भगवान् का अवतारवाद
बहुत से लोग कहते हैं कि– ‘भगवान् का अवतार नहीं हुआ’ किन्तु गीता आदि शास्त्रों से मालूम पड़ता है और भगवान् ने भी कहा है कि–
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।
(गीता ४/८)
कोई ऐसा मानते हैं कि अवतारवाद का प्रकरण कुछ नीचे दर्जे का है, असली तो निर्गुण-निराकार है; परन्तु सोचने की बात यह है कि परमात्मा का साक्षात् अवतार होता है।
यदि किसी को भगवान् मिल जावें तो वह कह नहीं सकता और यह बात भी है कि विश्वास करना कठिन है, किन्तु ऐसी बात भी है कि शास्त्र और महापुरुषों की युक्ति से हमको यह बात माननी चाहिए। शास्त्रों में, उपनिषदों में भी निराकार और साकार का वर्णन है और गीता में तो साक्षात् है– अर्जुन के प्रार्थना करने पर पहले विश्वरूप, फिर चतुर्भुज और फिर द्विभुज दर्शन दिए।
अवतार अर्थात् उतरना– ऊपर से नीचे उतरने को कहते हैं। जैसे– आकाश में जल है, वह बर्फ रूप से या बूँद रूप से उतरे, तो भी जल ही है। जितने आकार वाले शरीर थे, सब निराकार ही थे–
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके॥
(गीता ८/१८)
जैसे पुष्प व्यक्त है और गंध अव्यक्त है, यानी (१) व्यक्त और (२) अव्यक्त। कार्य सूक्ष्म होता है, कारण मोटा होता है। कार्य के नाश में कारण का नाश नहीं होता है। हम देखते हैं कि निराकार से साकार और साकार से निराकार होता है। वायु, अग्नि और जल की उत्पत्ति आकाश से और अन्त में क्रम से जल आग में, आग वायु में और वायु आकाश में ही मिल जाते हैं, जैसे पचास प्रकार के गहने गलाने से एक सोना ही हो जाता है। पृथ्वी आदि क्रम से आकाश में, इसी प्रकार सब पदार्थ परमात्मा में शामिल हो जाते है। जब यह बात सबमें देखने में आती है तो ईश्वर के लिए असम्भव नहीं है।
सगुण– गुण सहित– सत्व, रज, तम सहित
निर्गुण– गुण रहित।
भगवान् कहते हैं कि– ‘मैं अज, अविनाशी हूँ, लीला से प्रकट होता हूँ।’ ईश्वर और शक्ति में भेद नहीं है। ईश्वर शक्ति, प्रकृति है और गुण है। गुणसहित जो है, वही निराकार से साकार होता है। परमात्मा ज्ञानानन्दघन से प्रकट होते हैं और मूर्ति-रूप में प्रकट होते हैं। परमात्मा को नहीं मानने में हानि है; मानने में हानि नहीं है।
एक नास्तिक है, एक आस्तिक है। प्रमाण तो हुआ–
ईशावास्यमिदं सर्वम् .........।
अब भी नास्तिक नहीं मानता तो पूछना है कि तुम्हारा परदादा था, उसकी कुछ साबिती (सबूत, प्रमाण) है ?’ वह कहता है कि– ‘मैंने देखा तो नहीं, पर कह सकता हूँ, क्योंकि वे नहीं होते, तो मैं कहाँ से आता ?’ और यह भी कहता है कि कारण के बिना कार्य नहीं होता।
इस न्याय से जो वस्तु दीखती है, उसको हमारे परमात्मा ने पैदा की है। प्रकृति माता है और पिता पुरुष हरि है, इसलिए मानना चाहिए। मनुष्य शरीर कोई साधारण नहीं; उच्च पुरुष है और भी जो नक्षत्र अपने-अपने स्थान में घूमते हैं, किसी के शासन में हैं। जैसे यंत्र में चेतन शक्ति रहती है, ऐसे ही, उसी प्रकार प्रकृति में चेतनता है। जिस प्रकार यंत्र चलते हों और उनकी मरम्मत नहीं होवे, तो वे बंद हो जावें और यदि परमात्मा नहीं हों, तो यह काल-यंत्र कौन चलावे ? वही चलाता है।
कहते हैं कि– ‘भगवान् दिखते नहीं। राजा हैं, शासक हैं, तो दिखना चाहिए।’ तो यह बात इस प्रकार है कि हिन्दुस्तान का बादशाह विलायत में रहता है और वहाँ जाने को यहाँ से ४ माह लग जाते हैं, तो अब छोटे से बादशाह को देखने में चार माह लग जाते हैं तो अखण्ड ब्रह्माण्ड के मालिक प्रभु को देखने में तो देरी होनी उचित ही है। सो ईश्वरको नहीं मानने में पतन होगा, नुकसान होगा।
एक कहता है कि– ‘परमात्मा हैं’ और एक कहता है कि– ‘परमात्मा नहीं हैं’ तो जो कहता है कि– ‘हैं’, उसका मान अधिक होता है, जैसे पारस पत्थर दिखता नहीं, तो क्या दुनिया से पृथक् हो गया ? कदापि नहीं। वह है, और समुद्र, पर्वत आदि स्थानों में अब भी मिलता है। जो कहता है कि– ‘ईश्वर नहीं है’ वह पागल ही है। और एक बात यह भी है कि जो ‘है’ कहता है, उसके पास तो शास्त्र आदि का प्रमाण भी है; और जो ‘नहीं’ कहता है, उसके पास तो कुछ नहीं है; वह अप्रमाणित है।
प्रश्न– ईश्वर को व्यापक कहने वाला पाप क्यों करता है ? ईश्वर होने से विपरीत क्यों जाता है ?
उत्तर– ईश्वर तो है ही, किन्तु यदि वह पाप करता है, तो वह ठगता है। यदि वह जान ले, तो पाप नहीं करेगा।
जैसे– यहाँ गवर्नमेण्ट की सत्ता है। वह स्वतः यहाँ नहीं है, फिर भी उसके विरुद्ध नहीं बोल सकते। बोले, तो दण्ड मिलेगा। सो यदि ईश्वर को मानता, तो डर अवश्य रखता, जैसे बहुत-से लोग, जो गवर्नमेण्ट का डर रखते हैं, वे पाप, चोरी आदि नहीं करते हैं। ईश्वर का अवतार– अवतार जो होते हैं, उनमें मनुष्यों की अपेक्षा यह विलक्षणता होती है कि वे जो चाहें, सो कर सकते हैं, परन्तु हम नहीं कर सकते हैं। उनमें (१) कारक पुरुष (अंश अवतार) है, जैसे वसिष्ठजी, वेदव्यासजी, ईसा आदि उनको ईश्वर ने विशेष शक्ति द्वारा भेजा था।
दूसरे साक्षात् अवतार– इनमें जन्म से ही ज्ञान रहता है, हमको नहीं रहता है। हमारा जन्म पाप-पुण्य से होता है, इसीलिए हमको बीमारी आदि होती हैं; ईश्वर पाप-पुण्य से अवतार नहीं लेते, स्वयं की इच्छा से अवतार लेते हैं। उनका अवतार दिव्य होता है। उनको बीमारी नहीं होती है। उनका प्रादुर्भाव ही जन्म है और तिरोभाव (लोप होना) ही मरण है। गीता में कहते हैं कि– ‘मैं अज, अविनाशी, जन्मता-सा प्रतीत होता हूँ।’ उसमें ‘सन्’ और ‘अपि’ शब्द दिए हैं, यानी होता हुआ भी होता हुआ-सा हूँ। मैं मनुष्य शरीरधारी परमात्मा हूँ; मुझ को लोक ईश्वर नहीं मानते।
ईश्वर अवतार मनुष्य से विलक्षण ही होता है। पैदा होते ही चतुर्भुज रूप हुए और देवकी को कहते हैं कि– ‘तुमको मालूम हो जावे कि तुम्हारे यहाँ भगवान् प्रकट हुए हैं।’ इस प्रकार सब युक्तियाँ बतलाकर पुनः बच्चे होकर रोने लगते हैं। इसके बाद वसुदेव-देवकी की हथकड़ी-बेड़ी खुल जाना, बँध जाना, यमुना जल में बाढ़ आकर कम हो जाना आदि आदि– यह विलक्षणता ही है।
तिरोभाव में यह है कि महाराज सशरीर ही चले गए, वह इसलिए कि भावी में मेरे उपासकों को कोई हानि नहीं होवे। बात यह कि भगवान् को जैसे कोई पुकारता है, वैसे ही आते हैं; मतलब यह कि भगवान् का प्रादुर्भाव और तिरोभाव विलक्षण होता है। दूसरों का मालूम पड़ता है कि जन्मे और मरे, परन्तु भगवान् में स्वतन्त्रता है। सब दुनियाँ उनके संकल्प के अधीन है। उनकी इच्छा में कोई भी बाधा नहीं दे सकता है। माता-पिता से पैदा नहीं होने के कारण उनका शरीर दिव्य है और इसीलिए गीता ४/६ में भी कहा है–
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
(गीता ४/६)
मेरा जन्म प्राकृत मनुष्यों के सदृश नहीं है, मैं अविनाशी स्वरूप, अजन्मा होने पर भी तथा सब भूत-प्राणियों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति को आधीन करके योगमाया से प्रकट होता हूँ।
दिव्यता जानने से मुक्त हो जाता है– यह भी रहस्य है। सर्वज्ञता आदि इसीलिए कि–
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥
(गीता ७/२५-२६)
तथा अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ, इसलिए यह अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित, अविनाशी परमात्मा को तत्त्व से नहीं जानता है अर्थात् मेरे को जन्मने, मरनेवाला समझता है। और हे अर्जुन ! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूँ, परन्तु मेरे को कोई भी श्रद्धा भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता है।
सर्वज्ञता यह कि मैं भूत, भविष्य और वर्तमान के प्राणियों को जानता हूँ। इसको योगी नहीं जानते। पतञ्जलि के योगसूत्र में कहा है कि–
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।
(पातञ्जल योगदर्शन, समाधिपाद, सूत्र २४)
अर्थात्– क्लेश, कर्म, कर्मों के फल और वासनाओं से असम्बद्ध, अन्य पुरुषों से विशेष (विभिन्न, उत्कृष्ट) चेतन ईश्वर है।
मनुष्य के समान क्लेशता ईश्वर में नहीं होती; और केवल अर्जुन को ही दिव्य बात बतलाई, क्योंकि भगवान् कहते हैं कि– ‘तू अनघ है।’ और विशेष विशेषता भागवत में दिखलाई है कि ब्रह्माजी ने बछड़े हरण किए, तब सब कृष्ण ही बछड़े, लाठी, ग्वाल-बाल बन गए।
अवतारकी विशेषता– श्रुति कहती है–
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।
(मुण्डकोपनिषद् मुण्डक २, खण्ड २, मंत्र ८)
अर्थात्− कार्य और कारण-स्वरूप उन परात्पर परब्रह्म पुरुषोत्तम को तत्त्व से जान लेने पर इस जीव के हृदय की अविद्या-रूप वह गाँठ खुल जाती है, जिसके कारण इसने इस जड़ शरीर को ही अपना स्वरूप मान रखा है। इतना ही नहीं, इसके समस्त संशय सर्वथा कट जाते हैं और समस्त शुभाशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं, अर्थात् यह जीव सब बन्धनों से सर्वथा मुक्त होकर परमानन्द-स्वरूप परमेश्वर को प्राप्त हो जाता है।
हृदयकी अस्मिता जो है, वह उसके दर्शन से भेदन हो जाती है, शंका नहीं रहती है। प्रत्यक्ष वस्तु देखने पर शंका नहीं रहती है। परमात्म-प्राप्ति की पहिचान–
जो निषिद्ध कर्म करते हैं, उनमें वह नहीं मिलता है। कामना वालों में भी वह नहीं मिलता है और जिसके दर्शन, स्पर्श, भाषण से ईश्वर का ज्ञान हो, उसको समझो कि वह परमात्मा-प्राप्त मनुष्य है। इसमें गौण बात इसलिए भी है कि जिसका श्रद्धा नहीं होती है, उसको भी दर्शन, स्पर्श भाषण का प्रभाव पड़ जाता है। जैसे गंगाजल पीने से शरीर में शान्ति मिलती है, ऐसे ही उसकी सब शुद्धि हो जाती है और सब शंका अपने-आप समाधान हो जाती है और उसके दर्शन से आनन्द के सिवाय और कुछ नहीं मिलता है, केवल आनन्द-ही-आनन्द प्रतीत होता है। उसके नेत्र और शरीर दिव्य हो जाते हैं। उसकी पलक नहीं पड़ती है और वह चित्र-सा हो जाता है; यहाँ तक कि वह स्तुति भी नहीं गा सकता है। प्रभु सामने खड़े हैं, किन्तु वह प्रेम में मग्न है, सत्कार भी नहीं करता है, आनन्द में बेहोश हो जाता है। आश्चर्य करता है कि अहा ! भगवान् आ गए। ऐसे हैं भगवान् ! अहा ! फिर उसकी अद्भुत दशा हो जाती है, किन्तु जब होश आता है, तब अपने को सँभालता है और प्रभु का सत्कार करता है, स्तुति करता है।
कोई चाहता है कि भगवान् चाहें, सो करें।
कोई चाहता है कि मेरे द्वारा सेवा से संसार का कल्याण हो जाय। मुझे वह मुक्ति नहीं चाहिए, जिसमें आना नहीं पड़ता है। वह भगवान् से प्रार्थना करता है कि– ‘मैं तो आपके साथ ही रहूँगा।’ सो जो जैसा चाहते हैं, भगवान् उनको वैसा ही देते हैं। भक्त के भाव के अनुसार बन जाते हैं; और जब वह कुछ भी नहीं कहता तो भगवान् स्वयं ही विचार करके आवश्यकतानुसार उसकी व्यवस्था कर देते हैं।
परीक्षा– जैसे ध्रुव को दर्शन दिया, तो पहिले शंख छुआ दिया और वेदों का ज्ञान सिखा दिया। जब उसने सूक्तों द्वारा प्रार्थना की, तब दर्शन दिया, पहले नहीं। पहले तो भावना थी।
जैसे– सावित्री को यमराज मिले और वरदान भी सत्य हुए, किन्तु उसका पति कहता है कि– ‘मुझे स्वप्न हुआ था’ और सावित्री कहती है कि– ‘सत्य बात थी, स्वप्न नहीं था।’ वह कहती है कि– ‘आपका शरीर सूक्ष्म था और मेरा स्थूल; मैंने देखा था।’ यानी इससे घटना सांप्रत होती है। और भी यदि कोई झूठ माने तो उनको यह भी प्रमाण है– रामकृष्णजी परमहंस देव, गौरांग महाप्रभु, मीराबाई, नरसी मेहता, सूरदास, तुलसीदास– इनको परमात्मा दर्शन हुआ है, तो उनको झूठ कैसे मानें ? निराकार उपासक को साकार मिलने की कोई आवश्यकता नहीं रहती, इससे यह नहीं मानना है कि भगवान् सगुण नहीं हैं।
साक्षात्कार होने के बाद क्या होता है ?
साक्षात्कार होने के बाद जैसे सामने दीवाल दीखती है, पर मन में भगवान् दीखते हैं तो पहले वह भावना करता है, फिर मन से प्रार्थना करता है, तब वह साक्षात् दर्शन करने लगता है। जब प्रत्यक्ष मिल जावें, तब यह वरदान मांग लेवे कि– ‘यह रूप मुझे सर्वत्र सदा-सर्वदा दिखे।’ तब उसको सब जगह भगवान् ही दिखते हैं। जब तक पहले मन से देखता है, तब तक कल्पना है, परन्तु भगवान् मिलने पर जो दिखता है, वह कल्पना नहीं है, बल्कि साक्षात् है।
परोक्ष, अपरोक्ष, सगुण का–
अपरोक्ष– साक्षात् बात मिलने पर जो कायम रहती है, वह अपरोक्ष है। जैसे सावित्री को यमराज ने वरदान दिए तो सत्यता कायम रही– यह अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) है। ध्रुव को शंख छुआया और जो बात रही, वह अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) रही। प्रह्लाद को खंभा फाड़कर दर्शन दिए, यह अपरोक्ष है।
परोक्ष– शास्त्रों द्वारा समझ गया हो, अनुमान कर लिया हो। साक्षात् नहीं मिलना परोक्ष है; केवल उसकी दृष्टि से मिलना परोक्ष ज्ञान है। भावना से होना, कायम नहीं रहना परोक्ष ज्ञान है। साक्षात्कार– पुरुष में राग, द्वेष, अस्मिता आदि नहीं रहते हैं। समता, शान्ति, प्रेम, दया, ज्ञान, आनन्द, प्रसन्नता– ये सब भगवान् के दर्शन से मिल जाते हैं। प्रकाश और ज्ञान होता है– यह भगवान् के स्वरूप की विलक्षणता है। भगवान् के दर्शन होने वाले को सूर्य-चन्द्र का प्रकाश भी कम हो जाता है, यह विलक्षणता है। जहाँ भगवान् प्रकट होते हैं, उस जगह शान्ति, प्रकाश आदि समभाव से प्रतीत होते है। शरीर की दिव्यता इतनी होती है कि उसके बराबर दुनिया में कोई दिव्यता नहीं; उसमें विलक्षण आकर्षणता होती है। भगवान् एक ही साथ, चाहे जहाँ प्रगट होते हैं– यह भी विलक्षणता है।