आत्माका कल्याण इस मनुष्य शरीरमें ही हो सकता है
कम देना, अधिक लेना, खराब चीजको मिलाकर बेचना– इस प्रकारका व्यापार नरकको ले जानेवाला है। ठीक-ठीक देना, खराब वस्तु न मिलाना, ज्यादा न लेना इत्यादि- ऐसा व्यापार कल्याणके मार्गको ले जाता है, उसकी परम गति होती है।
जाजलि नामक ऋषिने बड़ी भारी तपस्या की। अन्न, जलका त्याग कर भगवत्-ध्यान लगाया। पक्षियोंने उसके सिरपर घोंसला बना लिया। जब उनका ध्यान भंग हुआ तो वे अपनी जटाओंमें पक्षियोंको देखकर बैठे रहे। उन पक्षियोंने अण्डे दिये और वे उनसे बच्चे पैदा करके चले गये। कुछ दिन उपरान्त वे बच्चे भी चले गये। उसको बड़ा घमण्ड हो गया।
तब आकाशवाणी हुई कि– ‘तेरेसे बढ़कर तो तुलाधार वैश्य है।’ वह तुलाधारके पास गया। वहाँपर उसको तेल, नमक आदि बेचते हुए देखा, तब वह उसे झूठा समझकर जाने लगा। तब तुलाधार वैश्यने कहा– ‘आप कहाँ जा रहे हैं ? आप समुद्रसे मेरे पास आये हैं।’
यह सुनकर उसको आश्चर्य हुआ और पूछा कि– ‘क्या कारण है ?’ उसने कहा– ‘मैं सबके साथ समान व्यवहार करता हूँ। कभी भी अन्यायका पैसा नहीं लेता हूँ।’ इतनेमें उसने कहा– ‘देखिये ! ये वे ही पक्षी हैं, जो आपके सिरपर थे।’ यह सुनकर उसको बड़ा आश्चर्य हुआ। तब तुलाधार वैश्यने उसको कल्याणका मार्ग बतलाया।
न्यायका अन्न बड़ा शुद्ध होता है। ‘जैसा अन्न, वैसा मन’ होता है। एक समय भीष्मजी उपदेश दे रहे थे कि जहाँ अन्याय होता हो, उसका प्रतिकार करना चाहिये। द्रौपदी यह सुनकर हँसी। तब भीष्मजीने कहा– ‘हे द्रौपदी ! मैं जानता हूँ कि तू किसलिये हँसी। मैंने दुर्योधनका अन्न खाया था, इसलिये उस समय मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी।’
भोजनसे ही मन बनता है। इसीलिये भगवान् ने कहा है– ‘सात्त्विक अन्नसे सात्त्विकी बुद्धि, राजसी अन्नसे राजसी और तामसी अन्नसे तामसी बुद्धि होती है।’
उत्तम क्रिया करके जो उपार्जन किया जाता है, वह सात्त्विक है। किसीको भावसे दिया हुआ सात्त्विक होता है। जो भावसे और प्रेमसे नहीं दिया जाता, उसको देनेवाला और खानेवाला- दोनों ही नरकको जाते हैं। भगवान् ने कहा है–
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सघõोऽस्त्वकर्मणि ।।
(गीता 2/47)
अर्थात्– तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो।
त्यक्त्वा कर्मफलासघंõ नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किि×चत्करोति सः ।।
(गीता 4/20)
अर्थात्– जो पुरुष समस्त कर्मोंमें और उनके फलमें आसक्तिका सर्वथा त्याग करके संसारके आश्रयसे रहित हो गया है और परमात्मामें नित्य तृप्त है, वह कर्मोंमें भलीभाँति बरतता हुआ भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता।
जो कर्मफलको छोड़कर कर्म करता है, वह कर्म करता हुआ भी नहीं बँधता है। हमारा कर्तव्य है– कृषि, गौ रक्षा और वाणिज्य- उसका पालन हमें निष्कामभाव और न्यायसे करना चाहिये। हम अपने कर्मको भगवान् के अर्पण कर दें तो फिर हमसे बुरे कर्म नहीं हो सकते। यदि बुरे कर्म होते हैं तो हमने भगवान् को अर्पण नहीं किया।
वह ‘कामना’ ही है, जो कि बुरे कर्म करवाता है। जो सत्यतासे करते हैं और फलको त्याग देते हैं, वे जन्म-बन्धनसे रहित अनामय पदको प्राप्त होते हैं। शास्त्रमें आया है कि जो अपने वर्णके कर्मोंका पालन करता है, वह मुक्तिको प्राप्त होता है। भगवान् कहते हैं– ‘हे अर्जुन ! तू सब क्रियाओंको मेरे अर्पण कर दे, जिससे कि तू शुभ और अशुभ कर्मके फलको त्यागकर मुझे प्राप्त होगा।’ (गीता 9/27-28)
अथवा मनसे भगवान् का ध्यान करते हुए कर्म करना चाहिये। जो मनसे भगवान् का ध्यान, वाणीसे उनके नामका जप और शरीरसे कर्तव्य कर्म करता है, वह मुक्तिको प्राप्त होता है। जो निःस्वार्थ भावसे कर्म करता है, वह मुक्तिको प्राप्त होता है।
जबालाका पुत्र सत्यकाम गुरुके यहाँ जाता है। गुरुने पूछा कि– ‘तुम्हारा गौत्र क्या है ?’
उसने कहा– ‘मुझे पता नहीं है। मेरी माताको पता नहीं है।’
तब गुरुने कहा– ‘तूने सत्य बात कही है, इसलिये मैं तुझे शिष्य बनाता हूँ। तुम्हारी माताके नामसे ही तुम्हारा गौत्र चलेगा।’
तब गुरुने उसे 400 गायें दी। सत्यकामने कहा– ‘1000 की वृद्धि होनेपर ही मैं लौटूँगा।’ उसे वहाँपर ही सब ज्ञान हो गया। यह निष्काम कर्मका प्रभाव है कि उसे ज्ञान हो गया, इसलिये निष्काम भावसे ही कर्म करना चाहिये।
जब वेदव्यासजी जलमेंसे निकले, तब उन्होंने स्त्रियोंके लिये कहा कि– ‘उन स्त्रियोंको धन्य है, जो कि पातिव्रत धर्मका पालन करती हैं।’
विधवाको भी पातिव्रत धर्मका पालन करना चाहिये। स्त्रियोंके लिये एकमात्र यही धर्म है। उसे पतिको भगवान् समझना चाहिये, उसीसे उसका कल्याण हो जाता है। सास-ससुरकी और दूसरे बड़ोंकी भी आज्ञा माननी चाहिये। जब सीताजी अनुसूयाजीके पास गई हैं, तब उन्होंने कहा है-
बिनु श्रम नारि परम गति लहई ।
पतिब्रत धर्म छाडि़ छल गहई ।।
(रा-च-मा- अरण्य- 5/18)
अर्थ– जो स्त्री छल छोड़कर पातिव्रतधर्मको ग्रहण करती है, वह बिना ही परिश्रम परम गतिको प्राप्त करती है।
पातिव्रत धर्म किसे कहते हैं ?
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा ।
कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ।।
(रा-च-मा- अरण्य- 5/10)
अर्थ– शरीर, वचन और मनसे पतिके चरणोंमें प्रेम करना– स्त्रीके लिये, बस, यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है।
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- स्त्रीके लिये एक ही धर्म है कि वह अपने पतिके चरणोंमें प्रेम करे। एक बड़ी पतिव्रता थी। एक समय उसका पति बाहर बैठा था। उस समय बहुतसे लोगोंने उससे उसकी स्त्रीके दर्ळन करानेके लिये कहा। जब उसने उसे पुकारा, तब वह मक्खनका लौंदा लिये हुए आई। उसने पूछा– ‘तुम इसे क्यों लाई ?’ उसने कहा– ‘मैं दही बिलोकर घी इकट्ठा कर रही थी। इतने में आपने बुला लिया। मैं वैसी-की-वैसी आ गई।’ यह देखकर सबने उसकी सराहना की।
मात्र स्त्रियोंका कर्तव्य है कि उसे सबको प्रणाम करना चाहिये, जिससे घरमें कलह नहीं होता है। प्रेमपूर्वक भाषण करना और सेवा करना– इससे कभी भी कलह नहीं हो सकता है। प्रत्येक स्त्रीको स्वार्थ छोड़कर कर्म करना चाहिये। सब उसे ऊँची दृष्टिसे देखते हैं।
आजकल खर्च और कुरीतियाँ बढ़ गई हैं। माताओंको उसका सुधार करना चाहिये। पहले खुदका सुधार करना चाहिये। जिस नगरमें एक भी धर्मात्मा रहता है, वह नगर पवित्र हो जाता है, धर्मकी वृद्धि होती है।
जब दुर्योधनके द्वारा खोज कराये जानेपर भी पाण्डवोंका पता नहीं लगा, तब भीष्मजीने कहा– ‘जहाँ युधिष्ठिर होगा, वहाँपर किसी प्रकारकी महामारी नहीं आयेगी, धर्मकी वृद्धि होगी।’ इसलिये हमें अपनी आत्माको पवित्र करना चाहिये।
आजकल स्त्रियाँ धनको शृंगार और ऐश-आराममें खर्च करती हैं। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिये। साधु-महात्माओं की नकल करना चाहिये। जो गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी अपना काम कम खर्चमें चलाता है, वह महात्माके समान है। बाकी बचा हुआ धन सेवाके काममें लगाना चाहिये। उन्हें मोटा खाना, मोटा पहिनना चाहिये। बचे हुएसे दीन-दुःखियोंकी सेवा करनी चाहिये।
वर्तमान समयमें एक-एक स्त्रीके पास 40-50 पोशाकें होती हैं। उन्हें विचारना चाहिये कि शरीरका क्या ठिकाना है ? आज है, कल नहीं। शरीरके नहीं रहनेपर वे तो व्यर्थ जायेंगी। जो मनुष्यका शरीर पाकर आत्माका कल्याण नहीं करता है, वह काल और कर्मको झूठा दोष लगाता है।
माताओं और बहिनोंका उद्धार जल्दी हो सकता है, क्योंकि उनका पाप तो पतिमें बँट जाता है और उसके पतिके पुण्यमेंसे कुछ हिस्सा उसे भी प्राप्त होता है। जो विधवा स्त्री ध्यान लगाती है, भगवद्-भजन करती है, वह संन्यासिनीके समान है। जो परपुरुष-गमन और सबसे झगड़ा करती है, वह नरकको जाती है। जो दूसरे पुरुषसे बुरी बुद्धि करती है, उसमें स्पर्ळदोष आता है, उसका नाश हो जाता है।
कलियुगमें तो स्त्रियोंका और पुरुषोंका बड़ी जल्दी उद्धार हो सकता है। भगवान् की भक्तिका बड़ा माहात्म्य है, फिर हम तो तीर्थस्थानमें आये हैं, यहाँका किया हुआ कर्म बहुत फलदायक होता है। हम यहाँपर आत्माके उद्धारके लिये आये हैं। हमें अपना मन परमात्मामें लगाना चाहिये। तीर्थोंमें एक पदार्थके बदलेमें तीन वस्तु मिलती हैं– अर्थके बदलेमें धर्म, काम और मोक्ष मिलता है। जो यहाँपर कामनाके लिये आते हैं, वे राजसी हैं। जो धर्मके लिये आते हैं, वे सात्त्विक हैं।
जो महापुरुष तीर्थोंमें जाते हैं, उनका तो कहना ही क्या है ! वे तो पापनाशिनि गंगाजीका भी पाप नाश करते हैं, उसे पवित्र करते हैं। महात्मा लोग सात्त्विक पुरुषोंको और दुष्टोंको उपदेश देनेके लिये जाते हैं। वे ज्ञानके द्वारा पापियोंका पाप नाश कर देते हैं।
माताओंको सबके साथ हँसकर व्यवहार करना चाहिये। यदि दूसरेको क्रोध आवे तो अपना दोष समझना चाहिये और अपनेको क्रोध आनेपर भी अपना ही दोष समझना चाहिये। बहुत से लोग स्त्रियोंको ठग लेते हैं, क्योंकि स्त्रियोंमें शिक्षाकी कमी होती है।
एक जाटकी स्त्रीको टोना आता था। वह किसी दूसरेके घरमें आग लगा देती थी, जिससे उसके स्वयंके पुत्र उत्पन्न हो जाता था। उसका पति कहता था– ‘भगवान् के घरमें न्याय नहीं है।’ 14 वर्षोंमें उसके 7 पुत्र उत्पन्न हुए। उनके विवाह कर देनेके बाद वे सब मर गये। उनकी स्त्रियाँ विधवा हो गई। तब उसने कहा कि– ‘भगवान् के घरमें न्याय है, क्योंकि इसके पापकर्म करनेसे ही यह फल हुआ है कि इसके ऊपर अब स्त्रियोंका भार पड़ा है।’
इसी प्रकार और भी कुरीतियाँ हैं। वे कहती हैं– ‘पुत्रेत्पत्ति होनेपर मैं देव-मण्डपपर चूड़ाकर्म कराऊँगी।’ सोचिये, देवताके स्थानमें मलका त्याग करने से क्या लाभ होता है ? उसका फल उसे नहीं मिलता है।
हमारा बड़ा भाग्य है, जो हम उत्तम भूमि, उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए हैं और फिर इतने बड़े तीर्थमें आये हैं। इसमें आकर भी यदि हम अपना उद्धार नहीं करते हैं तो हमारा बड़ा दोष है। मनुष्य मात्रके लिये तुलसीदासजीने कहा है–
एहि तन कर फल विषय न भाई ।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ।।
(रा-च-मा- उत्तर- 44/1)
अर्थ– हे भाई ! इस शरीरके प्राप्त होनेका फल विषयभोग नहीं है। (इस जगत्के भोगोंकी तो बात ही क्या) स्वर्गका भोग भी बहुत थोड़ा है और अन्तमें दुःख देनेवाला है।
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- इस मनुष्य शरीरके पानेका फल विषय नहीं है, स्वर्ग भी नहीं है, क्योंकि स्वर्गके फल भोगकर हम फिर मनुष्यलोकमें आ जाते हैं। यह तो धर्मशालाकी तरह है, थोड़े ही दिन रहना है, थोड़े ही दिनतक आनन्द भोगना है। जो मनुष्यका शरीर पाकर भी आत्मोद्धार नहीं करता है, जो विषयोंमें लगा रहता है, वह भक्तिरूपी अमृतको छोड़ देता है और विषयरूप विषको ले लेता है। जो मनुष्यका शरीर पाकर विषयभोगोंमें लगा रहता है, वह कुत्तेके बराबर है। जो वैराग्य नहीं करता है, उसके माता-पिताको धिक्कार है, उसका जन्म व्यर्थ है, पशुओंके समान है। तुलसीदासजी कहते हैं-
ताहि कबहूँ भल कहइ न कोई ।
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ।।
(रा-च-मा- उत्तर- 44/3)
अर्थ– जो पारसमणिको खोकर बदलेमें घुँघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुद्धिमान्) नहीं कहता।
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- जो हरिभक्ति-रूपी पारसमणिको खोकर विषयभोगरूपी चिरमीको लेता है, उसे कोई भला नहीं कहता है। जो मनुष्य शरीर पाकर भगवान् का भजन नहीं करता है, वह महामूर्ख है। इस प्रकारके मौकेको हाथसे नहीं जाने देना चाहिये। मालूम नहीं, हमारी मृत्यु कब हो जाय।
हमारे देशमें एक पुरुष थे। उन्होंने राज्यके विरुद्ध काम किया। तब राजाने उसे कह दिया कि– ‘तुम अपना सारा सामान ले जाओ। महीने भरके बाद बचा हुआ सामान हमारा है।’ इसी प्रकार भगवान् भी कहते हैं कि मृत्युतक तुम जो ले जा सकते हो, उसे ले जाओ, बाकी का बचा हुआ हमारा है। उस राजाने तो घोषणा भी कर दी थी, पर भगवान् घोषणा नहीं करते। न जाने, कब मृत्यु हो जाय। हमारी आयु अति शीघ्र बीती जा रही है। जितनी आयु भोग ली, वह तो चली गई। अब इसे शीघ्र ही सँभलना चाहिये। इसे भक्तिके सिद्धान्तके अनुसार परमात्माको और ज्ञानके सिद्धान्तके अनुसार ब्रह्मको समझना चाहिये। भक्ति शीघ्र ही कर लेनी चाहिये। हमने जो कर्म पूर्वमें किये हैं, अब उनसे कोई मतलब नहीं है।
एक आवश्यक बात बताते हैं। हम मनुष्य हैं। आत्माका कल्याण मनुष्य शरीरमें ही हो सकता है। हम इस शरीरमें ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इसी शरीरसे नित्य आनन्दकी प्राप्ति हो सकती है। यह मनुष्य सब कुछ कर सकता है।
हमारा कर्तव्य परम सुखकी प्राप्ति है। सुख सब चाहते हैं, पर उसके लिये चेष्टा कोई नहीं करता है। जो चेष्टा करता है, उसे वह नित्य आनन्द प्राप्त हो जाता है। वह ब्रह्मानन्द नित्य है। संसारके सभी जीव सुख चाहते हैं। एक सुख ऐसा है कि जिसको प्राप्त होकर उससे बढ़कर और कुछ भी सुख प्रतीत नहीं होता है। आत्मा उस आनन्दसे पूर्ण हो जायेगा। उससे बढ़कर और किसीको नहीं मानेंगे और उसमें स्थित होकर बड़े-से-बड़े दुःखसे भी विचलित नहीं होंगे। योगशास्त्र यह आदेश देते हैं कि सब दुःखोंसे हट जाओ। यही समय है, फिर कभी नहीं आने का है। भगवान् ने कहा है–
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसि×ज्ञतम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।।
(गीता 6/23)
अर्थात्– जो दुःखरूप संसारके संयोगसे रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिये। वह योग न उकताये हुए अर्थात् धैर्य और उत्साहयुक्त चित्तसे निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।
याद रखना चाहिये कि हमको दुःख अज्ञानसे होता है। भगवान् कहते हैं–
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।।
(गीता 2/11)
अर्थात्– हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्य मनुष्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके-से वचनोंको कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते।
इससे सिद्ध होता है कि शोकका मूल अविद्या है। संयोग हेयका हेतु है और उसका हेतु अविद्या है। भय, राग और द्वेषकी जड़ अविद्या है, इसका नाश करना चाहिये। उसका नाश भगवद्भक्ति से होता है और महात्माओंके द्वारा होता है। भगवान् कहते हैं–
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदिर्ळनः ।।
(गीता 4/34)
अर्थात्– उस ज्ञानको तू तत्त्वदर्ळी ज्ञानियोंके पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे परमात्म तत्त्व को भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे।
यह ज्ञान इनसे होगा। ज्ञानके समान पवित्र कोई नहीं है। इतनी मूल्यवान वस्तु भी बिना मूल्यके मिलती है, पर शोककी बात है कि हम तिसपर भी नहीं लेते। यदि हमें कोई कुत्ता, गदहा कहता है तो हम दुःखी होते हैं, पर बिना भगवद्-भक्तिके हम इसी प्रकार की योनियोंको प्राप्त होवेंगे कि हम उनकी गणना भी नहीं कर सकते।
तब तो हमें अवश्य भगवद्-भक्ति करना चाहिये। हमारे शास्त्रेंने बड़े सीधे मार्ग बतलाये हैं। राग-द्वेषादि हटानेके लिये हमें महात्माओंकी शरण जाना चाहिये। यदि इनका नाश नहीं होगा तो हमारी बड़ी दुर्दशा होगी। न जाने कौन-सा शरीर लेना पड़ेगा। तुम्हारे द्वारा शरीरसे होने वाला काम तो दूसरोंके द्वारा भी हो सकता है, पर आत्मोद्धारका काम तुम्हारे स्वयंके बिना नहीं हो सकता है। मरनेके बाद सारा धन व्यर्थ जाता है। वह धन किसी काममें नहीं आ सकता है। मरते समय बड़ा कष्ट होता है। यह सारा कुटुम्ब स्वार्थी है।
एक देश था। उसमें प्रजासे अफसरका चुनाव होता था। जो मनुष्य अफसर होता, उसे तीन सालके बाद जंगलमें छोड़ दिया जाता था। एक अच्छा पुरुष था, वह बड़ा चतुर था। उसने जंगल कटवा दिया, वहाँ पर बड़ी आबादी करवा दी। वहाँकी आमदनी बहुत बढ़ गई। जब वह जाने लगा, तब उसने कहा– ‘मेरे से पहले वाले मूर्ख थे। मैंने अब इतना धन इकट्ठा कर लिया है कि उसका व्यय ही न हो।’
इसी प्रकार हम लोगोंको भी भक्तिरूपी धन इकट्ठा करना चाहिये। मरते समय हमारे साथ कोई नहीं जायेगा। बस, मन, इन्द्रियाँ, बुद्धि, ज्ञान ही जायेंगे। हमको ऐसी चेष्टा करनी चाहिये कि जिससे हम इसी जन्ममें मुक्त हो जायँ। यदि ऐसा नहीं हो सके तो हमें इन्द्रियों और बुद्धिको सुधारनेकी चेष्टा करनी चाहिये, जिससे हम दूसरे शरीरमें फिर प्रयत्न कर सकें। हम जो वस्तु देखते हैं, वह हृदयमें इकट्ठी हो जायेगी और उसके संस्कार हो जायेंगे। हमें संसार, नदी, पहाड़, तरह-तरहके मनुष्य दिखते हैं, यदि हम हरे रंगका चश्मा लगाकर देखें, तो सब एक ही दिखाई देगा। इसी प्रकार हरि (भगवान्) के रंग का चश्मा चढ़ाने से हमें सारा संसार उसीका रूप दिखलाई देगा। कानोंके द्वारा उस परमात्मा की बातें सुननी चाहिएँ और नेत्रेंके द्वारा भगवान् को छोड़कर दूसरी चीजको नहीं देखना चाहिये।
इसलिये सबको मन, बुद्धिका सुधार करना चाहिये। सारी बुराइयोंको छोड़ दीजिये। यदि आप अपनी बुद्धिको तीक्ष्ण बना लेंगे और मनको रोक लेंगे, तो इसी जन्ममें आपका उद्धार हो जायेगा। आपकी बुद्धिको कोई दूसरा मनुष्य तीक्ष्ण नहीं बना सकता, आपके मनको कोई दूसरा मनुष्य ध्यानमें नहीं लगा सकता, आप स्वयं ही लगा सकते हैं। सब शास्त्र कह रहे हैं– सावधान हो जाओ।
मरोगे मर जाओगे, कोई न लेगा नाम ।
ऊजड़ जाय बसाओगे, छाँडि बसन्ता गाम ।।
– यह सोचकर शीघ्र ही अपना काम बना लेना चाहिये।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...