सत्संगके बिखरे मोती
१. किसी भी आदमीका आपके द्वारा कल्याण हो गया तो आपका जन्म तो सफल हो गया।
२. आपलोगोंको यह धारणा करनी चाहिये कि अपना कल्याण चाहे नहीं होवे, परन्तु हमारे प्रयत्नसे यदि किसीका भी कल्याण हो जाय तो अपना जीवन सफल हो गया।
३. आप संसारके उद्धारके लिये खड़े होंगे तो आपको भगवान् आप ही शक्ति देंगे; वे आप ही योग्य बना लेंगे।
४. लोगोंमें गीताजीका प्रचार करना चाहिये।
५. भगवान्की भक्तिका प्रचार करना चाहिये और लोगोंको भक्तिमार्गमें लगाना चाहिये इससे बढ़कर कोई काम नहीं है।
६. संसारी वस्तुका चिन्तन करना है, वह तो भगवान्से दूर होना है। जब-जब संसारका चिन्तन हो, तब-तब पश्चात्ताप करना चाहिये।
७. सेवा और परमसेवा वही पुरुष कर सकता है, जो लोगोंको कष्टके समय सहायता दे। यदि कोई व्यक्ति बीमारी और कष्टके समय तो सहायता देवे नहीं और बादमें उपदेश दे तो उसका उपदेश किस तरह लगे ?
८. यदि सेवा करनेके कारण भजन कम भी होवे और उसका भजन-ध्यान करनेका उद्देश्य होवे तो वह सेवा भजन से कम कीमती नहीं है।
९. अपने ऊपर ईश्वरकी दया माननेवाले पुरुषोंको कभी निराश नहीं होना चाहिये। उनमें श्रद्धा, प्रेम होनेके लिये भजन-ध्यानकी विशेष कोशिश करनी चाहिये।
१०. जो आदमी मरणासन्न हो, उस आदमीको परमात्माकी तरफ लगा दो इसके बराबर कोई भी साधन दुनियामें नहीं है। ऐसा जो समय है, वह महापुरुषोंके समयके समान दामी (मूल्यवान् है। इस क्रियासे भगवान् बहुत राजी होते हैं।
११. जिसके हृदयमें भगवान्की भक्ति बस जाती है, उसके नजदीक काम, क्रोध आदि मायाकी सेना नहीं आती।
१२. आप जल्दी-से-जल्दी परमात्मासे मिलना चाहते हैं तो दुखियोंके दुःखको दूर करो।
१३. दो बात बतला देवें, जिनको काममें लेनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाय- (१) परमात्माको हर समय याद रखना। (२) सबके हितमें रत रहना।
१४. यह अभ्यास डाल लो कि हर समय प्रसन्न रहें। अभ्यास डालनेसे सदाके लिये प्रसन्नता हो जायेगी।
१५. सबका हित अधिक-से-अधिक हो, ऐसी चेष्टा रखनी चाहिये।
१६. भगवान्की स्मृति और भगवान्का लक्ष्य रखते हुए ही काम करना चाहिये।
१७. स्वार्थका त्यागी पुरुष ही श्रेष्ठ पुरुष है। उसका वचन प्रमाण है।
१८. दो बातकी तरफ लक्ष्य रखे- हर समय भगवान्की स्मृति रहे और स्वार्थका त्याग।
१९. कर्ममें निष्कामताकी प्रधानता है।
२०. अपना साधन होता है, वह परमात्माकी कृपासे ही होता है।
२१. हमलोगोंको गीता याद करनेके साथ-साथ अपना जीवन भी उसीके अनुसार ढालनेकी चेष्टा करनी चाहिये। गीतामय जीवन बनाना है।
२२. हमको अच्छा एवं पवित्र काम करना चाहिये और निष्कामभावसे करना चाहिये। निष्कामभावसे करनेसे ही आत्माका कल्याण हो सकता है।
२३. मनुष्यका शरीर आत्माके कल्याणके लिये मिला है, भोग भोगनेके लिये नहीं मिला है। यदि मनुष्यका शरीर पाकर भी भोग भोगनेमें ही रहा तो वह घाटेमें है।
२४. हमें तो रात-दिन एक ही लालसा, एक ही लगन रखनी चाहिये कि भगवान्की प्राप्ति हो जावे, भगवान्के दर्शन हो जावें, भगवान्की निरन्तर स्मृति बनी रहे। इसके सिवाय रुपया, पैसा, धन, स्त्री, पुत्र- किसीकी भी लालसा नहीं रखनी चाहिये।
२५. हर समय भगवान्के नामकी रटन लगानी चाहिये। चाहे वाणीसे रटन हो, चाहे मनसे रटन हो, चाहे भगवान्के नामका जप हो, चाहे स्वरूपका ध्यान हो- अबसे लेकर मरण- पर्यन्त ये बातें कायम रखनी चाहिये।
२६. अन्यायका पैसा नहीं लेना चाहिये, न्यायका ही लेना चाहिये। अन्यायका पैसा लेनेसे तो भीख माँगना भी अच्छा है।
२७. झूठ, कपट एकदम बन्द करना चाहिये। झूठ, कपट न तो करना चाहिये, न अपनी स्त्री, बच्चों, गुमास्तों (मुनीम, नौकर) आदिसे ही कराना चाहिये। सच्चाईका व्यवहार करना चाहिये। बिल्कुल कन्ट्रोल करनेपर भी थोड़ी-बहुत गड़बड़ होना सम्भव है, इसलिये बड़ी कड़ाईके साथ सच्चाईका व्यवहार करना चाहिये।
२८. भगवान्से मिलनेके सुखकी तुलनामें संसारका समस्त सुख 1 सागरमें एक बूँदके बराबर भी नहीं है।
२९. भगवान्से मिलनेकी इच्छा हो तो भगवान्के लिये तल्लीन हो जाओ।
३०. भगवान्की लगन लग जावे तो सब समय भगवान्का भजन होने लग जावे।
३१. परमात्माके सिवाय संसारकी किसी भी वस्तुका चिन्तन करे ही नहीं। भगवान्के चिन्तन, स्मरणमें ही लगा रहे।
३२. त्रिलोकीका दान भगवान्के क्षणभरके भी ध्यानके बराबर नहीं है।
३३. नाम-जपसे सबका कल्याण हो जायेगा। नाम-जपमें हिंसा नहीं है और यह नामीसे भिन्न नहीं है, इसलिये भगवान्ने गीता (१०/२५) में जप यज्ञको अपना स्वरूप बतलाया है।
३४. जब तक देहमें प्राण हैं, तब तक कटिबद्ध होकर भगवान्की प्राप्ति कर लेनी चाहिये। भगवान्के भजन- ध्यानमें निरन्तर लगे रहना चाहिये।
३५. भगवान्ने बहुत सुगम रास्ता बता दिया है कि- 'तू मेरा निरन्तर स्मरण कर, फिर मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसारसमुद्रसे उद्धार कर दूँगा।' (गीता १२/६-७)
३६.' हमलोगोंका बहुत जल्दी कल्याण हो सकता है। केवल एक बात माननी है- भगवान्को मत छोड़ो। नामका जप तो जंजीरके समान है और उनके स्वरूपका ध्यान नौकाके समान है।
३७. क्रोध एक अग्नि है, जो किसी झोंपड़ीमें लग गई हो और चारों ओर चिनगारी उछलती हों तो चारों ओर के मनुष्योंको दुःख होता है। क्रोधसे कलह पैदा होती है, क्रोध और कलहके कारण मृत्यु होने जैसा संयोग भी बन जाता है, इसलिये ह्रदयमें शान्ति रखते हुए क्रोधका त्याग करना चाहिये।
३८. चाहे कोई भी कामका नुकसान होवे, परन्तु भगवान्का चिन्तन नहीं छोड़ना चाहिये।
३९. भजन श्वासद्वारा करना चाहिये। मौन रहनेसे जब तक काम चलता हो, तब तक नहीं बोलना चाहिये। भजनसे कोई उत्तम काम हो, तब भले ही बोलना चाहिये।
४०. जागो, चेतो, अपना पतन मत करो। ईश्वरको भूलना ही अपना पतन करना है-
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
(गीता ८/१४)
अर्थात् - श्रीभगवान् कहते हैं- हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।
४१. कोई परिश्रम नहीं और पैसेका खर्च नहीं एवं कोई कष्ट भी नहीं। जिसके भगवान्की निरन्तर स्मृति रहे, उसके लिये भगवान् सुलभ हैं। रात-दिन परमात्माकी ज्योति यानी उनकी नित्य-निरन्तर स्मृति रहनी चाहिये। भगवान्की स्मृति हृदयमें जगती रहेगी, फिर कोई भी दोष आपके पास आयेगा ही नहीं।
४२. परमात्माको कभी नहीं भूलना चाहिये- यही मेरी प्रार्थना है।
४३. ईश्वरसे बढ़कर संसारमें कुछ भी नहीं है। जो ऐसा जान लेगा, वह बस, भगवान्को ही भजेगा। ४४. मनुष्य जीवनका समय अमूल्य है। इसको बहुत ही विचारकर बिताना चाहिये।
४५. किसी भी प्रकार कष्ट सहकर इस शरीरसे ईश्वरकी भक्ति करके परमात्माकी प्राप्ति कर लेनी चाहिये ताकि जो करोड़ जन्म होनेवाले हैं, उनसे पिण्ड छूट जाय।
४६. लाख काम और करोड़ काम छोड़कर भगवान्का भजन करके परमात्माकी प्राप्ति करनी चाहिये।
४७. रात-दिन भगवान्के भजन-ध्यानमें मस्त रहना चाहिये।
४८. ईश्वरकी भक्तिको सबसे बढ़कर समझनी चाहिये। काम, क्रोध, लोभ आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते, जिसके पास भगवान्की भक्ति मणि बसती है।
४९. भगवान्का अनन्य चित्तसे चिन्तन करना- सबसे एक नम्बर काम है।
५०. पचास वर्षकी उम्रके ऊपर का सब समय भजन-ध्यानमें लगाना चाहिये। सांसारिक बातें सुनना है, वह तो गाँवके मैला (विष्ठा, गन्दगी) को कानमें भरना है।
५१. अपने हाथोंसे दूसरोंके नुकसानके लिये कोई काम नहीं करना चाहिये, बल्कि उनकी सेवा और भगवान्की पूजा करनी चाहिये।
५२. हर वक्त भगवान्की स्मृति रखनी चाहिये और स्वार्थका त्याग करना चाहिये।
५३. कंचन, कामिनी, मान, बड़ाई और ईर्ष्या- इनके त्यागसे भगवान्की प्राप्ति हो सकती है। निकम्मा नहीं रहे, काम खोजता रहे।
५४. स्त्रियोंमें प्रायः ये दो दोष रहते हैं- (१) कामके लिये रोना - (२) स्वार्थ (ओछापन) और लोभका दोष।
५५. सबको भगवान्का स्वरूप समझकर सबकी सेवा करना- यह भगवान्की सेवा है।
५६. किसी भी प्रकारकी कामना हो, उसको जड़से उखाड़ देना चाहिये।
५७. अपना जीवन ज्यादा खर्चीला नहीं बनाना चाहिये। स्वावलम्बी बनना चाहिये और अपने ऊपर बहुत कम खर्च करना चाहिये।
५८. एकान्त वाले भजन- ध्यानको दामी बनाना चाहिये और उसे तत्परतासे करना चाहिये।
५९. स्वादकी तरफ ध्यान देना- यह तो डुबानेवाला है।
६०. खड़े-खड़े और रास्तेमें चलते हुए कोई चीज नहीं खानी चाहिये- तुलसी और चरणामृतको छोड़कर।
६१. घी, शहद, तेल, जल, दूध आदि तरल पदार्थ छानकर काममें लेने चाहिएँ।
६२. जिसमें हिंसा होती हो, ऐसी चीज काममें नहीं लानी चाहिये। ६३. जहाँ तक हो सके, मिल (कारखाने) की बनी हुई खानेकी चीज काममें नहीं लानी चाहिये।
६४. ईश्वरकी स्मृति और भजन-ध्यानके समान कोई साधन नहीं है।
६५. निष्कामभावसे बढ़कर कोई भाव नहीं है।
६६. आचरणोंके सुधारकी जड़ स्वार्थका त्याग है।
६७. भक्ति करनेवालोंको गीता अध्याय १२ श्लोक १३ से २० तक अपने में घटा लेना चाहिये (अर्थात् अपने आचरणमें उतारना चाहिये)।
६८. जिस समय वैराग्य हो, आलस्य नहीं हो, मनमें चेतनता हो, उस समय लाख काम छोड़कर भगवान्का ध्यान करना चाहिये।
६९. वक्ता स्वार्थरहित होना चाहिये। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा तथा स्वर्गको चाहनेवाला भी स्वार्थी समझा जाता है।
७०. भगवान्के नाम जपके समान संसारमें कुछ भी नहीं है। भगवान्को भूलनेपर पुत्रके मरनेके समान पश्चात्ताप करनेसे फिर जानकर भूल नहीं होगी।
७१. ईश्वरको छोड़कर जो संसारका चिन्तन करना है, वह समयको मिट्टीमें मिलाना है।
७२. ईश्वरके स्मरणके समान संसारमें आनन्द देनेवाली कोई चीज नहीं है। इसके सामने अमृतका भी कोई मूल्य नहीं है। ईश्वरके स्मरणको छोड़कर दूसरा काम करे ही नहीं ।
७३. भगवान्की स्मृतिको भूलना है, वह ईश्वरकी प्राप्तिको ठोकर मारनी है।
७४. भगवान्की स्मृतिको मंजूर कर लो। क्या जरूरत है कि ईश्वरको छोड़कर दूसरोंका चिन्तन करते हो ?
७५. जीवन-निर्वाहकी क्या चिन्ता है ? पशु-पक्षी आदिका भी निर्वाह होता है। जहाँ कहीं रहो, ईश्वरका चिन्तन करते रहो।
७६. जो नित्य-निरन्तर श्रद्धासे भगवान्को भजता है, उसकी महिमा भगवान्ने जगह-जगह गाई है। आप लोग यदि मेरी विनयको काममें लाओगे तो इसी जन्ममें बहुत जल्दी परमात्माकी प्राप्ति हो जायेगी।
७७. भगवान्को पुरुषोत्तम समझनेके बाद उनको भूल ही नहीं सकते हैं। यदि भूल होती है तो भगवान्को पुरुषोत्तम समझा ही नहीं है। आपलोगोंको यह बात समझमें आ जानी चाहिये कि परमेश्वरके समान कोई भी उत्तम नहीं है।
७८. ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ परमेश्वर नहीं है। गीता (६/३०)-की बात है कि सब जगह परमात्मा है। उसको छोड़कर अपने मनकी कल्पनाका चिन्तन करते हैं, यह गलत चिन्तन है। ईश्वरने आप लोगोंकों जो बुद्धि दी है, उसको परमात्म-चिन्तनके काममें खर्च करो।
७९. जब तक तुम्हारे मनमें संसार बसा हुआ है, तब तक भगवान् तुमसे दूर हैं। संसारकी तरफसे तुम्हारी दौड़ मिटते ही (रुकते ही) तुम ईश्वरकी ओर जाओगे, जिससे तुम्हारे अन्त:करण में अवश्य प्रकाश होगा। उस प्रकाशमें तुम्हें ईश्वरके सिवाय और कोई दिखाई नहीं देगा और न स्मृति अथवा वाणीमें ही आयेगा। यही योगकी वास्तविक अवस्था है।
८०. जो मनुष्य अशुद्ध दर्शनसे (यानी जो चीजें नहीं देखनी चाहिएँ, उनसे) अपने नेत्रोंको बचाता है, भोगोंसे अपनी इन्द्रियोंको बचाता है, नित्य ध्यानयोगसे (अर्थात् भगवान्का ध्यान करके) अपने अन्तःकरणको निर्मल रखता है, अपने चरित्रको शुद्ध रखता है और धर्मपूर्वक अर्जित अन्नसे अपना पालन करता है, उसके ज्ञानमें कोई कमी नहीं है।
८१. वैराग्य ईश्वर प्राप्तिका गूढ़ उपाय है, उसे तो गुप्त रखने में ही कल्याण है। जो अपने वैराग्यको प्रकट करते हैं, उनका वैराग्य उनसे दूर भागता है।
८२. सदा विनयपूर्वक, प्रेमपूर्वक ईश्वरका भजन करो, धर्मका अनुसरण और पूज्यभावसे सिद्ध पुरुषोंका समागम करो। सेवा और सम्मानपूर्वक साधुजनोंका सत्संग करो, प्रफुल्ल वदनसे निर्दोष भ्रातृ-मण्डलके साथ रहो, अज्ञानी लोगोंके साथ दयालु हृदय और नम्र वाणीसे तथा नौकरों और घरके लोगोंके साथ सज्जनता तथा सुशीलतापूर्वक बर्ताव करो।
८३. जो आने वाले कल की चिन्ता किये बिना प्रभुके भजनमें रत रहता है, वही सच्चा सहनशील है।
८४. तुम अपनी सांसारिक इच्छाओंकी कैदमें बन्द हो। उससे छूटनेके लिये यदि सब प्रकारसे अपने-आपको प्रभुके चरणोंमें अर्पित कर दोगे तो तुम्हारी रक्षा होगी और तुम्हें सच्चा सुख मिलेगा।
८५. इन तीन बातोंको अपना परम शत्रु समझो - धनका लोभ, लोगोंसे मान पानेकी लालसा और लोकप्रिय होनेकी आकांक्षा।
८६. निरन्तर भगवान्की ओर चित्त-वृत्ति लगी रहे, निरन्तर भजन-ध्यानमें लगा रहे। इस मार्गमें अवनति होनी तो कभी सम्भव ही नहीं है।
८७. यदि तुम ईश्वरके प्रीतिपात्र होना चाहते हो तो ईश्वर जिस स्थितिमें रखना चाहते हैं, उसमें सन्तुष्ट होना सीखो।
८८. मुर्दा, रोगी, आलसी और स्वस्थ- ऐसे चार प्रकारके मन होते हैं। धर्मद्रोहीका मन मुर्दा होता है, पापीका मन रोगी होता है, लोभी और स्वार्थीका मन आलसी होता है और भजन-ध्यानमें, साधनमें तत्पर व्यक्तिका मन स्वस्थ होता है। हमें प्रयत्न करना चाहिये कि हमारा मन स्वस्थ की श्रेणीमें रहे।
८९. प्रत्येक काम करते समय याद रखना चाहिये कि मैं जो काम कर रहा हूँ, उसे ईश्वर देख रहे हैं; मैं जो कुछ बोल रहा हूँ, उसे ईश्वर सुन रहे हैं। मौन धारण करते समय भी उसका कारण ध्यानमें रखना चाहिये कि किस कारणसे मौन लिया है, क्योंकि ईश्वर उसे भी जानते हैं।
९०. स्पृहा तीन प्रकारकी होती है- भोगनेकी, बोलनेकी और देखनेकी । भोग भोगते समय ध्यान रखना कि ईश्वर देख रहे हैं। बोलते समय ध्यान रखना कि सत्यका विनाश न हो जाय और देखते समय ध्यान रखना कि साधुता दूषित न हो जाय।
९१. इन चार बातोंके बारेमें आत्मपरीक्षा करते रहना चाहिये -
(१) कोई भी शुभ कर्म करते समय तुम निष्काम हो न ?
(२) जो कुछ बोल रहे हो, निःस्वार्थ भावसे है न ?
(३) जो दान, उपकार कर रहे हो, बदलेकी आशाके बिना है न ?
(४) जो धन संचय कर रहे हो, बदलेकी आशाके बिना है न ?
९२. प्रभुको सदा सर्वत्र उपस्थित समझकर यथाशक्ति उसका भजन-ध्यान और आज्ञापालन करते रहना चाहिये। इस मायावी संसारने आज तक असंख्य जनोंका संहार किया है, उसी प्रकार तुम्हारा भी विनाश न हो जाय इसका ध्यान रखना।
९३. एक प्रभुका सदैव स्मरण रखो। मनुष्योंकी बातें रहने दो।
९४. मेरा वश चले तो मैं निन्दकोंको खूब ईनाम दूँ, कारण कि उनकी निन्दासे और द्वेषसे तो मेरा हित साधन ही होता है।
९५. सावधान रहना- यह दुनिया शैतानकी दूकान है। भूलकर भी इस दूकानकी किसी भी चीजपर मन नहीं चलाना, नहीं तो शैतान पीछे पड़कर उस चीजके बदलेमें तुम्हारा धर्मरूपी धन छीन लेगा।
९६. मुनि, सच्चा साधक वही है, जिसे ईश्वरके विचारके सिवाय यानी भगवान्के भजन-ध्यानके सिवाय दूसरी बात प्रिय ही नहीं लगती है।
९७. ईश्वरका कहना है कि- 'जब मैं अपने दासपर प्रेम करता हूँ, तब मैं खुद उसकी आँखें, कान, हाथ आदि बन जाता हूँ। मेरा दास मेरे द्वारा ही देखता है, सुनता है, बोलता है और मेरे द्वारा ही सारा लेनदेन करता है।
९८. दुनिया एक युवती स्त्रीके समान है। जो मनुष्य उसकी कामना करता है, उसे तो अपना जीवन उसके लिये बढ़िया-बढ़िया गहने, कपड़े आदि जुटानेमें ही बिताना पड़ता है और जो उस स्त्रीकी ओरसे विरक्त रहता है, वह उस स्त्रीका सिर मूँडकर उसके मुँह पर कालिख पोत देता है।
९९. इन तीन मनुष्योंको बुद्धिमान् जानना चाहिये -
(१) जिसने संसारका त्याग कर दिया है (यानी संसारकी वस्तुओंकी कामनाका त्याग कर दिया है)।
(२) जो मौतसे पहले सब तैयारियाँ किये बैठा है (यानी भगवान् के यहाँसे कभी भी बुलावा आवे, जानेको तैयार है), और
(३) जिसने मृत्युसे पहले ही भजन-ध्यान करके ईश्वरकी प्राप्ति कर ली है और उसकी प्रसन्नता प्राप्त कर ली है।
१००. सांसारिक मनुष्योंसे तो जितनी हो सके, कम बात करो। ज्यादा बात तो करो- उस ईश्वरसे।
१०१. जो ईश्वरको अपना सर्वस्व मानता है, वही असली धनवान् है। दुनियाकी चीजोंको अपनी सम्पत्ति माननेवाला तो सदा गरीब ही रहेगा।
१०२. ईश्वरका स्मरण मेरी जिन्दगीकी खुराक, उसकी प्रशंसा मेरी जिन्दगीका पेय और उसकी लज्जा मेरी जिन्दगीके कपड़े हैं।
१०३. दुनियामें घुसना बहुत आसान है, पर उसमेंसे निकलना उतना ही मुश्किल है।
१०४. तुम्हारा चिन्तन तुम्हारा दर्पण है, कारण कि तुम्हारे शुभ-अशुभका हाल वह बता देगा।
१०५. मायावी संसारसे सदा सचेत रहना; यह बड़े-बड़े पण्डितोंके मनको भी वशमें कर लेता है।
१०६. भावावेश अन्तःकरणकी गहरी गुप्त क्रिया है, जिसमें साध क ईश्वरको खोजनेके लिये व्याकुल हो जाता है। जो मनुष्य ईश्वर-भावकी वृद्धिके लिये संगीत सुनता है, उसे तो उसके फलस्वरूप लाभ भी होता है, परन्तु जो संगीत इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये सुना जाता है, उससे तो ईश्वर विरोधी भाव और विषय-प्रेमकी ही वृद्धि होती है।
१०७. जब साधक अधिक खाने लगता है, तब देवता रोने लगते हैं। आहारमें जिसकी लालसा बढ़ती है, वह साधनाके मार्गसे जल्दी ही दूर हो जाता है।
१०८. जो मनुष्य सांसारिक विषयों तथा विषयी लोगोंके संसर्गसे दूर रहता है और साधुजनोंका ही संग करता है, वही सच्चा प्रभुप्रेमी है, कारण कि ईश्वरपरायण साधुजनोंसे प्रीति करना और ईश्वरसे प्रीति करना एक समान है।
१०९. सहनशीलता और सत्य परायणताके संयोगके बिना प्रभु प्रेम पूर्णताको प्राप्त नहीं होता है।
११०. विश्वासके तीन लक्षण हैं-
(१) सब चीजोंमें ईश्वरको देखना।
(२) सारे काम ईश्वरकी ओर नजर रखकर ही करना, और
(३) हर एक हालतमें हाथ पसारना तो उस सर्व-शक्तिमान्के आगे ही।
१११. संसारमें आसक्त लोगोंसे दूर रहो। सुख देनेवालेकी प्रशंसा या खुशामद न करो और दुःख देनेवालेका भी तिरस्कार न करो।
११२. जो मनुष्य दुःखमें भी प्रभुका चिन्तन करता है, वह महान् है।
११३. संसार कौन है, जो तुम्हें ईश्वरसे परे (दूर) रखे।
११४. अधम कौन है ? करता है। जो ईश्वरके मार्गका अनुसरण नहीं
११५. आगे-पीछेका विचार छोड़ो। जो हो गया है और जो होगा, उसकी चिन्ता न करो। वर्तमानमें प्रभुके भजनमें लगे रहो।
११६. यदि तुमने ईश्वरको पहचान लिया है तो तुम्हारे लिए वही एक दोस्त काफी है। यदि तुमने उसको नहीं पहचाना है, तो उसे पहचाननेवालोंसे दोस्ती करो।
११७. ऊपर चढ़नेकी सीढियाँ ये हैं-
(१) सांसारिक पदार्थोंके पीछे नहीं दौड़ना।
(२) सांसारिक विषयोंसे विरक्त होना।
(३) परमात्म-योगके मार्गको पकड़ना, और
(४) निर्मलता एवं प्रभु-प्रेम प्राप्त करना।
११८. अपने निर्वाहके लिए जो चिन्ता अथवा प्रपञ्च नहीं करता, वही सच्चा प्रभु विश्वासी है।
११९. जिसका मन पवित्र नहीं है, उसका कोई काम पवित्र नहीं होता है।
१२०. जन्मके पहले तू ईश्वरको जितना प्यारा था, उतना ही मृत्युपर्यन्त बना रहे, ऐसा आचरण कर।
१२१. जो आँखें ईश्वरकी ताबेदारीमें (सेवामें, आज्ञामें) रहनेमें भला नहीं मानती, उनका तो फूट जाना ही अच्छा है। जो जीभ ईश्वरकी चर्चा नहीं करती, वह गूँगी ही रहे तो अच्छा है। जो कान सत्य नहीं सुनते, वे बहरे रह जायँ तो अच्छा है और जो तन ईश्वरकी सेवामें नहीं लगता, उसका तो मर जाना ही अच्छा है।
१२२. धन-दौलत कमानेके पीछे क्यों पड़े हुए हो ? तुम्हारी जरूरतोंको पूरा करने और तुम्हारी देखभाल रखनेका भार तो उस ईश्वरने ही ले रखा है। यदि उसका भरोसा करोगे तो सब तरहसे शान्ति और सुख पाओगे।
१२३. जो नाशवान् संसारमें आसक्त नहीं है, वही अनुभवसिद्ध ज्ञानी ऋषि है।
१२४. तल्लीन होकर निरन्तर ईश्वरका भजन-ध्यान मस्त होकर करना, प्रभुकी आधीनता मानकर काम करना ही संतका धर्म है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...