Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

नवधा भक्तिके अंग– वन्दन, दास्य और सख्यकी विस्तृत व्याख्या

प्रवचन सं- 12
वैशाख कृष्ण 15वटवृक्षके नीचे, स्वर्गाश्रम

संसारमें वैराग्य और ईश्वरमें प्रेम- ये बड़ी उत्तम वस्तु हैं। संसारमें राग रहते हुए भगवान् जल्दी नहीं मिलते और बिना प्रेमके भी नहीं मिल सकते हैं। भगवान् प्रेम होनेके लिये नवधा भक्ति है। उनमेसे वन्दन, दास्य और सख्य- इन तीनकी व्याख्या की जाती है।

वन्दन का अर्थ है- वन्दना करना, जैसे भीष्म, अर्जुन करते हैं, जैसे अक्रूरजी श्रीकृष्णजीके पाद-चिह्नोंको देखकर उन्हें प्रणाम करने लगे।

दास्यभाव अर्थात् भगवान् के इशारेपर चलना, जैसे हनुमान्जी और लक्ष्मणजी थे।

सख्यभाव अर्थात् सखाका भाव, जैसे गोपियोंका सख्यभाव था (और माधुर्य भी था), जैसे ग्वालों का था।

अब इनकी व्याख्या की जाती है।

वन्दन– मन्दिरोंमें भगवान् को नमस्कार करना, मनमें स्थित भगवान् को प्रणाम करना, सबको भगवान् का रूप समझकर प्रणाम करना। केवल वन्दन करनेसे ही भगवत्-प्राप्ति हो जाती है। शास्त्रका भी प्रमाण है– भगवान् को एक बार किया हुआ प्रणाम दस अश्वमेध यज्ञके बराबर है। अश्वमेध करनेवाला तो लौटकर आता है, पर वह प्रणाम करनेवाला पुनः नहीं लौटता है।

प्रश्न– हमारी तो वह स्थिति नहीं होती है ?

उत्तर– वह स्थिति थोड़े ही होती है, पर वह जाकर लौटता नहीं है, इसमें विश्वास ही हेतु है। यदि आपको निश्चय है तो आप लौट कर नहीं आ सकते। भगवान् की शरणमें आ जाने वालेका पुनर्जन्म नहीं होता– ऐसा निश्चय होना चाहिये।

सबको परमात्मा समझकर प्रणाम करना– यह तुलसीदासजीने भी कहा है–

सीय  राममय सब  जग  जानी ।

करउँ  प्रनाम जोरि  जुग  पानी ।। 

(रा-च-मा- बालकाण्ड 8/2)

अर्थ– इस सारे जगत्को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- सारे संसार को सीता राम समझकर प्रणाम करता हूँ। जो कृष्णका भक्त होता है, वह कृष्ण समझकर प्रणाम करता है, कोई ब्रह्मको करता है– बात सब एक ही है। कोई कहता है– ‘भगवान् का कलियुगी अवतार हो गया है। तीन वर्षके बाद सत्युग आ जायेगा।’ आप सोचिये– भगवान् के अवतार लेनेपर अलौकिक बात होती है, जैसे भगवान् कृष्णके जन्म लेनेसे हुआ। शास्त्र प्रमाणसे और हमारे विचारसे अभी जन्म नहीं हुआ है। अभी कलियुगका आरम्भ ही है। हमें इस झंझटमें नहीं पड़ना चाहिये, हमें भगवान् का नाम जपना चाहिये और उनको प्रणाम करना चाहिये। भागवतमें दिखलाया है– 'जब भगवान् का भक्त प्रेममें आ जाता है, तब वह गदहे और चाण्डालको भी भगवान् समझकर प्रणाम करने लग जाता है।'

शास्त्र कहते हैं- 'बड़ोंको नमस्कार करना चाहिये- पर हम तो माता-पिताको भी प्रणाम नहीं करते। जो बालक माता-पिताको प्रणाम करता है, वह भगवान्‌को ही प्रणाम करता है। जो स्त्री पतिको प्रणाम करती है, वह भगवान्को नमस्कारके समान ही है। जो शिष्य गुरुको नमस्कार करता है, वह भगवान्‌को नमस्कार करनेके समान ही है। प्रणाम करनेसे आयु, बल, तेजकी वृद्धि होती है। जो पुत्र अपने माता-पिताको प्रणाम करता है, उससे उनको प्रसन्नता होती है और उससे उस (बालक) में बल आता है। जो निष्कामभावसे करता है, वह बहुत ऊँचा है। इसमें न समय लगता है, न पैसा लगता है और न इज्जत जाती है, परन्तु फिर भी हम इनको प्रणाम नहीं करते हैं।

शास्त्र कहते हैं- जो माता, पिता, गुरुकी उपासना करता है, वह बहुत बड़ा है। उसके लिये और दूसरा कर्तव्य नहीं है, इसलिये हमें प्रणाम करना चाहिये। प्रणाम करनेसे अहंकारका नाश होता है और प्रेम बढ़ता है, जिससे घरमें कलह नहीं होती। है। यदि हम चाण्डाल और गधेको भगवान् मानकर प्रणाम करें तो वह भी बहुत उत्तम है, भाव ही प्रधान है। किसीमें श्रद्धा करनेसे भगवान् उसमें विराजमान हो जाते हैं। भगवान्ने भक्तिके चार अंगोंमें नमस्कार भी बतलाया है- मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु (गीता ९/३४) (अर्थात्- मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको प्रणाम कर)। 

दास्य भाव– यह सातवीं भक्ति है। भगवान् की आज्ञा पालनेको दास्यभाव कहते हैं। भगवान् उत्तरकाण्डमें अपनी प्रजाको बड़े प्रेमसे कहते हैं–

सुनहु  सकल पुरजन  मम  बानी ।

कहउँ न  कछु  ममता उर आनी ।।

नहि  अनीति नहि  कछु  प्रभुताई ।

सुनहु  करहु जो  तुम्हहि  सोहाई ।।

(रा-च-मा- उत्तरकाण्ड 43/3-4)

अर्थ– हे समस्त नगरनिवासियो ! मेरी बात सुनिये। यह बात मैं हृदयमें कुछ ममता लाकर नहीं कहता हूँ। न अनीतिकी बात कहता हूँ और न इसमें कुछ प्रभुता ही है। इसलिये (संकोच और भय छोड़कर, ध्यान देकर) मेरी बातोंको सुन लो और (फिर) यदि तुम्हें अच्छी लगे, तो उसके अनुसार करो।

जौं  अनीति कछु  भाषौं  भाई ।

तौ  मोहि बरजहु  भय  बिसराई ।।

(रा-च-मा- उत्तरकाण्ड 43/6)

अर्थ– हे भाई ! यदि मैं कुछ अनीतिकी बात कहूँ तो भय भुलाकर (बेखटके) मुझे रोक देना।

सोचिये ! आप साक्षात् प्रभु होकर भी प्रजासे किस प्रकार प्रेमसे कहते हैं– 

सोइ  सेवक प्रियतम  मम  सोई ।

मम अनुसासन  मानै  जोई ।। 

(रा-च-मा- उत्तरकाण्ड 43/5)

अर्थ– वही मेरा सेवक है और वही प्रियतम है, जो मेरी आज्ञा माने।

व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- ‘जो मेरी आज्ञा माने, वही मेरा अति प्रिय सेवक है।’ यहाँ पर प्रियतम कहते हैं। प्रियसे श्रेष्ठ प्रियतर होता है और प्रियतरसे श्रेष्ठ प्रियतम है। यह सबसे श्रेष्ठ है। उसकी बड़ी महिमा आती है। भगवान्में अर्जुनका सख्यभावके साथ दास्यभाव भी था। भगवान् ने अर्जुन को कहा है– ‘यदि तू मेरा वचन नहीं मानेगा तो तेरा विनाश हो जायेगा।’ यहाँ भगवान् यह दिखला रहे हैं कि मेरा भक्त तो मेेरे वचन सदा मानता ही है। यदि नहीं माने तो वह सेवक नहीं है।

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हम चूरुमें रहते हैं। हमने पितामहोंसे सुना है कि पहले चपरासियोंकी जगह चेला होते थे, वे कर (टैक्स) वसूल करनेका काम किया करते थे। वे जब मोचियों (जूते बनानेका काम करनेवालों) से कर माँगते तो वे- 'कल देंगे'- का बहाना करके टाल देते थे। एक दिन एक चेलेको क्रोध आ गया। वह उनको गालियाँ देने लगा। तब मोचियोंने उसे कहा कि- 'राज्यकी छड़ीके कारण ही तुम हमें गाली दे रहे हो।' (राज्यके नौकरकी पहचानके लिये राजाकी तरफसे एक छड़ी दी जाती थी, ताकि लोग पहचान लें कि यह राजाका आदमी है।)

तब उस चेले ने कुछ अनुचित वचन कहे और राज्यकी छड़ी फेंक दी। जब उसने छड़ी फेंक दी, तब मोचियोंने उसे खूब मारा।

जब राजाको मालूम हुआ, तब राजाने मोचियोंको बुलाया। मोचियोंने कहा- 'हुजूर ! हमने राज्यके चेलेको नहीं मारा है। अब यह राज्यका चेला नहीं है। आप इससे सब पूछ लो । जब इसने आपकी छड़ीका अपमान किया (यानी छड़ी फेंक दी), तब हम उसे कैसे देख सकते थे ? हम भला आपका अपमान कैसे देख सकते हैं ?’

यह सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और उनको ईनाम दिया।

भगवान् ने सेवककी महिमा कही है। तुलसीदासजीने कहा है– 

सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ।

भजहु राम पद पंकज  अस सिद्धांत बिचारि ।।

(रा-च-मा- उत्तर- दोहा 119 क)

अर्थ– हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी ! मैं सेवक हूँ और भगवान् मेरे सेव्य (स्वामी) हैं, इस भावके बिना संसाररूपी समुद्रसे तरना नहीं हो सकता। ऐसा सिद्धान्त विचारकर श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका भजन कीजिये।

व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- स्वामी-सेवकके भावके बिना मनुष्य इस भवसागरसे तर नहीं सकता है। तुलसीदासजीने कहा है– ‘प्रभो ! आप स्वामी और हम सेवक- यह भाव कभी नहीं जाये।’ जो भगवान् का सेवक होता है, भगवान् खुद उसके सेवक हो जाते हैं। भागवतमें कहा है– 'अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज' (श्रीमद्भागवत ९/४/६३) (अर्थात् - श्रीभगवान्ने कहा- दुर्वासाजी ! मैं सर्वथा भक्तोंके अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतंत्रता नहीं है) - यह अम्बरीषकी कथामें आया है। वे भगवान् को दास्यभावसे भजा करते थे। एक समय दुर्वासा आये और कहा– ‘हम भोजन करेंगे। आप सब कुछ तैयार करना।’ एकादशी खत्म हो रही थी, ऐसी अवस्थामें राजाने एकादशीके पारणके लिये तुलसी चरणामृत ले लिया। दुर्वासा आये। उन्हें मालूम हो गया और कहा– ‘हे राजन् ! आपने हमें भोजन करानेसे पहले स्वयं भोजन कर लिया।’ यह कहकर कुपित होकर राजापर कृत्या छोड़ी। उसी समय भगवान् का चक्र कृत्याको मारकर दुर्वासाकी ओर चला। दुर्वासा ब्रह्मा, शिव इत्यादिके लोकोंसे निराश होकर दौड़ते हुए भगवान् के पास गये, तब भगवान् ने कहा कि– ‘मैं तो भक्तके आधीन हूँ। मैं सेवकके अपराधको क्षमा नहीं कर सकता हूँ। मैं भी पवित्र होनेके लिये उनकी चरणरज चाहता हूँ।’

तुलसीदासजीने तो इसे बहुत ऊँचा कर दिया–

मोरें  मन प्रभु  अस  बिस्वासा ।

राम ते अधिक  राम कर दासा ।।

राम  सिंधु घन  सज्जन  धीरा ।

चंदन तरु  हरि  संत समीरा ।।

(रा-च-मा- उत्तरकाण्ड 120/16-17)

अर्थ– हे प्रभो ! मेरे मनमें तो ऐसा विश्वास है कि श्रीरामजीके दास श्रीरामजीसे भी बढ़कर हैं। श्रीरामचन्द्रजी समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ हैं। श्रीहरि चन्दनके वृक्ष हैं तो संत पवन हैं।

व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- भगवान् समुद्रके समान हैं और उनके भक्त बादलके समान हैं। जैसे बादल समुद्रसे जल लेकर सब जगह वर्षा करते हैं, उसी प्रकार भक्त मुझ आनन्दघनसे लेकर आनन्द और प्रेमकी वर्षा करते हैं। समुद्रका खारा जल भी बादलोंमें आ जानेसे मीठा हो जाता है।

 – तो क्या भगवान् खारे हैं ?

 – हाँ ! निराकारमें भगवान् बड़ी कठिनतासे प्राप्त होते हैं। भक्त उन्हींका अवतार करवा देते हैं, यथा–

परित्रणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय  सम्भवामि युगे   युगे ।।

(गीता 4/8)

अर्थात्– साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।

भगवान् सारे संसारमें व्याप्त हैं, रगड़से प्रकट हो जाते हैं। भगवान् चन्दनके वृक्षके समान हैं और भक्त वायुके समान हैं, जो कि भगवान् से सुगन्ध लेकर सब जगह फैला देते हैं। यदि भगवान् के भक्त नहीं होते तो भगवान् का नाम भी नहीं रहता, क्योंकि उनका गुण-गान कौन करता ? वे स्वयं तो करते नहीं।

जो भगवान् की आज्ञाका पालन करता है और दूसरोंसे करवाता है, वह सर्वश्रेष्ठ है, इसलिये हमें भगवान् का भक्त होना चाहिये। तुलसीदासजी कहते हैं– संसारमें भगवान् के भक्तके समान कोई नहीं है–

हेतु रहित जग जुग उपकारी ।

तुम्ह  तुम्हार सेवक असुरारी ।।

(रा-च-मा- उत्तर- 47/5)

अर्थ– हे असुरोंके शत्रु ! जगत्में बिना हेतुके (निःस्वार्थ) उपकार करनेवाले तो दो ही हैं– एक आप, दूसरे आपके सेवक।

व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- ‘संसारमें बिना प्रयोजन उपकार करनेवाले तुम और तुम्हारे भक्त (सेवक) ही हैं।’

स्वारथ मीत सकल जग माहीं ।

सपनेहुँ  प्रभु  परमारथ नाहीं ।।

(रा-च-मा- उत्तरकाण्ड 47/6)

अर्थ– जगत्में (शेष) सभी स्वार्थके मित्र हैं। हे प्रभो ! उनमें स्वप्नमें भी परमार्थका भाव नहीं है।

सुर नर मुनि सब कै यह रीती ।

स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ।। 

(रा-च-मा- किष्किन्धाकाण्ड 12/2)

अर्थ– देवता, मनुष्य और मुनि सबकी यह रीति है कि स्वार्थके लिये ही सब प्रीति करते हैं।

सबको शामिल कर लिया। मुनियोंको भी कह दिया, क्योंकि उनमेंसे कोई ही मुझे प्राप्त होता है। जो भगवान् का भक्त है, वह स्वार्थी नहीं होता है। जिसमें कुछ भी स्वार्थ नहीं रहता है, तब भगवान् प्रकट हो जाते हैं। वे उसके ऋणी हो जाते हैं।

एक बार बहुतसे मनुष्य तीर्थयात्रमें गये। दो मनुष्य साथमें थे। उनमेंसे एक बीमार हो गया। कई दिनके बाद दूसरा आदमी उसेे छोड़कर चला गया। एक आदमीने जब उसे देखा तो उसने सोचा कि– ‘मैं तीर्थमें जाकर क्या करूँगा ? मैं तो इसकी सेवा करूँगा।’ जब वह ठीक हो गया तो उसने उस सेवा करनेवाले आदमीसे कहा– ‘मैं यह नहीं चाहता हूँ कि तुम भी कभी बीमार पड़ो और मैं तुम्हारी सेवा करूँ ! इसलिये यह ऋण मुझपर ही बना रहने दो।'

भगवान् श्रीराम भी हनुमान्जीसे यही कहते हैं कि– ‘मैं तुम्हारे ऋणसे छुटकारा नहीं चाहता हूँ, क्योंकि ऋण चुकानेके लिये यह जरूरी है कि कभी तुमपर भी विपत्ति आये, तभी हम चुका पायेंगे।’

भगवान् भक्तोंके ऋणसे उऋण होना नहीं चाहते। उनके भक्त भी ऋणी ही रहना चाहते हैं। वे तो भगवान् के भरोसेपर रहते हैं। भरतजी हनुमान्जीसे कहते हैं–

एहि संदेस सरिस जग माहीं ।

करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं ।।

नाहिन तात उरिन  मैं  तोही ।

अब प्रभु चरित सुनावहु मोही ।।

(रा-च-मा- उत्तरकाण्ड 2/13-14)

अर्थ– इस सन्देशके समान (इसके बदलेमें देने लायक पदार्थ) जगत्में कुछ भी नहीं है, मैंने यह विचार कर देख लिया है। (इसलिये) हे तात ! मैं तुमसे किसी प्रकार भी उऋण नहीं हो सकता। अब मुझे प्रभुका चरित्र (हाल) सुनाओ।

व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- ‘मैं तुमसे उऋण नहीं हो सकता हूँ, क्योंकि भगवान् के आगमनके समाचारके समान कोई भी वस्तु नहीं है, जो तुम्हें दूँ।’

 – क्या इसके बराबर मुक्ति नहीं है ?

 – भक्त तो मुक्तिकी इच्छा ही नहीं करते और दूसरे, वे समझते हैं कि मुक्ति मेरे हाथकी चीज नहीं है, वह तो स्वामीकी चीज है।

एक पुरुष सकाम भावसे भक्ति करता था। एक दिन नारदजीके आनेपर उसने उनकी बड़ी सेवा की। जाते वक्त नारदजीने कहा– ‘तुम्हारी क्या इच्छा है ?’

उसने कहा– ‘मुझे पुत्र चाहिये।’

नारदजीने कहा– ‘भगवान् से पूछकर कहूँगा।’

नारदजीने भगवान् के पास जाकर उसका हाल कहा। तब भगवान् ने कहा– ‘उसके पुण्यके प्रभावसे तो उसके पुत्र नहीं हो सकता है। उसका पुण्य इतना श्रेष्ठ नहीं है।’

तब नारदजीने जाकर उससे कहा– ‘भाई ! तुम्हारे पुत्र नहीं हो सकता, ऐसा भगवान् ने कहा है।’

फिर नारदके चले जानेपर एक महात्मा आये। महात्माने उसे पुत्र होनेका वरदान दिया। कुछ कालमें उसके दो पुत्र और दो पुत्री उत्पन्न हुए। जब नारदजीने उनको देखा, तब वे भगवान् के पास जाकर कहने लगे– ‘प्रभो ! उसके पुत्र कैसे हुए ?’

भगवान् ने कहा– ‘नारद !  मेरे भक्तकी कृपासे उसे प्राप्त हुए हैं। भक्त मुझसे श्रेष्ठ हैं, वे जो चाहे कर सकते हैं, नियमको भी तोड़ सकते हैं।’

ऐसी बातें जगह-जगह आती हैं। जब द्वारिकामें उत्पात होने लगे, तब भगवान् ने कहा कि– ‘तुम अक्रूरको लाओ। उसके चले जानेसे ही ऐसे उत्पात होते हैं।’ भगवान् अपने भक्तोंको ही आदर देते हैं। वे कहते हैं– ‘जो मेरा अपराध करे, उसे भक्त हटा सकता है (अर्थात् क्षमा कर सकता है), पर मेरे भक्तका अपराध करनेपर मैं क्षमा नहीं कर सकता हूँ, मेरा भक्त ही उसे क्षमा कर सकता है। मैं उसे स्वीकार कर लूँगा।’

इसी प्रकार अम्बरीष और दुर्वासाकी वार्ता है। भक्त अपनी बुराई करनेवालेकी भी रक्षा करते हैं। ऐसे भक्त भगवान् को भी बेच सकते हैं। इन सबका फल प्रेम-भक्ति है। प्रेमका अर्थ प्रेम है। जो भक्ति करते हैं, वे भगवान् के लिये करते हैं। प्रेम प्रेमीसे बड़ा है। भक्ति भगवान् से भी श्रेष्ठ है।

सख्यभाव– परमेश्वरके साथ मित्रभाव करना सख्यभाव है। केवल सख्यभाव से ही मनुष्य तर सकता है। बहुतसे उदाहरण हैं। शास्त्र भी प्रमाण है। भगवान् के साथ हेतुरहित मित्रता होनी चाहिये। भगवान् ऐसे लोगोंके आधीन हो जाते हैं। बतलाइये, भगवान् जिसके मित्र हो जायँ, क्या उसका कम भाग्य है ! जब सुग्रीवसे रामजीकी मित्रता हो गई, तब प्रभुने उससे कहा– 

सखा  सोच त्यागहु  बल  मोरें ।

सब बिधि  घटब  काज मैं  तोरें ।। 

(रा-च-मा- किष्किन्धाकाण्ड 7/10)

अर्थ– हे सखा ! मेरे बलपर अब तुम चिन्ता छोड़ दो। मैं सब प्रकारसे तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा।)

व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- ‘हे सखे ! तुम हमारे बलके भरोसेपर सोच छोड़ दो। मैं तुम्हारा सब काम करूँगा।’

संसारमें तीन तरहके मित्र होते हैं–

(1) जो अपना मित्र है, वह मित्र है।

(2) जो मित्रका मित्र है, वह मित्र है।

(3) जो शत्रुका वैरी है, वह भी मित्र है। 

शत्रु भी तीन प्रकारके होते हैं–

(1) जो अपना शत्रु है, वह है ही।

(2) जो मित्रका शत्रु है, वह भी शत्रु है।

(3) जो शत्रुका मित्र है, वह भी शत्रु है।

भगवान् ने तो शत्रुका भी उद्धार कर दिया, क्योंकि बालि सुग्रीवका शत्रु था। भगवान् ने बालिको कहा है– 

मम भुज बल आश्रित तेहि जानी ।

मारा  चहसि  अधम अभिमानी ।।

(रा-च-मा- किष्किन्धा- 9/10) 

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अर्थ- सुग्रीवको मेरी भुजाओंके बलका आश्रित जानकर भी अरे अधम अभिमानी ! तूने उसको मारना चाहा !

भगवान् के इस प्रकार कहनेपर बालि भगवान्के प्रभावको जान गया। उसने कहा-

सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि ।

प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि ॥

(रा.च.मा. किष्किन्धा. दोहा ९)

अर्थ- (बालिने कहा-) हे श्रीरामजी ! सुनिये, स्वामी (आप) से मेरी चतुराई नहीं चल सकती। हे प्रभो ! अन्तकालमें आपकी गति (शरण) पाकर (क्या) मैं अब भी पापी ही रहा ?

प्रभु यह सुनते ही पिघल गये। गोस्वामीजी कहते हैं-

सुनत राम अति कोमल बानी ।

बालि सीस परसेउ निज पानी ॥

(रा.च.मा. किष्किन्धा. १०/१)

अर्थ- बालिकी अत्यन्त कोमल वाणी सुनकर श्रीरामजीने उसके सिरको अपने हाथसे स्पर्श किया।

व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा )- बालिकी कोमल वाणीको सुनकर भगवान् ने तुरन्त अपना हाथ उसके मस्तकपर रखा। देरीसे नहीं रखा, उसकी यह बात सुनते-सुनते ही रखा। जो प्रभुसे कोमल वाणी बोलता है, उसके सामने कोमल होनेके कारणसे प्रभु तुरन्त पिघल जाते हैं। महाराजने अपना हाथ रख दिया। आप सोचिये ! भगवान् ने ही जब जिस किसीको आश्वासन दे दिया हो, उसकी तो बात ही क्या है, महात्माओंके द्वारा हाथ रख दिये जानेपर ही बहुत बड़ा सौभाग्य समझा जाता है। देखिये, क्या कहा–

अचल करौं तनु राखहु प्राना ।

बालि कहा सुनु कृपानिधाना ।।

(रा-च-मा- किष्किन्धा- 10/2)

अर्थ– मैं तुम्हारे शरीरको अचल कर दूँ, तुम प्राणोंको रखो। बालिने कहा– हे कृपानिधान ! सुनिये।

व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा )- ‘हे बालि ! मैं तुम्हें अचल कर दूँ, तुम्हारे प्राणोंको रख दूँ ?’ बालिने कहा– ‘हे कृपानिधान ! क्या आपको ऐसी बात शोभा देती है ? क्या मैं इतने लाभको प्राप्त होकर भी उसके बदलेमें तुच्छ वस्तु ले लूँ ?’

उसका अन्तःकरण प्रभुके दर्ळनसे शुद्ध हो गया था। उसने कहा–

जन्म  जन्म मुनि  जतनु  कराहीं ।

अंत  राम कहि   आवत  नाहीं ।।

(रा-च-मा- किष्किन्धा- 10/3)

अर्थ– मुनिगण जन्म-जन्ममें (प्रत्येक जन्ममें) (अनेकों प्रकारका) साधन करते रहते हैं, फिर भी अन्तकालमें उन्हें ‘राम’ नहीं कह आता (उनके मुखसे रामनाम नहीं निकलता।)

व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा )- ‘मुनि जन्म-जन्ममें यत्न करते हैं, पर अन्त समयमें राम नहीं आते हैं’– यहाँ ऐसा भाव घटता नहीं है (युक्तिसंगत नहीं लगता है), इसलिये ऐसा भाव लिया जाता है कि– ‘मुनि जन्म-जन्ममें यत्न करके आपका नाम लेकर मुक्तिको प्राप्त हो जाते हैं, फिर वे लौटकर आते नहीं हैं।’ जब आपके नाममें इतनी शक्ति है, फिर आपका स्वयंका तो कहना ही क्या है !

जासु नाम बल  संकर  कासी ।

देत सबहि सम गति अबिनासी ।। 

(रा-च-मा- किष्किन्धा- 10/4)

अर्थ– जिनके नामके बलसे शंकरजी काशीमें सबको समानरूपसे अविनाशिनी गति (मुक्ति) देते हैं।

मम  लोचन गोचर  सोइ  आवा ।

बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा ।।

(रा-च-मा- किष्किन्धा- 10/5)

अर्थ– वह श्रीरामजी स्वयं मेरे नेत्रेंके सामने आ गये हैं। हे प्रभो ! ऐसा संयोग क्या फिर कभी बन पड़ेगा ?

भगवान् ने यह दिखलाया कि मित्रता कैसे करनी चाहिये। उस समय प्रभु जनकसुताके वियोगमें व्याकुल होकर इधर-उधर घूम रहे थे, वे बड़े ही दुःखित थे, ऐसी अवस्थामें भी भगवान् ने सुग्रीवका कार्य पहले किया– इसीका उपदेश इस प्रकरणसे दिया। 

उपदेश देना सरल है, पर कार्य करना कठिन है। वे तो मर्यादा पुरुषोत्तम ही हैं। यदि हम भगवत्-भावसे किसीके साथ मित्रता करते हैं तो हमारा वह प्रेम भगवान् से ही है। भगवान् ने जैसा प्रेम सुग्रीवके साथ किया, वैसा ही मित्रके साथ करना चाहिये। हम सुग्रीवके प्रेमको अपना आदर्ळ नहीं बना सकते, जितना कि भगवान् के प्रेमको अपने लिये आदर्ळ बना सकते हैं। भगवान् बतला रहे हैं–

निज दुख गिरि सम रज करि जाना ।

मित्रक  दुख रज   मेरु   समाना ।। 

(रा-च-मा- किष्किन्धा- 7/2)

अर्थ– अपने पर्वतके समान दुःखको धूलके समान और मित्रके धूलके समान दुःखको सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने।

व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा )- अपने बड़े दुःखको भी छोटा और मित्रके छोटे दुःखको भी अधिक समझना चाहिये। आपत्तिकालमें तो सौ गुणा अधिक प्रेम करना चाहिये–

बिपति  काल कर  सतगुन  नेहा ।

श्रुति  कह संत  मित्र  गुन एहा ।। 

(रा-च-मा- किष्किन्धा- 7/6)

अर्थ– विपत्तिके समयमें तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्रके गुण (लक्षण) ये हैं।

भगवान् के साथमें ऐसी मित्रता करनी चाहिये। भगवान् आतुरके हृदयमें बसते हैं, इसलिये उसके साथ मित्रता करनी चाहिये, उसकी सेवा करनी चाहिये। एक धनी-मानीसे निष्कामभावसे मित्रता करनेसे जितने समयमें भगवत्-प्राप्ति होती है, उससे जल्दी आतुरके साथ प्रेम करनेसे भगवान् मिलते हैं।

जब भगवान् और सुग्रीवने आपसमें मित्रता की, तब सुग्रीवने कहा– ‘मैं जिस प्रकारसे भी होगा, जानकीका पता लगवाऊँगा, उनको आपसे मिला दूँगा।’ भगवान् ने भी जब उसकी गाथा सुनी तो वे बड़े दुःखी हुए।

जो मित्रके दुःखसे दुःखी नहीं होता है, उसके लिए कहते हैं–

जे न मित्र दुख  होहि दुखारी ।

तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ।।

(रा-च-मा- किष्किन्धा- 7/1)

अर्थ– जो लोग मित्रके दुःखसे दुःखी नहीं होते, उन्हें देखनेसे ही बड़ा पाप लगता है।

भगवान् सुग्रीवकी बातको सुनकर बड़े दुःखित हुए, उनमें उत्तेजना आ गई, वे कहने लगे–

सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहि बान ।

ब्रह्म रुद्र सरनागत  गएँ न उबरिहि प्रान ।। 

(रा-च-मा- किष्किन्धा- दोहा 6)

अर्थ– हे सुग्रीव ! सुनो, मैं एक ही बाणसे बालिको मार डालूँगा। ब्रह्मा और रुद्रकी शरणमें जानेपर भी उसके प्राण नहीं बचेंगे।

उसके आगे उन्होंने मित्रताके लक्षण कहे हैं। यह मैत्रीभाव है।

सख्यभावमें बराबरका कायदा रहता है और दास्यभावमें स्वामी-सेवकभाव रहता है। भगवान् के साथमें सखाभावसे सब कुछ करवाया जा सकता है, परन्तु दास्यभावमें नहीं। ऐसा भाव (सख्यभाव) शूरवीरोंके होता है। अर्जुनके साथमें तो सख्य भाव होते हुए भी दास्यभाव था, पर गोपियों में केवल सख्यभाव था। वे एक साथ खेला करते थे, उन्हें अपने समान समझा करते थे। भगवान् भी उसी प्रकार रहते थे। देखिये, कितना फर्क है– कहाँ ईश्वर और कहाँ जीव !

बड़े सज्जन छोटोंसे मित्रता नहीं करते हैं, पर भगवान् के यहाँ तो सबके लिये दरवाजा खुला है, वे सबके सखा हो जाते हैं। सखासे बिक जाते हैं। सखा भगवान् के साथमें बराबरीका व्यवहार करते हैं। गोप बालक भगवान् के साथमें बराबर खेला करते थे, वे (सखा) उनके थप्पड़ भी लगा देते थे और वे (भगवान्) उनके थप्पड़ लगा देते थे। गेंदसे तो रोज ही खेला करते थे। भगवान् के परिकर ही भगवान् के साथ खेलते हैं। ऐसा सौभाग्य दूसरोंको कैसे प्राप्त हो सकता है ? भगवान् के साथ गोप बालक जब वनमें जाते, तो भगवान् उनसे माँग-माँगकर खाते। भगवान् प्रेमीकी चीजको बड़े प्रेमसे खाते हैं। वे उनसे माँगकर भी खा लेते थे।

स्त्रियोंके साथ सखीभाव होता है, जैसे गोपियाँ। कई उनमें दोष मानते हैं, पर यह मानना गलत है, क्योंकि गोपियोंका प्रेम निष्काम था, उनका प्रेम विशुद्ध था। उनके कामवासना कैसे हो सकती है ? जहाँ क्रीड़ाका नाम आया है, वहाँपर गाने, नाचनेका अर्थ समझना चाहिये। फिर भगवान् कैसे कह सकते हैं कि गोपियोंसे बढ़कर मेरा प्रिय कोई नहीं है। शंकरजीकी पत्नी पार्वतीजी रासमें नाचा करती थी। शंकरजीने भी चलनेकी इच्छा की, तब यही कहा कि– ‘यदि भगवान् से मिलना हो तो सखीका रूप धारण करो।’ तब शंकरजी सखीका रूप धारण करके ही गये।

द्रौपदी भी भगवान् की सखी थी। जब पाण्डव वनमें गये हैं, तब धृतराष्ट्रने विदुरसे पूछा कि पाण्डव किस प्रकारसे गये हैं ? उस समय उन्होंने द्रौपदीके लिये बताते हुए कहा है कि वह केळोंको खोले हुए थी। इसका मतलब यह है कि एक दिन कौरवोंकी स्त्रियाँ भी केश खोलकर विधवा बनेंगी, मेरी तरह ही रोयेंगी। इसी प्रकार उन्होंने सबके चिह्न बतलाये। सखी होनेके कारण द्रौपदीने वनमें कृष्णको बड़ी कठोर बातें सुनाई हैं। उसने यहाँ तक कह दिया कि- ‘तुम मर नहीं गये हो !’ फिर भगवान् ने उसे आश्वासन दिया।

महाभारतमें प्रवीरकी कथा आती है। एक समयमें महाराज युधिष्ठिरने अश्वमेध यज्ञका घोड़ा छोड़ा। वह प्रवीरके देशमें गया। घोड़ेके मस्तकपर लिखा था कि– ‘जो वीर हो, वह इसे पकड़े। उसे अर्जुनके साथ युद्ध करना होगा। जो नहीं पकड़ेगा, वह हारा हुआ माना जायेगा।’

प्रवीरकी माता थी, वह बड़ी वीर थी। उसने अपने पुत्रको कहा– ‘तुम इसको पकड़ लो।’ उसके पिताने कहा- ‘हम अर्जुनके साथ युद्ध नहीं करेंगे।’

माताने कहा- ‘पुत्र प्रवीर ! तू मुझसे उत्पन्न हुआ है। मैं क्षत्रणी हूँ। तू क्यों डरता है ? यदि तू मारा भी जायेगा तो मैं अपना सौभाग्य समझूँगी।’

प्रवीर यह सुनकर तैयार हो गया। प्रवीरने भगवान् के दर्ळन करने हेतु वहाँ बुलानेके लिये अर्जुनसे युद्ध किया। उस युद्धमें अर्जुन हार गया। तब प्रवीरने कहा– ‘हे अर्जुन ! तू अब लौट जा, या कृष्णको बुला, जो तुझे जितायेगा।’ तब अर्जुनने भगवान् की विनती की। उसी समय भगवान् आ गये। भगवान् के आनेपर प्रवीरने उनकी स्तुति की।

कभी अर्जुन प्रवीरको हरा देता और कभी प्रवीर अर्जुनको हरा देता। जब अर्जुन हार जाता, तब भगवान् उसे फिर हिम्मत बँधा देते। जब प्रवीर हार जाता, तब कहता कि– ‘तुम कृष्णके बलपर जीतते हो।’

फिर भगवान् से कहता– ‘हे प्रभो ! मैं और अर्जुन आपके समान भक्त हैं। अब आप मेरे रथपर आइये।’ यह सुनकर भगवान् उसके रथपर चले जाते।

तब अर्जुन धनुष-बाण छोड़ देते हैं और कहने लगते हैं– ‘प्रभो ! क्या आप हमारी हार कराना चाहते हैं ? क्या आपको युधिष्ठिरके वचन याद नहीं हैं। आपने ही तो कहा था कि युधिष्ठिरका यज्ञ सफल हो जायेगा।’ तब भगवान् उसके रथ पर आ गये। 

फिर युद्ध होने लगा। उसने बड़े जोरसे युद्ध करके प्रवीरको हरा दिया। प्रवीरने कहा– ‘आप अलग खड़े होकर युद्धको देखते रहो।’

यह कहकर रथसे उतरकर उसने भगवान् को एक पेड़से बाँध दिया। फिर अर्जुनसे बोला– ‘अब देखेंगे, तुम कैसे लड़ते हो ? अपना मुँह लेकर चले जाओ।’

फिर अर्जुन भगवान् से कहते हैं– ‘प्रभो ! आप किसीसे भी नहीं बँधने वाले हैं, फिर इन रस्सियोंसे कैसे बँधते हो ? क्या आप मुझे हराना चाहते हो ?’ यह सुनकर भगवान् रस्सी तुड़ाकर अर्जुनके रथ पर आ गये। 

फिर युद्ध होने लगा। कभी प्रवीर अर्जुनको हराता, कभी अर्जुन प्रवीरको हराता। फिर प्रवीर भगवान् को रथसे खींचकर उसी पेड़के पास ले गया। उसने कहा– ‘प्रभो ! आप प्रेमसे बँधते हैं। मैं चाहता हूँ कि हम दोनों युद्ध करें और आप देखें। आप प्रतिज्ञा कर लीजिये।’

तब भगवान् ने प्रतिज्ञा की कि– ‘जब तक तुम्हारा युद्ध होता रहेगा, तब तक मैं यहीं रहूँगा।’

तब अर्जुन उदास हो गया। वह फिर कहने लगा– ‘प्रभो ! आप आकर भी हमारी हार करा रहे हैं। क्या आप अर्जुनको मरा हुआ देखेंगे ? प्रभो ! आप तो प्रतिज्ञा तोड़कर भी भक्तोंकी रक्षा करते हैं।’ तब भगवान् अर्जुनके रथपर चले गये।

प्रवीरने कहा– ‘बस ! क्या आप ऐसे ही सत्यवादी हैं ?’

भगवान् ने कहा– ‘तुमसे प्रतिज्ञा किसने की ?’

जब उसने उधर देखा तो वहाँ भी भगवान् को पेड़से बँधे हुए देखा।

यह देख कर उसने अर्जुनकी स्तुति की। वह प्रेममें विह्नल हो गया। वह भगवान् को देखकर उनका ध्यान करने लगा। भगवान् ने कहा– ‘अर्जुन! बाण मार।’

तब अर्जुनने कहा– ‘प्रभो ! यह हमारा धर्म नहीं है।’

भगवान् ने कहा– ‘क्या मेरे भक्तको कोई मार सकता है ? यह कभी नहीं मर सकता है। इसे ध्यानावस्थामें ही मारा जा सकता है।’ तब अर्जुनने उसको मार डाला। उसके शरीरसे एक ज्योति निकली और भगवान् के श्रीविग्रह में समा गई।

कोई सखा ही भगवान् को रस्सियोंसे बाँध सकता है, भगवान् को रथसे नीचे डाल सकता है। यह बड़ा ही दुर्लभ है, बड़ा ही विलक्षण है। न वहाँ भगवान् से डर है, न आदर है, न वहाँ भगवान् की प्रार्थना है।

इस प्रकरणमें तो दास्यभावका भी मिश्रण हो गया है।

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सख्यभावमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है, बस, समानता है। जैसे प्रेमीके धनपर प्रेमीका अधिकार रहता है, वैसे ही भगवान् भी गोपियोंके घरोंमें जाकर मक्खन खा जाते थे। एक बार एक गोपीके यहाँसे भगवान् ने मक्खन चुरा लिया। वह उन्हें पकड़कर यशोदाके पास ले गई। वहाँपर उसे मालूम हुआ कि उसने तो अपने ही पुत्रको पकड़ लिया है। इस प्रकार कहीं-कहीं मर्यादाका उल्लंघन हो गया है, पर वास्तवमें वह उल्लंघन नहीं है।

इस भाव (सख्यभाव)-में भगवान् के साथ सब कुछ बर्ताव कर सकते हैं। हमें भी प्रण करना चाहिये, उनसे सखा भाव रखना चाहिये। मित्रकी वस्तुपर मित्रका अधिकार होता है। भगवान् के धन पर ही नहीं, बल्कि भगवान्पर भी उसका अधिकार हो जाता है। हमें सखाभाव रखना चाहिये। यदि ऐसा न हो तो दास्यभाव को मिला लेना चाहिये। जब तक भगवान् हमें ‘भक्तोऽसि मे सखा चेति’ (गीता 4/3) (अर्थात्– तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है) – ऐसा न कहें, तब तक हमें अपने जीवनको व्यर्थ समझना चाहिये। किसी भी प्रकारसे यदि हमारी कोई वस्तु उनके काममें लग गई तो हमें सफल समझना चाहिये। तब भगवान् उसे स्वीकार कर लेते हैं। हमारे प्रेमका तब तक कोई मूल्य नहीं है, जब तक भगवान् हमारी वस्तुको स्वीकार नहीं कर लें। जब भगवान् भक्तकी कोई वस्तुको ग्रहण कर लेते हैं, तब भक्तकी अलौकिक दशा हो जाती है। उसकी महिमा कोई भी नहीं कह सकता है, देवताओंकी भी शक्ति नहीं है।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...