Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

एक मनुष्य सबका उद्धार कैसे कर सकता है

प्रवचन सं- 6

मनुष्य यह दृढ़ निश्चय करे कि सम्पूर्ण जीवोंका उद्धार अवश्य होगा- इसमें किञ्चित्-मात्र भी सन्देह न करे। परमात्मा दृढ़ भावके अनुसार अवश्यमेव फल देता है। परमात्माने तो प्रथम ही ऐसा कर रखा है कि सब जीवोंके उद्धार होनेकी सामग्री भी उन जीवोंको प्राप्त होती है।

प्रश्न– जीव अनन्त हैं। एक पुरुष सर्वका उद्धार किस विधिसे कर सकता है?

उत्तर– दयालु पुरुष सुगमता और बहुत श्रेष्ठ प्रकारसे सर्वका उद्धार कर सकता है। ब्रह्मवेत्ताको छोड़कर सम्पूर्ण जीव तीन आपत्तियोंसे ग्रस्त हो रहे हैं– मल, विक्षेप और आवरण।

जप, तप, पाठ, पूजा, सेवा, दया, दान आदि कोई कर्म करनेकी इच्छा, प्रयत्न यदि एक जीवके सुखार्थ हो तो उससे एकका सुखार्थ पुण्य (यानी एकका सुखदायक पुण्य) उत्पन्न होगा। यदि सहड्ड जीवोंके अर्थ हो तो उससे सहड्डके सुखदायक सहड्डगुुणा पुण्य उत्पन्न होगा। लक्ष (एक लाख)-के अर्थ हो, तो उससे लक्षगुणा पुण्य उत्पन्न होगा। कोटि (एक करोड़)-के अर्थ हो तो कोटिगुणा पुण्य उत्पन्न होगा। यदि सम्पूर्ण जीवोंके सुखार्थ हो तो उस कर्मकी इच्छासे अनन्त गुणा पुण्य उत्पन्न होगा।

वस्तुतः दयालु पुरुष सर्वके अर्थ जप, तप, व्रत, दानादि कर्मको करता हुआ अनन्त पुण्य उत्पन्न करके पुनः उन जीवोंके पापकी निवृत्ति कर सकता है। जैसे– एक धर्मात्मा राजा सामर्थ्ययुक्त हुआ अपनी प्रजाकी अन्य शत्रु राजाओंसे रक्षा करता है, जल आदिके प्रदानसे उनकी रक्षा, उन्नति करता है और राजधर्मके पालन करनेसे स्वयं (वह राजा) भी शोभायुक्त होता है, वैसे ही वास्तवमें एक दयालु पुरुष सबके हितकी इच्छासे तज्जन्य जप, तप आदि प्रयत्नसे उत्पन्न हुए अनन्त पुण्योंके द्वारा सर्व जीवोंके पापोंको निवृत्त करनेमें प्रवृत्त होकर सुशोभित होता है। यद्यपि जीव अनन्त हैं, तथापि वास्तवमें दयालु पुरुषमें पुण्योंका भी अन्त नहीं है। एक जीवके सुखदायकरूप सम्बन्ध रखनेवाले कर्मको यज्ञ और सर्व जीवोंके सुखदायकरूप सम्बन्ध रखनेवाले कर्मको महायज्ञ कहा गया है।

एक ही कर्म व्यष्टिसे सम्बन्ध रखनेसे यज्ञ होता है और समष्टिसे सम्बन्ध रखने वाला होनेसे महायज्ञ होता है। एक जीवके सम्बन्ध करके एक कर्मसे एक सुखदायक पुण्यकी उत्पत्ति होती है और असंख्य जीवोंसे सम्बन्ध करके कर्म करने से असंख्य सुखदायक पुण्योंकी उत्पत्ति होती है। एक जीवके अर्थ जप, तप, व्रत आदिसे एक जीवका सुखदायक पुण्य होता है और सम्पूर्ण जीवोंके अर्थ जप, तप, व्रत आदिसे अनन्त जीवोंके सुखदायक पुण्य उत्पन्न होते हैं, इसलिये सर्व जीवोंके लिये कर्म करना चाहिये।

जैसे धन, पुत्र, स्त्री, स्वर्गलोक, ब्रह्मलोकपर्यन्त भोगकामनाको त्यागकर अपने लिये परमात्मा-प्राप्तिरूप मोक्षार्थ जप, तप आदि कर्म करनेसे पापोंकी निवृत्ति होकर अन्तःकरण शुद्ध होता है, वैसे ही जो पुरुष अपने सदृश सम्पूर्ण जीवोंको (भोग प्राप्त होनेकी कामनाको त्यागकर) भगवत्प्राप्तिरूप मोक्षके लिये निरन्तर भगवान् का भजन-ध्यान करता है और अन्य लोगोंको भी भगवान् के भजन-ध्यानमें लगाता है, वह बहुत उत्तम है।

महाभारत में एक कथा आती है। एक समय नदीमें स्नान करते हुए दुर्वासा ऋषिकी कौपीन जलमें बह गई। किनारेपर द्रौपदी आदि स्त्रियाँ उपस्थित थी। ऋषिजी (नग्न होनेके कारण) नदीसे बाहर इसलिये नहीं निकले कि जब स्त्रियाँ चली जायेंगी, तब बाहर निकलेंगे। वे स्त्रियाँ इसलिये स्थित खड़ी हुई थी कि ऋषिजी चले जायेंगे, तब स्नान करेंगी। इस कारण बहुत विलम्ब हो गया। तब ऋषिजीने कहा– ‘हे पुत्रियो ! हमारी कौपीन नदीमें बह गई है।’ तब द्रौपदीने अपने वस्त्रसे कौपीन फाड़कर ऋषिजीकी ओर बहा दी। वह नदीके वेगसे बह गई, ऋषिजीके हाथ नहीं आई। द्रौपदीने फिर फाड़कर बहाई, वह भी बह गई। इस प्रकार कई बार प्रयास करनेसे अन्तमें वस्त्र-शेषकी एक कौपीन ऋषिजीके हाथमें आ गई। उसको बाँधकर ऋषिजी बाहर निकले।

उस एक वस्त्रके दानका फल यह हुआ कि जब राजा दुर्योधनने जूआ खेलकर राजा युधिष्ठिरको छलसे हरा दिया और उनको चारों भाइयोंके सहित बंदी बनाकर सभा में ले आये और द्रौपदीको भी सभामें बुलवाकर नग्न करनेके लिये दुःशासन वस्त्र उतारने लगा (दुःशासनमें दस सहड्ड हाथियोंका बल था), वह वस्त्र उतारते-उतारते थक गया, वस्त्रका अन्त नहीं हुआ, अनन्त हो गया, वस्त्रेंका ढेर लग गया, द्रौपदीको नग्न नहीं कर सका। हमें इससे शिक्षा लेनी चाहिये कि दानसे महान् फलकी प्राप्ति होती है।

अतः हम निष्कामभावसे दुःखी, अनाथ आदि सभी प्राणियोंकी सब प्रकार से, सबकी सेवा करें, सबको सुख पहुँचावें। सबका हित करें, भगवद्भावसे सबकी सेवा करें, सबको सुख पहुँचावें– यह सबसे उत्तम बात है। इससे भगवान् प्रसन्न होते हैं।

दया आदि ऊँचे भावोंसे किये हुये कर्मका फल अनन्त गुणा प्राप्त होता है। अपने तो निष्कामभावसे भगवान् की प्रसन्नताके लिए सबकी सेवा करें, सबको सुख पहुँचावें, सबका हित करें।

दयाका ऐसा महत्त्व है कि बिना कर्म किये भी संकल्पसे पुण्य उत्पन्न हो जाता है। इसमें एक इतिहास है कि एक दयालु पुरुष बालूके एक बड़े ढेरको देखकर कहने लगा कि– ‘यदि यह अनाजका होता तो मैं क्षुधार्थियोंको दे देता।’ तब आकाशवाणी हुई कि– ‘तेरा पुण्य तो हो चुका।’ दयाका ऐसा महत्त्व है कि संकल्पसे ही (दान किये बिना) पुण्य उत्पन्न हो गया, वैसे ही सम्पूर्ण जीवोंको सुख-प्राप्तिके संकल्पसे पुण्य उत्पन्न होता है। यदि साथमें प्रयत्न भी किया जावे तो अनन्त पुण्य उत्पन्न होंगे, इसमें तो कहना ही क्या है !

जिस पुरुषका मन एक क्षण भी ब्रह्ममें यानी परमात्मामें स्थिर हुआ है, उस पुरुषने सम्पूर्ण तीर्थोंका स्नान, सम्पूर्ण पृथ्वीका दान, सम्पूर्ण यज्ञ और सम्पूर्ण देवताओंका पूजन कर लिया, अर्थात् जगत्में कई कोटि तीर्थ हैं– कई प्रकट और कई गुप्त हैं, उसने उन सबका विधिपूर्वक स्नान कर लिया–

अहो  बत श्वपचोऽतो  गरीयान्

यज्जिह्वाग्रे  वर्तते नाम  तुभ्यम् ।

तेपुस्तपस्ते   जुहुवुः   सस्नुरार्या

ब्रह्मानूचुर्नाम   गृणन्ति  ये   ते ।। 

(श्रीमद्भागवत 3/33/7)

अर्थात्– ‘अहो ! वह चाण्डाल भी इसीसे सर्वश्रेष्ठ है कि उसकी जिह्वाके अग्रभागमें आपका नाम विराजमान है। जो श्रेष्ठ पुरुष आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने तप, हवन, तीर्थ स्नान, सदाचारका पालन और वेदाध्ययन- सब कुछ कर लिया।’

 नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...