साधकमें त्याग, वैराग्यकी आवश्यकता
दैवी सम्पदा और आसुरी सम्पदाका झगड़ा सदासे ही चलता रहा है। स्कन्द पुराणमें आता है कि देवता और असुरोंकी लड़ाई हुई। आखिरमें देवताओंकी विजय हुई। जिसमें देवताओंके-से भाव हों, वह दैवी सम्पदा है और जिसमें असुरोंके-से हों, वह आसुरी सम्पदा है। क्षमा, दया, शान्ति, सन्तोष, धैर्य आदि सब लक्षण दैवी सम्पदाके हैं एवं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर– ये सभी आसुरी सम्पदाके लक्षण हैं। दैवी और आसुरी सम्पदाका झगड़ा अपने हृदयमें रात-दिन होता रहता है, लेकिन अपना सेनापति ठीक होवे, तो अपनी विजयमें सन्देह नहीं है। देवताओंको सेनापति अच्छे मिल गये– श्रीस्वामी कार्तिकेयजी, जिनके 6 मुख थे। अपनेको भी इसी प्रकारके सेनापति मिल जावें, तो अपनी विजय हो सकती है। देवता स्वयं बलवान् हैं, फिर अच्छा सेनापति मिलने पर क्या देरी ? अपने इन नीचे लिखे 6 कर्मोंको ही सेनापति मान लेना चाहिये– भगवान् के नामका जप, भगवान् के स्वरूपका ध्यान, सत्पुरुषोंका संग, सत्ळास्त्रेंका स्वाध्याय, दीन-दुःखी और अनाथोंकी सेवा एवं मन, इन्द्रियोंका संयम। इन 6 कर्मोंको ही 6 मुखवाले कार्तिकेयजीकी तरह सेनापति बना लेना चाहिये, फिर बेड़ा पार है। इन 6 प्रकारके कर्मोंसे मन, इन्द्रियोंरूपी किलेको दृढ़ बना लेना चाहिये, ताकि कोई इसे तोड़ न सके और भगवान् के भजन-ध्यानरूपी गोलियोंसे शत्रुके किलेको नष्ट कर देना चाहिये। ‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’ (पातञ्जल योगदर्शन समाधिपाद सूत्र 28) (अर्थात् - उस ॐकारका जप और उसके अर्थस्वरूप परमेश्वरका चिन्तन करना चाहिये) । नाम-जपसे पापोंका नाश हो जाता है।
जबहि नाम हिरदै धरड्ढो, भयो पापको नास ।
मानो चिनगी आग की, परी पुरानी घास ।।
सत्संग एवं स्वाध्यायसे अज्ञानका नाश हो जाता है। काम, क्रोध, लोभ एवं मोह बहुत तंग करते हैं। जब मनुष्यको क्रोध आता है, तब वह सब कुछ भूल जाता है। इसी प्रकार काममें मदान्ध होनेपर भी अपनी सुध-बुध खो बैठता है। अतः काम-क्रोधादि सभी अवगुणोंको भगवान् के भजन-ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय, संयमरूपी गोलोंसे नाश कर देना चाहिये।
भगवान् ने कामके सम्बन्धमें कहा है–
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धड्ढेनमिह वैरिणम् ।।
(गीता 3/37)
अर्थात्– रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खानेवाला अर्थात् भोगोंसे कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषयमें वैरी जान।
यह आसक्तिमूलक कामनारूपी ठेकेदार जाकर 10 इन्द्रियोंसे मिलता है और कामना इन्द्रियोंको विषयभोगरूपी घूस देता है, तब इन्द्रियाँ कामनासे साथ हो जाती हैं और चंचल मनके पास पहुँचती हैं। मनको भी आरामरूपी घूस दी जाती है, लेकिन मन कहता है कि मेरे ऊपर बड़े मंत्री हैं, उनको भी शामिल करना चाहिये। तब कामना, इन्द्रियाँ एवं मन– इन तीनोंने सिखलाकर बुद्धिरूपी मंत्रीको भी लोभ रूपी घूस देकर वशमें कर लिया और चारों मिलकर जीवात्मारूपी राजाके पास गये और उसको आरामतलवी-रूपी घूस देकर वशमें कर लिया जाता है। मन तो कामका किंकर है ही और इन्द्रियोंको भी यह कामनारूपी ठेकेदार खूब अच्छी तरह फँसाये रखता है। जब सब विषयभोगमें फँस जाते हैं, तब यह जीवात्मा भी कमजोर हो जाता है। जीवात्मा मोहरूपी मदिरा पीकर मस्त रहता है। अन्तमें उसका पतन हो जाता है।
भोग भोगनेसे प्रत्यक्ष नुकसान ही होता है। सारा शरीर नष्ट हो जाता है एवं रोग-व्याधिका घर बन जाता है। महापुरुष बारम्बार चेतावनी देते हैं कि इस भोगसे तुम्हारी आयु, बल, बुद्धि, वीर्य, तेज आदि सब नष्ट हो रहे हैं। लेकिन भोगोंमें फँसा हुआ यह जीवात्मा क्या करे ? मन, बुद्धि वशमें नहीं हैं।
तब मन, इन्द्रियोंको बुद्धिद्वारा वशमें करना चाहिये। भगवान् गीतामें कहते हैं–
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।
(गीता 3/42)
अर्थात्– इन्द्रियोंको स्थूल शरीरसे पर यानी श्रेठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं, इन इन्द्रियोंसे पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है और जो बुद्धिसे भी अत्यन्त पर है, वह आत्मा है।
इन्द्रियोंसे परे मन है। मनसे परे बुद्धि और बुद्धिसे परे आत्मा है।
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ।।
(गीता 3/43)
अर्थात्– इस प्रकार बुद्धिसे पर अर्थात् सूक्ष्म, बलवान् और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्माको जानकर और बुद्धिके द्वारा मनको वशमें करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल।
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- ‘हे महाबाहो ! बुद्धिसे परे जो आत्मा है, उससे मनको वशमें करके इस कामवासना-रूपी शत्रुको मार डाल।’ महात्मा पुरुष कहते हैं, इस पर खयाल करना चाहिये कि– बुद्धिसे परे यह जीवात्मा है। पहले बुद्धिको काबूमें करना चाहिये। बुद्धिको वशमें करनेपर फिर मनको वशमें करके कामनारूपी शत्रुका दृढ़तासे ही विनाश किया जा सकता है। बुद्धिसे मनको बारम्बार समझाना चाहिये कि विषयभोगोंके पास जानेपर अपना सबका नुकसान होगा इससे अपना यह शरीररूपी रथ ही नष्ट हो जायगा और अपना सर्वनाश हो जायगा। इस प्रकार मनको बारम्बार समझाकर वशमें कर लेना चाहिये– ‘हे मन ! जब यह शरीर भोग भोगकर नष्ट हो जायगा, तब बुद्धि, जीवात्मा और इन्द्रियाँ– हम सभीको भोगना पड़ेगा।’ इसलिये सचेत हो जाना चाहिये। अपने कार्यकी सिद्धि कर लेनी चाहिये, अन्यथा बड़ी भारी दुर्दशा होगी। अतः अभीसे सम्भलकर भगवान् का भजन–ध्यान करके परम शान्ति एवं परम आनन्दकी प्राप्तिके लिये प्रयत्नशील बन जाना चाहिये, अन्यथा नतीजा बड़ा खराब होगा और पतिंगेकी-सी अपनी दशा होगी। जिस प्रकार पतिंगा प्रकाशके वशीभूत होकर उसके पास जाता है और वह प्रकाश उसके प्राण ले लेता है, इसी प्रकार विषय-भोगादिसे अपना खात्मा हो जायगा– इस प्रकार बुद्धिके द्वारा मनको समझाना चाहिये (गीता 3/43)। मनरूपी मंत्रीको बुद्धिद्वारा समझाकर अनर्थोंकी जड़ इस कामरूपी शत्रुको नष्ट कर डालना चाहिये– सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते (गीता २/६२) (अर्थात्– आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामनामें विघ्न पड़नेसे क्रोध उत्पन्न होता है।)
बुद्धिका नाश हो जानेके बाद तो जीवात्माका पतन हो जाता है। आसक्ति, क्रोध, मोह– सबके मिल जानेपर आत्माका पतन होनेमें देर नहीं लगती। भगवान् कहते हैं–
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।
(गीता 2/63)
अर्थात्– क्रोधसे अत्यन्त मूढभाव उत्पन्न हो जाता है, मूढभावसे समृतिमें भ्रम हो जाता है, स्मृतिमें भ्रम हो जानेसे बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्तिका नाश हो जाता है और बुद्धिका नाश हो जानेसे यह पुरुष अपनी स्थितिसे गिर जाता है।
क्रोधसे मोहकी उत्पत्ति होती है, मोहसे स्मरणशक्तिका नाश होता है, उसके बाद बुद्धिका-नाश होकर मनुष्यका पतन हो जाता है। राजारूपी जीवात्माको चाहिये कि ज्ञानसागर मंत्रीरूपी बुद्धिको समझावे और बुद्धिके द्वारा मनको समझाकर वशमें कर लेना चाहिये। मनको वशमें कर लेनेके बाद सब काम बन जाते हैं। 10 इन्द्रियाँ हैं, इनको भी समझाना चाहिये कि यह कलेक्ट्री थोड़े दिनों की है। इन्द्रियोंको समझाकर वशमें कर लेनेपर आधा काम बन जाता है बाकी आधा काम मनको वशमें कर लेनेपर हो जाता है। कर्णेन्द्रियको इस प्रकार समझाना चाहिये कि जिस प्रकार मृग (हरिण) कर्णेन्द्रियके कारण संगीतके वशीभूत होकर प्राण खो बैठता है, इसी प्रकार तेरी दुर्दशा होगी। इसी प्रकार जिह्वा (रसनेन्द्रिय)-को समझाना चाहिये कि सूखी रोटी खाई तो क्या मिष्ठान्न खावे तो क्या ? सभीकी मिट्टðी यानी मल-मूत्र आदि हो जावेंगे, एक दिन शरीरको छोड़कर जाना पड़ेगा, थोड़े दिनका ऐश-आराम है। ऐसे ही नासिकाको समझाना चाहिये कि क्यों सुगन्धके वशीभूत होकर सर्वनाशकी तैयारी कर रही है ? हरेक इन्द्रियके इन अवगुणोंको हटानेके लिये श्रीरामका नाम बस रामबाण है। बुद्धिको समझाना सहज है, लेकिन मनको समझाना कठिन है। बुद्धि कहती है– सत्यका आचरण ठीक है, लेकिन यह मन मौकेपर धोखा दे देता है। बुद्धि कहती है– सभी उपाधि एवं घरमें आसक्ति ही सब प्रकारके झगड़ोंका मूल है, अतः इन सबसे वैराग्य करना चाहिये, लेकिन मन डिग जाता है। भगवान् गीतामें कहते हैं–
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपिश्चतः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।।
(गीता 2/60)
अर्थात्– हे अर्जुन ! आसक्तिका नाश न होनेके कारण ये प्रमथन स्वभाववाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान् पुरुषके मनको भी बलात् हर लेती हैं।
एक साधक विवेकी, समझदार एवं साधनमें लगा हुआ है, फिर भी ये चंचल स्वभाववाली इन्द्रियाँ जबर्दस्ती मनको साधनसे हटा लेती हैं। मन, इन्द्रियाँ– दोनों मिलकर बुद्धिका हरण कर लेती हैं। भगवान् गीतामें कहते हैं–
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।।
(गीता 2/67)
अर्थात्– जैसे जलमें चलनेवाली नावको वायु हर लेती है, वैसे ही विषयोंमें विचरती हुई इन्द्रियोंमेंसे मन जिस इन्द्रियके साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुषकी बुद्धिको हर लेती है।
मन, इन्द्रियाँ– दोनों मिलकर साधककी बुद्धिको इस प्रकार हर लेती हैं, जिस प्रकार वायु जलमेंसे नौकाको हर लेती है। मन, इन्द्रियोंरूपी वायु, बुद्धिरूपी नौकाको, विषयभोग रूपी जलमें ले जाकर डुबो देती है, इससे अपनी हार हो जाती है, इसलिये इनपर विजय पानेके लिये साधना करनी चाहिये। मन, बुद्धिका झगड़ा तो हर समय लगा ही रहता है। मन, बुद्धिकी सुलह हो जानेपर आपसमें शामिल होनेपर साधन करनेपर अपनी जीत हो सकती है।
एक पुस्तकमें इस प्रकारका कथानक आता है– एक राजा थे। उनके दो मंत्री थे। बड़े मंत्रीका नाम ज्ञानसागर एवं छोटेका नाम चंचलसिंह था। राज्यमें 10 जिले थे, उनपर 10 कलेक्टर रहते थे। एक समय एक ठेकेदार इन कलेक्टरोंके पास आया और बोला– ‘तुम्हारे राज्यमें जितनी आमदनी होती है, मैं उसकी दुगुनी कर दूँगा। मुझे इसका ठेका दे दो।’ तब कलेक्टरने जबाब दिया– ‘हमारे ऊपर बड़े, छोटे– दो मंत्री हैं। उनके स्वीकार होनेपर ठेकेकी बात हो सकती है।’ तब ठेकेदारने कलेक्टरोंसे कहा– ‘जितनी आमदनी होगी, आधी राजाको एवं आधीमेंसे हम सब बाँट लेंगे।’ इसपर कलेक्टर मान गया और कलेक्टर ठेकेदारको लेकर चंचलसिंहके पास गया और उसको समझाया कि– ‘इस प्रकार ठेका होनेपर आधी आमदनी राजाको दे दी जायगी और आधीमेंसे हमलोग बाँट लेंगे।’ तब यह बात चंचलसिंहको जँच गई और कलेक्टर एवं चंचलसिंह दोनों मिलकर ज्ञानसागरके पास गये। बड़े मंत्री ज्ञानसागरसे कहा– ‘राज्यकी उन्नति करना हमलोगोंका कर्तव्य है और यह उन्नति ठेका देनेपर हो सकती है।’ और समझाया कि– ‘ठेका होनेपर आधी आमदनी राजाको दे दी जायगी, बाकी आधीमेंसे हमलोग बाँट लेंगे।’ इसके बाद कलेक्टर, छोटा मंत्री चंचलसिंह व बड़ा मंत्री ज्ञानसागर– तीनों मिलकर राजाके पास गये और उसके जँचा दी और ठेका हो गया। तब ठेकेदारने प्रजा को चूसना आरम्भ कर दिया। त्रहि, त्रहि मच गई, लेकिन सुने कौन ?
तब जिलेके कुछ सुधारक लोग राजाके पास गये और राजासे कहा कि– ‘जबसे ठेकेदार आया है, राज्यकी तबाही हो रही है। अभी तो राज्यकी ही तबाही हो रही है, फिर आपकी दुर्दशा होगी। यह ठेकेदार पूरे राज्यपर अधिकार जमा रहा है। फिर आपको राज्यसे हटना होगा। दसों जिलोंपर उसने अधिकार जमा लिया है। छोटे मंत्री चंचलसिंहको भी मिला लिया है। बड़ा मंत्री थोड़ा समझदार है। उसको भी जब यह मिला लेगा, तब फिर यह आपको कैद कर लेगा।’
धीरे-धीरे ठेकेदारने बड़े मंत्रीको भी वशमें करके राजाको कैद कर लिया। लेकिन बड़ा मंत्री ज्ञानसागर अब भी कुछ-कुछ राजाके पक्षमें ही था। राज्यके सुधारक लोग फिर राजाके पास गये और उसको समझाया, तब राजाने कहा– ‘मैं तो बँधा पड़ा हूँ। नजरकैदकी तरह हूँ। बस हथकड़ीकी कमी है। चारों ओरसे आफत है। आखिरकार यह ठेकेदार मेरी जान ले लेगा। फिर भी बड़ा मंत्री थोड़ा मुझे मानता है।’
तब उन सुधारक लोगोंने राजाको उपाय बतलाया कि– ‘पहले बड़े मंत्रीको काबूमें कर लो, उसके बाद छोटे मंत्री चंचलसिंहको वशमें कर लो, फिर सब काम हो जायगा।’ तब राजाको खूब जोश आया। उसने बड़े मंत्री और छोटे मंत्रीको मिलाकर 10 कलेक्टरोंको भी वापस मिला लिया और ठेकेदारको मारकर निकाल दिया।
अब इस दृष्टान्तका भाव समझना चाहिये। जीवात्माको राजा बताया गया। यह मनुष्य शरीर उसका देश है। प्रधानमंत्री ज्ञानसागर बुद्धिको बतलाया गया है। छोटा मंत्री चंचलसिंह मनको बतलाया है। 10 इन्द्रियोंको 10 कलेक्टर बताया गया है और काम (कामना, इच्छा)-को ठेकेदार बताया गया है। इसी प्रकार समझाना चाहिये और सब इन्द्रियोंको अपने वशमें कर लेना चाहिये। चंचल मनको भी समझाकर वशमें कर लेना चाहिये। भगवान् गीतामें कहते हैं–
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किि×चदपि चिन्तयेत् ।।
(गीता 6/25)
अर्थात्– क्रम-क्रमसे अभ्यास करता हुआ उपरतिको प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा मनको परमात्मामें स्थित करके परमात्माके सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे।
धैर्ययुक्त बुद्धिद्वारा धीरे-धीरे उपरामताको प्राप्त होवे। मनको अपने वशमें करके, और किसी भी चीजका चिन्तन न करे यानी धैर्ययुक्त बुद्धिद्वारा मनको परमात्मामें स्थित करके परमात्माके सिवाय और किसीका चिन्तन न करे।
परमात्माके ध्यानसे प्राप्त होनेवाला सुख ही वास्तवमें असली सुख है। बाकी सभी सांसारिक सुख नाशवान्, क्षणभंगुर एवं अनित्य हैं। अतः उनका त्याग करके ध्रुव, सनातन सुखकी प्राप्तिकी चेष्टामें लग जाना चाहिये। किसीने कहा है– ‘जो मनुष्य शाश्वत सुखको छोड़कर मिथ्या सुखके लिये कोशिश करता है, उसके लिये असली, ध्रुव, सनातन सुख तो अप्राप्य ही है।’ जो वास्तवमें मिथ्या हैं, वे तो मिथ्या हैं ही।
इस प्रकारसे विषयभोगोंमें आसक्त पुरुष कहीं का भी नहीं रह जाता। सांसारिक ऐश-आरामादिमें जो सुख की प्राप्ति होती है, वह सुख असली, ध्रुव सुखके मुकाबलेमें समुद्रमें बूँदके समान भी नहीं है। इसलिये मनको विवेकपूर्वक समझानेपर मन वशमें आ जायगा। मन, इन्द्रियोंको विवेकपूर्वक समझानेकी जरूरत है। समझाते समय बीचमें घूस खा लेनेपर काम बिगड़ जाता है। इसलिये मन, इन्द्रियोंको विवेकपूर्वक समझाकर वशमें कर लेना चाहिये।
इस प्रकार यह मन, इन्द्रियों एवं बुद्धिकी लड़ाई बहुत दिनोंसे चली आ रही है। इतनी भयंकर लड़ाई है कि विनाशकी तैयारी है। इसलिये इस घरकी लड़ाईको मिटाना चाहिये। महापुरुष इस लड़ाईको मिटानेके लिये जो साधन, युक्ति बतलायें, उसको सत्य समझकर मन, इन्द्रियोंको तब तक समझाते रहना चाहिये, जब तक ये न समझ जायें।
यह मन बड़ा चंचल है। सामने किसी स्त्रीको देखता है, तो तुरन्त विचलित हो जाता है और इन्द्रियोंको जबर्दस्तीसे अपनी ओर आकर्षित कर लेता है, लेकिन बुद्धि मनको समझाती है– ‘परस्त्रीको बुरी दृष्टि (नजर)-से देखना बड़ा भारी पाप है एवं शास्त्रेंमें इसके लिए बड़े भारी दण्डका विधान है।’ लेकिन मन कहता है– ‘स्त्रीको देखनेमें थोड़े ही पाप लगता है।’ इस प्रकार मन बुद्धिको अपनेमें शामिल करनेकी कोशिश करता है। इसी प्रकार मन नेत्रेंसे स्त्रीके स्वरूपकी तरफ देखनेके लिये, हाथसे स्त्रीको छूनेके लिये एवं वाणीसे स्त्रीको बहकानेके लिये कोशिश करता है। बुद्धिसे मनको फिर समझाता है– ‘अभी तो तूने नारीके रूपको देखनेको कहा। अब उसको छूनेकी कोशिश करने, उससे बातें भी करने लग गया।’ मन कहता है– ‘अभी तो दूरसे सिर्फ बातचीत ही करानेका सुख कराती है। संयोग थोड़े ही किया है।’ धीरे-धीरे मन सब इन्द्रियोंको समझाकर संयोगके लिये भी प्रवृत्त हो जाता है एवं कहता है– ‘आज-आज तो यह कर्म कर लो। भविष्यके लिये सचेष्ट रहेंगे।’ इस प्रकार यह मन बुद्धिको भी धीरे-धीरे पटाकर बुरे काममें प्रवृत्त होता है।
बुरा काम करनेके बाद सोचता है– ‘बहुत बुरा काम हो गया।’ पश्चात्ताप करता है एवं मनमें दृढ़ संकल्प भी करता है कि भविष्यमें ऐसा काम नहीं करेंगे, लेकिन मौका पानेपर फिर यह पाजी मन उस तरफ खींचकर ले जाता है और बुरे काममें लगा देता है। इन्द्रियाँ धीरे-धीरे मनकी प्रेरणासे बुरे काममें प्रवृत्त हो जाती हैं– ‘अपने तो अमुक काम देखते हैं, उसका रसास्वाद थोड़े ही करना है’, लेकिन रसनेन्द्रिय एवं स्पर्ळेन्द्रिय कहती हैं– ‘थोड़ा-सा रसास्वाद एवं स्पर्ळजन्य सुखका अनुभव करनेमें थोड़े ही पाप लगता है।’ इस प्रकार मनकी सहायतासे इन्द्रियाँ धीरे-धीरे बुरे काममें प्रवृत्त हो ही जाती हैं।
लेकिन जिसकी बुद्धि तेज होती है, विचार शक्ति दृढ़ एवं बुद्धि अपने वशमें रहती है, उसको मन एवं इन्द्रियाँ धोखा नहीं दे सकती। जिस प्रकार बृहस्पतिके पुत्र कचका दृष्टान्त आता है– शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानीने कचको साम, दान, दण्ड, भेद– इन सब नीतियोंसे विवाह करनेके लिये मजबूर किया, सब प्रकारसे समझाया, लेकिन कच अपने धर्म पर दृढ़ रहा। वह देवगुरु बृहस्पतिका पुत्र था न ! – बुद्धि प्रधान। देवयानी उसको किस प्रकार डिगा सकती थी ? इसलिये जिस पुरुषमें निश्चयात्मक बुद्धिका अभाव रहता है, उसका पतन हो जाता है। झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार आदि कोई भी पाप कर्म बुद्धिकी कमजोरीसे ही होते हैं। इसलिये उस बुद्धिको दृढ़ बना लेना चाहिये, फिर मन और इन्द्रियोंमेंसे किसीकी भी सामर्थ्य नहीं है कि मनुष्यको विचलित कर सकें।
सबको धर्मपर दृढ़ रहना चाहिये। देवयानीने कितनी कोशिश की, लेकिन कच अपने धर्मपर दृढ़ रहा। कचने कहा– ‘मेरे प्राण भले ही चले जायँ, लेकिन मैं धर्मका त्याग नहीं कर सकता।’ इसीलिये अगर बुद्धि तेज है तो मन कुछ भी नहीं कर सकता। महाराज युधिष्ठिर हर समय (विपत्तिकालमें भी) अपने धर्मपर डटे रहते थे, इसीलिये उन्हें धर्मराज कहते हैं। उनको धर्मपरसे च्युत करानेकी किसीकी भी शक्ति नहीं थी। इसी प्रकार बुद्धिको तेज करना चाहिये। बुद्धिपर जोर लगाकर कहना चाहिये कि अपनेको अमुक काम नहीं करना है। मन, इन्द्रियाँ अपने स्वभाववश चाहे कितना ही लोभ दिखावें, लेकिन बुद्धिकी सहायतासे अपने धर्मपर दृढ़ रहना चाहिये और विषयभोगोंको विषके समान समझकर उनका त्याग कर देना चाहिये। जिस प्रकार विषका लड्डू खानेमें मीठा लगता है, लेकिन उसका परिणाम मृत्यु होती है, इसी प्रकार ये सांसारिक भोग दीखनेमें तो अमृतके समान लगते हैं, लेकिन इनका परिणाम विषसे भी भयंकर होता है, इसलिये इनका त्याग कर देना चाहिये। सांसारिक सुख विषके लड्डूकी तरह क्षणिक हैं। तुलसीदासजी कहते हैं–
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं ।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ।।
(रा-च-मा- उत्तर- 44/2)
अर्थ– जो लोग मनुष्यशरीर पाकर विषयोंमें मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृतको बदलकर विष ले लेते हैं।
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- जो मनुष्य शरीरको पाकर भी मनको विषयोंमें लगाते हैं, वे महामूर्ख हैं, अमृतको छोड़कर विष ग्रहण करते हैं। अमृत क्या है– परमात्माके नामका जप एवं उनके स्वरूपका ध्यान। यही आनन्द है, अमृत है। इसको छोड़कर सांसारिक विषयभोगरूपी विषको ग्रहण करे, उससे बढ़कर मूर्ख कौन होगा ? तुलसीदासजी कहते हैं–
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई ।
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ।।
(रा-च-मा- 7/44/3)
अर्थ– जो पारसमणिको खोकर बदलेमें घुँघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुद्धिमान्) नहीं कहता।
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- जो हरि भक्ति रूपी पारस मणि को खोकर विषयभोग रूपी चिरमी को लेता है, उसे कोई भला नहीं कहता है। उससे बढ़कर मूर्ख और कौन होगा, जो पारसमणिको छोड़कर इसके बदलेमें गुंजा (चिरमी)-को ग्रहण करता है। गुंजा किसी काममें नहीं आती और पारसमणिसे मिनटोंमें लाखों मण सोना बनाया जा सकता है। चिरमी देखनेमें तो बड़ी चमकीली होती है, लाल-लाल होती है, परन्तु मुँह उसका काला होता है। इसी प्रकार ये सांसारिक भोग बड़े चमकीले नजर आते हैं, लेकिन जो मनुष्य इनका भोग करता है, उसका मुँह काला होता है। यह मनुष्य शरीर अपनेको भोग भोगनेके लिये नहीं मिला है, आत्माका उद्धार करनेके लिये मिला है। तुलसीदासजी कहते हैं–
एहि तन कर फल विषय न भाई ।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ।।
(रा-च-मा- 7/44/1)
अर्थ– हे भाई ! इस शरीरके प्राप्त होनेका फल विषयभोग नहीं है। (इस जगत्के भोगोंकी तो बात ही क्या,) स्वर्गका भोग भी बहुत थोड़ा है और अन्तमें दुःख देनेवाला है।
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- इस मनुष्य शरीर के पाने का फल विषय नहीं है, स्वर्ग भी नहीं है, क्योंकि स्वर्ग के फल भोग कर हम फिर मनुष्य लोक में आ जाते हैं।
जो मनुष्य इस शरीरको विषयभोगोंका साधन मान बैठता है, उसको महान् दुःखोंका सामना करना पड़ता है। स्वर्गकी प्राप्ति भी अन्तमें दुःखको देनेवाली होती है, क्योंकि पुण्योंकी पूँजी क्षीण हो जानेपर मनुष्यको वापस मृत्युलोकमें आना पड़ता है। भगवान् कहते हैं–
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
(गीता 9/21)
अर्थात्– वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं।
इसलिये– ‘विषयान् विषवत् त्यज’– विषयोंको विषके समान समझकर उनका परित्याग कर देना चाहिये और परमात्माका जो ध्यानजनित असली सुख है, उसमें विचरना चाहिये। भगवान् ने गीतामें बतलाया है–
बाह्यस्पर्ळेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ।।
(गीता 5/21)
अर्थात्– बाहरके विषयोंमें आसक्तिरहित अन्तःकरणवाला साधक आत्मामें स्थित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनन्द है, उसको प्राप्त होता है; तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके ध्यानरूप योगमें अभिन्नभावसे स्थित पुरुष अक्षय आनन्दका अनुभव करता है।
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- इन्द्रिय एवं विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले क्षणिक सुखमें अनासक्त जो पुरुष परब्रह्मके स्वरूपमें रत रहता है, उसे अक्षय सुखकी प्राप्ति होती है। इसलिये हमको परमात्माके ध्यानमें मन लगाना चाहिये, विषयोंमें नहीं। सांसारिक सम्पूर्ण भोगोंका सुख परमात्माके ध्यानजनित सुखके सम्मुख तुलनामें समुद्रमें बुदबुदेकी तरह भी नहीं आ सकता है। इसलिये सुखके सागरको छोड़कर क्षणिक बुदबुदेको देखकर जो सुखकी कल्पना करे, वह कितना बड़ा मूर्ख है। एक पारसमणिको छोड़कर बदलेमें गुंजाको लेवे, उससे बढ़कर भी कोई मूर्ख होगा ? इस प्रकार विवेकसे सोच-समझकर विषयभोगोंसे मनको हटाकर परमात्माके स्वरूपमें लगाना चाहिये।
संसारमें आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं और हैं, उनमें जितना त्याग, वैराग्य प्रधान रहा है, उतनी ही उनकी महिमा है। श्रीवेदव्यासजी महाराजके सुपुत्र श्रीशुकदेवजी महाराज कितने विरक्त थे ! त्रिलोकीका ऐश्वर्य भी उनके लिये कुछ नहीं था। असली सुखकी प्राप्तिके बाद लौकिक सुखकी उससे समता ही क्या है ?
एक समय मुनि दधीचि भगवान् के ध्यानमें मस्त थे। उस समय इन्द्र उनसे मिलनेके लिये आये। उनकी ध्यानावस्था खुलनेपर इन्द्र उनसे मिले। इन्द्रने दधीचि मुनिसे कहा– ‘महाराज ! आप जिस ध्यानमें मस्त थे, उस ब्रह्मविद्याका उपदेश मुझे दीजिये।’ तब दधीचि मुनिने जबाब दिया– ‘इन्द्र ! तुम जिस सुखका रसास्वादन इन्द्राणीके साथ करते हो, उस सुखका भोग तो शूकर, कूकर भी शूकरी, कूकरीके साथ कर लेते हैं, फिर तुममें और शूकर, कूकरमें फर्क ही क्या है ?’
यह जबाब सुनकर इन्द्रको गुस्सा आ गया और उन्होंने दधीचि मुनिसे कहा– ‘अगर आप मुझे ब्रह्मविद्याका उपदेश नहीं दे सकते तो और किसीको भी यह उपदेश इस शरीरसे नहीं दे सकते। अगर आप किसीको यह उपदेश देंगे तो मैं आपका सिर काट डालूँगा।’
लेकिन दधीचि इन्द्रको क्या समझते थे ! वे उसकी क्या परवाह करते ? इसके बाद उन्होंने अश्विनीकुमारोंको उस ब्रह्मविद्याका उपदेश दिया। उस समय इन्द्रने आकर दधीचि मुनिका सिर काट डाला, लेकिन अिश्वनीकुमारोंने घोड़ेका सिर (मस्तक) जोड़कर उपदेश ग्रहण किया। दधीचि मुनि इस प्रकारके अलौकिक आनन्दमें मुग्ध थे कि उनको इन्द्रासनका सुख भी घृणित एवं तुच्छ प्रतीत होता था। इस प्रकारसे परमात्माके आनन्दमें रहकर सुखका अनुभव करना चाहिये एवं सांसारिक सुखोंका तिरस्कार करना चाहिये। जब तक सांसारिक सुखोंका तिरस्कार नहीं करेंगे, तब तक असली सुखकी प्राप्ति नहीं हो सकती है।
एक चींटी चीनीके पहाड़के ऊपरसे जा रही हो, लेकिन उसके मुँहमें नमककी कंकरी हो, ऐसी हालतमें वह चीनीका स्वाद कैसा होता है– इसका अनुभव किस प्रकारसे कर सकती है ? इसी प्रकारसे सांसारिक विषयभोगरूपी नमकको मुँहसे निकालकर भगवान् के ध्यानरूपी असली चीनीके मिठासको ग्रहण करना चाहिये।
अतः विवेकपूर्वक सोच-समझकर सांसारिक भोगोंको लात मार देनी चाहिये एवं भगवान् के ध्यानमें मस्त हो जाना चाहिये। विषयोंसे बिल्कुल विरक्त हो जाना चाहिये। जो महात्मा इन विषयोंसे विरक्त हैं, उनकी महिमा क्या गाई जाय !
आज भी संसारमें जिनमें जितना अधिक त्याग एवं वैराग्य है, उनकी उतनी ही अधिक महिमा है। त्याग एवं वैराग्यके बिना कैसा महात्मा ? एक संन्यासी है, जाति, आश्रम एवं व्यवहार– सभी बातोंमें श्रेष्ठ है, सत्यभाषण करता है, महात्मा है, लेकिन त्याग नहीं है तो त्याग, वैराग्यके बिना सब बेकार है। आजकल जिन किन्हीं भी महात्माकी महिमा देखी जाती है, वह उनके त्याग, वैराग्यके बलपर ही है। किसी व्यक्तिमें तीर्थ, व्रत, परोपकार, सेवादि सभी गुण हैं, लेकिन अगर वह विषयभोगोंका दास है, उनमें रमण करता है, तब उसका कुछ भी महत्त्व नहीं है।
एक सुन्दर स्त्री है, उसका सारा शरीर दैदीप्यमान है, लेकिन उसके एक आँख नहीं है तो बस, उसकी सुन्दरतामें कलंक आ गया, इसी प्रकार सब गुणोंके होते हुए भी विषयभोगोंमें प्रीति उसी प्रकार कलंक स्वरूप है, जिस प्रकार एक सुन्दर स्वच्छ वस्त्रमें काला धब्बा होता है। इसलिये वैराग्यके बिना साधनका कोई महत्त्व नहीं है।
एक साधक है, उसमें यदि वैराग्य है परन्तु स्वभावसे क्रोधी है तो भी कोई फिक्र नहीं। वैराग्य प्रधान होना चाहिये, फिर अन्य अवगुण तो स्वतः ही चले जायेंगे। वैराग्यकी हालतमें साधक किसीको क्या समझे !
एक भक्त एक वैरागी बाबाजीके लिये इरंडी (बढ़िया शॉल) लाया और कहा- 'बाबाजी ! सर्दी पड़ रही है। ग्रहण कर लीजिये।’ इरंडीको लेकर फेंक दिया और भक्तको भी बुरा-भला सुनाया तो स्वाभाविक ही ले जानेवालेकी श्रद्धा हो गई कि इनमें विरक्ति है। इसी प्रकार एक भक्त बढि़या पक्वान्न आदि सजाकर ले जाता है, उसको भी डाँटकर कहे– ‘हमारा धर्म भ्रष्ट करना चाहते हो। विषयभोगोंका स्वादु आदमी तो नरकगामी होता है। हटाओ इन पक्वान्नोंको !’ इसी प्रकार कोई श्रद्धालु स्त्री आती है, आकर चरण छूती है, बाबाजी कहते हैं– ‘खबरदार ! यहाँ कभी मत आना। मेरा धर्म नष्ट करना चाहती हो। पर-पुरुषके पाँव छूना कितना बड़ा पाप है !’ श्रद्धालु स्त्री कहती है– ‘बाबाजी ! माफ कीजिये, मुझे इस दोषका मालूम नहीं था, अपराध हो गया।’
वास्तवमें सच्चा वैराग्य होना चाहिये। अपने मनमें सच्चा वैराग्य है तो फिर अपना कड़े-से-कड़ा व्यवहार है तो भी खप जाता है, परन्तु वैराग्यकी प्रधानता होनी चाहिये। एक साधक है, अनपढ़ है, वस्त्र भी सुन्दर नहीं हैं, लेकिन अगर वैराग्य है तो देखनेवालोंकी स्वाभाविक श्रद्धा हो जाती है कि– ‘देखो, यह त्यागी कैसा है ! विद्या नहीं है तो क्या हुआ, इसमें वैराग्य तो है !’ उत्तम चीज वैराग्य है। वैराग्यमें सब गुण समाहित हैं।
वैराग्यके अभावमें मनुष्य यदि भोगोंमें लिप्त है, खानपान खराब है, इत्र, तेल लगावे, माला पहने, सिनेमा, हारमोनियम आदिका व्यवहार करे, मदिरा पीवे– इस प्रकारके दुर्गुणोंसे युक्त हो, वह चाहे श्रेष्ठ वर्णाश्रमसे युक्त, बुद्धिमान् और शास्त्रेंका ज्ञाता हो, तब भी उपरोक्त दोषोंका, दुर्गुणोंका मालूम पड़नेपर लोग उसका मुँह भी देखना नहीं चाहते।
एक आदमी सदाचारी भी है, झूठका व्यवहार नहीं करता, परोपकार भी करता है, माँस नहीं खाता है, मदिरा आदि नहीं पीता है, और भी कोई दुराचार नहीं करता है, यज्ञ, दान, तप आदि भी करता है, कोई ऐब, दुर्गुण भी नहीं हैं, लेकिन अगर वह विषयभोगोंमें रत है, शौकीन है, मखमलके गद्देपर सोता है, कंचन, कामिनीका दास है, फिर मामला खत्म है।
इसके सिवाय एक आदमी कंचन, कामिनिसे तो परहेज रखता है, लेकिन अगर विषयोंका त्यागी नहीं है तो कुछ महत्त्व नहीं है। जब कभी हम कंचन, कामिनीके त्यागीको भोजन कराते हैं, भोजनमें साधारण फुलका, दाल, भात परोसते हैं, तब वह कहता है– ‘यह क्या रसोई बनायी है? हम तो अमुक जगह गये थे, वहाँ हलुआ, पूड़ी, मिठाई वगैरह स्वादिष्ट भोजन बनाया। तुमने क्या शुष्क भोजनादि कराया ?’ भोजन करानेवालेने कहा– ‘हमें मालूम नहीं था।’ फिर एक दूसरी जगह खाना खाने गया। गृहस्थीने मालपूआ, पूड़ी, मिठाई वगैरह परोसा। भोजनके बाद कपड़ा दिया। कपड़ा देने लगे तो बाबाजीने कहा– ‘हमारे पास बढि़या इरंडी वगैरह पहननेके वस्त्र तो हैं, पर बढि़या दुशाला नहीं है।’ गृहस्थी बोला– ‘हमारे पास तो दुशाला नहीं है।’ अतः अन्य गुणोंके होते हुए भी अगर वैराग्य नहीं है तो मामला खत्म समझना चाहिये। त्याग एवं वैराग्य होनेसे ये सब दोष ठहर नहीं सकते।
सत्यके आश्रित क्षमा, दया, सन्तोष, समता इत्यादि सभी गुणोंका आधार त्याग एवं वैराग्य ही है। विषयासक्तिसे हरेक जगह पद-पदपर खतरा है। जो साधक इससे बचता है, वही उत्तम दर्जेका है। जिसमें त्याग, वैराग्य होता है, उसमें समता, सत्य, सन्तोष, तितिक्षादि सभी सद्गुण मिलेंगे। एक-एक चीज परमात्माकी प्राप्ति करानेवाली है, अमृत है, इन गुणोंका संग्रह करना चाहिये। विषयोंसे वैराग्य, उपरति, त्याग, सत्यता, समता, दया, परमात्माकी स्मृति, सत्पुरुषोंका संग, स्वाध्याय, संयम– इन रत्नोंका संग्रह करना चाहिये। इनसे तुरन्त भगवत्प्राप्ति हो जाती है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...