Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

भगवन्नाम महिमा, प्रेम एवं विरह के पद

ज्ञानी पण्डित बहु मिले, वेद ज्ञान प्रवीण ।

दरिया ऐसा ना मिला, राम नाम लवलीन ॥ १ ॥

नामहिं ले जल पीजिये, नामहि लेकर खाह ।

नामहि लेकर बैठिये, नामहि ले चल राह ॥२॥

नाम लिया सो जान लिया, सकल शास्त्रका भेद ।

बिना नाम नरके गया, पढ़ि पढ़ि चारों वेद ॥३॥

हरि सा हीरा छाँडि के, करे आन की आस ।

ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाखे रैदास ॥४॥

तेरे भावैं कछु करौ, भलो बुरौ संसार ।

नारायन तू बैठि के, अपनौ भवन बुहार ॥५॥

दादू नीका नाम है, आप कहे समुझाय ।

और काम सब छोड़ि कै, हरि जी सुँ चित्त लाय ॥६॥

नारायण को ध्यान धर, पल पल नाम चितार ।

सार एक हरि नाम है, जगत् विषय बिन सार ॥७॥

वाद विवादे विष घना, बोले बहुत उपाधि ।

मौन गहे सब की सहे, सुमिरे नाम अगाध ॥८॥

मन मैं लागी चटपटी, कब निरखूँ घनस्याम ।

नारायन भूल्यौ सभी, खान पान विश्राम ॥९॥

सुनत न काहू की कही, कहै न अपनी बात ।

नारायन वा रूप मैं, मगन रहे दिन रात ॥१०॥

ब्रह्मादिक के भोग सुख, विष सम लागत ताहि ।

नारायन ब्रजचन्द की लगन लगी है जाहि ॥११॥

कथा, वार्ता, टीपणो, कवि जोशी को काम ।

हरिया हिरदे संत के राम नाम विश्राम ||१२||

हिम्मत मत छाँडो नरा, मुख तें कहता राम ।

हरिया हिम्मत से किया, ध्रुव का अटल धाम ॥१३॥

राम नाम केवल जपे, करे न कछु श्रम और ।

सदा सँभाले राम तेहिं', रक्षक प्रभु सब ठौर ॥१४॥

जा पर तृण सम वारिये, राग विराग सुहाग ।

बड़े भाग से पाइये, राम नाम अनुराग ॥ १५ ॥

चारों वेद ढंढोर के, अन्त कहोगे राम ।

सो रज्जब पहले कहो, अन्त उन्हीं से काम ॥ १६ ॥

नाम लिया, तिन सब किया, चार वेद का भेद ।

नाम न लिया तो क्या किया, पढ़ि पढ़ि चारों वेद ॥१७॥

राम नाम केवल जपे, आठों पहर अभंग ।

राम दास तेहिं भक्त कर, राम न छाँडे संग ॥१८॥

चिन्ता तो हरि नाम की, और न चितवे दास ।

जो कछु चितवे नाम बिनु, सोई काल की फाँस ॥१९॥

दादू नीका नाम है, तीन लोक ततसार ।

रात दिवस रटिबो करे, रे मन इहै बिचार ॥२०॥

जप, तप, तीरथ करत है, जोगी जोग अचार ।

पलटू नाम भजे बिना, कोऊ न उतरे पार ॥२१॥

सभी रसायन हम करी, नहीं नाम सम कोय ।

रंचक घट में संचरे, सब तन कंचन होय ॥ २२ ॥

राम रटे, रसना वही, सही संजीवनि मूरि ।

नहिं तो जिह्वा स्वान की, तुलसी डारहु धूरि ||२३||

मनके दोष, मनकी चंचलता, विषयोंमें आसक्ति आदि दोष न मिटें तो निराश मत होओ। भजनके बलसे सब दोष अपने आप दूर हो जायेंगे। जीवन बहुत थोड़ा है। विचारोंमें ही बिता दोगे तो भजनसे वंचित रह जाओगे।

भजन मन, वचन और तन तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान्‌का चिन्तन करना मनसे भजन है, नाम गुणगान करना वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीव-सेवा तनका भजन है। तन, मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।

आजकलके दुर्बल प्रकृतिके नर-नारियोंके लिये सबसे अधिक उपयोगी और लाभदायक है- भगवान्‌के नामका जप और कीर्तन । बस, जप और कीर्तनपर विश्वास करके नामकी शरण ले लो, यानी भगवान्के नाम जपमें लग जाओ। नाम अपनी शक्तिसे अपने-आप ही तुम्हें अपना लेगा।

साधन पथके विघ्न- जहाँ तक बने, कम बोलो। जिस बातके बोले बिना काम न चलता हो, वही बोलो। किसीको सलाह देने मत दौड़ो। दो आदमी बात करते हों तो उसे सुनने की चेष्टा मत करो, न उनके बीच में बोलो। वाणीका अपव्यय मत करो। जो बोलो, सो सत्य, सरल, हितकर, मधुर, परिमित बोलो। वाणीसे किसीको भुलानेकी, धोखा देनेकी, किसीका अहित करनेकी या जी दुखानेकी चेष्टा मत करो। किसीकी निन्दा, चुगली मत करो। कम से कम बोलनेके बाद जितना समय बचे, सब का सब श्रीभगवान्‌के नामजपमें, भगवान्के गुणगानमें लगा दो।

जाके मन मैं बसि रही, मोहन की मुसिक्यान ।

नारायन ताके हियै, और न लागत ग्यान ॥

साधकको समझदार बनना चाहिये। अनावश्यक संग्रह, अनावश्यक त्याग और लोगोंकी झूठी प्रशंसाके लोभसे तड़क भड़क, फैशन आदि उसे नहीं करना चाहिये।

दादू नीका नाँव है, आप कहे समुझाय । ।

और आरम्भ सब छाँडि के, राम नाम लौ लाय ॥१॥

एक राम के नाम बिनु, जीव की जलनि न जाय ।

दादू केते पचि मुए, करि करि बहुत उपाय ॥२॥

दादू राम सम्भालिये, जब लग सुखी शरीर ।

फिर पीछे पछताहिंगे, जब तन मन धरै न धीर ॥३॥

दुख दाता संसार है, सुख का सागर राम ।

सुख सागर चलि जाइये, दादू तजि बेकाम ॥४॥

दादू का जाणो कब होयगा, हरि सुमिरन इकतार ।

का जानो कद छाँडिहै, यह मन विषय विकार ॥५॥

नाम सपोड़ा लीजिये, प्रेम भक्ति गुण गाय ।

दादू सुमिरण प्रीति सों, हेत सहित लौ लाय ॥६॥

दादू हरि रस पीवता, रती विलम्ब न लाय ।

बारम्बार सँभालिये, मत वे बीसरि जाय ॥७॥

दादू हरि का नाम जल, मैं मीन ता माँहि ।

संगी सदा आनन्द करै, बिछुरत ही मरि जाइ ॥८॥

दरिया यह संसार है, तामें राम नाम निज वास ।

दादू ढील न कीजिये, यहु औसर यह डाव ॥९॥

एक भी श्वास, खाली खोय ना खलक बीच,

कीचड़ कलंक अंक, धोय ले तो धोय ले ।

मानुष का जन्म, फेर ऐसा ना मिलेगा मूढ़,

परम प्रभु जी से प्यारा, होय ले तो होय ले ॥

छिन भंगूर देह, जामे जनम सुधारबो है,

बीजली के झपाके, मोती पोय ले तो पोय ले ॥१०॥

शतं विहाय भोक्तव्यं सहस्त्रं स्नानमाचरेत् ।

लक्षं विहाय दातव्यं कोटिं त्यक्त्वा हरिं भजेत् ॥११॥

अरे कठिन अहीर के छोकरा, नेक पीर पहिचान ।

तव मुख दर्शन कारणे, छाँडि दई कुल कान ॥१२॥

मोर मुकुट कटि काछनी, पीताम्बर बन माल ।

यह मूर्ति मम मन बसो, सदा बिहारी लाल ॥ १३॥

कर मुरली लकुटी गहे, घूघर वाले केश ।

यह बानिक नयनन बसो, श्याम मनोहर वेश ॥१४॥

मोहनि मूरति श्याम की, मो मन रही समाय ।

ज्यों मेंहदी के पात में, लाली लखी न जाय ॥१५॥

मन मोहन मन मोहना, मन मोहन मन माँहि ।

या मन मोहन से सोहना, तीन लोक में नाहिं ॥ १६ ॥

चलो सखी तहाँ जाइये, जहाँ बसे ब्रज राज ।

गोरस बेचत हरि मिले, एक पंथ दो काज ॥१७॥

आवो प्यारे मोहना, पलक झाँप तोहि लेउँ ।

ना मैं देखूँ और को, ना तोहि देखन देउँ ॥१८॥

वंशी वारे मोहना, वंशी नेक बजाय ।

तेरी वंशी मेरो मन हरयो, घर आँगन न सुहाय ॥ १९ ॥

ब्रह्मादिक के भोग सुख, बिष सम लागत ताहि ।

नारायन ब्रजचन्द की, लगन लगी है जाहि ॥२०॥

कोई कंचन कर देत है, धरती अम्बर दोय ।

फूली तो माने नहीं, राम नाम बिन कोय ॥२१॥

सौ बातों की एक ही, सुन ले राजा बीर ।

सुरत तार में पोय ले, राम नाम का हीर ||२२||

टगमग टगमग, थे काईं जोवो, जनम अमोलक ।

गहणो गाँठो तन की शोभा, काया काचो भाँडो ।

फूली कहै थे राम भजो नित, और उपाधि छोड़ो ॥२३॥

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।

कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा ||२४||

सुन्दर सुजान पर, मन्द मुसकान पर,

बाँसुरी की तान पर, ठौरन ठगी रहे ।

मूरति विशाल पर, कंचन की माल पर,

खंजन सी चाल पर, खौरन खगी रहे ॥

भौंहें धनु नैन पर, लोने जुग नैन पर,

शुद्ध रस बैन पर, वाहिद पगी रहे ।

चंचल बातन पर, साँवरे वदन पर,

नन्द के नन्दन पर लगन लगी रहे ॥ २५ ॥

तौक पहिरावो, पाँव बेड़ी लै धरावो,

गाढ़े बन्धन बँधावो, औ खिंचावो काची खाल सों।

विष लै पिलावो, ता पै मूठ भी चलावो,

मँझधार में डुबावो, बाँधि पत्थर कमाल सों ॥

बिच्छु लै बिछावो, ता पै मोहि लै सुलावो,

फेरि आग भी लगावो, बाँधि कापड़ दुसाल सों ।

गिरि तें गिरावो, काले नाग तें डसावो,

हा! हा! प्रीति ना छुड़ावो, गिरिधारी नन्द लाल सों ||२६||

श्री कृष्ण भजन में मनुज का, जो व्यतीत है काल ।

लाल दास सुख निधि वही, और सकल जंजाल ॥२७॥

सब सों हित निहकाम मन, वृन्दावन विश्राम ।

राधावल्लभ लाल को, हृदय ध्यान मुख नाम ॥२८॥

हौं पाँवर, तुम हो प्रभु, अधम उधारण ईश ।

दया दास पर दया हो, दयासिंधु जगदीश ॥ २९ ॥

मन मोहन को ध्याइये, तन मन करिये प्रीति ।

हरि तज जे जग में पगे, देखो बड़ी अनीति ॥३०॥

बौरी व्है चितवत फिरूँ, हरि आवैं केहिं ओर ।

छिन उठ्, छिन गिरि परूँ, राम दुखी मन मोर ॥३१॥

सोवत जागत एक पल, नाहिन बिसरूँ तोहि ।

करुणा सागर दयानिधि, हरि लीजै सुधि मोहि ॥३२॥

निरपच्छी के पच्छ तुम, निराधार के धार ।

मेरे तुम ही नाथ इक, जीवन प्राण आधार ॥३३॥

रंग्यो सदा जाको हियो, विमल श्याम अनुराग ।

दूजो रंग कबहुँ न चढ़े, भयो सहज वैराग ॥३४॥

जिनको हिय नित हँसि रह्यो, हेर हेरि हरि रूप ।

कबहुँ ते न पलटि पर शोक रूप भव कूप ||३५||

गद्गद् वाणी, पुलक तन, नैन नीर, मन पीर ।

नाम रटत ऐसी दशा होत मिलत रघुवीर ||३६||

इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले भजन की रीति ।

मिलिये ध्रुव निःसंक व्है, कीजै तिन सों प्रीति ||३७||

स्वर्ग, मोक्ष चाहे नहीं, चाहे नन्द किशोर ।

सुघड़ सलोनो साँवरो, मुरलीधर मन चोर ||३८||

बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम ।

जिव तरसै तुव मिलन कूँ, मन नाहीं विश्राम ॥ ३९ ॥

बिथा तुम्हारे दरस की, मोहि ब्यापै दिन रात ।

दुखी न कीजै दीन को दरसन दीजै तात ॥४०॥

कबिरा काजर रेख हू, अब तो दई न जाय ।

नैनन प्रीतम रमि रहया, दूजा कहाँ समाय ॥४१॥

जग माँहि न्यारे रहो, लगे रहो हरि ध्यान ।

पृथ्वी पर देही रहो, परमेश्वर में प्राण ॥४२॥

जे जे कर्म गोविन्द बिन सब बन्धन संसार ।

लाल दास सुख पाइये, कीजिये कर्म बिचारि ॥४३॥

नैन बिहारी रूप निरखि, रसन बिहारी नाम ।

श्रवण बिहारी सुजस सुनि, निसि दिन आठों जाम ॥४४॥

रे मन चंचल ! तजि विषै, ढरो भजन की ओर ।

छाडि कुमति, अब सुमति गहि, भजि लै नवल किशोर ॥४५

पाजी मन मानै नहीं, गुलशन कह्यो समुझाय ।

इत उत नित भटकत फिरै, श्याम छबि मन भाय ॥४६

श्याम छबि जिन जिन लखी, गुलशन चहै न आन ।

मुरलीधर सों मन लगा, उन्हें वही भगवान ॥४७॥

मन मोहन तुम हो कहाँ, बृजवासी सुख दैन ।

सैयाँ तुम्हारे दरस बिनु, दाना बरसत नैन ॥४८॥

बिलखत आयु बीत गई, बीते जोवन बेश ।

अब तो दरश दिखाइये, दर पर खड़ा दरवेश ॥ ४९ ॥

जन्म जन्म के बीछुरे, हरि अब रह्यो न जाय ।

क्यों मन को दुख देत हो, विरह तपाय तपाय ॥५०॥

रग रग राम रमि रह्यो, निर्गुण सगुण के रूप ।

राम श्याम रवि एक ही, सुन्दर सगुण सरूप ॥५१॥

कहूँ धरत पग, परत कहूँ, डिगमिगात सब देह ।

दया मगन हरि रूप में, दिन दिन अधिक सनेह ॥५२॥

बिलखत मन हरि के बिना, दरस बिना नहिं चैन ।

मुराद हरि के मिलन बिन, बरखा ज्यूँ बहैं नैन ॥५३॥

दाना के दिल में लगी, पीय दरस की आस ।

विरहिन ब्रज में आइ कै ठाढ़ी ठौर उदास ॥५४॥

नैनहि निरखै राम कूँ, छाए नैन के माँहि ।

राम रमत नित दृगन में, रवि कोउ जानत नाहिँ ॥५५॥

जनम जनम जिनके सदा, हम चाकर निसि भोर ।

त्रिभुवन पोषण सुधाकर, ठाकुर जुगल किशोर ॥५६॥

श्याम छबि हिरदै लखी, अब कहा निरखूँ आन ।

मुराद दूसरा कोउ नहीं, नाम किया निरवान ॥५७॥

रज्जब अज्जब यह मता, निसिदिन नाम न भूलि ।

मनसा वाचा कर्मणा, सुमिरन सब सुख मूलि ॥५८॥

चित चिंता हरि रूप बिन, मो मन कछु न सुहाय ।

हरि हरसित हम कूँ दया, कब रे मिलेंगे आय ॥५९॥

कबिरा हँसना दूर कर रोने से करु प्रीत ।

बिनु रोये क्यों पाइये, प्रेम पियारा मीत ॥ ६० ॥

कब दुखदायी होइगो, मो कहँ बिरह अपार ।

रोइ रोइ उठि दौरिहों, कहि कित नन्दकुमार ॥ ६१ ॥

ताही धुन में छूटिहैं, खान पान अरु सैन |

छीन देह जीरण वसन, फिरिहौं हिये न चैन ॥६२॥

नैन द्रवैं जलधार होइ, छिन छिन लेत उसास ।

रैनि अँधेरी डोलिहौं, गावत गीत हुलास ॥६३॥

चरण छिन्दत काँटेन तें, स्रवत रुधिर, सुधि नाहिं ।

पूछत है फिरिहौं भटू, खग मृग तरु बन माहिं ॥६४॥

हेरत हेरत डोलिहौं, कित कित श्याम सुजान ।

गिरत परत बन सघन में, यों ही छुटिहैं प्रान ॥ ६५ ॥

जीवहुँ तें प्यारे अधिक, लागे मोही राम ।

बिनु हरि नाम नहीं मुझे, और किसी से काम ॥६६॥

वृन्दावन में पूरि रहौं, देखि बिहारी रूप ।

तासु बराबर को करै, सब भूपन को भूप ॥६७॥

तिहि समान बड़ भाग को, सो सबके सिर मौर ।

मन, बच, क्रम सर्वश सदा, जिनके युगल किशोर ॥६८॥

चरण कमल की दीजिये, सेवा सहज रसाल ।

घर जायो मोहि जानि कै, चेरो मदन गोपाल ॥६९॥

आठ पहर चौंसठ घरी, मेरे और न कोय ।

नैनाँ माँहि तू बसै, नींदहिं ठौर न होय ॥७०॥

इहिं जगि जीवन सों भला, जब लगि हिरदै राम ।

राम बिना जो जीवना, सो दादू बेकाम ॥ ७१ ॥

तनहिं राख सतसंग में, मनहिं प्रेम रस भेव ।

सुख चाहत हरिवंश हित, कृष्ण कल्पतरु सेव ॥७२॥

श्याम वरण गिरिवर धरण, गोपी जन चित चोर ।

बृजराज कुँवर जिय में बसो, सुन्दर नन्द किशोर ॥७३॥

श्री गोवर्धन वासी साँवरे, अब तुम बिन रह्यो न जाय ।

बंक चितै मुसुकाइ कै सुन्दर बदन दिखाय ||७४ ||

लोचन तड़फैं मीन ज्यों, जुग भरि घरी विहाय ।

सप्तक स्वर बन्धान सों, मोहन वेणु बजाय ॥७५॥

दृष्टि परी जा दिवस तें तब तें रुचै न आन ।

रजनी नींद न आवई, बिसरयो खान पान ॥ ७६ ॥

| दरसन को नैनाँ तपैं, बचन सुनन को कान ।

मिलिबे को हियरा तपै, जिव के जीवन प्राण ॥७७॥

मन अभिलाषा व्है रही, लगे न नयन निमेष ।

इकटक देखौं भाव सों, नागर नटवर वेष ॥ ७८ ॥

पूरन मुख शशि देखकर, चित चिहुँटे नहिं ओर ।

रूप सुधा रस पान को, जैसे कुमुद चकोर ॥७९॥

यह रट लाग्यो लाड़िले, जैसे चातक मोर ।

प्रेम नीर बरसा करो, नव घन नन्द किशोर ॥८०॥

माथे पर मुकुट देखि, चन्द्रिका चटक देखि,

छबि की लटक देखि, रूप रस पीजिये ।

लोचन विशाल देखि, गरे गुंज माल देखि,

अधर रसाल देखि, चित्त चाव कीजिये ॥

कुण्डल हलनि देखि, अलक वलनि देखि,

पलक चलनि देखि, सरबस दीजिये ।

पीताम्बर की छोर देखि, मुरली की घोर देखि,

साँवरे की ओर देखि, देखिबोई कीजिये ॥८१॥

अजहुँ न निकसे प्राण कठोर ।

दरसन बिना बहुत दिन बीते, सुन्दर प्रीतम मोर ॥

चार पहर चारों युग बीते, नयन गँवाई भोर ।

अवधि गये, अबहुँ नहिं आये, कहाँ रहे चितचोर ॥

कबहुँ नैन निरखि नहिं देखे, मार्ग चितवत तोर ।

दादू ऐसे आतुर बिरहिनि, जैसे चन्द चकोर ॥८२॥

रामा स्वारथ कारने, झूरे सब संसार ।

मैं झूरूँ परब्रह्म को, अन्तर यो दीदार ॥८३॥

अन्तर दारुण विरह की, तुम कारण निज राम ।

तुम्हरे दरसन बाहिरो, सकल अलूणो काम ॥८४॥

मो झुरवा को जोर है, दूजो कछु न होहि ।

तुम हो जैसा कीजिये, दरसन दीजै मोहि ॥८५॥

भजन - ध्यानमें मन लगाना चाहिये, उससे मिलनेवाले सुख, शान्तिमें मन नहीं लगाना चाहिये। जो सुख, शान्तिके लिए भजन करते हैं, उनका भजन कमजोर है; वे तो सुख, शान्तिके दास हैं। भजन- ध्यान तो भजन-ध्यानके लिए ही करो, भगवान्के लिए भी नहीं। भगवान् मिलनेपर भजन जाता हो तो इच्छा करना चाहिये कि भगवान् चाहे न मिलें, हमारा भजन-ध्यान चालू रहे; भजन-ध्यान चालू रहे।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...