व्यवहार कैसा हो इस विषयकी सुन्दर, आदर्श बातें
हरेक माता-बहनोंको तथा भाइयोंको यह समझना चाहिये कि भगवान्ने गीताजीमें कहा है कि- अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् (गी. 9 / 33 ) यह मनुष्य शरीर अनित्य है सदा रहनेवाला नहीं है, इसको पाकर मेरा ही भजन कर। मनुष्य शरीर बहुत ही दुर्लभ है। यह मनुष्य शरीर कैसा है कि बहुत काल तक स्थिर रहनेवाला नहीं है, इसमें सुखकी प्रतीतिमात्र होती है वास्तवमें सुख है ही नहीं। ऐसे इस मनुष्य शरीरको पाकर तू मेरा ही भजन कर। गीताजीके अध्याय 9 श्लोक 32 वें में भगवान्ने बताया कि जो मेरी शरण होकर मेरेको भजता है वह परमगतिको प्राप्त होता है फिर अध्याय 9 श्लोक 33 में कहा कि इस दुर्लभ मनुष्य शरीरको पाकर मेरा भजन कर।
जो कुछ स्त्री, पुत्र, धन आदि दिखते हैं इनके साथ स्वप्नके जैसा सम्बन्ध है। न ये साथ आये थे न ये साथ जायेंगे। आज यदि मृत्यु हो जाये तो इनका हमारे साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा। यदि कोई दूसरा शरीर धारण करके घरमें आयेंगे तो कोई आने नहीं देगा (यानी सर्प, बिच्छू, चूहा, बिल्ली, छिपकली, पशु-पक्षी आदि इनमें से कोई भी शरीर धारण करके आयेंगे तो पहलेवाले शरीरके सम्बन्धी लोग घरमें घुसने नहीं देंगे।)। यदि भूत-प्रेत बनकर आयेंगे तो दर्शन भी नहीं करेंगे। एक कथा आती है कि एक बार जैमिनी ऋषि तथा वेदव्यासजी कहीं जा रहे थे। रास्तेमें उन्होंने देखा एक बकरा बनियेकी दुकानमें घुस गया और अनाज खाने लगा, बनिया दौड़ा और अनाज उस बकरेके मुहँसे निकाल लिया ऊपरसे 2 थप्पड़ और मारे और नीचे गिरा दिया वह बकरा मैं-मैं.... करता चला गया और उसके पास उपाय ही क्या था। ऐसा देखकर व्यासजी हँसे तो जैमिनी ऋषिने पूछा कि क्या बात है आप हँस क्यों रहे हैं? तब व्यासजीने कहा कोई विशेष बात नहीं। बार-बार ऋषिने आग्रह किया तब व्यासजीने कहा कि आपने उस बनियेको देखा जिसने उस बकरेके तमाचे मारे और दुकानसे नीचे गिरा दिया; यह सुनकर जैमिनी ऋषिने पूछा- इसमें हँसनेकी क्या बात थी? तब व्यासजीने कहा कि यह बकरा पूर्वके जन्ममें इस बनियेका बाप था, यह बड़ा कंजूस था इस लड़केके लिये धन इकट्ठा करता रहता था और अपने कर्मोंसे बकरा बन गया है, यह उसी अपने पुराने अभ्याससे इस दुकानमें आता है। यह सब देखकर हँसी आ गई कि यह एक दिन तो था उस दुकानका मालिक और आज इस दुकानमेंसे एक मुट्ठी अनाज भी नहीं खा सकता। यह सब देखकर हँसी आ गई। ऐसे ही पशु-पक्षियोंको हम घरमें प्रवेश भी नहीं होने देते। इसलिये यह समझना चाहिये कि जो भजन - ध्यान करना है वह मरनेके पहले-पहले कर लो नहीं तो फिर पछताना पड़ेगा।
एक कहानी और है- एक महात्मा थे उनके पासमें एक स्वामी (माँगकर खानेवाला) जो आटा मागँकर अपने सारे परिवारको तृप्त किया करता था, वह आता था। एक दिन स्वामीसे महात्माने कहा कि तू भजन - ध्यान किया कर, तो स्वामीने कहा कि मैं भजन- ध्यान करूँ तो मेरा परिवार भूखा मर जायगा, तब महात्माने कहा कि तू मूर्ख है सबको भगवान् निभाते (पालन करते) हैं। तब स्वामीने कहा बाल-बच्चे छोटे हैं उनकी कमानेकी सामर्थ्य नहीं और परिवारमें किसीकी भी कमानेकी हिम्मत नहीं है। तब भी महात्माने कहा सबकी रक्षा भगवान् ही करते हैं तुम्हारा तो कोई भी नहीं, तुम इस काममें झूठा समय बिताते हो, मैं तुम्हे योग-ध्यान सिखा दूँगा तो तुम्हारा उद्धार हो जायगा। ऐसा कहनेसे अन्तमें उसने महात्माकी बात मान ली। कुछ ही दिनोंमें वह ध्यान तथा समाधि लगाना सीख गया, तब महात्माने उसको कहा कि घरमें समाधि लगाकर सो जाना हम एक कौतूहल दिखायेंगे। यह सुनकर महात्माजीका चेला (स्वामी) घरपर गया और समाधि लगाकर सो गया। कुछ समय बाद घरवालोंने समझा यह तो मर गया। यह हमें माँगकर खिलाया करता था अब क्या होगा? उसी समय महात्माजी आये और उसकी माँ और बहू पूछा क्या बात है? तो उन्होंने कहा कि आपका चेला मर गया अब बाल-बच्चे क्या खायेंगे? तब महात्माजीने कहा कि भगवान् सबकी रक्षा करते हैं अब इसको तो बाँधकर दफना दो, तब जैसे-तैसे घरवालोंने उसको बाँधकर जंगलमें ले गये और उसे वहाँ पटक आये क्योंकि दफनानेकी उनकी ताकत नहीं थी बच्चे छोटे थे और वह दोनों ही स्त्रियाँ थीं। बादमें स्वामी (चेले) की समाधि उतर गई तब महात्माजीने वहाँ जाकर उसे अपने आश्रममें छिपा दिया, इधर शहरमें हल्ला हो गया कि वह गरीब हार्ट-फैलसे मर गया और उसके घरवाले अनाथ हो गये तो शहरसे किसीने कुछ और किसीने कुछ सबने उसके घर कुछ ना कुछ भेज दिया, किसीने कपड़ा, किसीने बर्तन भेजे ऐसे हजारोंका माल इकट्ठा हो गया। करीब चार सौ रुपये तो उसकी 12 दिनकी क्रिया करानेमें खर्च हो गया और सालभरका खाने-पीनेका जुगाड़ बैठ गया। 12 दिनके बाद स्त्रीको महात्माजीने बुलाया और उसको सावधान भी कर दिया और उसकी स्त्रीसे बोले तुम्हारा पति तो मर गया और कमानेवाला कोई है नहीं तुम सबका क्या होगा? तब उसकी स्त्रीने कहा सब प्रबन्ध हो गया, गाँवके लोगोंने सब प्रबन्ध कर दिया। महात्माजीने उसके पतिको छिपाये हुए ही यह सब बातें उसको सुनवाई बादमें स्त्रीने कहा कि पहले तो उनके भाग्यसे मिल रहा था अब तो भगवान्की दया है, वह यदि जीवित रहते तो रूखी-सूखी खानेको मिलती अब पहलेसे ठीक है, यह कहकर वह स्त्री चली गई तो महात्माजीने उसे बुलाकर कहा देख तो तेरी स्त्री जा रही है उसके साथ घर नहीं जायेगा? तो उस स्वामीने कहा कि अब मैं घरपर जाकर क्या सिर फोडूंगा? तब महात्माजीने कहा वे तेरी इच्छा नहीं करते तो तू भजन-ध्यानमें लग जा। कई दिनों बाद उन महात्माजीने उसे कहा कि जाओ एक बार घरवालोंसे मुलाकात कर आओ, तब वह वहाँ गया तो जाते-जाते उसे रात्रिके बारह बज गये, उसे देखकर स्त्रीने कहा अब आप मत आइये टाबर (बच्चे) डरेंगे और आप आगेसे कभी भी दर्शन न देना (उन्होंने सोचा यह भूत बन गया है)। तो उसने कहा कि घरका मैं ही तो मालिक हूँ, तब स्त्रीने कहा कि अब हम मालिक हैं और आप मालिक थे उससे ज्यादा अब सुखी हैं। यह सुनकर वह फिर महात्माके पास गया और वहीं रहने लगा फिर वह भी संन्यासी हो गया। अभिप्राय यह है कि फिर आवेंगे तो भी घरवाले लड़ेंगे, मरनेके बाद किसीसे भी सम्बन्ध नहीं रहता। जब तक प्राण हैं तब तक अपने कल्याणके लिये जी तोड़ परिश्रम करना चाहिये।
किसी भाईने यह प्रश्न किया कि व्यवहार किस प्रकार करना चाहिये। इसका उत्तर यह है कि कर्मयोग तथा ज्ञानयोग दोनों दृष्टियोंसे व्यवहार किया जा सकता है।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥
(गीता २/६४)
अर्थात्- स्वाधीन अन्तःकरणवाला पुरुष राग-द्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंद्वारा विषयोंको भोगता हुआ अन्त:करण की प्रसन्नता अर्थात् स्वच्छताको प्राप्त होता है।
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥
(गीता २/६५)
अर्थात्- उस निर्मलताके होनेपर इसके सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले पुरुषकी बुद्धि शीघ्र ही परमात्मामें अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है।
मतलब यह है कि राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा अपने वशमें की गई इन्द्रियोंके द्वारा जो आचरण करता है वह प्रसादको प्राप्त हो जाता है और उसकी आत्मा शुद्ध होकर चित्तमें प्रसन्नता हो जाती है। प्रसादसे ही सब दुःखोंका विनाश हो जाता है प्रसन्नता होनेसे परमात्मा के स्वरूपमें स्थिति हो जाती है और वह जीवन्मुक्त हो जाता है।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
(गीता २/७१)
अर्थात्- जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको त्याग कर ममतारहित और अहंकाररहित, स्पृहारहित हुआ बर्तता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।
सांख्ययोगकी दृष्टिसे किस प्रकार आचरण करना चाहिये अब यह बात बताई जाती है
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥
(गीता १८ / २३)
अर्थात्- हे अर्जुन ! जो कर्म शास्त्रविधिसे नियत किया हुआ और कर्तापनके अभिमानसे रहित, फलको न चाहनेवाले पुरुषद्वारा, बिना रागद्वेषसे किया हुआ है, वह कर्म तो सात्त्विक कहा जाता है।
सात्त्विक कर्म मुक्ति दायक होता है। भगवान्ने कर्ताके विषयमें भी कहा है-
मुक्तसङ्गोऽहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥
(गीता १८ / २६)
अर्थात्- हे अर्जुन ! जो कर्ता आसक्तिसे रहित और अहंकारके वचन न बोलनेवाला, धैर्य और उत्साहसे युक्त एवं कार्यके सिद्ध होने और न होनेमें हर्ष-शोकादि विकारोंसे रहित है वह कर्ता तो सात्त्विक कहा जाता है।
यही व्यवहारकी खास बात है। सार बात यह है कि कर्मके फलका तथा आसक्तिका अभाव होना चाहिये, अभिमानका त्याग, धैर्य तथा उत्साहसे कर्म करना चाहिये। खुश होकर कर्म करना चाहिये, हँस-हँस कर कर्म करना चाहिये। कर्मकी सिद्धि तथा असिद्धिमें समान भाव रहना चाहिये। शास्त्रविहित कर्म होना चाहिये। तीर्थ, व्रत, उपवास कोई भी कर्म क्यों न हों उनमें स्वार्थ नहीं होना चाहिये। सम्पूर्ण क्रियामें अभिमान रहित हो तो जल्दी ही शान्ति मिल जाती है और बड़ी ही प्रसन्नता होती है। शान्ति, आनन्द तथा उत्साहको ध्यानमें रखकर हँस-हँसकर कर्म करना चाहिये। इस प्रकार करते-करते भगवान्की आज्ञानुसार कर्म होने लगे तो सोनेमें सुगन्ध है।
भक्तिका भी मिश्रण हो जाय तब तो बात ही क्या है। यह ध्यान रखना चाहिये निष्कामभावसे स्वार्थ रहित होकर कर्म करने चाहिये, उससे अन्त:करणकी शुद्धि हो जाती है। तथा अन्तःकरणकी शुद्धिसे अपने आप ही ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है तथा ज्ञानकी प्राप्तिसे मुक्ति हो जाती है। गीताजीमें भी कहा है-
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
(गीता ४/३८)
अर्थात्- इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह कुछ भी नहीं है, उस ज्ञानको कितने ही कालसे अपने आप समत्व बुद्धिरूप योगके द्वारा अच्छी प्रकार शुद्धान्तःकरण हुआ पुरुष आत्मामें अनुभव करता है।
गीताजी अध्याय 4/32 में भगवान् ने यह बात बतलाई है-
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥
(गीता ४/३२)
अर्थात्- ऐसे बहुत प्रकारके यज्ञ वेदकी वाणीमें विस्तार किये गये हैं, उन सबको शरीर, मन और इन्द्रियोंकी क्रियाद्वारा ही उत्पन्न होनेवाले जान, इस प्रकार तत्त्वसे जानकर निष्काम कर्मयोगद्वारा संसारबन्धन मुक्त हो जायगा ।
अतः माता-बहिनों तथा भाइयोंको उत्साहके साथ कर्म करना चाहिये। भाव निष्काम तथा प्रेमका होना चाहिये। सबमें ईश्वरबुद्धि रखकर सभीको खुश करना चाहिये। यह सिद्धान्त रहना चाहिये। इतना होकर भी अभिमान नहीं करना चाहिये । सबमें समभाव करना जो है वह उच्चकोटिकी चीज है। अब किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये इसके विषयमें एक कहानी कही जाती है -
एक नई बहू किसी संयुक्त परिवारमें आई, उस परिवार के मुखियाके पाँच लड़के और दो लड़कियाँ थीं। लड़कोंका विवाह हो चुका था। उनमेंसे चारके बाल-बच्चे भी थे। लड़कियाँ दोनों कुँआरी थीं। सबसे छोटे लड़केका ब्याह कुछ ही दिन पहले हुआ था। उसकी स्त्री अभी मैके (पीहर) में ही थी। इस प्रकार दोनों लड़कियोंको मिलाकर घरमें कुल सात स्त्रियाँ थीं। वे चाहतीं तो सब मिलकर घरका काम-काज अच्छी तरह कर सकती थीं, परन्तु उनकी आपसमें बनती न थी। वे एक-दूसरीसे जला करती थीं और घरके काम-काजसे जी चुराती थीं। उनमेंसे प्रत्येक यही चाहती कि उसे कम-से-कम काम मिले और अधिक-से-अधिक आराम मिले। आये दिन उनमें तू-तू, मैं-मैं हो जाया करती थी, घरमें अशान्ति और कलहका साम्राज्य था। इसी परिस्थितिमें सबसे छोटे लड़केकी स्त्री भी अपने मैकेसे आ गयी। वह उत्तम घरानेकी लड़की थी। उसे बचपनसे ही बड़ी अच्छी शिक्षा मिली थी। वह अपनेको उस क्षुब्ध वातावरण में पाकर घबरा उठी। अपनी सास और जिठानियोंको आपसमें लड़ते-झगड़ते देख वह एक दिन रो पड़ी और अत्यन्त आर्त होकर मन-ही-मन भगवान्से प्रार्थना करने लगी-'प्रभो ! क्या यही सब देखने-सुनने के लिये मुझे आपने इस घरमें भेजा है? यहाँ तो मैं एक दिन भी न रह सकूँगी। मुझे रात-दिनका झगड़ा अच्छा नहीं लगता। न जाने मैंने पिछले जन्मोंमें ऐसे कौन-से दुष्कर्म किये हैं, जिनके कारण मेरा इस घरमें ब्याह हुआ है?' रोते-रोते उसकी आँख लग गयी। उसे स्पष्ट सुनायी दिया मानो उसे कोई सान्त्वनापूर्ण शब्दोंमें कह रहा है- 'बेटी ! घबरा मत, इस घरका सुधार करनेके लिये ही तुझे यहाँ भेजा गया है। तुझ जैसी लड़कीकी यहाँ आवश्यकता थी। '
इन शब्दोंको सुनकर छोटी बहूको बड़ी सान्त्वना मिली। उसकी सारी घबराहट जाती रही। उसने मन-ही-मन अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। उसने कलहका मूल जानना चाहा। उसे मालूम हुआ कि उसकी सास और जिठानियों तथा ननदोंने आपसमें घरका काम बाँट लिया है। सास और ननदें ऊपरका काम करती थीं और बहुएँ पारी - पारीसे भोजन बनातीं । अन्य सभी कामोंके लिये भी पारी बाँध ली गयी थी, परन्तु यदि उनमेंसे दैवात् कोई बीमार हो जाती तो दूसरी बहुएँ उसके बदलेका काम करनेमें आनाकानी करतीं। वे उसपर बहानेबाजीका आरोप करतीं और अनेक प्रकारका आक्षेप करतीं। लड़ाईका दूसरा कारण यह होता कि जब कभी घरमें बाहरसे कोई खाने-पीनेकी चीज आती तो सब की सब यह चाहतीं कि अच्छी-से-अच्छी चीज अधिक-से-अधिक मात्रामें मुझे मिले। बस, इसीपर झगड़ा शुरू हो जाता और आपसमें गाली-गलौजतककी नौबत आ जाती। कभी-कभी मामूली बातोंको लेकर बखेड़ा खड़ा कर लिया जाता। यदि कभी एक भाईका लड़का दूसरे भाईके लड़केसे लड़ पड़ा तो इसीपर दोनोंकी माताएँ एक-दूसरीको खूब खरी-खोटी सुनातीं। इन सब बातोंको देखकर छोटी बहूको बड़ा दुःख हुआ। जिस दिन उसने भगवान्का आदेश सुना, उसी दिनसे वह झगड़ा मिटानेका उपाय सोचने लगी। उसने सोचा कि भगवान्ने इसी बहाने उसे सेवाका बड़ा ही सुन्दर अवसर प्रदान किया है। वह एक दिन चुपकेसे अपनी सबसे बड़ी जिठानीके पास गयी। उस दिन उसकी सबेरे रसोई बनानेकी पारी थी। उसने जिठानीसे कहा- 'जिठानीजी ! मैं आप सबसे छोटी हूँ। मेरे रहते आप रसोई बनायें- यह उचित नहीं मालूम होता। फिर आपको तो बाल-बच्चोंकी भी सँभाल करनी पड़ती है। मेरे जिम्मे और कोई काम है नहीं। इसलिये बड़ा अच्छा हो यदि आप अपनी रसोई बनानेकी पारी मुझे दे दें। मैं आपका बड़ा उपकार मानूँगी।' जिठानी पहले तो बड़ी देर तक आनाकानी करती रही। वह बोली- 'बहू ! अभी तो तुम्हारे खाने-पहननेके दिन हैं। जब कुछ सयानी हो जाओ, तब चूल्हा फूँकनेके काममें पड़ना। अभी कुछ दिन आराम कर लो, गृहस्थीका सुख भोग लो। आखिर तो यह सब करना ही है।' छोटी बहूने कहा- 'जिठानीजी ! मैं आपके पैरों पड़ती हूँ, मुझे इस तरह निराश न करें। यही दिन तो मेरे काम करनेके हैं। अभीसे मुझे आपलोग आरामतलब बना देंगी तो आगे जाकर मैं किसी कामकी न रह जाऊँगी। अवश्य ही मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया है, जिसके कारण मुझे आप अपने अधिकारोंसे वंचित कर रही हैं। ' यह कहकर वह रोने लगी। अब तो जिठानी और अधिक उसकी बातको टाल न सकी। उसने अपनी पारी उसे दे दी। इस प्रकार क्रमशः उसने सभी जिठानियोंसे अनुनय-विनय करके उन सबकी पारी ले ली। यह काम अपने जिम्मे लेकर वह इतनी प्रसन्न हुई मानो उसे कोई निधि मिल गयी हो। वह प्रतिदिन सबेरे बड़े चावसे सबके लिये रसोई बनाती और सबको खिला-पिलाकर अन्तमें स्वयं भोजन करती। उसे ऐसा करनेमें तनिक भी थकान नहीं मालूम होती, बल्कि उसे इसमें बड़ा सुख मिलता। वह दिनों-दिन दूने उत्साहसे इस कामको करने लगी। वह रसोई भी बहुत अच्छी बनाती और फुर्तीसे बनाती। बात-की-बातमें बहुत-सी सामग्री तैयार कर लेती। यदि कभी कोई मेहमान आ भी जाते तो वह उकताती न थी। उन्हें भी बड़े प्रेमसे भोजन कराती, क्योंकि वह इसमें अपना लाभ समझती थी। उसकी इस अद्भुत लगन एवं सेवाभावको देखकर सभी कोई उसकी प्रशंसा करने लगे। एक दिन उसकी सास उसके पास आयी और बोली-'बेटी! तूने यह क्या किया? सबकी पारी अपने जिम्मे क्यों ले ली?' उसने बड़ी नम्रतासे उत्तर दिया- 'माताजी ! मेरे माता-पिताने मुझे यही शिक्षा दी है कि यह शरीर तो एक दिन मिट्टीमें मिल जानेवाला है, इसलिए इसे अधिक-से-अधिक दूसरोंकी सेवामें लगाना चाहिये। यही इसका सबसे अच्छा उपयोग है। सेवा ही सबसे बड़ा धन है। अतः आपसे भी मेरी यही प्रार्थना है कि आप मुझे इस कामके लिये बराबर उत्साह दिलाती रहें।' उसका यह उत्तर सुनकर सास चकित हो गयी। उसने सोचा यह तो कोई देवी है, किसी मानुषीका ऐसा सुन्दर भाव हो ही नहीं सकता।
दूसरे दिन ससुरजी बहुओंको देनेके लिये बहुत-सी साड़ियाँ लाये उन्होनें प्रत्येक बहूको वर्षभरके लिये बारह-बारह साड़ियाँ दीं। छोटी बहू अपने हिस्सेकी साड़ियोंमेंसे दो साड़ियाँ लेकर अपनी सबसे बड़ी जिठानीके पास गयी और विनयपूर्वक बोली- 'जिठानीजी ! मुझे यहाँ आते समय पिताजीने बहुत-सी साड़ियाँ दी थीं। मेरा उनसे अच्छी तरह काम चल सकता है। आप मुझपर दया करके ये दो साड़ियाँ अपने लिये रख लीजिये। मुझे इससे बड़ा सुख मिलेगा और मैं आपका बड़ा अहसान मानूँगी।' जिठानीने बहुत आनाकानी की, परन्तु उसका अत्यधिक आग्रह देखकर वह उसे अस्वीकार न कर सकी। इसी प्रकार आग्रह करके उसने दो-दो साड़ियाँ अपनी अन्य जिठानियोंको तथा दो अपनी सासको दीं और एक-एक साड़ी अपनी ननदोंको दे दी। उसके इस औदार्यपूर्ण व्यवहारकी भी सबके मनपर गहरी छाप पड़ी। सासके पूछनेपर उसने कहा- 'माताजी ! कार्यमें भी आपकी मदद एवं प्रोत्साहन चाहती हूँ। शरीरकी भाँति ये मैं वस्त्र आदि भी क्षणभंगुर हैं। इनका संग्रह आत्मकल्याणमें बाधक है। इस जीते-जी मोह एवं आसक्ति आदिके कारण इनमें फँसावट हो जाती है और मरते समय भी यदि इनमें मन अटका रहा तो प्रेत आदि योनियोंमें भटकना पड़ता है। सेवाके काममें लगना ही इन सबका सर्वोत्तम उपयोग है। नहीं तो एक दिन ये यों ही नष्ट हो जायँगी।' सास उसका यह उत्तर पाकर बहुत प्रसन्न हुई और उसकी भूरी-भूरी पशंसा करने लगी। इधर घरमें पैसा भी बढ़ गया। ससुरजीने प्रत्येक बहूको छः-छः गहने तैयार कराके दिये। छोटी बहूने अपने हिस्सेके गहनेको भी अपनी चारों जिठानियों और ननदोंमें बाँट दिया और • अपने लिये उसने एक भी न रखा। पूछनेपर उसने यही कहा कि 'मेरे पास अपने पिताजीके दिये हुए बहुत-से गहने पड़े हैं। मेरे लिये उतने ही पर्याप्त हैं।' इस प्रकार उसने अपने साधु व्यवहार एवं उदारता से सभीके हृदयमें स्थान कर लिया। सभी उससे अत्यधिक सन्तुष्ट थे।
फिर एक दिन मौका देखकर उसने अपनी बड़ी जिठानीसे सायंकालकी रसोई बनानेकी भी आज्ञा माँगी। उसने कहा-'मेरे रहते आप रसोई बनानेका कष्ट करें, यह मेरे लिये बड़ी ही लज्जाकी बात है।' वह इस प्रकार कह ही रही थी कि उसकी सास वहाँ आ पहुँची । वह बड़ी उत्सुकतासे अपनी बड़ी बहूसे पूछने लगी——यह किस बातके लिये आग्रह कर रही है?' जब उसे मालूम हुआ कि छोटी बहू सायंकालकी रसोई भी अपने ही हिस्सेमें कर लेना चाहती है, तब तो वह हँसकर बोली-'तुमलोग अपनी इस छोटी देवरानीसे सावधान रहना। यह तुमलोगोंसे वास्तविक लाभकी वस्तु ठग लेना चाहती है। ' बड़ी बहू सासके अभिप्रायको न समझकर बोल उठी- 'सासजी ! आप यह क्या कह रही हैं? आपकी छोटी बहू तो बड़ी ही साध्वी है, सब प्रकार प्रशंसाके योग्य है। इसके सम्बन्धमें आप ऐसी बातें कैसे कह रही हैं?' सासने कहा-'तुम समझी नहीं। यह हमलोगोंकी सेवा करके-हमें गहने-कपड़े तथा शारीरिक आराम आदिच्छ वस्तुएँ देकर बदलेमें तप आदि हमारी आध्यात्मिक कमाई-जो आत्मोद्धारमें सहायक है, हमसे छीन रही है। इससे बढ़कर ठगाई और क्या होगी? इसने मुझे एक दिन बताया था कि दूसरोंकी सेवा करनेसे अन्तःकरण शुद्ध होकर आत्मकल्याणमें समर्थ हो जाता है। इसने यह भी कहा था कि शुद्ध भावसे रसोईके रूपमें घरवालोंकी सेवा करनेसे एक ही सालमें कल्याण हो जायगा। इसलिये बहू ! सायंकाल रसोईका काम तो मैं अपने जिम्मे लूँगी। मुझे भी तो आत्माका कल्याण करना है। मैं ही उससे वंचित क्यों रहूँ?' सासकी यह बात सुनकर सबकी आँखे खुल गयीं। फिर तो सबको अपने-अपने कल्याणकी फिक्र पड़ गयी। कहाँ तो सब की सब कामसे जी चुराती थीं और छोटी बहूके एक समयकी रसोईका भार अपने सिरपर ले लेनेसे एक प्रकारके सुख एवं सुविधाका अनुभव करती थीं, इसके विपरीत अब सबने अपनी-अपनी सबेरेकी रसोई बनानेकी पारी छोटी बहूसे वापस ले ली। जहाँ कामको लेकर कुछ ही दिन पहले सबमें झगड़ा होता था, अब सब की सब बड़े उत्साह एवं दिलचस्पीके साथ अपने-अपने हिस्सेका काम करनें लगीं। छोटी बहूका उपाय काम कर गया।
जब छोटी बहूने देखा कि ये लोग कोई भी अब रसोईका काम मुझे नहीं सौपेंगी, तब उसने सेवाका दूसरा ढंग सोचा। उसने विचार किया कि घरमें रोज आठ-दस सेर आटेकी खपत है, वह सारा का सारा बाजारसे खरीदा जाता है। इससे तो अच्छा है कि मैं बड़े सबेरे उठकर स्वयं गेहूँ पीस लिया करूँ। इसमें तो कई लाभ हैं। जो आटा बाजारसे आता है, वह प्रायः पुराने घुने हुए गेहुँओंका होता है। उसमें मिट्टी मिली हुई रहती है। फिर मशीनी चक्कियोंमें जो आटा पिसता है, उसका सार मारा जाता है। वह स्वास्थ्यके लिये हानिकारक होता है। मेरी जिठानियोंने रसोईका काम तो मुझसे वापस ले लिया। अब आत्मकल्याणके लिये मुझे यही काम करना चाहिये। उसने तुरन्त यह प्रस्ताव अपने पतिके सामने पेश कर दिया। तुरंत गेहूँकी व्यवस्था हो गयी। बाजारसे आटा खरीदना बंद कर दिया गया। छोटी बहूने दिनमें गेहूँ साफ करके रख दिये और दूसरे दिन सबेरे ही मुँह-हाथ धोकर गेहूँ पीसनेके काममें जुट गयी। शरीर स्वस्थ एवं सबल था और मन उत्साहसे भरा था। काम करनेका अभ्यास था। बात-की-बातमें उसने आठ-दस सेर गेहूँ पीसकर रख दिये। सासको जब इस बातका पता लगा तो वह दौड़ी हुई छोटी बहूके पास आयी और बोली-'बहू ! यह आत्मकल्याणका कोई नया तरीका ढूँढ़ निकाला है क्या?' बहूने गद्गद स्वरमें कहा- 'माताजी! जिठानियोंने रसोईका काम तो मुझसे वापस ले लिया। इसलिये मुझे आत्मकल्याणका यह दूसरा मार्ग ढूँढ़ना पड़ा। इसमें शारीरिक श्रम अधिक है। इसलिये जहाँ आध्यात्मिक लाभके लिये रसोईका काम करनेसे सालभरमें आत्माका कल्याण होता, वहाँ आटा पीसनेसे छ: महिनोंमें काम बन जायगा। फिर इसमें दुहरा लाभ है। आत्माका कल्याण तो होता ही है, साथ-ही-साथ शारीरिक व्यायाम भी हो जाता है, जिससे शरीरमें फुर्ती और बल आता है तथा शरीर नीरोग रहता है। इससे गर्भवती स्त्रियोंको प्रसव भी जल्दी और सुखपूर्वक होता है। घरवालोंको शुद्ध आटा मिलता है, जिससे उनके स्वास्थ्य और मन दोनोंपर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इन सब कारणोंसे यह काम मेरे लिये अत्यन्त श्रेयस्कर है। आशा है, आप मेरे इस काममें मेरी सहायता करेंगी। अब तो सास अपनी छोटी बहूको गुरुवत् मानने लगी। उसकी एक-एक बात उसको सारगर्भित प्रतीत होने लगी। वह उसके प्रत्येक कार्यको गौरवकी दृष्टिसे देखने लगी और स्वयं भी उसीका अनुकरण करनेकी चेष्टा करने लगी। जहाँ छोटी बहूने पहले दिन सबेरे छः बजे आटा पीसनेका कार्य आरम्भ किया था, वहाँ सास दूसरे दिन पाँच ही बजे उस काममें जुट गयी। उसकी देखा-देखी तीसरे दिन दूसरी बहूओंने चार ही बजे उस कामको शुरू कर दिया। इस प्रकार पहले जहाँ वे सब-की-सब कामसे जी चुराती थीं। अब उन सबमें काम करनेकी होड़-सी होने लगी। सभी चाहती थीं कि मुझे अधिक-से-अधिक काम करनेके लिये मिले, क्योंकि सबको आत्मकल्याणके दर्शन होते थे। छोटी बहूकी यह दूसरी विजय थी।
अब छोटी बहूने कमरे साफ करने तथा कुएँसे पानी खींचकर लानेका काम अपने जिम्मे ले लिया। सबेरे नौकर झाडू लगाने तथा पानी भरने आता तो उससे पहले ही यह सारा काम स्वयं कर लेती। सासने उससे फिर पूछा—'बेटी ! इस कामके करनेमें तुम्हारा क्या अभिप्राय है?' छोटी बहूने बड़े ही मधुर स्वरमें कहा- 'माताजी ! आपको इन सब बातोंका भेद बतला देनेसे सेवासे वश्चित होना पड़ता है। इसलिये अब मैं इसका रहस्य आपको नहीं बतलाना चाहती। इस अविनयके लिये आप मुझे क्षमा करें।' सासने कहा-'बेटी ! अब मैं तेरे कार्यमें बाधा नहीं डालूंगी। तू मुझे इसका आध्यात्मिक रहस्य समझा दे।' बहूने कहा-'सासजी ! जहाँ रसोईका काम करनेसे सालभरमें और आटा पीसनेका काम करनेसे छः महिनोंमें आत्मकल्याण होता है, वहाँ पानी भरनेकी सेवासे तीन ही महीनोंमें काम बन जायगा, क्योंकि यह काम उन सबकी अपेक्षा अधिक कठिन है। इसमें श्रम एवं कष्ट अधिक है तथा जानकी भी जोखिम है।' फिर क्या था, सास भी उसके इस काममें हाथ बँटाने लगी। दोनोंका उसमें साझा हो गया। दूसरी बहुओंने यह देखकर साससे कहा-'आपकी अवस्था अब पानी भरने लायक नहीं है। इसलिये यह काम आपको नहीं करना चाहिये।' इसपर सासने उन्हें उत्तर दिया- 'क्या मुझे आत्मकल्याण नहीं चाहिये? मैं वृद्धा हूँ, इसलिये मुझे तो जल्दी-से-जल्दी आत्माका कल्याण कर लेना चाहिये।' फिर क्या था, दूसरी बहुएँ भी इस काममें शामिल हो गयीं। अब छोटी बहूने बर्तन माँजनेका काम अपने जिम्मे लिया। सासने इसपर आपत्ति की। वह बोली- 'इससे तुम्हारे कपड़े खराब होंगे और आभूषण घिस जायँगे। इस प्रकार महीनेमें जहाँ तुम नौकरकी मजदूरीके पाँच रुपये बचाओगी, वहाँ उसके बदलेमें तुम्हारा दस रुपयोंका नुकसान हो जायगा।' इसपर बहूने कहा- 'माना कि ऐसा करनेसे आर्थिक लाभकी अपेक्षा हानि ही अधिक होगी, किन्तु मेरे कपड़े चाहे मैले हो जायँ, मेरा अन्तःकरण तो इससे बहुत जल्दी शुद्ध होगा। बात यह है कि जो काम जितना कठिन और लौकिक दृष्टिसे जितना नीचा होता है, आध्यात्मिक दृष्टिसे वह उतना ही ऊँचा और कल्याणकारक होता है। बर्तन माँजनेसे मुझे विश्वास है कि दो ही महिनोंमें मेरा कल्याण हो जायगा। और यदि कभी भगवान् ऐसा संयोग भेज दें, जब किसी रोगी की टट्टी-पेशाब उठाना पड़े, तब तो एक ही महीनेमें कल्याण निश्चित है। अवश्य ही भाव हमारा ऊँचे-से-ऊँचा-पूर्ण निष्कामताका होना चाहिये।'
सासकी तो छोटी बहूके वाक्योंमें अब वेदवाक्योंके समान श्रद्धा हो गयी थी। वह भी बर्तन माँजनेके काममें उसे सहयोग देने लगी। अन्य बहुओंने उसे मना किया। उसने कहा- 'अपने लड़कोंके बर्तन तो मैं अवश्य ही माँज सकती हूँ। फिर वृद्धावस्थाके कारण मेरा आत्मकल्याणके साधनमें सबसे अधिक अधिकार है। इसलिये इस विषयमें तुम्हारा आग्रह नहीं माना जा सकता।' फिर तो सब की सब बहुएँ उसी काममें जुट गयीं। सब काम बड़े उत्साहसे होने लगे। काम-काजकी जो पारी बाँध ली गयी थी, वह टूट गयी। जो मौका पाती, वही आगे-से-आगे काम करनेको तैयार रहती। सबमें परस्पर प्रेम और सद्भावकी स्थापना हो गयी। जिस घरमें कलह और अशान्तिका एकछत्र साम्राज्य था, वही अब सुख-शान्तिका निकेतन हो गया। जो लोग यहाँकी स्त्रियोंको लड़ते-झगड़ते देखकर हँसते थे, वे ही उनका आदर्श व्यवहार देखकर आश्चर्य करने लगे। शहरके लोग दर्शकरूपसे उन लोगोंका व्यवहार देखने आने लगे। स्त्रियोंके इस आदर्श व्यवहारका पुरुषोंपर भी कम प्रभाव नहीं पड़ा। इनकी देखा-देखी वे सब भी आलसी हो चले थे। अब इनका आदर्श व्यवहार देखकर वे सब भी कर्तव्यपरायण हो गये थे। जहाँ पहले दूकानका काम प्रायः चढ़ा रहता था, वहाँ अब कामकी अपेक्षा काम करनेवाले अधिक हो गये। जहाँ उनमें पहले कामसे जी चुरानेके कारण झगड़ा होता था, वहाँ अब वे सब-के-सब एक-दूसरेका काम छीनकर करने लगे। जहाँ पहली लड़ाई नरकोंमें ले जानेवाली थी, वहाँ यह दूसरी लड़ाई कल्याण करनेवाली थी। कहना न होगा कि यह सब परिवर्तन छोटी बहूके सद्भाव, सद्विचार और सच्चेष्टाओंका सत्फल था। जिस प्रकार एक मछली सारे तालाबको निर्मल कर देती है, उसी प्रकार एक ही महान् एवं पवित्र आत्मा घरबार ही नहीं, मुहल्ले, गाँव और नगरभरका सुधार कर देती है। संगकी ऐसी ही महिमा है। सभी माता-बहिनोंको इस आख्यायिकासे शिक्षा लेकर आत्माके कल्याणके लिये निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवाका व्रत ले लेना चाहिये। ऐसी सेवा बहुत शीघ्र मुक्तिका कारण बन जाती है-
'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।'
(गीता २/४०)
अर्थात्- इसलिये इस निष्काम कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा भी साधन, जन्म-मृत्युरूप महान् भयसे उद्धार कर देता है।
श्रीमद्भगवद्गीतामें ऐसे अनेकों वाक्य मिलते हैं, जिनसे इस बातकी पुष्टि होती है। श्रीभगवान् कहते हैं-
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
(गीता ५/१२)
अर्थात्- कर्मयोगी कर्मोंके फलको परमेश्वरके अर्पण करके भगवत्प्राप्तिरूप शान्तिको प्राप्त होता है।
असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः ।
(गीता ३/१९ )
अर्थात्- आसक्तिसे रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
(गीता १८/५६)
अर्थात्- मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है।
इस दृष्टांत से यह शिक्षा मिलती है कि घरमें इस प्रकारका व्यवहार करने लग जायँ तो जल्दी ही घरका सुधार होकर सबका उद्धार हो सकता है और अब यह भी बताया जाता है कि किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये।
सासको बहूके साथ प्रेमका व्यवहार करना चाहिये और बहूका पक्ष लेना चाहिये। बहूको खुश रखनेकी चेष्टा करनी चाहिये । बहूका कर्तव्य है कि वह सासको अपनी माँ से भी बढ़कर समझे और जितनी भी उम्रमें बड़ी स्त्रियाँ हैं उन सबको पूज्य समझकर श्रद्धा एवं उत्साह पूर्वक नमस्कार, • सेवा भगवद्बुद्धिसे करनी चाहिये जो ऐसा करती हैं उनकी आत्मा शुद्ध होकर कल्याण हो जाता है। समान आयुवालोंसे प्रेमके साथ स्वार्थका त्याग करके व्यवहार करना चाहिये। ऐश-आरामको ठुकरा देना चाहिये। घरमें जो छोटे बाल-बच्चे हैं उनसे प्रेमका व्यवहार करना चाहिये । कोई बाहरसे चीज आवे तो पहले दूसरोंके बच्चोंको बढ़िया तथा ज्यादा देनी चाहिये, अपने बच्चोंको जो बची हुई है उसमेंसे थोड़ी चीज देनी चाहिये।
विधवा माताओंकी विशेष रूपसे सेवा करनी चाहिये। इस प्रकार सेवाका व्यवहार करनेसे मुक्ति अपने आप ही हो जाती है। कर्तव्य समझकर सेवा करनी चाहिये। महात्माकी तरह रहना चाहिये यानी त्याग, वैराग्यसे रहना चाहिये ।
सुहागनके लिये पतिकी तथा सास-श्वसुरकी सेवा तो है ही । साथ ही विधवा स्त्रीके भजन- ध्यान तथा तपस्यामें विघ्न तो डालना ही नहीं चाहिये बल्कि मदद ही करनी चाहिये। ऐसी स्त्रियोंके दर्शन पवित्र करनेवाले तथा लाभ दायक हैं। अपने बालकोंको अच्छी शिक्षा देनी चाहिये। जो घरमें पढ़ा लिखा समझदार हो वह तो गीताजी, रामायणजी, महाभारत आदि कोई भी ग्रन्थ पढ़े और सभी कथाका श्रवण करें। स्त्रियाँ स्वार्थका त्याग करके व्यवहार करें, पुरुष भी स्वार्थका त्याग करके व्यवहार करें तो वह घर स्वर्गसे भी बढ़कर हो जाय। परहितके समान कुछ भी नहीं है। श्रीतुलसीदासजीने कहा है-
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड ४१ / १ )
परहित बस जिन्हके मन माहीं ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
(रा.च.मा. अरण्यकाण्ड ३१/९)
परहितके समान कोई भी संसारमें धर्म नहीं तथा दूसरेका अनिष्ट करनेके समान कोई पाप नहीं है। जिनके मनमें परहित है उनके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
इस बातको ध्यानमें रखकर सबकी सेवा करनेमें अपना जीवन बिताना चाहिये। सबकी सेवा भगवान्की ही सेवा है। इस प्रकार भगवान्की आज्ञा समझकर सेवा करनेसे बड़ी प्रसन्नता होती है। तथा सेवा करनेवालेकी आत्माको भी बड़ा आनन्द मिलता है। ऐसा करनेपर हँसते-हँसते भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकारका -मनको जिनका जीवन है, वे ही धन्य हैं जिन्होंने दूसरोंकी सेवामें तन- लगा दिया वे ही धन्य हैं।
किसीके भी अवगुणोंको नहीं कहना चाहिये, अवगुणोंमें मौन ही रहना चाहिये। किसीकी चुगली, निन्दा नहीं करनी चाहिये। उनके सच्चे गुणोंका गान ही करना चाहिये। इस प्रकार गुणोंके गानसे दूसरों की आत्मा खुश होती है और भगवान् भी खुश हो जाते हैं। इस प्रकार जिनका जीवन बीतता है वे धन्य हैं। लक्ष्मणजीको माता सुमित्राने कहा- बेटा, सीता माताके समान और राम पिताके समान हैं यही मेरा उपदेश तथा आदेश है। ऐसी ही शिक्षा हमें अपने बच्चोंको देनी चाहिये। घरमें एक ही महात्मा हो जाता है तो सबकी आत्मा खुश हो जाती है। लड़कों (बच्चों) को ऐसी शिक्षा देनी चाहिये जिससे उनका कल्याण हो जाय ऐसी माताका उद्धार हो जाता है। कहा भी है-
जननी जने तो भक्त जन के दाता के शूर ।
नाहीं तो रह बांझड़ी मती गँवावे नूर ॥
के तो जननी भक्त जन- जैसे भक्त प्रहलाद के दाता- जैसे कर्ण, ऋषि दधीची, उशीनर के शूरवीर, नहीं तो तू बाँझ ही रह।
माता मदालसा अपने पुत्रको उपदेश देती है-
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि संसारमाया परिवर्जितोऽसि ।
संसारस्वतं त्यज मोहनिद्रां मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् ॥
माता मदालसा अपने पुत्रसे कहती है कि तू शुद्ध-बोध स्वरूप है, निराकार स्वरूप है, संसारकी मायाको त्यागकर जीत ले और संसारके स्वप्नको त्यागकर मोहनिद्रासे उठ ।
इसी विषयमें मेनावती अपने लड़के गोपीचन्दसे कहती है- राज छोड़कर तू तपस्या कर, योगी बन। चार दिनकी चाँदनी फिर अँधेरी रात, अभिप्राय यह है कि तेरा जीवन चार दिनका है, तू भगवान्का भजन कर। भक्तिका उपदेश देनेवाली माता सुमित्रा धन्य है। ज्ञानका उपदेश देनेवाली माता मदालसा धन्य है। योगका उपदेश देनेवाली माता मेनावती धन्य है। ऐसी शिक्षा देनी चाहिये जिससे अपने पुत्रका कल्याण हो जाय ।
अपना व्यवहार स्वार्थको त्यागकर होना चाहिये। इससे आत्मा शुद्ध हो जाती है और जल्दी ही उद्धार हो जाता है। इस प्रकारका व्यवहार करना चाहिये और आदर्श बननेकी कोशिश करनी चाहिये। ऐसा व्यवहार करना चाहिये जिसको देखकर दूसरोंपर उस व्यवहारकी छाप पड़े। खेद है कि इन सब बातोंको सुनकर भी विश्वास नहीं करते। सुनकर काममें लें तो इसका परिणाम तो अच्छा है ही, फिर इसको काममें लेनेसे प्रसन्नता होती है। इस प्रकार हँसते-हँसते व्यवहार करना चाहिये, शरीर नाशवान है, जब तक है तब तक ही काम ले लेना चाहिये नहीं तो फिर पछताना पड़ेगा।
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ॥
(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा-४३)
इसलिये जब तक प्राण हैं तब तक जिस कामके लिये आये हो उस कामको कर लेना चाहिये। यह मनुष्य शरीर आत्माके उद्धारके लिये मिला है, भोगोंके लिये नहीं, भोग तो पशु भी भोगते हैं। यदि हम इस प्रकारका शरीर पाकर विषय-भोगोंमें समय व्यतीत कर देंगे तो पछताना पड़ेगा। अतः जिस कामके लिये मनुष्य शरीर मिला है उस कामको कर लेना चाहिये।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...