साधनके अन्दर दो चीज अच्छी हैं – उपरामता और वैराग्य
गंगाजल पीनेसे शीतलता होती है और मालूम होता है कि हृदय निष्पाप है। गंगाके किनारे बैठनेसे मन्द-मन्द महक और गंगासे शीतलता आती है। उनके अन्दर प्रवेश होनेसे ध्यान लगता है और पाप नाश होता है। सायँकालका दृश्य वैराग्यका-सा दृश्य है। भावना और स्थान तो दोनों ही हैं। कभी-कभी ऐसा मनमें आता है कि यहाँ कुटिया करवा दें और यहाँ आदमी रहें। वृक्ष आदि भी लगवा दें, जगह साफ करवा दें, फिर यहीं रहें और यहीं सोयें। जोखिमकी चीज नहीं रक्खें।
स्त्रियोंमें कोई सुधार नहीं हुआ। वे ऐसी कोई बातका अनुकरण नहीं करती। साधनके अन्दर दो चीज अच्छी हैं– उपरामता और वैराग्य। इन विषयोंमें बातें चलती रहें। इस प्रकार वैराग्य होता है, यह मालूम होता है। वैराग्यसे अत्यन्त शान्ति होती है। यहाँ अत्यन्त सुगन्ध आ रही है, यह वैराग्यका कारण है। हर वक्त प्रसन्न, शान्त रहें। वैराग्य, उपरामतासे ध्यान होता है। वैराग्यके बिना ये उपाय किसी कामके नहीं। वैराग्यसे सब कुछ हो सकता है। लँगोटी पहनकर गंगातटपर ¬कारकी ध्वनि करनेसे चित्त बड़ा प्रसन्न और वैराग्य हो सकता है।
प्रसन्नचित्त रहना– यह भी एक साधन है। बुद्धि स्थिर होनेसे महात्माके हृदयमें प्रसन्नता होती है। आप लोगोंको हमसे वार्तालाप करनेसे बड़ी प्रसन्नता होती है तो हमें भी आपके साथ वार्ता करनेसे प्रसन्नता होती है। मेरे भी मनमें ऐसा आता है कि रात-दिन वार्ता होती रहे। जब हमारे मुखपर प्रसन्नता झलकती है, तब तुम्हें भी प्रसन्नता होनी चाहिये।
हर वक्त सर्वत्र भगवद्-दर्ळन करके प्रसन्न होवे और सोचे कि भगवान् की हमारे ऊपर प्रेमदृष्टि और समदृष्टि है। ऐसा माननेसे चित्त प्रसन्न होता है और उससे ध्यान, भजन होता है। यदि प्रेमी भक्त कुछ बात कहे तो उसके लिये यह योग्य नहीं है। जब मछली जलसे अलग होती है, तब क्या उसे जलका भजन करनेकी आवश्कता है ? इसी तरह विरही पुरुषके हर वक्त भजन होता है। भगवान् दयालु हैं– यह यदि कोई मान ले तो फिर कल्याण है। यदि कोई मनुष्य हमारा कुछ उपकार करता है तो वह हमें बहुत बार स्मरण आता है, फिर भगवान् तो उससे करोड़ गुणा सुहृद् हैं।
दो बात स्वतः भजन करवाती हैं– एक संयोग और दूसरा- वियोग। रुक्मिणीका विरह संयोगसे पहलेका है– नारदके बतलानेसे। कृष्ण विरहमें प्राण जानेवाले हैं– ‘हे नाथ ! आप क्यों विलम्ब कर रहे हैं ?’ मिलनेकी आशा होते समय यदि फिर मिलन नहीं होवे तो बहुत दुःखकारक होता है।
‘सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति’ (गीता 5/29) (अर्थात्– मुझको सम्पूर्ण भूतप्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी– ऐसा तत्त्वसे जानकर शान्तिको प्राप्त होता है)–यदि यह समझमें आ जाये तो भगवान् ठहर ही नहीं सकते। भगवान् बड़े सुहृद् हैं और कृपालु हैं– इस विश्वाससे बड़ी प्रसन्नता और शान्ति होती है। हिन्दुस्तानमें सबसे बड़ा वॉयसराय है। यदि यह मालूम हो जाय कि उसकी मुझपर पूरी दया है तो निर्भयता हो जाती है। पृथ्वीके सारे बादशाहोंकी एक मनुष्यपर दया हो जाय तो उसे पूर्ण प्रसन्नता होती है। फिर यदि ब्रह्मा आदिकी दया हो जाय तो उससे भी ज्यादा प्रसन्नता होती है। फिर यदि प्रसन्नताके ड्डोत (भगवान्)-की दया हो जाय, तो प्रसन्नताका ठिकाना ही न रहे, परन्तु हमारे हृदयसे यह आवाज नहीं निकलती है। उसकी दया मान लेनेपर असाध्य कुछ भी नहीं; और आनन्दकी लहरें उठने लग जायँ।
(नोट– यह लेख देशकी आजादीसे पहलेका है, जब भारतपर अंग्रेजोंका शासन था। उस समय वॉयसराय भारतमें सबसे उच्च अधिकारी हुआ करता था।)
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...