Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

विधवाके जीवनको आदर्श बनानेके विषयमें

प्रवचन सं- 9
दिनांक 30-4-1952

विधवाओंके जीवनको आदर्श बनानेके लिए उनके जो धर्म धर्मशास्त्रेंमें लिखे हैं, उनके अनुसार जीवन बिताना चाहिये। मनुस्मृति अध्याय 5 व 9में इस धर्मका वर्णन आता है। और भी जो आदर्ळ विधवा माताएँ हुई हैं, उनके जीवनके अनुसार जीवन बिताना चाहिये।

सार बात यह है कि पतिके मरनेपर स्त्री अपना जीवन किस प्रकार बिताये ? उनके पुत्र हो तो पुत्रकी देखरेखमें जीवन बिताना चाहिये। स्त्रीको बाल्यकालमें पिताकी देखरेखमें, युवावस्थामें अर्थात् विवाह हो जानेपर पतिके अनुकूल रहना चाहिये। पतिके मरनेके बाद पुत्र हो तो उसकी देखरेखमें रहना चाहिये।

यहाँ यह शंका होती है कि शास्त्रेंमें लिखा है कि पुत्रको माता-पिताके अनुकूल रहना चाहिये और आप कहते हैं कि माताको पुत्रके अनुकूल रहना चाहिये, तो इसमें अन्योन्याश्रित दोष आता है। उत्तर है कि– माता-पिताका जीवन सुखपूर्वक बीते, यह पुत्रका कर्तव्य है और स्त्रियोंका कर्तव्य है कि पुत्रके कन्ट्रोलमें रहें, क्योंकि स्त्रियों में विद्या, बुद्धि, ज्ञानादि कम होते हैं, अतः स्वतन्त्र नहीं विचरना चाहिये। घरसे बाहर जावे तो पुत्रके अनुकूल होकर रहे। घरमें रहे तो पुत्रको माताके अनुकूल रहना चाहिये। यह बात मनुस्मृति आदि शास्त्रेंमें बतलायी है।

दूसरी बात है– विधवाओंको घरमें रहकर क्या करना चाहिये ? 

शरीरमें जब तक शक्ति है, घरका काम खूब करना चाहिये, कमकस नहीं बनना चाहिये। भजन-ध्यानके बहाने कामको नहीं छोड़े, मनके धोखेमें नहीं आवे, नहीं तो वह आलस्य और आराममें डालकर हरामी बना देगा। जब भजन-ध्यान अधिक होने लगे तो समय बढ़ाना चाहिये। ज्यादा एकान्तमें नहीं रहना चाहिये। जप और ध्यानमें दो बड़े विघ्न हैं– आलस्य और स्फुरणा। भजन-ध्यान करनेका मनका स्वभाव नहीं है। बुद्धिद्वारा जानते हैं कि भजन-ध्यान करना चाहिये। मन सदा कामसे हटना चाहता है और एकान्तमें वही करता है। गीताके सिद्धान्तके अनुसार आपको बतलाया–

सर्व कर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।

मत्प्रसादादवाप्नोति   शाश्वतं  पदमव्ययम् ।। 

(गीता 18/56)

अर्थात्– मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन अविनाशी परम पदको प्राप्त हो जाता है।

एकान्तमें बैठकर जप-ध्यान करनेसे जो फल मिलता है, वही फल, भगवान् कहते हैं कि– ‘मेरी शरण हुआ पुरुष सदा मेरा स्मरण करते हुए काम करता हुए प्राप्त कर लेता है।’ गोपियाँ हर वक्त भगवान् को याद करती ही रहती थी। हमने कहीं नहीं देखा कि गोपियोंने कामकाज छोड़कर एकान्तमें भगवान् का भजन किया हो। भगवान् को वे अर्जुनसे भी ज्यादा प्यारी थी। अर्जुनको प्यारा बनानेके लिये वे कहते हैं–

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्    ।। 

(गीता 8/7)

अर्थात्– इसलिये हे अर्जुन ! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू निःसन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।

भगवान् को याद रखते हुए जब युद्ध जैसा कठिन काम हो सकता है तो और काम क्यों नहीं हो सकते ? एकान्तमें बैठकर भजन-ध्यान करना बहुत अच्छी बात है, पर आलस्य, विक्षेप न हो। यदि विक्षेप और आलस्य हो तो निष्कामभावसे सेवा करना ज्यादा दामी है। एक तरफ सकाम कर्म, भजन, ध्यानादि हैं और दूसरी तरफ निष्काम कर्म है तो निष्काम ही बलवान् है। भगवान् कहते हैं– 

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् 

(गीता  12/12) 

अर्थात्– ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलका त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्यागसे तत्काल ही परम शान्ति होती है।

किस प्रकार आदर्ळ बने ? कुन्ती देवीका जीवन सामने रखना चाहिये। वे विधवा थी, सारा जीवन विधवापनमें ही बिताया था। खास बात है कि घरका काम करे तो निष्कामभावसे करे। घरका काम किये बिना घरका खाना है, वह हरामी बनाता है, वह पैसा चाहे ससुरका हो, पतिका हो, बापका हो या पुत्रका हो खाली बैठकर खानेसे हरामीपन आता है। परिश्रम करके खाया जाये, वह फायदेका काम है। घरमें बेटेकी बहू आई तो उसपर ही सारा काम नहीं छोड़े। अपने शरीरका काम शक्ति रहते दूसरोंसे नहीं कराना चाहिये। काम न करनेसे कमकसपनेका दोष तो आता ही है, उसका अन्न भी पवित्र नहीं है। अन्नसे आत्मा शुद्ध होती है, निष्कामभावसे सेवा करनेसे अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। घरवाले यह समझें कि माँजी काम किये बिना रह ही नहीं सकती, उनका स्वभाव ही काम करनेका है। अपने आरामकी कोई बात कहे तो वह विषके समान प्रतीत हो। निष्कामभावसे जिसकी भी सेवा की जाय, वह भगवान् की सेवा है।

स्त्रियोंको यह ख्याल करना चाहिये कि घरको साफ रखें, चीज-वस्तुओंको सँभाल कर रखें शरीरका निर्वाह हो, वह वस्तु काम में लें शास्त्रके विपरीत चीजका कभी सेवन नहीं करें शास्त्रके अनुकूल हो, सात्त्विक हो, कम दामोंकी हो, उसका सेवन करना चाहिये। योगशास्त्रमें खिचड़ीको अधिक उपयोगी माना है, वह सस्ती भी है। ज्यादा अन्न खाना साधनमें बाधक है। बिल्कुल न खायें, यह भी ठीक नहीं। भगवान् कहते हैं– 

युक्ताहारविहारस्य  युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।। 

(गीता 6/17)

अर्थात्– दुःखोंका नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका और यथायोग्य सोने तथा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है।

ध्यान देना चाहिये कि विषयोंमें जो दोष है, वह आसक्तिका है। इसका त्याग करके विषयोंमें विचरण करना बाधक नहीं है। विषय सर्पके समान हैं। उनके दाँत तोड़ दो, फिर चाहे इन्हें गलेमें ही क्यों न उतार लो। साँपसे दूर रहना अच्छा है, पर दूर रहे नहीं और दाँत काट डाले, साँपको मारे नहीं। उसमें घातक है– विष। विषयोंका भोगबुद्धिसे सेवन करना अनर्थोंका मूल है। रात्रिको जब कोई काम न रहे तो कोटड़ी (अर्थात् कमरा) बन्द करके जप-ध्यान करना चाहिये। प्रातःकाल भजन करनेसे दिनभर प्रसन्नता रहती है और रात्रिके भजनसे रातभर प्रसन्नता रहती है। मनसे मनन करे, वाणी और श्वाससे जप करे और सबको भगवान् समझकर सेवा करे।

उत्तम गुण और उत्तम आचरणोंको अमृतके समान समझकर उनका सेवन करना चाहिये। ब्रह्मचर्य उत्तम आचरण है। उत्तम गुणोंको पी जावे। स्वयं दूसरे पुरुषकी तरफ देखे नहीं और यदि कोई दूसरा पुरुष अपनी ओर देखे तो अपना दोष समझे। सादा कपड़ा पहने,  शृंगार नहीं करे।  शृंगार करनेवाली स्त्रियोंका संग न करे। उसको प्लेगके समान समझकर उसका त्याग कर देना चाहिये। ब्रह्मचर्यके पालनका खूब ध्यान रखे। पर-पुरुषसे बोलनेका काम पड़े तो पिता, भाईका-सा व्यवहार करे। चाहे प्राण चले जायँ, पर मिथ्याभाषण नहीं करना चाहिये। झूठ और छिपाव कभी न करे। तीर्थ, व्रत, उपवासादि करे। जप भावसहित करनेसे उसका फल सौ गुणा ज्यादा होता है। व्यवहारकालमें भी बहुत सावधान रहे। भजन-ध्यान जितना अधिक हो सके, उतना ही करना चाहिये।

किसीके दुर्गुण, दुराचारको कानोंसे नहीं सुने। सुने तो इनका त्याग करनेके लिये सुने। बुरी बात कहने और सुननेसे नुकसानके सिवाय और कुछ नहीं है। दुर्गुण, दुराचार आसुरी सम्पदा है राक्षसोंकी पूँजी है, साधकोंकी नहीं। बुरे भाव और बुरे कर्मका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। कुन्तीके जीवनको याद कर लिया करें। कुन्तीके जीवनमें प्रवेश करके देखें तो हमें अश्रुपात होने लगेंगे।

प्रश्न– विधवा माता, बहिनोंपर घरवाले लोग अत्याचार करें तो उनको कैसे सहें ?

उत्तर– बात यह है कि जैसा मैंने कहा, वैसे करो, फिर कोई अत्याचार कर ही नहीं सकता। यदि करें भी तो कुन्तीके माफिक सहन कर ले।

प्रश्न– देवियोंका दुःखमय जीवन है तो दुःख सहनेके लिये आत्मबल कैसे बढ़े ?

उत्तर– आत्मबल दुःख सहन करनेसे बढ़ता है। कुन्तीकी तरह धैर्यपूर्वक दुःख सहन करे। कुन्तीने भगवान् कृष्णसे वर माँगा– ‘मुझे आप कष्ट-पर-कष्ट देते रहिये, जिससे आपकी स्मृति बनी रहे।’ दुःखकी माँग है, वह निष्कामभाव है। सुखकी माँग है, वह सकामभाव ही है। घरके लोग अत्याचार करते हैं, यह भगवान् की बड़ी भारी दया है।

दूसरोंके दोषोंको कभी नहीं देखना चाहिये। दूसरोंकी खूब सेवा करनी चाहिये। कोई अत्याचार करे तो बोलना अवश्य चाहिये, पर उद्दण्डतासे नहीं, नरमाईसे बोलना चाहिये, यह शोभा है। मीराबाईपर जितने अत्याचार हुए, सबको प्रसन्नतासे सहा। पतिके मरनेपर देवरने अनेकों अत्याचार किये, उसने शान्तिपूर्वक सबको बर्दास्त किया तो अन्तमें देवर उनकी शरणमें चला गया। मीरापर हुए अत्याचारोंके समान तो आजकल अत्याचार हो ही नहीं सकते। राणाजीने साँप भेजा, विष भेजा, सिह तक भेज दिया, परन्तु वे सब थे तो भगवान् के ही रूप। कुन्ती और मीराने घरके लोगोंके साथ जैसा व्यवहार किया, उसको याद कर लेना चाहिये।

विधवाओंको सादगीसे रहना चाहिये। गरीब घरकी स्त्रीके माफिक मोटा कपड़ा पहने, मोटा खाना खावे, प्रेमसे बोले और खूब सेवा करे। इनको धारण करना आपका काम है। यदि आप लोग इनको धारण करेंगी तो निःसन्देह आप आदर्ळ बन सकती हैं।

ऋषि, महात्मा, जीवन्मुक्त पुरुषोंका कहना है कि स्त्रीको कभी स्वतन्त्र नहीं रहना चाहिये। स्वतन्त्र रहनेसे धर्ममें रहना कठिन है। 100 में से 10 बच गई और 90 डूब गई तो 10 का उदाहरण नहीं दिया जा सकता है, अतएव शास्त्र और महात्माओंके वचनोंका पालन करना चाहिये।

 नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...