्तम है। स्वरूप चिन्तन में भी अधिक गुण के प्रभाव से, तत्त्व से, रहस्य से– इस प्रकार कि निराकार से साकार होना आदि तत्त्व जानना है, तो तत्त्व, मर्म जानना और जब वह जान जायेगा तो समझेगा कि– भगवान् सर्वज्ञ हैं। जहाँ हम संसार समझते थे, वहाँ भगवान् निकले। इस प्रकार जानना रहस्य खुलना है। रहस्य खुलने पर अत्यन्त श्रद्धा और प्रेम हो जाता है और तब उसकी स्थिति अलौकिक हो जाती है और ऐसी स्थिति में ही भगवान् प्रकट होते हैं। और ऐसे तो भगवान् चाहें, जब दर्शन देते हैं; भगवान् को भी गर्ज रहती है, वह ऐसे कि उनको कुछ प्रचार कराना होवे, तब वे भक्त द्वारा ही कराया करते हैं। भगवान् में विरह-व्याकुलता ऐसी होनी चाहिए जैसे भरतजी– 

राम बिरह सागर महँ, भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत, आइ गयउ जनु पोत॥

और प्रेम व्याकुलता तो सुतीक्ष्‍ण के समान होनी चाहिए–

दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा॥

भागवत में विरह-व्याकुलता– रुक्‍मिणीजी की प्रतीक्षा और इससे भी अधिक गोपियों की विरह-व्‍याकुलता विशेष है। भगवान् भक्‍त का अभिमान तोड़कर विरह देते हैं। प्रेम-व्याकुलता में अतिशय प्रेम में मुग्ध होने पर प्रगट होते हैं। व्याकुलता प्रेम के बिना नहीं होती, यानी प्रेम से ही होती है। भय की व्याकुलता में भी प्रेम होता है जैसे– गजेन्द्र ने पुकार लगाई थी, परन्तु उत्तम तो यही है कि उनके बिना मिले व्याकुलता बढ़ती रहे।

संसार में कंचन-कामिनी दो ही घाटियाँ हैं। कामी का स्‍त्री में, लोभी का रुपयों में जितना प्रेम होता है, अमृत मिलने पर जो प्रेम होता है; शास्‍त्र और सत्संग द्वारा यह समझ में आता है कि भगवान् प्रकट होकर दर्शन देते हैं, वह प्रसन्नता होने पर, जिससे उसको देह की सुधि नहीं रहती है, चित्र के समान हो जाता है, इनसे लाखों गुणी प्रसन्नता भगवत्प्राप्‍ति में होती है, उसकी तुलना नहीं की जा सकती। उस अवस्था को ही सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है। रोमाञ्च, घड़घड़ी आदि तो प्रभु प्राप्‍ति के पूर्व की बात है, किन्तु प्राप्‍ति के उत्तरकाल में जब वे अन्तर्धान हो जाते हैं, तब व्याकुलता हो जाती है, विरह में उन्मत्त हो जाता है, उसकी दशा गोपियों के सरीखी हो जाती है।

निर्गुण का परोक्ष आत्मा से और अपरोक्ष मन-बुद्धि से। जिनको निराकार का परोक्ष होता है, उसको सगुण के मिलने की आवश्यकता नहीं रहती है। परमात्मा के स्वरूप में उसकी अचल स्थिति हो गई, इसलिए उसको भ्रम भी नहीं होता है और ऐसी स्थिति वह जानते हुए भी बतला नहीं सकता है। ज्ञान होने पर उसको शरीर की सुधि नहीं रहती है। जिस प्रकार जीवन्मुक्त का शरीर लोगों की दृष्टि में है, किन्तु उसके लिए नहीं है। ज्ञान होने पर उसका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं रहता है। हम ब्रह्म को ऐसा भूल गए, जैसे स्वप्‍न में शरीर को भी भूल जाते हैं। ज्ञानी के हृदय में संसार स्वप्‍नवत् है, पर आत्मा में तो संसार तीनों काल में नहीं है। उसको सृष्टि देखने की दृष्टि भी नहीं रहती है, तो फिर देखे क्‍या ? अन्त:करण जड़ होने से उसको हर्ष-शोक भी नहीं होता है। आत्मा का मन-बुद्धि से संयोग होने पर हर्ष, शोक, पीड़ा होती है; फिर (ज्ञान होने के बाद) नहीं, जैसे– किसी अज्ञानी का एक हाथ काटो, तो वह कहता है– ‘मरा रे’ ‘मरा रे’ किन्तु ज्ञानी का अंग कटने पर वह कुछ भी नहीं कहता है। अज्ञानी देह को आत्मा मानता है, सो (उस प्रकार से) कहता है और ज्ञानी नहीं मानता है, इसलिए नहीं कहता है, क्‍योंकि वहाँ तो आनन्द के सिवा कुछ है ही नहीं। गुणों का कितना ही परिवर्तन हो, वह विचलित नहीं होता है–

यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्‍यते।
(गीता ६/२२)

दुख होता है, पर विचलित नहीं होता है–

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
(गीता १२/१७)

और उसकी प्रज्ञा स्थित है, जो विचलित नहीं होता–

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।
(गीता १४/२४)

उसको अनुकूल में राग और प्रतिकूल में द्वेष नहीं होता है, जैसे गीताजी के–

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्। आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥
(गीता २/६४-६५)

स्वाधीन अन्तःकरण वाला पुरुष राग-द्वेष से रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता अर्थात् स्वच्छता को प्राप्‍त होता है और उस निर्मलता के होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है।

उसको अनुकूल में राग और प्रतिकूल में द्वेष नहीं होता है।  २/६४-६५ में लक्षण हैं और निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा.... (गीता १५/५)– ऐसा पुरुष हो, उसको ही ब्रह्म की प्राप्‍ति होती है। अन्तकाल में स्थिति उच्च नहीं रहा करती है, इसलिए अभी से अभ्यास करना चाहिए; और विश्वास करने पर तो स्थिति शीघ्र उच्च हो ही जाती है। जैसे हम बीमारी की दशा में डाक्‍टर को फीस देकर, विश्वास करके, शरीर उसी को सौंप देते हैं, किन्तु उससे भी हानि हो सकती है; यदि इतना ही विश्वास करके यह शरीर प्रभु को सौंप दें, तो कभी हानि नहीं हो सकेगी। यदि हमारी श्रद्धा होती, तो हम वापस ही क्‍यों आते ? वैद्य की, डाक्टर की अपेक्षा अधिक विश्वास करना चाहिए, तो ही शीघ्र परमात्मा की प्राप्‍ति होती है। परमात्मा-प्राप्‍ति में लोग प्रारब्ध की आड़ बताते हैं, सो नहीं है। श्रद्धा तो साकार और निराकार– दोनों की प्राप्‍ति में होनी चाहिए। मय्यासक्तमनाः पार्थ.... (गीता ७/१) मद्‍गत अन्तरात्मा में प्रेम का समावेश है और अतिशय श्रद्धा में भी प्रेम का समावेश है। अत्यन्त प्रेम की बात जहाँ होवे, वह निष्काम भाव समझना चाहिए। यदि दूसरी वस्तु में आसक्ति है, तो परमात्मा में प्रेम नहीं है। मनुष्य की सब बात धारणा और विश्वास पर निर्भर है। महान् पुरुष पर और परमात्मा पर जो जितना विश्वास करता है, उसको उतना ही लाभ है, क्‍योंकि उनका संग ही अमोघ है; वह खाली नहीं जा सकता। दुर्लभ इसलिए कि कठिन है, दामी है। भगवान् से मिलने के लिए उनके भजन-ध्यान की चेष्टा करनी चाहिए। यदि भगवान् नहीं मिले तो जीवन वृथा है, इसलिए सोते-उठते, चलते-फिरते सदा ही उनका स्मरण चिन्तन करना चाहिए और साधन उच्च श्रेणी का बनाना चाहिए।