Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

सुन्दर व्यवहारकी कल्याणकारी अनमोल बातें

प्रवचन नं० 9
दिनांक 30-04-1952स्वर्गाश्रम

प्रश्न- विधवाओंको आदर्श बननेके नियम बतलाइये।

उत्तर- विधवाओंको आदर्श बननेके लिये जो धर्म-शास्त्रों में लिखा है उनके अनुसार अपने जीवनको बिताना चाहिये। मनुस्मृतिके 5 वें तथा 9 वें अध्यायमें एवं महाभारतके शान्तिपर्व तथा अनुसाशन- पर्वमें जो इनके नियम हैं और भी पहले जितनी विधवाओंने जिस प्रकार जीवन बिताकर भगवान्‌की प्राप्ति की है उसी प्रकार ही अपना जीवन बिताना चाहिये। शास्त्रोंमें यह भी बात आती है यदि विधवाके कोई पुत्र हो तो वह उसीके आधीन [पास] रहे। शास्त्रोंमें यह बात आई है कि लड़कीका जबतक विवाह नहीं हुआ है तब तक पिताके अनुकूल तथा विवाहके बाद पतिके आधीन रहें, पतिकी मृत्यु हो जानेपर पुत्र हो तो पुत्रके ही अनुकूल रहे। यहाँ शंका होती है कि माँ के अनुकूल पुत्रको रहना चाहिये और आप कहते हैं कि माताको पुत्रके अनुकूल रहना चाहिये। यह परस्पर भेद किस तरह है, तो यहाँ कहनेका यह मतलब है कि माताका जीवन जिस किसी प्रकार भी सुखमय बीते उसी प्रकार ही उनके जीवनको सुखमय बिताने की चेष्टा पुत्रको करनी चाहिये। पुत्रके अनुकूल रहनेका इसलिये कहा है कि माताओंमें बुद्धि तथा ज्ञानकी कमी रहती है और [समझदार तथा सयाने] पुत्रमें ज्यादा रहती है इसलिये पुत्रके अनुकूल रहनेकी बात कही गई है। विधवा माताएँ स्वतन्त्र न विचरें। यदि वह बाहर जावें तो पुत्रके अनुकूल रहें यानी पुत्रसे पूछकर ही इधर-उधर जावें । पुत्र घरमें रहे तो माँ की आज्ञाका पालन करता हुआ जीवन बितावे । स्वतन्त्रतासे माताको अकेली बाहर नहीं घूमना चाहिये, घरमें रहकर घरके कार्यको करना चाहिये। अपनेमें कमकसपना (काम नहीं करनेका स्वभाव) नहीं आने देना चाहिये।

अपना मन बुद्धिको सिखा देता है कि काम करनेसे भजनमें बाधा आती है ऐसा मन बुद्धिको सिखाकर एकान्तमें ले जाकर अपनेको दोनों तरफके कार्यसे वंचित कर देता है। मनकी बातको कभी भी नहीं मानना चाहिये। मनकी बात पर कभी ध्यान देना ही नहीं चाहिये। भजन- ध्यानमें आलस्य तथा स्फुरना ये दो प्रबल शत्रु आते हैं। अपनी इच्छा पूर्तिके लिये मन एकान्तमें ले जाता है पर भजन-ध्यान करना तो मनका स्वभाव ही नहीं है। मन अपना मतलब गांठने [निकालने] के लिये बुद्धिको भी साथ ले लेता है और भीतरमें उसका यही प्रयोजन रहता है कि मैं इसको कामसे हटाकर सदाकी तरह अपनी मन-मानी करूँगा। दूसरी बात यह है कि भगवान्ने गीताजीमें यह कहा है कि

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।

मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥

(गीता १८/५६)

अर्थात्- मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन, अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है।

एकान्तमें साधन करनेसे जो चीज मिलती है वही सदा कर्म करते-करते मिल जाती है। गोपियोंकी भगवान्ने प्रशंसा की है, वे काम करते वक्त भगवान्‌को याद करती रहती थीं। गोपियाँ काम काज छोड़कर एकान्तमें भजन-ध्यान कब करती थी? कभी नहीं। अर्जुनको भी भगवान् आज्ञा दे रहे हैं- तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च । (गीता 8/7) अर्थात्- हे अर्जुन ! तू हर वक्त निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर जब भगवान्‌को याद करते हुए युद्ध हो सकता है तो यह समझमें नहीं आता कि काम करनेके साथ भगवान्‌का भजन (स्मरण) क्यों नहीं हो सकता है। यह मनका पाजीपन है यही खराबी है।

निःस्वार्थभावसे दूसरोंकी सेवा शुश्रूषा करनी चाहिये। एकान्तमें यदि ध्यान लगे तो और भी श्रेष्ठ है। स्त्रियोंको घरमें रहकर कुन्तीकी तरह जीवन बिताना चाहिये। महाभारतके आदर्श चरित्रोंमें कुन्तीका भी चरित्र है, वह आदर्श विधवा रही थी । कुन्तीकी तरह घरका काम निःस्वार्थभावसे करना चाहिये। बिना काम किये अन्न खाना हितकर नहीं है बल्कि हरामी (आलसी) बनानेवाला है ऐसा समझना चाहिये, चाहे वह बाप या पतिका दिया हुआ ही क्यों न हो। परिश्रम करके खाना आदर्श तथा उच्चकोटिकी चीज है। आलस्य करना तथा हरामीपन करना खराब ही है। बैठकर [बिना परिश्रम या काम किये बिना ] खानेकी अपेक्षा परिश्रम करके खाना बड़ा ही लाभदायक है। घरमें बेटेकी बहू हो तो भी सासको अपना काम तो करना ही चाहिये। हमारे मामाजी अपने आप ही अपनी धोती [अपने कपड़े] धोते थे। अपनी स्त्री तथा लड़कोंसे भी अपना काम नहीं करवाते थे, यह उनकी विशेष प्रसंशनीय बात है। घरवालोंका काम स्त्रीको ही अपने शरीरसे करना चाहिये। काम न करनेसे तो कमकसपनेका दोष आ जाता है, खूब उत्साहसे काम करनेपर आत्मा शुद्ध हो जाती है तथा निष्कामभावसे सेवा करनेसे तुरन्त ही भगवत् प्राप्ति हो जाती है। काम तो ऐसे करें ताकि घरवाले यह समझें कि यह काम करना तो इसका स्वभाव ही है। घरमें कोई कहे माताजी आप भजन करो यह काम तो हम करेंगे तो उस बातको विषके समान माननी चाहिये क्योंकि आरम्भमें तो यह बात मीठी लगती है किन्तु नतीजा खराब होता है। 5 मिनट भी खाली नहीं रहना चाहिये। बुद्धिसे परमात्माका निश्चय करके तदनुसार मन और वाणीके द्वारा भगवान्का जप करना तथा सबको नारायणका स्वरूप समझकर हाथ [शरीर] आदिसे सबकी सेवा करनी चाहिये। एक होद [पानीका टेंक] में लगातार यदि 4 धारासे जल पड़े तो वह तुरन्त ही भर जाता है, उसी प्रकार उपर्युक्त चारों बातोंको कायम रखना चाहिये। इसके समान कोई भी साधन नहीं है। मैं यदि काम छोड़कर जप, ध्यान आदि करूँ तो कोई रोकनेवाला भी नहीं है, हमारे पास पैसे तो हैं ही, उसकी तो कमी है ही नहीं यदि 5 आदमी और आ जावें तो भी सबका काम चल सकता है, भूमिकी भी कमी नहीं है, घरमें यह कहनेवाला भी कोई नहीं है कि यह क्या करते हो, बाधा पहुँचानेवाली भी कोई बात नहीं है, जगहकी भी कोई कमी नहीं है फिर भी हम शरीरसे काम करते हैं और करना भी चाहिये। घरके सभी सदस्योंको घरको साफ रखना चाहिये और घरके सभी पदार्थोंकी सम्हाल रखनी चाहिये, खर्च कम करना चाहिये। शास्त्रविहित कम दामोंकी चीज [वस्तु] का सेवन करना चाहिये। शास्त्रविहितमें सात्त्विक उनमें भी कम खर्चसे काम निकालना चाहिये। लहसुन-प्याजका तो पूरा का पूरा त्याग कर देना चाहिये। सात्त्विकमें दूध महँगा होता है तो दूधका सेवन महँगा होनेसे नहीं करना चाहिये। जैसे फल सात्त्विक होते हैं पर महँगे होते हैं तो इनका भी रईसों [ धनी व्यक्ति नाना पदार्थ खाने-पीनेमें व्यतीत करता है] तथा बीमार व्यक्तियोंके लिये त्याग कर देना चाहिये। रईस [धनी] व्यक्ति भी एक तरहसे बीमार ही है। जो दिनमें एक बार ही भोजन करें तो वह मर नहीं जाता है। मैं तो थोड़ा ही खाता हूँ फिर भी खटने [काम करने] -के लिये तैयार रहता हूँ [ यानी यह नहीं समझना चाहिये कि कम खानेवाला काम नहीं कर सकता ]। जो ज्यादा खाता है वह तो एक प्रकारसे अन्नका नाश ही करता है। ज्यादा खानेसे पाचन शक्ति भी खराब होती है इसलिये ज्यादा खानेमें तो कोई फायदा है ही नहीं। यद्यपि मैं दूध लेता हूँ, तो यह मेरी मन्दाग्निका कारण है, जितना अन्न कम खाया जाय उतना ही ठीक है। भगवान्ने गीताजीमें कहा है-

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥

(गीता ६/१७)

अर्थात्- यह दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करनेवालेका तथा कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका और यथायोग्य शयन करने तथा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है।

पाव भर की भूख हो तो 3 छटांक ही खाना चाहिये। 5 छटांक खाना तो मूर्खता ही है। मन इन्द्रियोंका संयम रखना चाहिये। राग-द्वेष आदि सभी दुर्गुणोंका तथा दुराचारोंका त्याग कर देना चाहिये।

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

(गीता २/५७)

अर्थात्- जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ, उस-उस शुभ तथा अशुभ वस्तुओंको प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।

ये सब बड़ी ही दामी बातें हैं इनकी ओर ध्यान देना चाहिये। हमारेमें खास जो दोष है वह आसक्ति है। आसक्तिको त्यागकर विषयोंमें विचरण करना मुक्तिका देनेवाला है। यही बात गीताजी में है-

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।

निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥

(गीता २/७१)

अर्थात्- जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर, ममतारहित और अहंकाररहित स्पृहारहित हुआ बर्तता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है।

संसारके विषय-भोग साँपके समान हैं। साँपके दाँत या विष निकाल दें फिर चाहे उसे गलेमें भी क्यों न डाल दो कुछ भी बिगाड़ नहीं होता है। उसी प्रकार मनुष्यमें भी अंहता और ममता तो विषय-भोगोंके दाँत हैं तथा उसमें जो रस आता है वही विष है अतः इन विषय-भोगोंको साँप समझकर इनका त्याग कर देना चाहिये। यदि घरमें साँप हो तो कम-से-कम उसके दाँत तो काट ही देना चाहिये। आसक्तिके समान कोई भी अहितकर नहीं है, सब अनर्थीका मूल आसक्ति ही है।

एकान्तमें बैठकर चाहे रात्री हो या प्रात:काल हो जब भी कोई काम नहीं हो तो बैठकर भगवान्का जप ध्यान और स्वाध्याय करना चाहिये। यदि मनको भगवान्‌में लगाकर काम करें तो हरवक्त भगवान्‌की स्मृति बनी रह सकती है। जिस प्रकार दोपहरका भोजन शाम तक तथा शामका भोजन सारी रात्री भर तक ताकत देता रहता है, उसी प्रकार ही सुबहका भजन-ध्यान, कीर्तन दोपहर तक तथा शामका भजन-ध्यान सारी रात्री तक अपना प्रभाव रखता है। ऐसा करनेपर अच्छे स्वप्न तथा अच्छी स्थिति भी रखता है। दिनभर उन बातोंका मनन रखें। जिन्होंने एकान्तमें भगवान्‌के ध्यानकी जैसी स्थिति बनाई है उसके अनुसार मनके द्वारा भगवान्का चिन्तन और वाणीके द्वारा जप तथा सबमें भगवद्बुद्धि करके निष्कामभावसे सबकी सेवा करनी चाहिये। उत्तम गुण तथा आचरणोंको अमृत समझकर इनको पी जावें। अच्छे आचरणोंका ही सेवन करें।

विधवा स्त्रीको ब्रह्मचर्यका पालन अवश्य करना चाहिये। स्त्रियोंको पर-पुरुषकी तरफ देखना ही नहीं चाहिये। कपड़े सादा पहनना चाहिये, मोटा कपड़ा पहनना चाहिये, किन्तु मैला कपड़ा नहीं पहनना चाहिये। श्रृंगार करनेवाली स्त्रियोंके पास तो भटकना [जाना] ही नहीं चाहिये। शृंगारको प्लेगकी बीमारीकी तरह समझे। यदि किसीसे बात भी करे तो उनको पिताके समान समझें। सब प्रकार से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। प्राण भले ही चले जायँ किन्तु झूठ कभी भी न बोले। छिपाव तो उनका करना चाहिये जो भीतरमें गुण, वैराग्य आदि हैं इनको ही गुप्त रखना चाहिये। आचरणके उद्देश्यको भी छुपाकर रखें, जो कोई दूसरी स्त्री पालन करना चाहे तो बता दें किन्तु मैं ऐसा करती हूँ ऐसा कभी भी न कहे। उत्तम आचरणोंका सेवन करना चाहिये। व्रत, उपवास तथा ध्यान तो करना ही चाहिये। रात्री भरका समय सोनेमें जाता है उसे ध्यानमें लगावें [ यानी सोते समय भगवान्‌का ध्यान करके सोवे तो वह पूरी रात्री भरका ध्यान हो जाता है]। एकान्तमें विशेषतासे भजन-ध्यानमें जोर लगावें ।

अर्थ भाव पूर्वक जप तथा पाठ करनेसे तो 50 वर्षमें होने वाली सिद्धि 6 महीनोंमें हो जाती है। व्यवहार कालमें भी बड़ी सावधानी रखें कि कहीं कुछ हमसे गलत कार्य तो नहीं हो रहा है। भगवान् के भजन - ध्यान करनेमें अपनी सब ताकत लगा दें। दुर्गुण- दुराचारका तो नाम भी कानोंसे न सुने, दुर्गुणोंको तो हटानेकी चेष्टा करनी चाहिये। दूसरेकी निन्दा भी नहीं सुननी चाहिये, सभी बुराइयोंसे तो बचनेकी ही चेष्टा करनी चाहिये। आसुरी सम्पदा ही दुर्गुण - दुराचार की खान है, आसुरी सम्पदा तो राक्षसी है और पापकी ही थैली है। गीताजीमें भगवान्ने कहा है-

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ॥

(गीता १६/४)

अर्थात्- हे पार्थ! पाखण्ड, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान भी यह सब आसुरी सम्पदाको प्राप्त हुए पुरुषके लक्षण हैं।

इसके अलावा भी भगवान्ने गीताजीके अध्याय 16 श्लोक 7 से लेकर अध्याय समाप्ति तक वर्णन किया है जो कि गीतामें देखना चाहिये। अपनेमें भी काम, क्रोध आदि जो दुर्गुण हैं उनको हटाने की चेष्टा करनी चाहिये और किसीकी भी हिंसा नहीं करनी चाहिये एवं मादक वस्तुओंका सेवन भी नहीं करना चाहिये। बुरे भाव तथा बुरे कामोंका तो पूरा त्याग कर देना चाहिये और सद्गुणोंको ग्रहण करना चाहिये। स्त्रियोंको कुन्तीकी तरह जीवन बिताना चाहिये। कुन्तीके जीवनमें यदि प्रवेश करें तो रोमांच होने लग जाय । कुन्तीने तो हद कर दी। जब कुन्ती बालिका थी तब उसने बालकपनमें महाक्रोधी ऋषि दुर्वासाकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर दिया था। क्रोधीकी सेवा बड़ी ही कठिन है। कुन्ती वसुदेवजीकी बहिन तथा राजा शूरसेनकी लड़की राजा भोजके गोद ली हुई थी। कुन्तीका जीवन त्यागमय था । जब युद्धमें पाण्डवोंकी विजय हो गई तब कुन्ती राजमाता हो गई और जब धृतराष्ट्रने वनमें जानेका विचार किया व गान्धारी साथमें है तब भी कुन्तीने अपना जीवन उनकी सेवामें बिताया था। जिस कुन्तीके साथ धृतराष्ट्रने बिल्कुल खराब व्यवहार किया और जब पाण्डवोंकों वनवास हुआ तब कुन्ती रोती रही और धृतराष्ट्र आदि किसीने आसरा नहीं दिया, वही कुन्ती आज अपने जेठ-जेठानीकी सेवामें वनमें साथ जा रही है। कुन्तीके व्यवहारकी तरफ देखो वह महलमें रहती तो भी एकान्तमें भजन करती और जब धृतराष्ट्र वनमें जा रहे थे तब सभी ऐश-आरामको ठुकराकर उनके साथ खुद भी वनका रास्ता तय कर लिया। अपने जेठ-जेठानीकी सेवाके लिये वनमें जा रही है, त्यागका आदर्श जीवन था कुन्तीका । वह घरमें थी तब घरका काम करती हुई राम-नाम जपती थी, जब कुन्तीपर भगवान् प्रसन्न हुए और भगवान्ने कहा कुन्ती वर माँगो, तब कुन्तीने कहा जब-जब हमारे पर आपत्ति आई तब-तब मैंने आपका स्मरण किया और सुखमें आपका स्मरण नहीं हुआ अतः आप मुझे दुःख ही दीजिये जिससे मैं आपको कभी भी भूलूँ नहीं।

सुखके माथे सिल पड़े, जो नाम हृदयसे जाय ।

बलिहारी वा दुःख की, जो पलपल नाम जपाय ॥

यह आदर्श जीवनकी बात बतलाई और विधि भी बतलाई । जीवन किस प्रकार बिताना चाहिये यह बात भी बतलाई ।

प्रश्न- कोई हमारेपर अत्याचार करे तो हमें क्या करना चाहिये?

उत्तर- जैसा बर्ताव कुन्तीका बताया है उस माफ़िक करने से किसीकी भी सामर्थ्य नहीं कि वह उसपर अत्याचार करे। कुन्तीपर अत्याचार हुए तो वह उन्हें भुलाकर उनकी सेवा ही किया करती थी, सेवासे ही अत्याचारियोंका सुधार हो सकता है। अत्याचारियोंका सुधार करना विशेष महत्त्वकी बात है।

उत्तर- दुःखको बर्दास्त करनेसे ही आत्मबल प्राप्त होगा।

प्रश्न- दुःखमय जीवनमें आत्मबल कैसे आ सकता है? दुःखमें भगवान्‌की कृपा ही कृपा समझनी चाहिये तथा भगवान्से दुःखकी माँग पेश करनी चाहिये। सुखकी माँग करना सकामभाव है और दुःख माँगना निष्कामभाव है। दुःखमें ही भगवान्‌की स्मृति रहती है अतः दुःखको, अत्याचारको भगवान्‌की कृपा तथा दया ही समझना चाहिये।

प्रश्न- हम उनके अत्याचारोंसे इतनी दब गई हैं कि कुछ भी नहीं कह सकती हैं। बोलना तो हमारा बिलकुल ही बन्द हो गया है।

उत्तर- स्त्रीको तो सेवा ही करनी चाहिये। दबनेकी बात कही, सो दबना नहीं चाहिये। बड़े प्रेमसे, बड़ी ही नरमाईसे बोलना चाहिये, इसमें ही शोभा है। शरीरके क्लेशके लिये जो दूसरे लोग खराब व्यवहार करते हों तो परमात्माकी ही दया मानकर खुश होना चाहिये। मीराबाईका आदर्श मानना चाहिये। मीरा पर जितना अत्याचार होता था वह उतनी ही खुश होती थी, फलत: आखिर में उसका देवर भी मीराका दास हो गया। मीराकी कथा प्रसिद्ध है, मीराको मारनेके लिये कितने-कितने षडयन्त्र किये, फूलोंकी मालाके नामसे साँपका पिटारा भेजा, पिटारा खोला तो साँपका फूलोंकी माला बन गई। मीराको विषका प्याला भेजा, जैसे भक्त प्रहलादके भी विष भेजा तो वह पी गया इसी प्रकार मीरा भी विष पी गई। शेरको मीराके सामने भेजा, मीराने नरसिंह भगवान् मानकर शेरका स्वागत किया फिर मीराने भगवान्की पूजा की और माला पहनाई लोग देखते ही रह गये, राजाने भी देखा शेरने भी माला पहन रखी है, भोग [प्रसाद] लगाया हुआ खा रहा है यह देखकर राजा मीराका सेवक बन गया। इसी प्रकार अच्छा व्यवहार करनेका दूसरोंपर भी प्रभाव पड़ता है। अच्छे आदर्श, सुन्दर व्यवहारकी छाप सबपर पड़ती है। सुन्दर व्यवहारसे भगवान् खुश होते हैं और वे अपने भक्तकी रक्षा करते हैं। शास्त्र विरुद्ध और अनुचित व्यवहारकी बातें किसीकी भी न मानें।

प्रश्न- हम सादगीसे जीवन किस प्रकार बितावें।

उत्तर- गरीब घरकी स्त्रीकी तरह सादगीसे रहना चाहिये। मोटा कपड़ा, मोटा खाना सादगीसे रहना और सबसे प्रेमसे बोलना, सफाई रखना एवं अपने कपड़े साफ रखना चाहिये। इस प्रकार समय बिताना चाहिये। तथा सबकी सेवा भी करनी चाहिये। सेवा कुन्तीके माफ़िक करनी चाहिये तथा मीराकी तरह जीवन बिताना चाहिये। हमने यह बातें कह दी अब हृदयमें धारण करना तो आपकी इच्छापर ही निर्भर करता है, यदि इस प्रकार काम करो तो ईश्वरकी प्राप्ति हो सकती है।

घरवालोंको छोड़कर साधन करना तो कामसे जी चुराना है। घरवालोंको अत्याचारी बनाया है यह तो भगवान्‌की विशेष कृपा ही जाननी चाहिये। कबीरजी तो अपनी निन्दा करनेवालोंको ही अपने पास रखते थे। यह क्या कोई मामूली बात है। उनका व्यवहार बड़ा ही सुन्दर था इस कारण ही लोगोंपर उनका प्रभाव पड़ा। कबीरजीके द्वेषियोंने सोचा इनको बदनाम करें ताकि इनकी बदनामी हो जाय तो हमारी प्रतिष्ठा होने लग जाय, साधु समाजमें नीचे दर्जेके साधुओंमें यह भाव रहता है कि हम बड़ोंको मार दें या बदनाम करके हम बड़े हो जायँ, ऐसे ही उन्होंने एक वेश्याको तैयार करके भेजा, तो वह वेश्या बीच बाजारमें कबीरजीसे कहती है घरका खर्च नहीं भेजते हो, तो कबीरजी कहते हैं तुम घरपर ही रहो। कबीरजीने कोई सफाई नहीं दी कि हम वेश्याके पास नहीं जाते या इस वेश्याको नहीं जानते, वह वेश्याकी बातको स्वीकार कर लेते हैं। यदि इस तरहका मौका मिले ईश्वरकी ही कृपा समझनी चाहिये।

स्त्रियोंको व विधवा बहनोंको अकेली रहनेका विचार तो कभी करना ही नहीं चाहिये। गृहस्थमें रहकर सादगीसे रहकर भगवान् के भजन- ध्यानमें जीवन बिताना चाहिये।

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥

(गीता ४ / १९)

अर्थात्- हे अर्जुन ! जिसके सम्पूर्ण कार्य कामना और संकल्पसे रहित हैं ऐसे उस ज्ञानरूप अग्निद्वारा भस्म हुए कर्मोंवाले पुरुषको ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं।

जिनकी सारी [सब] चेष्टाएँ सुचारु रूपसे हो रही हैं, ऐसे पुरुषको ज्ञानी भी पंडित कहते हैं। यह उसकी विशेषता बतलाई है।

स्त्री यदि कठिनाइयोंको समझकर उसको सहन करती हुई भगवान्का नाम-जप करे तो वह धन्य है। निष्कामभावसे सेवा करनी चाहिये और किसीको कहना नहीं चाहिये कि मैं निष्कामभावसे सेवा कर रही हूँ। सिरपर भगवान्‌का हाथ समझकर प्रसन्न होना चाहिये और अपने ऊपर भगवान्की दया ही समझनी चाहिये। पीहर या ससुरालको जावे तो किसीको अपने साथ ले जावें, अकेली रहना तो बिल्कुल खराब है। अकेली रहना तो भगवत् प्राप्तिमें बाधक है। स्त्रियोंको स्वतन्त्रासे नहीं रहना चाहिये, यह बात त्रिकालज्ञ ऋषि-मुनि भी कहते हैं। ऋषियोंने यह नियम स्त्रियोंके हितके लिये ही बतलाया है।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...