तीर्थोंमें सावधानीकी बातें
पहले तो इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि हम जिस कार्यके लिये आये हैं पहले उसको करना चाहिये। मानव शरीरकी सार्थकता भगवत्प्राप्तिमें ही है। यदि भगवान् हमें बन्दर या शूकर- कूकर आदि योनियोंमें जन्म दे देते तो क्या करते? प्रभुने कृपा करके मानव शरीर दिया अतः इसका उचित उपयोग करना चाहिये। तीर्थोंमें आये हैं, यहाँ आकर भी यदि कार्य सिद्धि नहीं की तो फिर कहाँ होगी? तीर्थोंमें बड़ी सावधानी रखनी चाहिये। यहाँ किया गया थोड़ा पाप भी बड़ा हो जाता है और थोड़ा पुण्य भी अनन्त फलवाला हो जाता है। पुण्य दिन अमावस्या, पूर्णमासी आदि दिनोंमें दान-पुण्य करना चाहिये। तीर्थोंमें दान देना, श्राद्ध करना, ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे अनन्त गुणा लाभ होता है। दान तीन प्रकारका होता है सात्त्विक, राजस और तामस। गीताजीमें भगवान्ने कहा है-
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सत्त्विकं स्मृतम् ॥
(गीता १७ /२०)
अर्थात्- हे अर्जुन ! दान देना ही कर्तव्य है, ऐसे भावसे जो दान देश, काल और पात्रके प्राप्त होनेपर, प्रत्युपकार न करनेवालोंके लिये दिया जाता है, वह दान तो सात्त्विक कहा गया है।
दान देना ही कर्तव्य है, ऐसा सोचकर बिना फलकी इच्छासे देश, काल और पात्रका विचारकर जो दान दिया जाता है वह सात्त्विक दान कहलाता है। देश, काल और पात्र दो तरहसे होते हैं। एक तो तीर्थस्थान आदिमें दान देना और दूसरा जो अभावग्रस्त हो उसे देना। यही बात पात्र और कालके सम्बन्धमें भी समझनी चाहिये। उत्तमकाल, व्रत आदिका दिन, व्यतीपात और सुन्दरयोग, सुन्दरपात्र, सदाचारी ब्राह्मणको। दूसरी बात अभावग्रस्तकी है, जिस देशमें जिस समयमें जिस मनुष्यके पास जिस वस्तुकी कमी हो उसे वही देना। जैसे मारवाड़ में अकालके समय अन्न और जलकी व्यवस्था करना। क्योंकि उसके बिना जीव मर रहे हैं उस समय उत्तम पात्र और कालका विचार नहीं करना चाहिये। ऐसे ही गायोंका पालन करना, घास-जलकी व्यवस्था करानी। इस प्रकार जिसके पास जिस वस्तुकी कमी हो उसे वह वस्तु देना सात्त्विक दान है। फिर अन्न और वस्त्र तो सबको ही जिसके पास न हो, देना ही चाहिये । प्यासेको पानी, बीमारको औषधि, विद्यार्थीको पुस्तक, जलकी कमीके स्थानमें प्याऊ लगाना आदि निष्कामभावसे किया हुआ दान सात्त्विक दान कहलाता है। अपने पास काम करनेवाले जैसे नौकर, रसोइया आदिको दिया हुआ दान सात्त्विक नहीं है, सात्त्विक वही है जिसमें किसी प्रकारकी बदलेकी इच्छा नहीं है। त्यागी ब्राह्मणके घरपर पहुँचाया गया दान अमृतके समान है और लेनेवालेको भी अमृत है।
न माँगा सो दूध बराबर, माँग लिया सो पानी ।
खैंचा तानी रक्त बराबर, यह सन्तोंकी वाणी ॥
जो माँगने (लेने) आता है उसे दान देना चाहिये। जो तंग करके दान माँगता है वह रक्तवत् है। बिना माँगा दान अमृतके समान है और माँगा हुआ मृतदान है। ब्राह्मणोंकी जीविकाके लिये मनु महाराजने उपाय बतलाये हैं- दान लेना, अध्यापन और यज्ञ कराना। इनमें दान लेना नीचा माना गया है। विद्यालयके लिये दान देना, चन्दा देना इन सभीमें यही बात है।
आज कल तो चन्दोंमें बड़े झगड़े होते हैं। देनेवाला कम देना चाहता है और लेनेवाला अधिक लेना चाहता है यह तामसी दान है। उत्तम बात तो वह है कि लेनेवाला देनेवालेसे उसके विचारके अनुसार कम लेवे। इसी कारण यहाँ तक होता है कि चन्देवालोंको देखकर लोग भीतर चले जाते हैं। खर्च अधिक नहीं करना चाहिये कम-से-कम खर्चसे अपना काम चलाना चाहिये। यहाँ सत्संगमें आकर किया हुआ अधिक खर्च भी सत्संग पर ही लादा जायेगा यानी सत्संगमें जानेसे अधिक खर्च होनेपर कहेंगे कि सत्संगमें खर्चा ज्यादा होता है इसलिये सत्संगमें नहीं चलेंगे और इससे आगे आनेमें कठिनता हो सकती है इसलिये अपने लिये भी कम खर्च करना चाहिये।
दान इस प्रकार लेना चाहिये जिससे देनेवालेकी देनेकी और भी इच्छा बनी रहे। तीर्थ स्थानोंमें दिया हुआ दान थोड़ा किया हुआ भी बहुत होता है। तीर्थ स्थानोंमें भजन-साधन खूब करना चाहिये। दान, तीर्थ, व्रत और उपवाससे भजन- ध्यान करना उत्तम है। इसमें किसी प्रकारकी हिंसा होनेकी संभावना नहीं है। पुण्य कार्योंमें जैसे कुआँ खुदवाना, बावड़ी खुदवाना, यज्ञ करना इनमें कुछ न कुछ हिंसा होती ही है क्योंकि सर्वारम्भा हि दोषेण (गी. १८/४८) समस्त कार्योंके आरम्भ दोष सहित ही उत्पन्न होते हैं ऐसा विचार कर भजन- ध्यान करना चाहिये। भजन-ध्यान करना तो शास्त्र और युक्तिसंगत भी है, इसमें किसी प्रकारकी हिंसाकी सम्भावना नहीं है। यदि भजन-ध्यान निष्कामभावसे किया जाय तो उसके समान दूसरा साधन नहीं है। जीभके जपसे मनका जप अधिक महत्त्वका है, मनसे जो संकल्प किया जाता है उस सबमें भगवान्का स्मरण और चिन्तन होना मानसिक जप है।
भजन-ध्यान करते समय ऐसा समझना चाहिये कि भगवान् सामने खड़े हुए हैं। भगवान्के मस्तक पर नाम लिखा है इस प्रकार ध्यान करनेसे बड़ा लाभ होता है। साधारण जपसे मानसिक जप हजार गुणा है, वह भी यदि निष्कामभावसे किया जावे तो जल्दी ही परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। यहाँ गंगा किनारे आकर तप करना और नीयत ठीक रखकर संयम रखना चाहिये। दिनमें दो बार भोजन करना और इसके अलावा कुछ भी नहीं लेना चाहिये और दो वस्त्र पहनना (बाहर भीतर मिलाकर)। यदि सर्दियोंमें दो वस्त्रसे काम नहीं चले तो तीन वस्त्र ले लेना चाहिये। भोजनमें दो चीज खानी अधिक- से-अधिक तीन (यानि भोजनमें दो या तीन तरहकी चीज ही एक समयके भोजनमें खानी चाहिये।) यह संयम तपका एक अंग है। इसी प्रकार एकादशीके व्रतमें भी एक बार फलाहार करके रहना चाहिये, एकादशीके दिन अन्न नहीं खाना चाहिये। एकादशीका उत्तम व्रत तो निर्जल रहना और उससे नीचा जल पीकर रहना, उससे नीचा दूध और फल लेना, उससे नीचा फलाहार कर लेना है। एकादशीके दिन अन्न खाना तो बड़ा बुरा है। एकादशीके व्रतके पहले दिन एक समय भोजन करना चाहिये। एकादशीके दिन झूठ, कपट, चोरी, हिंसा आदि कर्मोंको नहीं करना चाहिये। दोनों दिन ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिये। धर्मपालनके लिये कष्ट सहकर भजन करें, नियमोंका पालन करना चाहिये इसमें त्याग-ही-त्याग है और मनको संकल्पसे रहित करें। भगवान्ने गीताजीके सतरहवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें इसे मानसिक तप कहा है-
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥
(गीता १७/१६)
अर्थात्- मनकी प्रसन्नता और शान्तभाव एवं भगवत्-चिन्तन करनेका स्वभाव, मनका निग्रह और अन्तःकरणकी पवित्रता, ऐसे यह मनसम्बन्धी तप कहा जाता है।
मनकी प्रसन्नता और सौम्यताके लिये मौन और संयमित रहना चाहिये एवं भावकी शुद्धि रखनी चाहिये यह मानसिक तप है। इस प्रकार तप करनेसे हिंसाका त्याग होता है। जो वाणीका तप है वह भी उत्तम चीज है, भगवान्ने गीताजीके अध्याय 17 श्लोक 15 में कहा है कि ऐसे वचन बोलना चाहिये जिससे किसीको दुःख नहीं हो।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥
(गीता १७/१५)
अर्थात्- जो उद्वेगको न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है और जो वेद-शास्त्रोंके पढ़नेका एवं परमेश्वरके नाम जपनेका अभ्यास है, वह निःसन्देह वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है।
सत्य, प्रिय और हित करनेवाले और जो किसीको उद्वेग पैदा न करे ऐसे वचन बोलने चाहिये और अभ्यास भी करना चाहिये। इस प्रकार वाणीके संयमसे उनकी वाणी सिद्ध हो जाती है। वह जो कुछ कहता है वही होता है। पंतजली महाराज भी योगदर्शनमें कहते हैं- “सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्” यह तो मामूली बात है सत्य बोलनेवालेके वशमें भगवान् भी रहते हैं, किसी सन्तने कहा है-
सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप ।
जाके हृदय सांच है ताके हृदय आप ॥
इसलिये सत्य बोलना चाहिये। यहाँ (तीर्थोंमें) पाप करनेसे पाप भी महान् हो जाते हैं अतएव पाप नहीं करना चाहिये। जिस प्रकार महात्माओंका सत्कार करनेसे पुण्य और तिरस्कार करनेसे पाप होता है एवं तुलसीजीमें जल डालनेसे पुण्य और पेशाब करनेसे पाप होता है ऐसे जिनमें पुण्य महान् करनेकी शक्ति होती है वह पापको भी महान् (ज्यादा) कर देते हैं, अतएव छोटा पाप भी नहीं करना चाहिये। किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करनी चाहिये, ऐश-आराम छोड़कर तप करना चाहिये। किसीकी सेवा करते हुए भगवान्की ही सेवा समझकर करना चाहिये। यहाँ सब समय भजन-ध्यानमें लगाना चाहिये। इस प्रकारसे सब कर्म एक-एक भी परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले हैं। भगवान्ने गीताजीमें अध्याय 4/28 में कहा है कि द्रव्ययज्ञ और तपोयज्ञ ये सात्त्विक होने चाहिये, कितने ही लोग द्रव्ययज्ञ करते हैं कोई तपयज्ञ करते हैं कितने ही योगयज्ञ और स्वाध्याय रूपी ज्ञानयज्ञ करते हैं, इन सबमें परमात्माका ध्यान और सत्संग बड़े कामकी चीज है। सत्संग करना वृक्षमें जल सींचनेके समान है, स्वाध्याय करना वृक्षके लिये कुँएमें से जल खींचकर देना है और शुद्ध गंगाजल मिले इससे भला और क्या लाभ हो। गंगाजल तो अपने हाथका जल है अतएव सत्संग रूपी गंगाजलसे भगवान्के भजन रूपी वृक्षको सींचना चाहिये। भजन- ध्यानसे जो समता होती है वह वृक्षका बढ़ना है और भगवत् प्राप्ति होना वृक्षका फल पाना है। इस प्रकार सब बातें विचारकर एक मिनट भी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये। ऊँचे-से-ऊँचा काम है भजन-ध्यान करना, दूसरा सत्संग- स्वाध्याय करना, तीसरा दीन-दु:खियोंकी निष्कामभावसे सेवा करनेसे अन्तःकरण शुद्ध होता है। जितना-जितना जिसका निष्कामभाव होगा वह उतना ही ऊँचा होगा। यहाँ पर हम घर छोड़कर आये हैं इसलिये हमें ऊँचे-से-ऊँचा लाभ उठाना चाहिये।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...