प्रत्येक व्यक्तिको कंचन, कामिनी और धर्मके लिये प्राणोंके त्यागमें वीर बनना चाहिये
प्रत्येक व्यक्तिको कंचन, कामिनि और धर्मके लिये प्राणोंके त्यागमें वीर बनना चाहिये। कामिनिके त्यागमें वीर है– अर्जुन। इसी प्रकार कोई भाई आपको अपना सर्वस्व सौंप रहा है, वह रुपया आपकी कमाईका नहीं है। दूसरा आदमी अपना रुपया देकर आपको उत्तराधिकारी बना रहा है, वह आप स्वीकार नहीं करें, यह वीरता है।
बिना हकका रुपया तो ले ही नहीं, किन्तु हकका रुपया भी त्याग दे, वह वीर है। अपनी ही कमाईका रुपया है, पर यदि टैक्स बचाते हैं तो वह बिना हकका है। वहाँ भी वीर रहना चाहिये। वह रुपया ग्रहण नहीं करना चाहिये।
इस समय लोगोंको तकलीफ हो रही है। अपने पास लाख रुपया है। उन लोगोंकी मदद करना, न करना अपनी खुशीकी बात है। इस जगह दूसरेके सुखके लिये त्याग कर दे, वह वीरता है। ऐसा व्यक्ति लोभके त्यागमें वीर है, कंचनके त्यागमें वीर है।
उदाहरण के लिये नचिकेताको यमराज लोभ दे रहे हैं, वह स्वीकार नहीं करते हैं, अतः वह वीर हैं। इसी प्रकार रन्तिदेव एक गिलास जलको भी दूसरेको दे देते हैं, वह दानवीर हैं। अतिथि सेवाके विषयमें महाभारतमें जो नेवलेकी कथा आती है, वह ब्राह्मण भी दानवीर है। वहाँ प्राणोंका भी त्याग है। प्राण त्यागकी वीरता उसमें भी है। भारी संकट प्राप्त है, पर प्राणोंकी परवाह नहीं, धर्म नहीं जाना चाहिये, प्राण भले ही चले जायँ। इस प्रकारकी वीरता ही वीरता है। उदाहरण के लिये गुरु गोविन्दसिंहके लड़कोंसे तलवारके बलपर धर्मका त्याग करवाना चाहते हैं, पर वे धर्मका त्याग नहीं करते हैं, बल्कि हँसते-हँसते प्राणोंका त्याग कर देते हैं। वे धर्मवीर हैं।
इसी प्रकार हमें भी कामवीर, दानवीर, धर्मवीर बनना चाहिये। तलवारकी धारसे जूझकर मरनेकी अपेक्षा भी यह वीरता ऊँचे दर्जेकी है। तलवारसे जूझकर मरनेवाले तो बहुत पुरुष होते हैं, किन्तु इस प्रकारके वीर पुरुष कम मिलेंगे। कामवीरका उदाहरण अर्जुनका, दानवीरका उदाहरण रन्तिदेव आदि और धर्मवीरका उदाहरण गुरु गोविन्दसिंहके लड़कोंका आता है। इस प्रकारकी वीरता हममें होनी चाहिये। जिस जगह गोला, बारूद बरसें, वहाँ जो मनुष्य धर्मका त्याग नहीं करे, वह वीर है। मौका पड़नेपर धर्मका त्याग नहीं करे, वह वीर है। धर्मके लिये भारी संकटका सामना करना, उसका आघात सह लेना वीरता है।
कर्मवीर सोई सूरमा लोट पोट हो जाय ।
ओट कछू राखे नहीं, चोट मुँह पर खाय ।।
विचलित नहीं हों। यह श्लोक घटा लें–
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ।।
(गीता 6/22)
अर्थात्- (परमात्माकी प्राप्तिरूप) जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्म-प्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित योगी बड़े भारी दुःखसे भी चलायमान नहीं होता ।
युधिष्ठिर धर्मवीर हैं। हिमालयमें धर्म संकट आ पड़ा तो धर्मकी ही रक्षा की, उन्होंने स्वर्गको लात मार दी। जिस समय यक्षने परीक्षा ली, राज्यका लोभ, भाईका लोभ दिखाया, पर परवाह नहीं की। धर्मके लिये किसीकी परवाह नहीं की। इतनी कठिनता पड़नेपर भी धर्मका त्याग नहीं करना वीरता है। इस प्रकार धर्मका त्याग न करने वाला करोड़ोंमें ही कोई एक होता है। हमें इसी प्रकार बनना चाहिये।
अभी कोई मौका पड़े– धर्मपालनका, उस समय आपको ये बातें याद आ जायें तो आपको लाभ हो सकता है। समय-समयपर इसे याद कर लें या रोज पढ़ें तो बहुत लाभ हो सकता है।
दूसरी बात यह है कि हमारी लम्बी मित्रता (45 वर्षसे) रही और अब भी है। वह मित्रता खूब प्रेमसे निभी। कम-बेशी तो होती रही, किन्तु उस मित्रतासे उसे ज्यादा लाभ हुआ हो या उससे मुझे लाभ हुआ हो, यह बात नहीं है। मेरे साथ जितना उसका काम पड़ा, उतना और किसीका नहीं पड़ा, फिर भी लाभ कम हुआ। इसका कारण यह है कि उसकी मित्रता पहले सकाम भावसे रही, लौकिक कामको लेकर रही। भगवद्विषयको लेकर भी सम्बन्ध रहा, पर कामनाकी प्रबलता रही। ईश्वरसे भी यदि रुपयोंके लिये मित्रता करे तो वह नीचे दर्जेकी ही है। यद्यपि ईश्वर तो ऊँचे भावसे ही देखते हैं, किन्तु निष्कामी भक्तकी विशेष प्रशंसा करते हैं। ऊँचा दर्जा तो निष्कामीका ही है।
प्रश्न– आपकी निष्काम भावसे भी तो लोगोंसे मित्रता होगी ?
उत्तर– मित्रता उसीको कहते हैं, जिसमें परस्पर मित्रभाव हो। मेरी तरफसे मित्रताका भाव हो, दूसरेकी तरफसे श्रेष्ठताका भाव हो तो वह मिश्रित मित्रता है। इस प्रकारकी मित्रता कई आदमियोंकी है, भगवत्प्राप्तिकी कामनाको छोड़कर। भगवत्प्राप्तिकी कामना, कामना नहीं मानी जावे तो कई आदमियोंकी मित्रता है। भगवत्प्राप्तिकी कामना दूषित कामना नहीं है। आप लोग जितने भी आदमी हैं, किसीके साथ तो बिल्कुल निष्कामभाव है, परमात्माकी प्राप्तिके सिवाय और कोई कामना नहीं है, किसी-किसीके साथ दूसरा सम्बन्ध भी है।
भगवत्प्राप्तिकी इच्छा न हो– ऐसा प्रेम मेरा किसीके साथ नहीं है। ऐसा प्रेम मनुष्यके साथ होना भी क्यों चाहिये– यह भी अपना सिद्धान्त है। ऐसा प्रेम तो भगवान् के साथ ही होना चाहिये। उस प्रेमका अधिकारी मनुष्य नहीं है। मैं यदि भगवान् से बलवान् होता, तो कह देता कि भगवान् से भी मिलनेकी परवाह मत करो। कल्याण करके क्या करोगे ? भगवान् भी क्या कभी अपना उद्धार चाहते हैं ? भगवान् के कर्म दिव्य हैं। उनका जन्म दिव्य है। वे झंझट ही नहीं मानते तो फिर इससे मुक्ति क्यों चाहेंगे ? इन सब बातोंमें दोहरी बात रहती है। इसे सुननेवाला मनुष्य अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार समझ सकता है। यह विनोद समझो, या रहस्य समझो। ये सब पुस्तकोंमें मिलनेवाली बातें नहीं हैं। बड़ी विचित्र बात हैं।
प्रश्न– स्पष्ट होना चाहिये ?
उत्तर– इस प्रकारका प्रेम भगवान् से ही होना चाहिये। मैं यदि यह कहूँ कि भगवान् की परवाह मत करो, विशुद्ध प्रेम करो तो यह कहना मेरे लिये अनुचित ही होगा या मेरे हृदयमें अन्धकार समझना चाहिये या मैं कोई प्रभावशाली पुरुष हूँ तो कह सकता हूँ कि ईश्वरकी भी परवाह न करके, ईश्वरसे विशुद्ध प्रेम करनेकी अपेक्षा, मेरेसे विशुद्ध प्रेम करनेसे उससे नतीजा ज्यादा बढि़या हो सकता है– ऐसी बात हो तो मुझे यह बात कहनी चाहिये या मैं ठग हूँ तो कह सकता हूँ। कोई भी श्रेष्ठ पुरुष इस प्रकार नहीं कहेगा और जो ठग हैं, महात्माके स्थानमें बैठकर अपनेको पुजा रहे हैं, वे इस प्रकार कहेंगे। किसीमें छिपी हुई मुक्तिकी कामना हो और पीछे उसे मालूम पड़े कि मैंने जो आशा कर रखी थी, उस प्रकारके पुरुष ये नहीं हैं तो उसके पश्चात्तापका ठिकाना भी नहीं रहेगा।
इसलिये अच्छे पुरुषको ऐसी गुंजाइश ही नहीं देनी चाहिये। कोई भी उच्च कोटिका महात्मा अपने नाम या रूपको नहीं पुजावेगा, न ऐसी चेष्टा ही करेगा, न प्रेरणा ही करेगा। वह तो भगवान् के नाम, रूपको ही पुजावेगा। मरनेके बाद शोक सभा हो, यह स्वाभाविक बात है, किन्तु वास्तवमें विचार करके देखा जाये तो उच्च कोटिका पुरुष मरे तो उसके लिये शोक क्यों करना चाहिये ?
अभिमन्युकी मृत्युपर युधिष्ठिर शोक करते हैं तो ऋषियोंने आकर कहा कि– ‘अभिमन्यु उत्तम गतिको गया है, उसके लिये शोक नहीं करना चाहिये।’
मैं यदि महात्मा हूँ, मेरे घरमें कोई मर जावे और कोई आकर मुझे धैर्य बँधावे तो मूर्खता ही है।
प्रश्न– उत्तम पुरुषोंके चले जानेपर क्या शोक मनाना चाहिये?
उत्तर– नहीं शोक नहीं, पश्चात्ताप करना चाहिये कि ऐसे पुरुषोंसे सम्बन्ध होनेपर भी जो लाभ उनसे उठाना चाहिये था, वह नहीं उठा सके। मंगलनाथजी महाराजके लिये पश्चात्ताप करते हैं। पछतावा भी जिज्ञासुके लिये ही है। नहीं तो अच्छे पुरुषोंका क्या पश्चात्ताप करना है ? वे तो मर्यादाका पालन कर देते हैं। उनके तो कुछ भी शोक, हर्ष, पश्चात्ताप है, वह भी कलंक है। जिज्ञासुओंके लिये कोई कलंक नहीं, सिद्धके लिये कलंक है।
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।।
(गीता 3/17)
अर्थात्– परन्तु जो मनुष्य आत्मामें ही रमण करनेवाला और आत्मामें ही तृप्त तथा आत्मामें ही संतुष्ट हो, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु किश्चदर्थव्यपाश्रयः ।।
(गीता 3/18)
अर्थात्– उस महापुरुषका इस विश्वमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मोंके न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें भी इसका किचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता।
अपने सब बैठे हैं। सत्संगकी बात हो रही है। नीचे कोई आदमी बात करे, वह कानमें आ गई तो अपने तो बाधा आती है, महापुरुषके नहीं। व्यवहार योग्यताके अनुसार होगा। शिष्टाचारसेे व्यवहार कर सकता है, फिर वर्णाश्रमके अनुसार अलग-अलग बात है।
लक्ष्मणके शक्ति लगी, भगवान् विलाप करते हैं। आप लोग जितने हैं, किसीका भी पहले मरना हो तो सबकी मृत्युपर मेरा व्यवहार अलग-अलग होगा, क्योंकि सबका सम्बन्ध, प्रेमभाव एक-सा नहीं है, फिर मेरा भी एक-सा क्यों होगा ?
यदि कोई पूछे कि तुम्हें सबसे ज्यादा प्रिय कौन लगते हैं ? किसी भी दृष्टिसे कहनेका काम पड़ता है और कहनेकी गुंजाइश है। मेरा जो ध्येय है, मैं जिस बातको अच्छा समझता हूँ, मेरे ही भावके अनुसार जिसका भाव है, मेरी समझके अनुसार ही जिसकी मान्यता है, वह ज्यादा प्रिय है। उदाहरणके लिये गीता, उपनिषद्की बात कही जाती है, उसी तरह दूसरा जो चाहता है, वह उसको प्रिय है। दूसरी पुस्तक है, अपने सुधार कर रहे हैं। मैं जो उसमें सुधार चाहता हूँ, उसी प्रकार जो सुधार चाहता है, वह ज्यादा प्रिय है। मेरे जीते हुये या मरनेके बाद मैं जिस बातको अच्छा समझूँ, उसीका ज्यादा प्रचार करे, उसीको ज्यादा प्रिय समझता हूँ।
गीता, उपनिषद् आदि जितने सद्ग्रन्थ हैं, उनका जो भाव अपनी तुच्छ बुद्धिके अनुसार समझमें आवे, उसके अनुसार जो मनुष्य प्रचार करे, वह ज्यादा प्रिय है। विचार करके देखा जाय तो आपको भी ऐसा ही आदमी प्रिय लगेगा। यदि शरीरके भोगोंके किकर होंगे तो इसके विरुद्धकी बात आपको जँच सकती है। श्रुति, स्मृतिके अनुसार जो प्रार्थना की जाती है, उसके अनुसार जो चेष्टा करता है, वही मेरा सखा है, वही मेरा अनुयायी है, मैं उसका अनुयायी हूँ।
जो आदमी अपना कल्याण चाहे, उसके लिये लाखों आदमियोंमें घोषणा करके कहा जा सकता है कि उसके कल्याणमें संशय नहीं है, क्योंकि वह मेरी बात नहीं है, भगवान् की बात है। समझानेके लिये ही मैं कहता हूँ कि– मेरा शब्द है। मेरा शब्द नहीं है, ईश्वरका कहा हुआ वचन है। मैं कहूँ और स्वयं पालन न करूँ तो मेरा कल्याण नहीं हो सकता। आप पालन करें तो आपका कल्याण हो सकता है।
नाम और रूप परमात्माका ही पूजने लायक है। अपने नाम, रूपके पूजनके लिये जो गुंजाइश देता है, वहाँ अँधेरा है। यह जो बात बता रहा हूँ, न अज्ञानी बता सकता है, न आचार्य ही। मूर्खको तो मालूम नहीं है आचार्य खुद पूजा चाहता है, इसलिये नहीं कह सकता। अतः साधकको आचार्यत्व स्वीकार नहीं करना चाहिये।
भविष्यमें क्या होगा, यह तो कोई नहीं कह सकता है। अनुमान तो यह किया जा सकता है कि मेरा जो विशेष अनुकरण करनेवाला है, मैं यही विश्वास करता हूँ कि वह मेरे नाम, रूपका पूजन नहीं करेगा। अपने नाम, रूपकी पूजा अच्छे पुरुषोंके लिये कलंक है। जिस बातके लिये दूसरोंकी संसारमें हमलोग निन्दा करते हैं, घृणाकी दृष्टिसे देखते हैं, वे अपनेको घृणाकी दृष्टिसे देखेंगे।
इतना विरोध किसलिये किया जाता है ? – इसलिये कि आवश्यकता है। जितना इसके लिये विरोध किया जायेगा, उतना ही उन लोगोंको सहायता पहुँचती है। जितना कम किया जायेगा, उतना ही उन लोगोंको घातक है। मैं नाम, रूपकी पूजाके लिये विरोध करता हूँ, पर सत्संगकी बातें कहता हूँ, उसके लिये प्रचार और काममें लानेके लिये प्रेरणा करता हूँ।
नाम, रूप, गुण, चरित्र, व्याख्यान– पाँच चीज हैं। छठा लो तो प्रभाव। ध्यान देनेकी बात है, शायद कभी नहीं सुनी होगी। ईश्वरकी तो ये सभी लेने लायक हैं। महात्माकी चार लेने लायक हैं– नाम, रूपको छोड़कर। और मेरी एक लेने लायक है– मैं जो कथन करता हूँ। तीन बात छोड़ दी– गुण, प्रभाव और चरित्र क्योंकि मेरा सारा चरित्र आदर्ळ नहीं है, मेरा सारा गुण धारण करने लायक नहीं है, सभी चरित्र पवित्र नहीं हैं। ईश्वरकी तो सभी ली जा सकती हैं, महात्माकी चार ही दो भी ली जा सकती हैं ईश्वरके मुकाबलेमें नहीं। गुरु-शिष्यके पदमें ली जा सकती हैं। गुरु पूजा नष्ट नहीं करनी है, इसलिये आचार्य कोटिके पुरुष हैं, उनकी शिष्य पूजा करे तो आपत्ति नहीं।
मेरेमें अच्छी बात हो, कोई ले तो विरोध नहीं है। मेरेमें जो गुण हों, उसे ले ले बुरा हो, उसे छोड़ दे। लेना– यानी काममें लाना। मेरी जीवनी लिखकर प्रचार करे तो मेरे तो वह कलंक ही लगाता है। जब श्रीरामचन्द्रजीका जीवन सामने पड़ा है तो उसे क्यों आच्छादित करना (ढकना) चाहिये ?
यह बात जो कही जाती है कि मैं नई बात सुनाता हूँ, पुस्तकोंमें नहीं मिल सकती है, ये मेरे शब्द तो अनुचित हैं। कहनेकी जरूरत नहीं है, फिर क्यों कहे जाते हैं ? मुझे तो यह समझना चाहिये कि स्वभावका दोष है। आपको क्या समझना चाहिये, यह आप सोचें। आपकी दृष्टिसे आपके जँचे, सो अर्थ निकालें। वह अर्थ मुझे नहीं सिखाना चाहिये। आपके स्वयं पैदा हो, इसीमें आपका हित है।
आर्ष (ऋषि - प्रणीत) ग्रन्थोंका संसारमें प्रचार करनेसे जितना भगवान् खुश हो सकते हैं, और किसीसे नहीं। भगवान् चाहे न मिलें, पर भगवान्में अनन्य प्रेम होना चाहिये। यह याचना याचना नहीं है। यह उद्देश्य पवित्र है।
भगवत्प्रेमका हेतु क्या है ? भगवत्प्रेमका हेतु– भगवत्प्रेम। और उस प्रेमका हेतु भगवान् का दर्ळन नहीं, उसका हेतु– भगवत्प्रेम। उसका फल भी भगवत्प्रेम। यह बात समझमें आ जाये तो क्या होना चाहिये ? भगवान् ही उसके दर्ळनकी इच्छा करें। किन्तु यह उद्देश्य नहीं रखना चाहिये कि भगवान् आकर दर्ळन करें, क्योंकि अपने तो उसके लायक नहीं हैं। जहाँ प्रेम होता है, वहाँ बुलानेकी आवश्यकता नहीं है। बुलावा भेजकर बुलाना है, वह न तो उच्च कोटिका प्रेम है, न शिष्टाचार है, न व्यवहार है। भगवान् तो सब जगह हैं, भक्तका मान बढ़ाने के लिये ही भगवान् आते हैं- ऐसा कहा जाता है।
यह बात प्रेमका तत्त्व है। प्रेमका तत्त्व तो प्रेमास्पद भगवान् ही जानते हैं, इसलिये यह प्रेमके तत्त्वका अंश है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...