संसारमें भगवद्बुद्धि और अपनेमें सेवकबुद्धि रखनेवाला सर्वश्रेष्ठ है
प्रश्न– भगवान् को सबसे ज्यादा प्यारा कौन है ?
उत्तर–
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ।।
(रा-च-मा- किष्किन्धा- दोहा 3)
अर्थ– हे हनुमान् ! अनन्य वही है, जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ और यह चराचर (जड़-चेतन) जगत् मेरे स्वामी भगवान् का रूप है।
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- ‘हे हनुमान् ! वह मेरा अनन्य भक्त है, जिसकी मति इस सिद्धान्तसे नहीं टलती कि चराचर भगवान् का ही स्वरूप है, उसीकी ही राशि है।’ सब संसारमें भगवद्-बुद्धि एवं अपनेमें सेवक-बुद्धि रखनेवाला ही सर्वश्रेष्ठ है।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।।
(गीता 7/19)
अर्थात्– बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है– इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
बहुत जन्मोंके अन्तमें ‘सब कुछ वासुदेव ही है’– ऐसा माननेवाला बड़ा ही दुर्लभ है। व्यवहार कालमें जो दो तरहका भाव होता है– एक तो भीतरका, एक बाहरका; तो यहाँ दूसरा भाव रहना चाहिये। नाटकमें जो स्वाँग बनकर आता है– एक राजाका तथा एक उसका लड़का। लड़का राजा बनता है, बाप सिपाही, क्योंकि लड़का राजाका स्वाँग अच्छा जानता है, बाप सिपाहीका स्वाँग अच्छा जानता है। अब वह राजा बना हुआ लड़का अपने पिताको (जो कि सिपाहीके रूपमें है) आज्ञा देता है तो यह ठीक ही है। भीतरमें उसको पिता समझता है। भीतरका भाव पिताका है, ऊपरसे तो स्वाँगके अनुसार चेष्टा करता है, किचित् भी फर्क नहीं आने देता। इसी प्रकार ऊपरसे वैसा ही व्यवहार करना चाहिये– राजाके साथ राजा जैसा, स्त्रीके साथ स्त्री जैसा, चाण्डालके साथ चाण्डाल का-सा व्यवहार करना चाहिये।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ।।
(गीता 6/31)
अर्थात्– जो पुरुष एकीभावमें स्थित होकर सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।
सारे भूतोंमें स्थित जो भगवान् हैं, उनमें तन्मय हो जाना, प्रवेश कर जाना– सायुज्य की तरह। फिर शरीरके द्वारा जो चेष्टा हो रही है, सभी भगवान् की एक वस्तु मात्र तथा जितनी भी चेष्टायें हैं, उन चेष्टा मात्रको भगवान् का ही स्वरूप समझना चाहिये और चेष्टामात्रको भगवान् की लीला समझकर जो कर्म करता है, भगवान् कहते हैं कि– ‘वह मेरेमें ही बर्तता है’, क्योंकि परमात्माका ही अनुभव करता है। लोग समझते हैं कि संसारमें बर्तता है, किन्तु उसकी दृष्टिमें परमात्माके सिवाय कुछ है ही नहीं।
सभी भगवान् का स्वरूप है, चेष्टामात्र भगवान् की लीला है– ऐसा समझनेवाला सभी काम भगवान् का ही करता है। वास्तवमें तो सब भगवान् का ही है। भगवान् कहते हैं– ‘वह मेरेमें ही बर्तता है। मुझ परमात्मामें स्थित होकर जो मेरेको भजता है, वह मेरे लिये सर्वश्रेष्ठ है।’ सबमें भगवद्बुद्धि करना ही मेरा भजन करना है– सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते (गीता 6/31) (अर्थात्– वह योगी सब प्रकारसे बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है।)
‘वह सब कर्म करते हुए भी मेरेमें ही बर्तता है’– यह भगवान्में चेष्टा करना है, यह बात बतायी गई।
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ।।
(गीता 14/19)
अर्थात्– जिस समय द्रष्टा तीनों गुणोंके अतिरिक्त अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणोंसे अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघन-स्वरूप मुझ परमात्माको तत्त्वसे जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है।
जिस कालमें द्रष्टा (साक्षी पुरुष) गुणोंसे अन्य कर्ताको नहीं देखता, गुणोंसे परे आत्माको ही देखता है, वह मुझे प्राप्त हो जाता है। जिस समय साधन करते हुए गुणोंसे अन्य कर्ताको नहीं देखता, यानी गुण ही गुणोंमें बर्त रहे हैं– ऐसा देखता है, वह मेरे भावको प्राप्त हो जाता है।
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।।
(गीता 3/28)
अर्थात्– परन्तु हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभागके तत्त्वको जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता।
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- तत्त्ववेत्ता पुरुष गुण, कर्मके विभागको जाननेवाला गुण ही गुणोंमें बर्त रहे हैं– ऐसा समझकर आसक्त नहीं होता। जो भी कुछ है, सभी सत्त्व, रज और तमके कार्यरूप यह संसार है।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धड्ढकर्तारमव्ययम् ।।
(गीता 4/13)
अर्थात्– ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र– इन चार वर्णोंका समूह गुण और कर्मोंके विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्मका कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू वास्तवमें अकर्ता ही जान।
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- चारों प्रकारके वर्ण गुण तथा कर्मके विभागसे मेरेद्वारा ही रचे गये हैं– ऐसे कर्ताको तू अकर्ता ही जान।
संसारमें जितने पदार्थ हैं, कोई राजसी, तामसी तथा कोई सात्त्विक हैं। मनुष्यके द्वारा होेनेवाली क्रियाओंमें 2 भेद होते हैं। क्रिया तथा पदार्थ इन दो के ही अन्तर्गत हैं। इनके अन्तर्गत ही सारे संसारका विस्तार है।
अर्जुनने जो आठवीं अध्यायमें 6 प्रश्न किये थे, वे 4 चेतनके तथा 2 जड़के विषयमें थे–
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ।।
(गीता 8/1)
अर्थात्– (इस प्रकार भगवान् के वचनोंको न समझकर अर्जुन बोले–) हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नामसे क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं?
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- भगवान् के वचनोंको न समझकर अर्जुन बोला– ‘हे पुरुषोत्तम ! जिसका आपने वर्णन किया, वह ब्रह्म क्या है और अध्यात्म क्या है, तथा कर्म क्या है और अधिभूत नामसे क्या कहा गया तथा अधिदैव नामसे क्या कहा जाता है ?
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ।।
(गीता 8/2)
अर्थात्– (और) हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीरमें कैसे है? तथा युक्त चित्तवाले पुरुषोंद्वारा अन्त समयमें आप किस प्रकार जाननेमें आते हैं?
अर्जुनके प्रश्न करनेपर कृष्ण भगवान् बोले– ‘अर्जुन ! परम अक्षर अर्थात् जिसका नाश कभी नहीं हो, ऐसा सच्चिदानन्द परमात्मा तो ब्रह्म है और अपना स्वरूप अर्थात् जीवात्मा अध्यात्म नामसे कहा जाता है तथा भूतोंके भावको उत्पन्न करनेवाला शास्त्रविहित यज्ञ, दान और होम आदिके निमित्त जो द्रव्यादिकोंका त्याग है, वह कर्म नामसे कहा गया है तथा उत्पत्ति-विनाश धर्मवाले सब पदार्थ अधिभूत हैं और हिरण्यमय पुरुष अधिदैव है और हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! इस शरीरमें मैं वासुदेव ही विष्णु रूपसे अधियज्ञ हूँ और जो पुरुष अन्तकालमें मेरेको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागकर जाता है, वह साक्षात् मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। इसलिये हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा ही स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरेमें अर्पण किये हुए मन बुद्धिसे युक्त हुआ निःसन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा।’ (गीता 8/3-5, 7)
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...