महापुरुषोंका प्रभाव
तीर्थोंमें जो तीर्थपना है, वह महापुरुषोंका प्रभाव ही है। महापुरुषोंका प्रभाव इतना है कि हम कह ही नहीं सकते। हमारी सामर्थ्यके बाहर है। जैसे उद्धवजीने ब्रजमें लता-पता होना चाहा। गोपियोंकी धूलि जड़ वृक्षोंका भी उद्धार कर सकती है। भगवान् के भक्तकी चरणधूलिके स्पर्ळसे ही उद्धार हो सकता है, फिर उसके (स्वयंके) स्पर्ळकी तो बात ही क्या है ? जितनी हम भावना कर सकते हैं, उससे भी अधिक प्रभाव है।
युधिष्ठिरजी, प्रह्लादजी, शुकदेवजी आदिका ध्यान करनेसे और उनका चिन्तन करनेसे ही हमारा कल्याण हो जाता है। महर्षि पतञ्जलिने भी कहा है- 'वीतरागविषयं वा चित्तम्' (पातञ्जल योगदर्शन समाधिपाद सूत्र ३७) (अर्थात्- जिस पुरुषके राग-द्वेष सर्वथा नष्ट हो चुके हैं, ऐसे विरक्त पुरुषको ध्येय बनाकर अभ्यास करनेवाला अर्थात् उसके विरक्त भावका मनन करनेवाला चित्त भी स्थिर हो जाता है)। यह तो योगशास्त्रकी बात है, भक्तिका दायरा इससे भी ऊँचा है। जैसे हम ईश्वरके स्वरूपका ध्यान करते हैं और यह विश्वास करते हैं कि यह भगवान्का स्वरूप है तो हमें भगवान्के दर्शन हो जाते हैं, ऐसे ही महापुरुषोंके ध्यानसे भी उद्धार हो जाता है।
महापुरुषके चित्र, चरित्र, लेख आदि सबसे मनुष्योंका उद्धार होता रहता है। जब तक सूर्य, चन्द्रमा रहें, जब तक उनकी ख्याति हो, तब तक सबका कल्याण हो सकता है। वर्तमानमें कोई महापुरुष हों तो उससे चाहे जितने मनुष्योंका कल्याण हो सकता है। भगवान् की दृष्टि में भक्तसे बढ़कर कोई चीज नहीं है, क्योंकि भक्तकी दृष्टिमें भगवान् से बढ़कर कोई चीज नहीं है। भगवान् की यह प्रतिज्ञा है कि– ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् (गीता 4/11) (अर्थात्– जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ।) असम्भवको सम्भव बनानेकी सामर्थ्य वाले भगवान् कहते हैं–
--
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतंत्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥
(श्रीमद्भागवत ९/४/६३)
अर्थात्- हे दुर्वासाजी ! मैं सर्वथा भक्तोंके अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतंत्रता नहीं है। मेरे सीधे-सादे सरल भक्तोंने मेरे हृदयको अपने हाथमें कर रखा है। भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे प्यार करता हूँ।
और भी श्रीमद्भागवतमें कहते हैं- 'मैं भक्तोंके पीछे-पीछे घूमता हूँ, उनकी चरणरज लेकर पवित्र होनेके लिये।' यह वास्तवमें भगवान्का भाव है। क्यों ? भक्तका ऐसा भाव होता है, इसीको भगवान् प्रतिबिम्बित करते हैं- ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । (गीता 4/11) -
जद्यपि सब बैकुंठ बखाना ।
बेद पुरान बिदित जग जाना ॥
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ ।
यह प्रसंग जान कोउ कोऊ ।
(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड 4/3-4)
अर्थ– यद्यपि सबने वैकुण्ठकी बड़ाई की है– यह वेद-पुराणोंमें प्रसिद्ध है और जगत् जानता है, परन्तु अवधपुरीके समान मुझे वह भी प्रिय नहीं है। यह बात (भेद) कोई-कोई (विरले ही) जानते हैं।
अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी ।
मम धामदा पुरी सुख रासी ।।
(रा-च-मा- उत्तर- 4/7)
अर्थ– यहाँके निवासी मुझे बहुत ही प्रिय हैं। यह पुरी सुखकी राशि और मेरे परमधामको देनेवाली है।
इससे यह रहस्य निकलता है कि भगवान्में अवधवासियोंके लिये वैकुण्ठवासियोंसे भी अधिक प्रेम है। शरशÕयापर भीष्म ध्यान करते हैं, भगवान् भी उनका ध्यान करते हैं। सीताजी अशोकवाटिकामें विलाप करती हैं, भगवान् भी वनमें ऐसी ही लीला कर रहे हैं वनमें वृक्ष, लताओंसे पूछ रहे हैं-
हा गुन खानि जानकी सीता ।
रूप सील ब्रत नेम पुनीता ।।
लछिमन समुझाए बहु भाँती ।
पूछत चले लता तरु पाँती ।।
(रा-च-मा- अरण्य- 30/7-8)
अर्थ– हा गुणोंकी खान जानकी ! हा रूप, शील, व्रत और नियमोंमें पवित्र सीते ! लक्ष्मणजीने बहुत प्रकारसे समझाया। तब श्रीरामजी लताओं और वृक्षोंकी पंक्तियोंसे पूछते हुए चले।
भगवान्की यह लीला विशेष करुणा और कृपासे भरी हुई है। यह उनकी ऐसी गोपनीय लीला है कि वे जिन वृक्ष, लताओंको स्पर्श करके सीताजीका पता पूछते हैं, इसी बहाने वे जिस भी वृक्ष, पशु, पक्षी आदि को स्पर्श करते हैं या देखते हैं, उनको उस योनिसे मुक्त करके अपना परमधाम दे रहे हैं।
रामकी व्याकुलता सीतासे भी बढ़कर हो रही है।
वास्तवमें महापुरुषके लिये तो महापुरुष ही दृष्टान्त है। कोई भी उदाहरण, दृष्टान्त केवल थोड़ा-सा अंश समझानेके लिये ही दिया जाता है। अग्निके दृष्टान्तसे महापुरुषका वर्णन केवल यही दिखलानेके लिये दिया जाता है कि बिना श्रद्धाके भी अग्निसे इतना लाभ तो होता ही है कि ताप और प्रकाश मिलता है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...