गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचार एवं निष्कामभावसे अन्य सेवाकार्यकी महिमा
जो आदमी संसारके और अपने हितके लिये जीवन लगा देते हैं, ऐसे आदमी थोड़ेे ही हैं। जिन-जिन आदमियोंका जीवन संसारके हितमें लगता है, उन्हें देखकर हमें भी अपना जीवन संसारके हितमें लगाना चाहिये। स्वामीजीने जो बात कही है कि बनियोंका काम क्रय-विक्रय है। यदि सभी बनियाँ पुस्तकोंके प्रचारमें और बिक्रीके काममें लग जावें और अपना तन, मन, धन और जीवन इस काममें लगा दें, तो बहुत भारी काम हो सकता है। यह भी एक प्रकारका व्यापार है। इसमें संसारका हित है और अपना कल्याण है।
कितने दुःखकी बात है कि संसारमें कितने व्यापारी बैठे हैं, वह सभी व्यापार करें तो कितना अधिक प्रचार हो और संसारका कल्याण हो जावे। व्यापारी लोग केवल अपने लाभको दृष्टिमें रखकर ही ऐसा न करें तो बड़ी उत्तम बात है। जीविका चलानेके लिये व्यापार भी है और आत्माके कल्याणके लिये एक बड़ा साधन है। यह भगवान् की दलालीका काम है, कितना अच्छा काम है ! आत्महित और परहित– दोनों ही हैं। खूब प्रचार करें, जितना बने। और यदि कोई न ले, तो भी काम बन जाता है और कोई ले लेता है, तब तो बात ही क्या है ! अपनी ओरसे खूब परिश्रम करें, प्रचारमें कमी न रखें, फिर भी कोई न ले तो भी अपना काम तो हो ही जाता है। कहावत है कि– ‘कोई ले, और कोई नटे कोई भी न ले, तो मावे कठे।’ (अर्थात् जब सामूहिक भोजन होता है तो कोई लेता है और कोई लेनेसे मना करता है। यदि कोई भी न ले तो फिर बची हुई सामग्री कहाँ रखी जाए ? वह बेकार जाती है।) जब परिश्रम करनेपर भी कोई न ले तो भगवान् से प्रार्थना करे कि– ‘परिश्रम करनेपर भी कोई नहीं खरीदता है तो मैं अब क्या करूँ ?’ तो भगवान् अपने-आप प्रेरणा देंगे। अगर न भी दें तो तुम्हारा काम तो बन ही जाय सेवा तो हो ही जायेगी।
जो साधारण और जिज्ञासु हैं, उनके दो काम हैं– अपना और संसारका कल्याण करना। उनकी चेष्टा होनी चाहिये कि तन, मन, धन– सब भगवान् के अर्पण कर दें।
हमें सोचना चाहिये कि महात्मा पुरुष भजन, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय, संयम, सदाचार क्यों करते हैं ?
– संसारके कल्याणके लिये संसारको भी उस मार्गमें चलानेके लिये। गीताकी तीसरी अध्यायके 18 के श्लोकमें कहा है–
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु किश्चदर्थव्यपाश्रयः ।।
(गीता 3/18)
अर्थात्– उस महापुरुषका इस विश्वमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मोंके न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें भी इसका किचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता।
जो महात्मा पुरुष हैं, वह कोई काम करें तो उसे करके भी कोई प्रयोजन नहीं है और न करके भी कोई प्रयोजन नहीं है। उसे जड़, चेतन– किसीसे भी कोई प्रयोजन नहीं है। महात्माका सम्पूर्ण भूतोंमें कुछ भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं है, फिर भी उसके द्वारा संसारके कल्याणके लिये कार्य किये जाते हैं। ऐसे पुरुष जो भी कार्य करते हैं, वह संसारके उपकारके लिये, लोक कल्याणके लिये करते हैं।
प्रश्न– यदि हम अपने कल्याणके लिये, अपने स्वार्थके लिये भी कोई कार्य करें, तो इसमें हानि क्या है ?
उत्तर– हमारा ही स्वार्थ है तो हमें खूब सेवा करनी चाहिये, निःस्वार्थ होकर करनी चाहिये, निष्कामभाव रखना चाहिये। इसमें संसारके कल्याणके साथ अपना भी कल्याण है।
एक शंका– एक नम्बर सेवाको देना चाहिये या सत्संगको देना चाहिये ?
समाधान– वैसे तो दोनों ही ठीक हैं। सत्संगकी बात धारण करे तो वह सेवासे बढ़कर है। सत्संगकी बात केवल सुने ही सुने, उसे धारण न करे, उससे बढ़कर निष्काम सेवा है। वैसे सात दिन सत्संग करे तो एक दिन सेवा भी करनी चाहिये। एक दिन सेवा करनेसे सात दिन सत्संग करनेका प्रभाव मालूम हो जाता है। एक प्रकारकी जाँच हो जाती है कि हम पर सत्संग करनेका क्या असर हुआ ? आप सत्संग सुनते हैं और मैं सुनाता हँू तो सुनाने की अपेक्षा सुनना दो नम्बर है। असली बात तो यह है कि सत्संगकी बात सुनकर काममें लाना दामी चीज है। मनन करे, ध्यान करे, सत्संग करे, संयम रखे, सदाचारसे रहे तो सत्संग एक रास्ता है। इसको धारण करनेसे लक्ष्यकी प्राप्ति हो सकती है।
एक व्यक्तिने कहा कि– ‘भगवान् की प्राप्ति हो जावे, ऐसी मेरी मदद करो’, तो मैं क्या मदद करूँ ? रास्ते अनेक हैं, उनपर चलनेसे ही लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। उनमें सत्संग भी एक मार्ग है।
यदि हम यहाँसे स्वर्गाश्रम तक जाते हैं तो हमें ठोकर लगती है– पत्थरसे या काँटा लगता है तो उसे एक ओर हटा दें, रास्ता साफ कर दें। यह अपने लिये भी कल्याणकर है और दूसरेके लिए भी लाभप्रद है। हमें दूसरोंकी भलाई करनेका लक्ष्य बनाकर ही कार्य करना चाहिये। ऐसे ही भगवान् की प्राप्तिके मार्गको भी दूसरोंके लिये साफ बना दें तो यह बात बड़ी उत्तम है। हमें रास्तेमें कहीं मैला, कुचैला मिले तो उसे साफ कर देना चाहिये। भगवान् ने गीतामें कहा है– ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (गीता 9/22) (अर्थात्– उनका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।) जो संसारका हित करता है, उसका हित भगवान् करते हैं। यदि हम भगवान् के रास्तेको भगवान् के लिये साफ कर दें तो भगवान् भी हमारा रास्ता साफ कर देते हैं।
प्रश्न– आप जो यह कहते हैं कि यह काम करो तो उसमें तो प्रसन्नता होती है, किन्तु स्वतः करने में न तो उत्साह होता है, न प्रसन्नता, यह क्या बात है ?
उत्तर (श्रीसेठजी द्वारा)– हम जो सत्संग करते हैं, उसमें सुनते हैं कि सेवा करनी चाहिये, उपकार करना चाहिये, दूसरोंके लिये रास्ता साफ करना चाहिये– ऐसा सुनते हैं, पर धारण नहीं करते हैं। उसको काम में नहीं लाते तो सुनना निरर्थक है। काममें लावें तो कल्याण हो जावे– यह बड़ी दामी बात है, इसीलिये सेवाको सत्संगसे बढ़कर माना है। अगर दामी न होती तो मैं ही क्यों कहता कि अमुक काम करो, अमुक सेवा करनी चाहिये। ऐसा ही सोेचकर कि सेवाका बड़ा भारी महत्त्व है, स्वयं भी करनी चाहिये। मैं कहता हँू, वह यदि अच्छी लगती है तो मेरी बात सुनकर ही सेवा करे तो ठीक है।
आपको कोई भी सेवा मिले– शारीरिक या पारमार्थिक, डटकर करनी चाहिये। गीता, रामायणका प्रचार, धार्मिक पुस्तकोंका विस्तार– यह पारमार्थिक सेवा है। किसीका कल्याण करना, गीताका उपदेश देना– यह परम सेवा है और किसीको औषधि देना, टट्टी, पेशाब फेंकना– यह शारीरिक सेवा है। कोई स्त्री तीन दिनतक स्पर्ळ नहीं करती और कहती है कि किसीको पैसा देकर भोजन बनवाऊँगी तो उसके लिये निष्कामभावसे भोजन बना दे। सेवा करते समय ऐसा भाव रखे कि नारायणकी सेवा कर रहे हैं, या ऐसा भाव रखे कि उस पात्रमें भगवान् का निवास है।
पशु, पक्षी, पेड़, प्राणीमात्रके लिये ऐसा ही भाव रखे और निष्काम भाव तथा प्रेमसे सेवा करे। आतुर आदमीकी सेवा करनेसे उसे परम संतोष होता है। ऐसी सेवा करनेवालेको भी बड़ा फल मिलता है। आप यदि आर्तजनके लिये सदा फाटक खुला रखोगे तो भगवान् आपके लिये अपना फाटक खुला रखेंगे, क्योंकि तुम फाटक खोलते आये हो तो भगवान् तुम्हारे लिये मुक्ति का द्वार खोल देंगे। मैं तो आपको यही कहता हूँ कि इस प्रकार आप धारण करें तो बड़ा कल्याण है।
मेरेपर तुम्हारा ऋण तो बहुत है कि आप लोग सत्संगके लिये सहयोग देते हो, पर तुम्हारा लाभ तो धारण करनेमें है। मैं तो बहुत ऋणी हूँ, सबसे काम लेता हूँ। वासुदेवसे कितनी सेवा लेता हूँ, वह रुपया या महीना थोड़ेे ही लेता है ? यदि कोई आदमी रखें तो वह 200/- रुपयेसे कम नहीं लेगा, किन्तु मैं तो सबसे काम लेता हूँ, इसमें मेरा-तेरा नहीं, भगवान् का काम है, जिससे जितना बने, करना चाहिये। सेवा भाग-भागकर करें, निष्काम भावसे करें, जोशसे करें। समझें कि सेवा मिल गई तो भगवान् मिल गये। खूब आनन्दित होवें, खूब प्रसन्न होवें और प्राणपणसे सेवाके लिये जुट जायँ– यह बड़ी दामी बात है, सत्संगसे भी बढ़कर है।
दूसरी एक बात है– पुस्तकोंकी। दूसरोंको खूब पुस्तकें पढ़ावें, खूब प्रचार करें और ऐसी बात न फैलावें, जिससे पुस्तक न लेनेकी बात सामने आवे अथवा जिससे प्रचारमें बाधा पड़े। न लेनेके संस्कार पैदा हों, उस बातको किसीसे भी न कहें। लेने वाला कारण ही कहें, न लेनेका कोई भी कारण या भाव किसीको न बतायें।
मैं जब कपड़ोंका व्यापार करता था तो जो मेरे कपड़ोंमें खोट निकालता था, वह बात मैं किसीको नहीं कहता था, क्योंकि इससे व्यापारमें बाधा पहूँचती थी। तो न लेनेकी बात तो कहे ही नहीं। कोई कहे कि घरमें पड़ी है तो यह बात दूसरोंसे न कहें। ऐसे संस्कार न डालें कि दूसरे भी ऐसा कहने लगें। यह बात अपने मनमें ही रखें और उससे भी यही कहें कि घर में रखी है तो क्या हानि है, एक और सही। जिस प्रकार घरमें एक आलमारी कपड़ोंकी है और दूसरी आलमारी अन्य वस्तुओंकी है तो एक आलमारी पुस्तकोंकी भी सही। कपड़ोंकी सुरक्षाके लिये, उनको दीमकसे बचानेके लिये बड़ी-बड़ी आलमारी रखते हैं तो पुस्तकोंकी सुरक्षाके लिये भी कोई प्रबन्ध रखना चाहिये। चाहे लोहेकी आलमारी रखो, या बजरीकी, पर पुस्तकोंकी सुरक्षा करो, उनका विस्तार, प्रचार करो।
एक बात यह है कि हर समय भगवान् को याद रखना चाहिये। जितना बन पड़े, हर समय भगवान् को याद रखें और किसी चीजकी कामना न करें। दूसरोंकी चीज लेकर भी निष्कामी रहें। ऐसे कि– हम किसीसे मित्रता करते हैं, या कोई स्त्री किसी स्त्रीसे सहेली बनती है और उसके घर मिलने जाती है तो उसके यहाँ भुनेहुए चने देखकर प्रशंसा करती है और माँग कर खा लेती है, क्योंकि उसकी क्षमता थोड़ी कम है। उस स्त्रीको कभी घी, तेल आदिकी जरूरत हो और वह पैसे देकर घी, तेल लेना चाहे तो आग्रहपूर्वक उसकी जरूरत पूरी करे और उसे यही कहे कि– ‘मित्रतामें संकोच नहीं करना चाहिये। हमने तो माँगकर चने खा लिये थे।’ ऐसे ही किसी मित्रके यहाँ सस्ते तौलिये (अँगोछे) देखे और उनकी प्रशंसा करके 1-2 तौलिया माँगकर ले लिया। मित्रको जब थानके कपड़ेकी जरूरत पड़ी तो सहर्ष उसे कीमती कपड़ा दे दिया और कहा– ‘हम तुम दो थोड़े ही हैं। उस दिन हमने भी तो अँगोछा माँगकर ले लिया था।’ तो यह माँगना भी निष्कामभाव है।
यदि किसीके काम पड़ जाये तो हँस-हँसकर तन-मनसे सेवा करे, उसे नारायण समझकर करे। अगर ऐसा भाव न बने तो उसमें भगवान् मानकर सेवा करे तो यह नारायण की ही सेवा होगी।
दूसरी बात– गीताप्रेसकी जो पुस्तकें हैं– भक्तिकी, ज्ञानकी, वैराग्यकी, उनका खूब प्रचार करें। अगर सामर्थ्य हो तो मुफ्रतमें देवें। यह परम सेवा होगी।
तीसरी बात– भगवान् का निरन्तर निष्कामभावसे स्मरण रखें, भगवान् का चिन्तन करें।
चौथी बात– जो कुछ भी होता है, उसे ईश्वरका विधान माने। सुख-दुःखको समान समझकर सहन करे। स्त्री मर जाये तो प्रसन्नता, लड़का मर जाये तो प्रसन्नता, लड़का उत्पन्न हो तो भी प्रसन्नता। हर बातमें भगवान् की मर्जी समझकर प्रसन्न रहे।
कोई मनुष्य प्रेमसे कुछ देवे तो उसकी प्रसन्नताके लिये ले लेवे, इन्कार न करे। फिर कुछ समय बाद उसे दाम दिला भेजे। इस प्रकार अपना खाता भी बराबर हो गया और उसे सन्तोष भी हो जाये। सेवा तो करनी चाहिये, करवानी नहीं चाहिये। किसीकी मुफ्रत सेवा नहीं लेनी चाहिये। जितनी बने, उतनी दूसरेकी सेवा करनी चाहिये। सेवा लेनेकी नहीं है। अगर लेनी पड़े तो दूसरेके सन्तोषके लिये ही लेवे। भाग्यके अनुसार सुख-दुःख जो भी मिले, उसे प्रभुकी इच्छा माने। सुखमें आनन्दित न होवे और दुःखमें दुःखी न होवे।
अब महात्माकी बातें बतलाई जाती हैं। जिसमें मान, बड़ाईकी इच्छा हो, वह महात्मा नहीं है। जिसमें ईर्ष्या-द्वेष हो, त्यागका अभाव हो, वह भी महात्मा नहीं हो सकता। महात्माका स्वभाव शान्त होगा, महात्माकी क्रियाएँ दूसरोंकी भलाईके लिये होंगी, उसमें समभाव होगा, वह अपना तन, मन जगत्-जनार्दनके लिये अर्पण कर देता है, उसे सबकी सेवा करके प्रसन्नता होती है, वह सेवाके बदले कुछ नहीं चाहता। वह सदा निष्कामभावसे कर्म करता है, उसमें त्यागकी पराकाष्ठा होती है।
गीताके 16वें अध्यायमें आरम्भके तीन श्लोकोंमें दैवी सम्पदाके लक्षण बताये हैं, जो कि महात्मा पुरुषोंके संसर्ग से बढ़ते हैं। जिनके स्पर्ळसे, दर्ळनसे, भाषणसे, वार्तालापसे हमारेमें वैसे भाव आयें, या हमारे वही लक्षण हों तो समझना चाहिये कि वह महात्मा है।
किसीका चाहे कैसा भी बुरे-से-बुरा आचरण हो, हमें अपने दिलमें उद्वेग नहीं करना चाहिये। अपने दिलमें अच्छा भाव पैदा करें और खूब भाव बढ़ाना चाहिये। भाव बढ़ानेसे क्षणमात्रमें भाव बदल जाते हैं। इन वृक्षोंको हम वृक्ष न मानकर भगवान् मान लें तो हमारा भाव बदल जायेगा। हम भगवान् मानकर इनकी सेवा करने लग जायेंगे तो हमारे नेत्रेंमें विलक्षण भाव आ जायेंगे। भीतरके भावसे बाहरी भाव बदल जाते हैं, भाव बदलनेसे जीवन बदल जाता है।
ऐसी कई कहानियाँ हैं। एक आदमी किसी महात्माके पास उपदेश सुनने जा रहा था। रास्तेमें उसे एक साधु मिला। उसने साधुसे पूछा– ‘अमुक महात्माकी कुटिया कहाँ है?’ तो साधु नहीं बोला। उसने एक बार, दो बार, बार-बार पूछा, किन्तु साधु नहीं बोला। उस आदमीको बड़ा क्रोध आया। उसने उस साधुको एक जूता खींचकर मारा और आगे बढ़ गया। कुछ दूर जानेपर वह महात्मा की कुटियापर पहुँच गया। वहाँ उसने देखा कि बहुत भीड़ लगी हुई है। उसने पूछा– ‘महात्माजी कहाँ गये हैं ?’ लोगोंने कहा– ‘शौचके लिये गये हैं। तुम्हें रास्तेमें मिले होंगे।’ उसे सन्देह हुआ कि कहीं वे ही महात्मा न हों, जिसको उसने जूता मारा था। थोड़ी देर बाद महात्माजी कुटिया पर आ गये। सब लोग खड़े हो गये और अभिवादन करने लगे। उसने पहिचान लिया कि ये वही महात्मा थे। उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ, बहुत दुःखी हुआ कि मुझसे कितना बड़ा अपराध हुआ है। वह महात्माके चरणोंमें गिर गया और बार-बार क्षमा माँगने लगा। महात्माने कहा– ‘भाई ! तुम्हारा अपराध कहाँ है ? तुमने महात्मा समझकर तो मारा नहीं था, अनजानमें मारा था।’
इन शब्दोंको सुनकर उसका भाव बदल गया। उसने सोचा– महात्मा तो यथार्थमें यही हैं, जिन्होंने मारनेपर भी कुछ भी नहीं कहा। उसका मन शान्त नहीं हुआ। वह बार-बार क्षमा माँगता रहा, तब महात्माजीने कहा– ‘तुम मेरे पास किसलिये आये थे ? – शिक्षा लेने, उपदेश लेने और शिष्य बननेके लिये तो तुमने तो ठीक ही किया। मेरी परीक्षा करके देख लिया। हम एक पैसेकी हाँडी लेते हैं तो उसे भी ठोक-बजाकर देख लेते हैं कि कहीं फूटी न हो तो तुम तो मुझे गुरु बनाने आये हो। तुमने तो भली प्रकार मेरी परीक्षा कर ली। इसमें इतना शोक क्यों करते हो ?’
इन बातोंका उस पर इतना प्रभाव पड़ा कि वह साधु बन गया और महात्माजीके साथ ही रहने लगा। तो भाव बदलनेसे उसके जीवनमें कितना बड़ा परिवर्तन हो गया !
ऐसे ही एक नौकापर एक संत महात्मा जा रहे थे। उस पर दो बदमाश चढ़ गये। नौकापर चढ़ते ही कहने लगे– ‘हमें बैठनेको जगह दो।’
महात्माजीने सरककर उन्हें जगह दे दी, किन्तु उन्होंने पैरोंसे धक्का देते हुए कहा– ‘और आगे सरको।’
महात्माजी सरक गये। उन नीचोंने फिर महात्माजीको धक्का दिया कि– ‘तुम सरकते क्यों नहीं ? हम सोयेंगे।’
महात्माजी और सरक गये, किन्तु वे लोग तो फिर धक्का देने लगे कि– ‘हमारे पैर नहीं फैल रहे हैं। और सरको।’
लाचार महात्माजी खड़े हो गये तो आकाशवाणी हुई कि– ‘क्या इन दोनों बदमाळोंको गंगामें डुबो दिया जाये ?’ महात्माजीने रोते हुए आर्त स्वरसे कहा– ‘प्रभु ! (क्या) मैं इतना अधम हूँ, जो मेरे कारण दो लोगोंकी हत्या की जाये ?’ तो उनका रुदन और प्रार्थनाको सुनकर वे मनुष्य अवाक् रह गये। फिर आकाशवाणी हुई– ‘आप इनके अपराधका क्या दण्ड देना चाहते हैं ?’ तो महात्माजीने कहा– ‘इन्हें भी मेरे जैसा बना दीजिये।’ इतना सुनते ही वे बदमाश महात्माजीके चरणोंमें लोटने लगे। उनके भाव बदल गये और वे भी महात्मा बन गये।
इसी प्रकार जब राजा रहूगण कपिल मुनिके आश्रममें जा रहे थे, रास्तेमें जड़भरत मिले तो एक कहारके बीमार हो जानेकी वजहसे उन्हें ही पालकी ढोनेमें लगा लिया। जड़भरत अपनी स्वाभाविक मस्तीमें चलने लगे तो रहूगणको क्रोध आया। वे पालकी ठहराकर उतरे और बोले कि– ‘(क्या) तुम्हें जरा भी भय नहीं है ? मैं राजा हूँ, तुम्हारा मालिक हूँ, पालकीमें चलता हूँ। ठीकसे काम नहीं करोगे तो जानसे मार डालूँगा।’
तब जड़भरतजीने कहा कि– ‘मैं नहीं जानता कि तुम क्या हो। मैं तो यह देख रहा हूँ कि तुम मिट्टीके एक ढेले हो और लकड़ीकी डोलीमें बैठे हो। पालकी क्या है ? अलग-अलग करने पर लकड़ी ही तो है, जो कि जड़ पदार्थ है। तुम मुझे क्या मार सकते हो ? तुम मेरेसे क्या बड़े हो ? मिट्टी से मिट्टी क्या बड़ी है ?’
रहूगण यह सुनकर चमत्कृत हो गये, उनका भाव बदल गया। वे चरणोंमें पड़ गये और पूछा– ‘महाराज! आप कौन हैं ? कहीं आप ही कपिल मुनि हैं क्या ? मैं कपिल मुनिके आश्रममें उपदेश लेने जा रहा हूँ। आप मेरी परीक्षा लेने तो नहीं आये हैं ?’
इसपर जड़भरतजी मुस्कुराये और बोले– ‘मैं तो जानता नहीं कि मैं कौन हूँ ?’ इसपर रहूगणके भाव एकदम बदल गये और उनके चरणोंमें गिर गये, क्योंकि उनके भाव एकदम बदल गये थे।
हमें भी भाव बढ़ाना चाहिये। जो कुछ भी पदार्थ हैं, उनमें भगवद्भाव हो जाये तो बेड़ा पार हो जाये। भाव बदलनेसे सब ठीक हो जाता है। अभी तो हम संसारको संसाररूपमें देखते हैं। जब भाव बदल जायेगा, तो हम कहेंगे– ‘सब कुछ भगवान् ही हैं और कुछ नहीं है।’ ऐसे ही जब संसारमें निष्कामभाव हो जाता है तो उसकी क्रिया उत्तम प्रकार की हो जाती है। जब सकामभाव होता है तो आरामसे भोजन करता है, बढि़या-बढि़या पदार्थोंका भोग और सेवन करता है, अच्छे-अच्छे वस्त्रभूषणोंका प्रयोग करता है, दीन-दुःखियोंके दुःखकी परवाह नहीं करता है कि उनको तो चना मिलना भी कठिन है। उसकी बातचीतमें स्वार्थ, लेनेमें स्वार्थ, देनेमें स्वार्थ, प्रत्येक क्रियामें स्वार्थ रहता है, किन्तु निष्कामभाव होनेपर उसमें समता आ जाती है, वह पर-पीड़ासे दुःखी और पर-सुखसे सुखी हो जाता है। तो भाव बदलनेपर सब कुछ निर्भर है।
प्रश्न– विचार और भावमें कौन बड़ा है?
उत्तर– विचारसे भाव बड़ा है। विचारमें संकल्प-विकल्प रहते हैं, किन्तु भावमें समान भावना रहती है।
प्रश्न– समभाव का मतलब क्या है ?
उत्तर– समभाव का तात्पर्य यह है कि सुख-दुःखको समान समझे, निन्दा-स्तुतिको समान समझे, मान-अपमानको समान अनुभव करे, अपनेमें जातिका अभिमान हो तो जातिका पक्ष न करे, सम्प्रदायका पक्ष न करे कि– यह हिन्दु, यह मुसलमान, यह ब्राह्मण, यह सिक्ख है। व्यवहारमें तो अन्तर रहता है, किन्तु अन्तरात्मामें पक्ष-विपक्ष न रखे। जैसे ऋषिकुल, चूरुमें ब्राह्मणों और वैश्योंके बालक पढ़ते हैं तो वहाँ जातिको लेकर व्यवहारमें भेद रखते हैं। जैसे ब्राह्मण बालकको वैश्यका पैर नहीं छूने देते, ब्राह्मण बालकको प्रणाम करते हैं, किन्तु विद्याध्ययनमें, खान-पानमें, रहन-सहनमें भेद नहीं करते हैं। यही समभाव है।
(नोट- यह ऋषिकुल ब्रह्मचर्य आश्रम सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका द्वारा स्थापित किया गया है, इसमें बालकों को उच्चस्तरीय शिक्षा दी जाती है और यह चूरु राजस्थानमें स्थित है।)
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...