अभ्यास और वैराग्य
प्रश्न– मन पर प्रभाव क्यों नहीं पड़ता ?
उत्तर– आपका प्रयत्न तो ठीक है और अनन्य भक्ति उसका फल है। अनन्य प्रेम अनन्य श्रद्धा से होता है। इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान् बोले–
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥
(गीता १२/२)
अर्थात्– हे अर्जुन ! मेरे में मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन, ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन, अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मेरे को योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं अर्थात् उनको मैं अति श्रेष्ठ मानता हूँ।
जितनी श्रद्धा होगी, उतना साधन होगा; जितना साधन होगा, उतनी तत्परता होगी; और तब ही मन-इन्द्रियों पर पूरा काबू भी हो जाता है। जितना वैराग्य और अभ्यास होगा, उतना ही मन भी लगेगा। श्रद्धा होने से तेजी होती है, उत्साह होता है।
बाहर का समय नियत करना नियम नहीं है, उसका तो भीतरी होना चाहिए और प्रभु में बेचैनी होनी चाहिए– यह उत्तम है।
प्रश्न– प्रयत्न की विफलता में, निष्फलता में उत्साह में कमी होती है; क्या करना चाहिए ?
उत्तर– सिद्धान्त यही रखना कि आनन्द और प्रसन्नता सदा ही बनी रहे, तो उसमें स्वाभाविक लाभ होता है और साथ ही भीतरी प्रयत्न की वृद्धि होती है; और श्रद्धा के लायक तो भगवान् ही हैं, इसलिए मनुष्य को भगवान् में ही पूर्ण श्रद्धा करना चाहिए। भगवान् से जो प्रार्थना करता है, उसे प्रभु अन्तर्यामी होने से सब जान लेते हैं। कभी-कभी चित्त-वृत्तियों में कुसंस्कार होने से रुकावट भी होती है, किन्तु प्रभु की दया से एक दिन में तो क्या, एक क्षण में भी सब कुछ हो सकता है। इससे एक तो श्रद्धा और वैराग्य– ये ही उत्साह से साधन तेज करते हैं। भीतरी वैराग्य भी होना चाहिए; और एक बात यह भी है कि साधन से वैराग्य और वैराग्य से साधन होता है। विवेक द्वारा वैराग्य से साधन हो जाता है और मनुष्य पराधीन होने से छूटने के लिए कोशिश करता है। पहले तो यह श्रद्धा होनी चाहिए कि हमारा साधन बढ़ रहा है।
यह विश्वास रखो कि भगवान् मेरी पुकार सुन रहे हैं; और सुनते ही हैं, क्योंकि वे अन्तर्यामी हैं। भगवान् से माँगना कि– ‘प्रभु ! मैं तुमसे भजन के सिवाय कुछ भी नहीं माँगता, दर्शन के लिए भी नहीं कहता; फिर इतनी कठोरता क्यों ?’
ऐसा विचार भजन में सहायक होता है। रोज रोना; और अनुभव रखना कि हमारी सुनवाई हो रही है। सबको जहाँ तक हो, रोने की स्थिति प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि भजन से बढ़कर यह रोने का भाव है। और भगवान् से प्रार्थना करने पर वे अवश्य सुनते हैं, इसलिए सदैव प्रसन्न रहना चाहिए और प्रसन्नता ही में कार्य भी करना चाहिए। प्रभु की दया का भरोसा रखना सर्वोत्तम लाभदायक है और आशा-प्रतीक्षा भी अच्छा साधन है। जिस प्रकार मवाद बाहर आने से फोड़ा साफ होता है, उसी प्रकार रोने से आन्तरिक फोड़े की मवाद बाहर आ जाती है। यह समझो कि पाप तो हमारे में हैं नहीं; और दोषों का स्वभाव प्रभु-कृपा से नहीं रहता है।