Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

विशेष कीमती बातें

१. सात-पाँच (अर्थात् इधर-उधरके) सब कामोंको छोड़कर अबसे लेकर मरण-पर्यन्त भगवान्‌का भजन-ध्यान रखते हुए सब चेष्टा होवें, तो करे; नहीं तो सब चेष्टाओंको छोड़ देना चाहिये।

२. मनुष्य जीवनका समय बहुत मूल्यवान् है, यह बार-बार नहीं मिलता है। इसे उत्तरोत्तर भगवान्‌के भजन-ध्यानमें लगाना चाहिये।

३. मृत्युका भरोसा नहीं है, किस समय आ जाय। अतः भगवान्‌का स्मरण कभी नहीं भूलना चाहिये, उन्हें निरन्तर याद रखना चाहिये।

४. आत्मोद्धार करना हो तो इधर-उधरकी बातें छोड़कर हर समय भगवान्‌का भजन करे।

५. प्रभुको छोड़कर अन्यमें मन नहीं लगावे । मन निरन्तर प्रभुके स्मरणमें लगा रहे।

६. भगवान्के भजनमें देह सूख जाय, साधन करनेमें मृत्यु हो जाय तो भी हर्ज नहीं।

७. जैसे पूर्वजन्मके स्त्री, पुत्र, परिवारकी अब याद भी नहीं है, इसी भाँति इस जन्मकी बातें, स्त्री, पुत्र, परिवार भी याद नहीं आयेंगे। फिर समय व्यर्थ क्यों गमावे ? मनको निरन्तर भगवान्‌के भजन-स्मरणमें लगाये रखे।

८. जैसे पतिव्रता प्रत्येक कार्य पतिकी प्रसन्नताके लिये करती है, वैसे ही अपना प्रत्येक कार्य भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये प्रभुको याद रखते हुए करे।

९. कठपुतलीके समान सूत्रधार प्रभुपर निर्भर हो जाय।

१०. प्रभुकी स्मृति सूर्य है। प्रभु और महात्माओंकी विशेष दयाका अनुभव करे कि दिन-दिन भजन-ध्यानका साधन बढ़ रहा है। सद्गुणोंका विकास और आसुरी सम्पदाका विनाश करे। भजन- ध्यानका साधन बढ़ावे ।

११. जीवमात्रमें प्रभुको देखे, देख-देखकर मुग्ध होता रहे। निरन्तर प्रभुका स्मरण-चिन्तन, प्रभुके विधानमें परम सन्तोष, सब कुछ प्रभुका समझकर उनके अर्पण कर देना और उनकी आज्ञाके अनुकूल चलना- ये चार शरणके अंग हैं।

१२. प्रभुसे मिलनेकी उत्कट इच्छा प्रभुसे मिला देती है। प्रभु कैसे मिलें- यह धुन लग जाय तो प्रभु बिना मिले नहीं रह सकते।

१३. प्रभुका सारा विधान जीवोंके वास्तविक कल्याणके लिये ही है।

१४. कलियुगमें प्रभु थोड़े भजनसे ही मिल जाते हैं। हमको यह मौका मिला है। अब इसे नहीं छोड़ें।

१५. विपत्ति प्रभुका भेजा हुआ पुरस्कार है। उसमें परम आनन्द माने, उसे प्रभुका प्रसाद समझे। उसमें मुफ्तमें प्रभुका छिपा हुआ प्यार भरा हुआ है।

१६. मनुष्यकी मान्यता फलती है। जो जैसा मानता है, उसे वैसा ही फल मिलता है, अतः अच्छी भावना करनी चाहिये । भावना में कृपणता क्यों की जाय ? मान्यताके अनुसार अनुभव हो जाता है और अनुभव होनेके बाद वैसी ही स्थिति हो जाती है।

१७. नित्यकर्म, साधन, भजन- सभीमें ऊँचा-से-ऊँचा भाव करना चाहिये।

१८. हर समय प्रभुकी कृपा समझे। कृपा समझने में सहायक सत्संग, स्वाध्याय यानी प्रभु विषयक बातोंका श्रवण, मनन, पठन, आलोचना (परस्पर विचार-विमर्श) करे। प्रभु-विषयक बातोंमें ११ बातें बहुत मनन करने योग्य हैं- नाम, रूप, लीला, धाम, तत्त्व, रहस्य, गुण, प्रभाव, प्रेम, शान्ति और आनन्द ।

१९. वैराग्य, निष्कामभाव, सत्य भाषण और शास्त्र मर्यादानुसार आचरण- इन चार पर मेरा विशेष आग्रह है। परमार्थका पथिक इनके पालन पर ध्यान देवे।

२०. चार चीजोंको बिल्कुल त्याग दे- पाप, भोग, प्रमाद और आलस्य।

२१. साधनमें प्रबल घाटियाँ हैं- कंचन, कामिनी, शरीरका आराम, मान और यश (कीर्ति)।

२२. चार बातें बड़ी अच्छी हैं- भजन, ध्यान, सत्संग और स्वाध्याय । २३. भजन, ध्यान, सेवा और संयम- यह साधनकी चतुःसूत्री है। हमको तो अपने ६० वर्षके जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूपमें मिली।

२४. गुणग्राही बने। दूसरोंके गुण ही देखे, अवगुण नहीं।

२५. एक सेवा होती है और एक परम सेवा होती है। लाखोंकी सेवासे एक की परम सेवा बढ़कर है।

२६. परोपकारमें तन, मन, धन लगा देना, पीड़ितको अन्न, वस्त्र और औषध आदि देना सेवा है। किसीको प्रभुके मार्ग में लगा देना, उसके भजन-साधनमें सहायक होना, सत्संग में लगा देना, प्रभुकी चर्चाके द्वारा किसीकी उन्नतिमें हेतु बनना, कोई मर रहा हो, उसे गीता, रामायण और प्रभुका नाम सुना देना, सब जीवोंके कल्याणके लिये भगवान्से प्रार्थना करना - यह सब परम सेवा है।

२७. महात्मा पुरुष जब दूसरोंसे काम लेते हैं तो उनके हितके लिये ही लेते हैं।

२८. महात्मा पुरुष प्रभुमें ही मिल जाते हैं। प्रभुकी पूजा ही उनकी पूजा है। उनके दर्शन, भाषणसे तो क्या, उनके स्मरणसे ही अन्त:करण पवित्र हो जाता है।

२९. चाहे आगमें घास डालें अथवा घासमें आग डालें, वह आग ही बन जाती है, इसी प्रकार महात्माके पास अज्ञानी जाये अथवा अज्ञानीके पास महात्मा जाये तो वे अपनी ज्ञानाग्निसे उसके अज्ञानको मिटा देते हैं। ज्ञानीका संग, उनका दर्शन, भाषण, स्मरण- सभी महान् फलदायक हैं। जब एक दीपकसे लाखों दीपक जल सकते हैं तो एक महात्मासे लाखों महात्मा क्यों नहीं हो सकते हैं ? महात्माकी आज्ञानुसार आचरण करनेसे महात्माका तत्त्व जाना जाता है।

३०. सब साधनोंमें तीन प्रधान हैं- भजन, ध्यान और सत्संग; इनमें स्वाध्याय, सेवा, संयमको और जोड़ दें तो इन ६ में सब आ गये।

३१. अपनी देहके लिये या अपने किन्हीं मिलनेवालोंके लिये किसी विशेष स्थान पर नहीं जाये अथवा किसी विशेष स्थानपर नहीं रहे, अपितु जहाँ किसी महात्माका संग मिले या भजन- ध्यान ज्यादा बने, इन्द्रियाँ विकृत नहीं होती हों इनके लिये जाये।

३२. मुख्य बात- प्रभुको अपने सामने आकाशमें खड़े हुए देखे और यह अनुभव करे कि वे ज्ञान, प्रेम, शान्ति, समता एवं आनन्दकी वर्षा कर रहे हैं तथा ये सब मुझमें प्रवेश कर रहे हैं।

३३. जो कोई भी सामने आ जायँ, उन सबमें पहले भगवान्‌की भावना करके उन्हें बार-बार प्रणाम करे, फिर बात करते हुए भी यह स्मरण रखे कि हम भगवान्से बात कर रहे हैं।

३४. किसीके भी साथ व्यवहार करें, उस व्यवहारमें ये चार बातें रहनी चाहिये- उसका सम्मान, प्रेम, उसका हित और सत्य।

३५. भगवान्‌का भजन और दानको कल के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिये।

३६. साधकको अपने भजनको छोड़कर और काम करनेकी फुरसत ही नहीं रहे। केवल भगवान्के भजनमें लगा रहे।

३७. भगवान्‌के बलपर ही भगवान्‌को पानेकी इच्छा करनी चाहिये। उन्हींके बलपर हम उन्हें प्राप्त कर सकते हैं।

३८. हम मनुष्य शरीरमें आये हैं- भगवान्‌की प्राप्तिके लिये और लग गये- विषयोंको बटोरनेमें। हिरण्यकशिपु और रावणको देखिये- सारे संसारका वैभव उन्हें प्राप्त था, परन्तु अन्तमें उन्हें खाली हाथ जाना पड़ा ! फिर हम किस वैभवके लिये इच्छा करें ? मनुष्यको केवल भगवान्‌की इच्छा करनी चाहिये। केवल भगवान्‌के भजन- ध्यानमें निरन्तर लगा रहे - इसीमें जीवनकी सार्थकता है।

३९. संसारमें जो कुछ भी अनिच्छा, परेच्छा और दैवेच्छासे हो रहा है, वह सब भगवान्की मर्जीसे हो रहा है। भगवान्‌की मर्जी, इच्छासे जो कुछ होता है, उससे हमारा अमंगल हो ही नहीं सकता, उसमें तो हमारा हित-ही-हित भरा हुआ है। भगवान् के द्वारा हमारा अहित हो ही नहीं सकता, यह होना असम्भव है। जैसे एक माँके द्वारा अपने बच्चेका अहित हो ही नहीं सकता, फिर परमपिता परमात्माके द्वारा हमारा अहित होना कैसे सम्भव हो सकता है ? इस प्रकार जो कुछ भी हो रहा है, उसमें भगवान्का विधान समझकर खूब प्रसन्न रहना चाहिये।

४०. जैसे श्वासके बिना हम जी नहीं सकते, उसी प्रकार राम नामको अपने जीवनका आधार बना लेवे। भगवान्का भजन निरन्तर शुरु कर देंगे तो हमारा बेड़ा पार हो जायेगा।

४१. भजन, जो हमारा राम नाम है, वह हमारा प्राण है।

४२. सबका सार यही है कि भगवान्‌की निरन्तर स्मृति रखनी चाहिये, चाहे किसी प्रकारसे भी हो।

४३. सब जगहसे प्रेम हटाकर एक भगवान्‌में ही लगाना चाहिये।

४४. अपनी सारी-की-सारी शक्ति एक भगवान्‌की प्राप्तिके प्रयत्नमें लगानी चाहिये।

४५. हम यह सब सामग्री पाकर भी भगवान्को प्राप्त नहीं कर सके तो हमारे समान मूर्ख कौन होगा ?

४६. दिन-रात सत्संग सुननेको मिले। गीता, रामायण और गंगाजल (जो कि हमें पान करनेको मिलता है)- इनकी शास्त्रोंमें बहुत महिमा मिलती है। जो इनका सेवन करता है, उसकी यमराजके यहाँ चर्चा नहीं होती है।

४७. कानमें भी नारायण, हृदयमें भी नारायण, साथमें भी नारायण। देखें तो नारायण, बोले तो नारायण। ऐसे नारायणका अभ्यास करनेसे नारायणकी प्राप्ति हो जाती है।

४८. मेरे अनुभवकी बीती हुई बात बताता हूँ। जब-जब वैराग्य बढ़ता था, तब-तब सांसारिक सुखमें रस प्रतीत नहीं होता था। जिन लोगोंको रस प्रतीत होता था, हमको उनकी मूर्खता प्रतीत होती थी और हँसी आती थी कि कैसा मूर्ख है, जो सांसारिक सुखोंको सुख मानकर भोगता है !

४९. साध्य (यानी भगवान्) न मिले, पर साधन नहीं छूटना चाहिये। साधनको ही साध्य बना ले। साधनमें न तो उकताना चाहिये, न ही ऊबना चाहिये। साधनमें कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये। 'अव्यावृतभजनात् ' (नारदभक्तिसूत्र-36) (अर्थात्- अखण्ड भजनसे भक्तिका साधन सम्पन्न होता है)। साधन तेज, तैलधारावत्, निरन्तर और आजीवन होते रहना चाहिये।

५०. भगवान्‌के ध्यानमें अधिक-से-अधिक समय लगाना चाहिये। हरेक क्रिया करते हुए भी मन भगवान्‌में ही लगाये रखना चाहिये। भोजन, परोपकार और सेवाके समय भी चित्तको भगवान्में ही लगाये रखना चाहिये; इसमें कमी नहीं आने देनी चाहिये।

५१. पहले भगवान्‌को जानें; पीछे और कुछ।

५२. ईश्वरके सिवाय तुम जो कुछ जानते हो, उसे भूल जाओ। इधर-उधरकी और बातें जाननेके लिये समय व्यर्थ मत करो। केवल ईश्वरमें लीन रहो, उसीके रंग में रँग जाओ।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...