Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

सत्संग करें पर एकान्तमें भजन-ध्यानका साधन करना उत्तम है

प्रवचन नं० 6
दिनांक 08-05-1952स्वर्गाश्रम, वटवृक्षके नीचे

वैराग्यकी बात श्रीस्वामीजीने बड़े सुन्दर ढंगसे कही, सबके कहनेका ढंग अलग-अलग होता है। किसीने निष्कामभावसे परमात्माकी प्राप्तिकी बात कही, किसीने अध्यात्म विषयकी फायदेकी बढ़िया-बढ़िया बातें कही, किसीने अपनी मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा पानेके लिए व्याख्यान दिया, सबने पृथक्-पृथक् अपने-अपने ढंगकी बातें सुनाई। इन सबमें नीचे दर्जेकी बात मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा चाहनेवालेकी है, इसमें न तो श्रोताको फायदा और न वक्ताको । न तो वह अपना ही जीवन सुधारता है न दूसरोंका। फिर भी वक्ता अपनी मान-बड़ाई एवं प्रतिष्ठा होनेकी ही बातें सुनाते हैं। यह मान, बड़ाई एवं प्रतिष्ठाक बात कब होती है? जब अपनेमें देहाभिमान रहता है। यह देहाभिमान अनादिकालसे चला आ रहा है यही कारण है कि श्रोतापर सत्संग सुनकर सत्संगका प्रभाव नहीं पड़ता। इससे तो यही ठीक है कि एकान्त स्थानमें व्यक्तिगत रूपसे भजन-ध्यान एवं कीर्तन आदि करे। जो एकान्तमें भजन- ध्यान एवं कीर्तन आदि करता है उसमें उसको तो फायदा होता ही है साथमें दूसरों पर भी बड़ा भारी असर पड़ता है । पूर्वकालमें ऋषिलोग और मुनिलोग एकान्तमें जाकर तपस्या करते थे। उस स्थानका एवं वहाँके वायुमण्डलका इतना प्रभाव था कि जो भी वहाँ जाता उसके ऊपर उसका असर पड़ता। जहाँ वे महात्मा लोग ध्यान लगाते थे उससे दूर तक एक दम शान्ति रहती थी। उतनी जगहमें रहनेवालोंका काम, क्रोध, एवं वैरभाव बिलकुल शान्त हो जाता। विचार कीजिये हमलोग वर्षोंसे यहाँ आकर आपलोगोंको सत्संगकी बातें सुनाते एवं सुनते हैं, विचारसे मालूम होता है कि हम बहुत सुनते हैं इसका फल अवश्य होना चाहिये, किन्तु मैं देखता हूँ कि हमलोगोंमें कुछ भी सुधार नहीं हो रहा है, खास करके मैं वक्ता हूँ इसलिये इसकी जिम्मेवारी मेरेपर ही है, मेरा ही दोष है कि जिसके कारण आपलोगोंका सुधार नहीं होता। हमलोगों का यह दोष क्यों नहीं हटता इसपर विचार करना चाहिये। बहुतसे दोषोंमें यह भी एक बड़ा भारी दोष है कि हम मान बड़ाईकी चाहना करते हैं, ईश्वरसे यह प्रार्थना करें कि हे भगवन् ! यह दोष हमारेमें प्रवेश कर गया है आप ही इसको दूर करनेमें समर्थ हैं। इसलिये प्रभो ! इस अवगुण को हटा दीजिये। यदि हम कातर भावसे प्रार्थना करेंगे तो भगवान् अवश्य इस दोषको हटा देगें।

यह मान—बड़ाईका दोष ईश्वरकी भक्ति करनेसे शीघ्र ही दूर हो जाता है। मनमें श्रद्धा होनी चाहिये यदि श्रद्धा हो तो फिर सब ठीक हो जाता है। श्रद्धासे भक्ति होती है एवं भक्तिसे साक्षात् भगवान् दर्शन दे देते हैं। स्तुति एवं प्रार्थना करना यह तो नीचे दर्जेकी चीज है।

कोई वक्ताका प्रेमी - सज्जन यह कहे कि सुननेवाले ध्यानसे एवं प्रेमसे नहीं सुनते एवं उनमें आपके प्रति श्रद्धाकी कमी है। इसलिये उनमें सुधार नहीं होता किन्तु वक्ताको यह बात नहीं माननी चाहिये और वक्ताको भी ऐसा कहना ठीक नहीं है।

विचार करना चाहिये कि यह श्रद्धा कैसे हो? वक्ता एवं श्रोता दोनोंमें ही श्रद्धा होनी चाहिए। बात यह समझमें आती है कि यदि वक्तामें श्रद्धा हो तो फिर श्रोतामें भी हो जाती है। श्रद्धासे सब कुछ हो जाता है, इतना प्रभाव है श्रद्धा का। मैं तो एक साधारण आदमी हूँ। सभी लोग यह जानते हैं कि एक पत्थरकी मूर्तिमें श्रद्धा की जाय उसमें यदि भगवद्बुद्धि की जाय तो कार्य-सिद्धिमें विलम्ब हो ही नहीं सकता यानी उस पत्थरकी मूर्तिमें भी भगवान् प्रकट हो जाते हैं क्योंकि परमात्मा सबमें व्यापक हैं इसलिये मूर्तिमें भी हैं ही। उस पत्थरमें न तो चेतनता है न अन्तःकरण किन्तु जो श्रद्धा कर लेता है तो फिर सिद्धिमें सन्देह है ही नहीं । यद्यपि हमलोगोंमें कोई अन्तर्यामी नहीं है, किन्तु लोग यह मान ले कि स्वामीजी (श्रीरामसुखदासजी महाराज) अन्तर्यामी हैं, मुझको भी मान लें कि यह अन्तर्यामी हैं किन्तु वास्तवमें हम अन्तर्यामी नहीं हैं फिर भी श्रोता यह भाव रखते हैं कि ये अन्तर्यामी हैं तो श्रद्धा होनेके नाते व मान लेनेसे उनको वही फायदा होगा जो फायदा परमात्माको अन्तर्यामी माननेसे होता है। जब श्रद्धा, प्रेम ज्यादा होता है तो ऐसा भाव अपने आप ही हो जाता है, सबमें श्रद्धाकी आवश्यकता है। परमात्मा अन्तर्यामी हैं वे समानभावसे सबमें हैं वे जिनमें श्रद्धा एवं प्रेम देखते हैं उसकी सिद्धि कर देते हैं। यह बात शास्त्रसंगत है कि मनुष्य जिस-जिस भावको लेकर भगवान्‌की उपासना करते हैं भगवान् उसी भावनाको पूर्ण कर देते हैं। गीताजीमें भगवान् कहते हैं-

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।

लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥

(गीता ७/२२)

अर्थात्- वह पुरुष उस श्रद्धासे युक्त हुआ उस देवताके पूजनकी चेष्टा करता है और उस देवतासे मेरेद्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगोंको निःसन्देह प्राप्त करता है।

भगवान् स्वयं उसकी मनोकामनाकी पूर्ति करते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान्‌को भक्तकी श्रद्धाकी पूर्ति करनी पड़ती है जैसे कोई पुत्रके लिये देवताकी उपासना करता है और उसको यदि पुत्र प्राप्ति हो जाती है तो उसे भगवान्‌का भेजा हुआ ही मानना चाहिये। देवताओंमें तो अपनी कुछ शक्ति है नहीं, सब भगवान्‌की शक्तिसे होता है। संसारमें कामनाकी सिद्धि भगवान्‌के द्वारा ही होती है इसलिये श्रद्धालु आदमी यदि श्रद्धा करता है तो भगवान् ही उसकी पूर्ति करते हैं। हम किसीमें श्रद्धा करते हैं किन्तु उसमें कुछ भी प्रभाव (शक्ति) नहीं पर भगवान् उसकी जगह सब कुछ कर देते हैं। जैसे मान लो मैं महात्मा नहीं हूँ किन्तु मुझे दूसरे लोग महात्मा मान लें यदि उनकी श्रद्धा दृढ़ हो तो उनको वही लाभ होता है जितना कि असली महात्मासे लाभ होता है। श्रद्धालु पात्र न हो किन्तु महात्मा की कृपासे उसे फायदा होगा ही। यदि मैं महात्मा हूँ तो लाभ जरूर होता है। मैं वास्तवमें महात्मा हूँ किन्तु श्रोता श्रद्धालु नहीं तो श्रोतामें जितनी श्रद्धा कम या ज्यादा होगी उसीके अनुसार उसको लाभ होगा। वक्ता महात्मा हो एवं श्रोता जिज्ञासु हो तो शीघ्र ही फायदा होता है। श्रोता तो श्रद्धालु है किन्तु वक्ता महात्मा नहीं है तो भी श्रद्धालुको शीघ्र ही लाभ होगा। यदि दोनों ही ठीक हों, यानी महात्मा भी असली एवं श्रोता भी श्रद्धालु फिर तो मुक्तिमें संशय ही नहीं। वक्ता दम्भी-पाखण्डी हो तो श्रोता को नुकसान भी हो सकता है वह दम्भ एवं पाखण्डसे उसे फंसा भी सकता है। किन्तु जो श्रोता भगवान्पर निर्भर होकर भगवान्‌के लिये ही सब कुछ करता है तो भगवान् उसकी रक्षा करते हैं जैसे कालनेमिके चक्करमें हनुमानजी आ गये, परन्तु भगवान्ने उनकी रक्षा की, मकड़ीके द्वारा सब बात मालूम होनेसे हनुमानजीने कालनेमिको मार गिराया इस तरह भगवान्ने हनुमानजीकी रक्षा की। कहनेका मतलब भगवान् अपने भक्तकी सदा-सर्वदा रक्षा करते रहते हैं। इसी प्रकार हजारों आदमी ऐसे पाखण्डियोंके फन्देमें फंसे रहते हैं किन्तु भक्त जब फंसने लगता है तो भगवान्से देखा नहीं जाता, वे उसको बचा लेते हैं।

(मेरे द्वारा) जो बात आपको बताई जाती है उसमें बहुत तो गीताजीकी तथा कुछ सद्ग्रन्थोंकी एवं कुछ ऋषि-मुनियोंकी सुनाई जाती है जैसे भागवत, रामायण, महाभारत आदि इन ग्रन्थोंमें ऋषियों एवं महात्माओंके वचन हैं। मैं तो केवल इन्हींका अनुवाद कर देता हूँ, मैं अपनी ओरसे तो कुछ कहता नहीं। शास्त्रोंकी बातें श्रद्धा करनेयोग्य हैं, इनमें यदि हम श्रद्धा करेंगे तो आपका एवं मेरा दोनोंका ही कल्याण होगा। यह बात मैं जोर देकर कहता हूँ कि यदि इन बातोंको काममें लावें तो कल्याणमें कोई संशय नहीं। श्रद्धा होनी या न होनी यह आपके हाथकी चीज है क्योंकि मैं अपनी ओरसे कोई बात कहूँ तो उसकी सिद्धि होनेमें तो सन्देह भी हो सकता है। किन्तु यह सब बातें आपको शास्त्रोंकी बतलाई जाती है इनको व्यवहारमें लानेसे मुक्तिमें सन्देह हो ही नहीं सकता। मैं यदि यह कहूँ कि यह मेरी बात है इसको काममें लावो, उद्धार होगा, तब तो सन्देह भी हो, किन्तु जो बात धर्मग्रन्थोंमें हो उन बातोंको काममें लानेसे भगवत्प्राप्ति में कोई सन्देह नहीं है।

इन शास्त्रोंमें महापुरुषोंके वचन हैं और इनमें भी यदि आपको कोई बात न जँचे तो उसको छोड़कर जितनी बातोंपर आपकी श्रद्धा हो उतनी ही माननी चाहिये। उतनी ही बातोंसे आपका कल्याण हो सकता है। गीताजीमें 700 श्लोक हैं इन सारे श्लोकोंको काममें न ला सकें तो उनमेंसे 100 श्लोक ही काममें लाने चाहिये जिनपर आपकी पूरी श्रद्धा एवं प्रेम हो। यदि सौ श्लोक भी आप काममें न लावें तो एक श्लोक ही काममें लाइये। यदि एक श्लोक भी पकड़नेकी हिम्मत आपमें नहीं हो तो कम-से-कम श्लोक का एक चरण का भी पालन किया जाय तो मुक्तिमें कोई संशय नहीं। जैसे प्यासा व्यक्ति गंगाजीके एक लोटा जलसे तृप्त हो जाता है वैसे ही गीताजीके एक श्लोक के एक चरणसे मुक्त हो जाता है। मैंने एक चरणका कहा यदि कोई इसका पालन करे और जीवनमें उतारे तो मुक्तिमें कोई संशय नहीं। उसका शीघ्र ही उद्धार हो जाता है।

मेरे जो आचरण हैं उनको देखते हुए मैं यह नहीं कहता कि मेरे आचरणोंका पालन करनेसे आपका उद्धार होगा। यदि मेरे आचरण अनुकरणीय होते तो मुझे कहनेमें कोई संकोच नहीं होता। बुद्धिके द्वारा जो मेरी समझमें आता है वह मैं आपको कहता [सत्संग सुनाता ] हूँ किन्तु यह बात दावेके साथ कहता हूँ कि जो [सत्संगकी ] बात कहता हूँ उसका यदि पालन करो तो आपके एवं मेरे कल्याणमें कोई संशय नहीं। हाँ यदि मेरे आचरण देखो तो मैं आपके उद्धारके लिये नहीं कहता। हाँ यदि कोई श्रद्धा करे तो उसकी इच्छा है किन्तु मेरे आचरणोंसे किसीका कल्याण हो यह मैं दावा नहीं करता । श्रद्धासे सब कुछ हो जाता है, श्रद्धासे स्त्री अपने पतिसे लाभ उठा सकती है चाहे पति कामी, क्रोधी या लालची क्यों न हो। पत्थरसे भी कोई लाभ उठाना चाहे तो उठा सकता है किन्तु उसमें भी श्रद्धा रहनी चाहिये ।

एक बात तो आपको शास्त्रके आधारपर बताई एवं एक बात मेरे व्यक्तिगत आचरणकी । व्यक्तिगत आचरणमें यदि आप श्रद्धा करेंगे तो उसका जिम्मेदार मैं नहीं। भगवान् मेरेको पूछे कि क्या तेरे आचरण अनुकरण करनेसे कल्याण होगा? तो मैं क्या जबाब दूंगा। हाँ यदि मैं यह बात कहूँ कि आप भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके आचरणोंपर चलिये तो मेरी बात ठीक है। यदि आप उनके आचरणोंपर चलेंगे तो आपके कल्याणमें कोई संशय नहीं। इसी प्रकार महात्माओंकी बात है कलियुगमें जो महात्मा शरीर छोड़कर चले गये हैं उनमें जिनकी श्रद्धा थी या है वे भी उनके आचरणोंके अनुसार चलनेसे पार हो सकते हैं। शास्त्रोंमें उच्चकोटिके आचरण मिलते हैं, सतयुगमें स्वतः सबके ऊँचे आचरण थे। उनके भाव शुद्ध थे। वे अहिंसाके पालक थे। इसके बाद त्रेतामें थोड़े-थोड़े आचरण घटते गये। द्वापरमें और भी घट गये। अब कलियुगमें प्रायः एक दम सफाया-सा ही हो गया है। अब सर्वत्र पाप फैल गया है। अब ऊँचे आदमी देखनेमें बहुत ही थोड़े आते हैं, साधुओंको देखो तो उनका भी यही हाल है। आजके समयमें वास्तवमें यदि कोई कंचन एवं कामिनीका त्यागी साधु हो तो उसे महात्माके तुल्य मान सकते हैं। किन्तु इन दोनोंका त्यागी आजकल देखनेमें कम आते हैं। मान-बड़ाईके त्यागी तो प्रायः मिलेंगे ही नहीं, कोई गृहस्थी भी यदि न्याययुक्त कंचन एवं कामिनीका त्यागी हो तो हम उसे भी महात्माके तुल्य मानते हैं। न्याययुक्तका मतलब दूसरेकी स्त्रीकी तरफ ताके [देखे] ही नहीं, और अपनी स्त्रीसे शास्त्रानुकूल व्यवहार रखे तो वह महात्माके तुल्य है। वह दूसरेकी स्त्रीकी ओर देखे नहीं दिख जाये तो मातृभाव रखे, अपनी स्त्रीमें ममता एवं आसक्ति नहीं रखे और शास्त्रानुकूल व्यवहार रखे। यदि ऐसा व्यवहार करता है तो वह साधु ही मानने योग्य है। जो भगवत् प्राप्त है वह तो मुक्त है ही इसलिये आचरणके विषयमें मैं यह नहीं कहता कि मेरा आचरण करो तो आपका कल्याण होगा। हाँ यदि मेरे जो व्यवहार या आचरण जो आपको शास्त्रानुकूल दिखे तो उसके पालनमें कोई आपत्ति नहीं। शास्त्रानुकूल आचरण काममें लानेसे लाभ ही होता है किन्तु यदि शास्त्रविरुद्ध आचरण करोगे तो लाभके बदले हानि ही उठानी पड़ेगी। मेरा शरीर है यदि इसमें कोई श्रद्धा करे तो वह धोखेमें है।

आपको मेरे शरीर, वाणी, एवं आचरण इन तीनोंकी बात कही इनमेंसे मेरे शरीरमें पूज्यभाव नहीं रखें और यदि कोई पूज्यभाव रखता है तो वह गलतीमें है, उसके लिये मेरी यही सलाह है कि वह इस भावको हृदयमेंसे निकाल दे। वाणीसे तो मैं हितकी बात ही कहता हूँ, इसलिये इसकी तो मैं जुम्मेदारी भी ले सकता हूँ क्योंकि मैं शास्त्रकी ही बात कहता हूँ इसलिये मुझे कोई भय नहीं। तुलसीदासजीने भी कहा है-

सत्य बचन आधीनता, परतिय मात समान ।

इतनेमें हरि ना मिलें, तुलसीदास जमान ॥

सत्य, भगवान्‌की शरण एवं अहिंसा इन तीनोंके पालनसे उद्धार हो जाता है, इसमें कोई शंका नहीं किन्तु कलियुग आनेके कारण इनमेंसे केवल एक शरणसे ही भगवान्‌के परम-धाममें निर्विघ्न चले जा सकते हैं। शरणसे भगवान् बड़े खुश होते हैं, स्वयं भगवान्ने गीताजीमें कहा है-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥

(गीता १८/६२)

अर्थात्- हे भारत ! सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही अनन्यशरणको प्राप्त हो उस परमात्माकी कृपासे ही परमशान्तिको और सनातन परमधामको प्राप्त होगा।

कलियुगमें और सब छूट है केवल भगवान्‌की शरण हो जावो इससे ही कल्याण हो जायगा। यह बात तो ठीक है किन्तु यदि मैं यह कहूँ कि मेरी शरण आ जावो तुम्हारा कल्याण होगा, तो मेरे लिये लज्जाकी बात है क्योंकि भगवान्‌के दरबारमें मेरेसे जवाब-तलब किया जायगा ।

कोई गुमास्ता [मुनीम, नौकर] है, वह अपने मालिककी दुकान पर काम करता है, धीरे-धीरे उसमें बेईमानी आ गई वह घूस खोरी करने लगा। दुकानका माल अपने घरमें भरने लगा किन्तु जब मालिक आयेगा तो उसकी पूरी खबर लेगा। उसी प्रकार यदि हम भगवान्‌की ओटमें अपनेको पुजवायेंगे तो वे हमारी खबर लेंगे। जो बात आपको बताई जाती है वह अच्छी ही बताई जाती है। इस विषयमें यदि कोई महात्मासे सलाह पूछें तो वह ठीक ही सलाह देते हैं, उनकी आज्ञा माननी चाहिये, यही बात दामी है। यदि कोई श्रद्धासे महात्माकी बात काममें लावे तो उसके कल्याणमें कोई संशय नहीं है।

दो बात बताई एक शास्त्रानुकूल एवं दूसरी शास्त्रके प्रतिकूल । प्रतिकूलमें भी दो भेद हैं एक व्यर्थ आचरण एवं एक निषिद्ध आचरण। जो आचरण व्यर्थ और निषिद्ध हो उसे काममें नहीं लावें। जो श्रुति स्मृतिके अनुकूल हो एवं सदाचार सिद्ध हो एवं मनके माफिक हो। इसमेंसे और सब बात तो ठीक है किन्तु मनके माफिक बात विचारणीय है, मन तो सोचेगा कि भोग भोगो मौज उड़ावो, तो मनके माफिक वाले भावमेंसे यह भाव नहीं मानना चाहिये। जो बात शास्त्रानुकूल हो और वह बात मनमें जच गई तो यह मन माफिक बात हुई, ऐसी बातको मन माफिक माननी चाहिये ।

अब मेरे शरीरकी पूजा विषयक बात कही जाती है। मेरे शरीरमें पूज्य दृष्टि रखना यह अत्यन्त ही अनुचित है। जैसा आपका शरीर है। वैसा ही मेरा है, भगवान्का शरीर तो दिव्य शरीर होता है, कारक पुरुषका भी दिव्य शरीर होता है। कारक पुरुष पूज्य हैं, इनकी पूजासे भगवान्‌की भी प्राप्ति हो जाती है, कारक पुरुषके यह लक्षण हैं कि उनके रोग नहीं होता, सर्दी-गर्मी आदि उन्हें नहीं सताते, वह पाप एवं पुण्यसे रहित होते हैं। क्योंकि भगवान्‌के परमधामसे आये हुए पुरुषका शरीर पाप-पुण्यवाला नहीं होता। उनका शरीर दिव्य होता है, वह पूजने के योग्य हैं। भगवान्‌के दिव्य शरीरकी पूजाकी तो बात दूर रही यदि हम उनकी मूर्तिकी पूजा भी कर लें तब भी बहुत है, भगवान् तो उससे ही खुश हो जाते है। गीताजीमें भगवान्ने कहा है-

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥

(गीता ९/२६)

अर्थात्- हे अर्जुन ! मेरे पूजनमें यह सुगमता भी है कि पत्र, पुष्प, फल, जल इत्यादि जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे अर्पण करता है उस शुद्ध-बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र, पुष्पादिक मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।

जो भी भक्त पत्र, पुष्प, फल या जल मुझे प्रेमपूर्वक अर्पण करता है उसके लिए भगवान् कहते हैं मैं उसका वह प्रीतिपूर्वक अर्पण किया हुआ प्रसाद प्रेमसे खाता हूँ।

वाणी, आचरण एवं शरीरकी बात कही। तीसरी बातमें तो यानी शरीरकी पूजावाली बातमें तो आपका और मेरा दोनोंका ही नुकसान है यदि आप पूजें और मैं पूजवाऊँ तो । संसारमें आजकल शरीरको पुजवानेको लेकर अधंकार फैला हुआ है, वे इस बातको नहीं जानते कि इससे कितनी हानि है इसीलिये वे लाभ नहीं उठा पाते। हमको यह प्रचार करना चाहिये कि यह सब ढोंग, पाखण्ड है। शरीरकी पूजा तो भगवान् एवं कारक पुरुषकी ही करनी चाहिये । मनुष्यकी पूजाकी बात तो देहाभिमानियोंने फैलाई है जो कि मान-बड़ाईके लोभमें फँसे हुए हैं। महात्मा बनकर जो शरीर पुजवाते हैं इस बातका मैं घोर निषेध करता हूँ। हाँ यदि लड़का अपने माँ-बापकी पूजा करता है तो उसके लिये मनाही नहीं है, इससे तो उसको परम लाभ ही है। जो स्त्री अपने पति की पूजा करती है या उसको ईश्वर मानती है तो उसका ऐसा करनेमें कल्याण ही है, उसके उद्धारमें कोई सन्देह नहीं। चाहे उसका पति रोगी, पापी ही हो या व्यभिचारी हो चाहे दुष्ट स्वभाव वाला ही क्यों न हो किन्तु पतिव्रताका तो कल्याण हो ही जाता है। जो शिष्य गुरुको ईश्वर मानकर निष्कामभावसे सेवा या पूजा करता है उसका भी उद्धार हो जाता है। अतिथि भी चाहे कैसा ही हो किन्तु ईश्वरका स्वरूप मानकर निष्कामभावसे उसकी सेवा करें तो उसके कल्याणमें संशय नहीं। माता-पिता एवं आचार्य ये तीनों अग्नि हैं यदि इनकी श्रद्धापूर्वक पूजा या सेवा करें तो वह उच्चलोकोंमें जाता है इसमें संशय नहीं। यह बात मनुस्मृतिमें दूसरे अध्यायमें कही है कि स्त्रीके लिये पति सेवा एवं पति पूजा मुख्य है, और चीज गौण है; किन्तु पतिको अपनी स्त्रीसे यह नहीं कहना चाहिये कि तू मेरी सेवा, पूजा कर ।

आप कहेंगे कि आप अपनेको महात्मा मानो, तो यह मेरे लिये अनुचित बात है। ऐसी बात कभी स्वप्नमें भी नहीं माननी चाहिये यदि अपनेको कोई महात्मा माने तो वह महात्मा नहीं है। यदि मैं ऐसा मानने लगूँ तो यमराज एवं ईश्वरके सामने इसका मेरे पास कोई जबाब नहीं है। जो मान-बड़ाईका किंकर होगा वही ऐसी बात मानेगा। राजसी एवं तामसी पुरुष ही ऐसा कहते हैं, उन्हीं दम्भियोंने यह बात फैलाई जिससे चारों और ऐसा अधंकार हो गया, यही कारण है कि वे मुक्तिसे वंचित रहते हैं। हमलोगोंका शरीर तो कायम रहेगा नहीं किन्तु हमलोगोंकी बातें कायम रहेंगी क्योंकि मेरी वाणीसे जो भी बात आपको कही जाती है उसका जिम्मेवार मैं हूँ। मैं किसीको अपनी सेवा-पूजाके लिये नहीं कहता किन्तु मैं बीमार हूँ उस समय यदि मेरी कोई सेवा करता है तो उसका मैं आभारी हूँ। किन्तु वह यह चाहे कि मुझे परमात्माकी प्राप्ति हो जाये इसका जिम्मेवार मैं नहीं, उसका मेरेपर सेवाका भार जरूर है, किन्तु यह नहीं मानता कि उसका कल्याण होगा ही। यदि निष्कामभावसे सेवा की जाये तो उसकी बात दूसरी है, क्योंकि निष्कामभावसे यदि हम कुत्तेकी भी सेवा करें तो भी मुक्तिके भागी हो जाते हैं। मुख्य बात तो भाव ही है। यह भाव ही कल्याण करनेवाला है। चाहे कोई मेरी सेवा करो या दूसरोंकी वह उपकारका भागी तो होगा ही, उसको कितना फायदा होगा इसकी लिमिट नहीं है। यदि सकामभावसे सेवा करेगा तो उसकी कामनानुसार फल प्राप्त हो जायगा और यदि निष्कामभावसे सेवा करेगा तो अन्तःकरणकी शुद्धि होकर परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। सबसे समता रखनी आवश्यक है। समतासे जल्दी भगवान्‌की प्राप्ति हो जाती है। उदाहरणके लिये एक तो मैं बीमार हूँ, एक अभ्यागत है एवं एक कुत्ता बीमार है तो सेवा करनेवाला यदि इन तीनोंमेंसे योग्यकी सेवा करता है तब तो ठीक है, किन्तु यदि वह ऐसा समझेगा कि कुत्तेकी क्या सेवा करूँ? किसी श्रेष्ठ पुरुषकी सेवा करूँ तो ज्यादा फायदा है। किन्तु इसमें समता करनेवालेको जितना फायदा है उतना उसको नहीं होगा। यदि समतासे यानी जिसको सेवाकी ज्यादा जरूरत है उसकी सेवा करे तो उसको जरूर फायदा होगा। विषमता भी हो तो ऐसी हो जैसे मेरे और अभ्यागत दोनोंके हैजे की बीमारी है और उसमें भी अभ्यागत गरीब है, तो उसकी सेवासे जितना फल होगा उतना मेरी सेवा करनेसे नहीं होगा। क्योंकि मेरे पास तो रुपये हैं, सेवा करवानेके लिये नौकर भी रख सकता हूँ तथा घरवाले भी सेवा कर सकते हैं इसलिये वह मेरी सेवा करता है तो उतना फायदा उसे नहीं होगा। यदि वह मुझे महात्मा मानकर मेरी सेवा करता है तो उसकी भूल है और मेरे लिये लज्जाकी बात है; इसलिये मुझे उससे सेवा नहीं करवानी चाहिये। मेरे माँ-बाप भी यदि मेरी सेवा करे तो बीमार अवस्थामें उनका फर्ज है कि वे वात्सल्यभावसे मेरी सेवा कर सकते हैं, इसमें मुझे भी शर्म नहीं आयेगी न लज्जा ही। यदि मैं महात्मा बनकर सेवा करवाता हूँ तो मैं खुद गड्ढ़े में पड़ता हूँ एवं साथमें दूसरेको भी धोखा देता हूँ। पर इस समय यह कहनेवाले ज्यादा मिलेंगे कि हमारी सेवा करो, इसके विरुद्धमें बहुत ही गिने-चुने मिलेंगे। क्योंकि यह अपनेको न पुजवानेकी बात लुप्त हो गई जैसे द्वापरमें निष्काम कर्मयोग लुप्त हो गया इसीलिये भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि यह योग, निष्काम-कर्म, सेवा लुप्त हो गया था, वही योग आज मैंने तेरे लिये कहा है।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥

(गीता ४/३)

अर्थात्- वह ही यह पुरातन योग अब मैंने तेरे लिये वर्णन किया है क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिये तथा यह योग बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात् अति मर्मका विषय है।

पुजानेवाले तो प्रसन्नतासे अपनी पूजा करवाते हैं, उनको सुझावे कौन यानी समझावे कौन, उनको अब ठीक रास्तेपर कौन लगावे? मैं कहता हूँ कि मान- -बड़ाईका त्याग करो और यदि मेरेमें ही मान-बड़ाईकी चाहना होगी तो सुननेवालोंपर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा। मान-बड़ाईका त्याग हो तो कहना ही क्या है किन्तु मान-बड़ाईका त्याग होना कठिन है। वास्तवमें यह मान-बड़ाई सहज ही में छूटती भी नहीं है, यह तो साधुओंका फर्ज है कि वे इसका त्याग करें एवं दूसरेको फिर उपदेश करके उनसे भी इसका त्याग करवायें। वास्तवमें उन्हींका असर पड़ेगा क्योंकि वे अनुभव करके फिर अपनी बात कहेंगे।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥

(गीता ३/२१)

अर्थात्- श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी उसके ही अनुसार बर्तते हैं, वह पुरुष जो कुछ प्रमाण कर देता है, लोग भी उसके अनुसार बर्तते हैं।

यदि साधु होकर भी मान- -बड़ाईका त्याग नहीं करता है, इन्हीं मान-बड़ाईमें फँसा रहता है तो वह साधु नहीं दम्भी एवं पाखण्डी है। यह आपको रहस्यकी बात बताई गई है, रहस्य यही कि छिपी हुई बात है। भोले-भाले लोग इस गुप्त रहस्यको जानते नहीं क्योंकि मान-बड़ाईके त्यागकी बात लुप्त हो गई, जैसे द्वापरयुगमें योग लुप्त हो गया था। गीताजी अध्याय 4 श्लोक 2-3 में भगवान्ने कहा कि यह योग लुप्त प्रायः हो गया था वही मैंने आज तेरेको कहा है। यह योग भगवान्ने गीता अध्याय 2 के श्लोक 39 से लेकर तीसरे अध्यायके अन्तमें समाप्त किया। भगवान् कहते हैं कि इसलिये मैंने तेरेको यह योग कहा है कि तू मेरा प्यारा सखा एवं भक्त है। यह दामी एवं छिपी हुई बात है वही मैंने तेरे सामने आज खोल दी। यह जो गीताजीमें भगवान्ने निष्कामयोग बताया है यह कहीं भी पुस्तकों में इस प्रकार विस्तारसे नहीं मिलेगा। हमारे जो दूसरे ग्रन्थ महर्षियोंके बनाये हुए हैं उनमें यह बात कहीं-कहीं मिलती है। गीताजी ही एक ऐसा गोपनीय ग्रन्थ है जिसमें भगवान्ने अपना रहस्य खोल दिया। देखिये भगवान् एक श्लोकमें ही 4 बात इसी योगकी बतला रहे हैं-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥

(गीता २/४७)

अर्थात्- तेरा कर्म करनेमात्रमें ही अधिकार होवे फलमें कभी नहीं और तू कर्मोंके फलकी वासनावाला भी मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी प्रीति न होवे ।

(1) तेरा कर्म करने मात्रमें अधिकार है। (2) फलमें कभी नहीं। (3) तू कर्मोंके फलकी वासनावाला भी मत हो । (4) तथा तेरी कर्म न करनेमें भी प्रीति यानी आसक्ति न होवे। यानी कर्म तो कर्तव्य समझकर करना चाहिये, परन्तु फल और आसक्तिको त्यागकर कर्म करना चाहिये।

महात्माका ऐसा विनीतभाव हो कि जिज्ञासु निधड़क उनके पास चला जाय।

हमारे सत्संगमें स्त्री एवं पुरुष दोनों ही रहते हैं यदि पुरुषका भाव स्त्रीको देखकर बिगड़ जाय तो मानना चाहिये कि मेरेमें ही यह दोष है। हमारेमें थोड़ा भी प्रभाव नहीं है, प्रभाव हो तो ऐसा तो हो कि चाहे पुरुष स्त्रियोंके बीचमें भी क्यों न चला जाय फिर भी उसका भाव शुद्ध रहेगा, मातृभाव ही बना रहेगा। कम-से-कम हमारेमें इतना संयम तो रहना ही चाहिये कि हमारेमें यह व्यभिचारका दोष नहीं घटे। जरा ध्यान दीजिये हम तीर्थोंमें आये हैं, यहाँ आकर भी चोरी, व्यभिचार एवं बेईमानी करें तो फिर लाभ ही क्या हुआ । ध्यान रखिये यदि यह दोष यहाँ भी घटा तो हमें नरकोंमें भी स्थान नहीं मिलेगा। जरा सोचो यदि यही चोरी, जारी करनी हो तो फिर घरमें ही रहते, यहाँ तीर्थोंमें आनेकी क्या आवश्यकता थी। यहाँ आनेका तो केवल यही उद्देश्य है कि धार्मिक एवं संयमी जीवन व्यतीत करें।

यह श्रद्धाकी कमी है यदि महात्माओंमें हमारी सच्ची श्रद्धा हो तो मुक्तिमें सन्देह है ही नहीं। देखिये जहाँ काकभुशुण्डिजी रामकथा कह रहे हैं वहाँ उनका इतना प्रभाव है कि उस भूमिमें काम, क्रोध एवं लोभकी गन्ध भी नहीं है। भगवान् शिवजीके कहनेसे गरुड़जी वहाँ गये, वहाँ जानेकी देर थी जाते ही गरुड़जीके सर्वत्र शान्ति-ही-शान्ति छा गई, उनकी शंका स्वतः ही नष्ट हो गई। फिर भी राम कथा सुनानेके लिये काकभुशुण्डिजीसे कहा, तब उन्होंने ऐसी मधुरतासे रामकथा सुनाई कि गरुड़जी अपने देहकी सुधि तक भूल गये। यह महात्माओंका प्रभाव है।

आजकल हम इधर से उधर भटक रहे हैं, इसका यही कारण है कि हमको अब तक सच्चा महात्मा नहीं मिला, नहीं तो क्या कभी अशान्ति रहती। हमें शास्त्रोंकी आज्ञामें विश्वास एवं महात्माओंके वचनोंमें श्रद्धा होनी चाहिये। महात्माके तो दर्शन, स्पर्श एवं वार्तालापसे ही उद्धार हो जाता है। यदि किसी महात्माका प्रभाव नहीं पड़ता है तो वह महात्मा नहीं ढ़ोंगी है। पहले जिन महात्माके पास जानेसे शान्तिका अनुभव होता था अब इन नामधारी महात्माओंके पास जानेसे शान्तिके बदले अशान्ति ही मिलती है। यदि हम महात्माके पास जाते हैं तो हमारेमें भी महात्मापना आना चाहिये यदि महात्मापन नहीं आवे तो उस महात्माके पास जानेमें कोई भी लाभ नहीं है। जब हम सूर्यकी धूपमें जाते हैं तो हमें गर्मी लगेगी इसी प्रकार महात्माके पास जानेमें शान्ति मिलनी चाहिये। जैसे सूर्यमें गर्मीका स्वाभाविक गुण है, उसी प्रकार महात्मामें शान्तिका स्वभाविक गुण है, यदि वह गुण नहीं मिलता तो वह महात्मा नहीं। यहीं महात्माकी खास पहचान है। महात्माके आचरण एवं व्याख्यानका प्रभाव पड़ना चाहिये। किन्तु आजकल न तो व्याख्यानका प्रभाव ही पड़ता है एवं न आचरणका ही असर होता है। यह गलती वक्ता की है उसे सोचना चाहिये कि यह जिज्ञासु बनकर मेरे पासमें आया है फिर भी इस पर कोई असर नहीं पड़ता यह मेरी ही कमजोरी है, मुझे धिक्कार है कि मैं इसका कल्याण नहीं कर सका। जरूर मेरेमें कमी है, यही कारण है कि इस पर मेरा प्रभाव नहीं पड़ा।

श्रद्धाको बढ़ाना चाहिये। अब श्रद्धा किस प्रकारसे बढ़े यह बतलाया जाता है। यह लगन एवं चाहना रहनी चाहिये कि श्रद्धा एवं प्रेम प्राण देनेपर भी मिले तो खरीद ही लेना चाहिये। श्रद्धा होनेसे प्रेम होता है एवं प्रेमसे साक्षात् भगवान्‌की प्राप्ति हो जाती है। श्रद्धा साथ प्रयत्नकी दृढ़ता भी रहनी चाहिये। हम श्रद्धा भी रखते हैं किन्तु मुक्ति नहीं मिलती इसका यही कारण है। अर्जुनने भगवान्से पूछा है-

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥

(गीता ६/३७)

अर्थात्- अर्जुन बोले-हे श्रीकृष्ण ! योगसे चलायमान हो गया है मन जिसका, ऐसा शिथिल यत्नवाला श्रद्धायुक्त पुरुष योगकी सिद्धिको अर्थात् भगवत् साक्षात्कारताको न प्राप्त होकर किस गतिको प्राप्त होता है।

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥

(गीता ६/३८)

अर्थात्- हे महाबाहो ! क्या वह भगवत्प्राप्तिके मार्गमें मोहित हुआ आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादलकी भांति दोनों ओरसे अर्थात् भगवत्प्राप्ति और सांसारिक भोगोंसे भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है?

अर्जुनने प्रश्न किया भगवन् ! उसकी श्रद्धा तो है किन्तु प्रयत्नमें कमी है इसीसे अन्तमें वह ध्यानसे विचलित हो गया, तब वह कौन-सी गतिको जाता है, वह नष्ट तो नहीं हो जाता? तब भगवान् कहते हैं-

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।

न हि कल्याणकृत्कश्चिदुर्गतिं तात गच्छति ॥

(गीता ६/४०)

अर्थात्- इस प्रकार अजुर्नके पूछनेपर श्रीकृष्ण भगवान् बोले- हे पार्थ! उस पुरुषका, न तो इस लोकमें और न परलोकमें नाश होता है क्योंकि हे प्यारे ! कोई भी शुभ कर्म करनेवाला अर्थात् भगवत्-अर्थ कर्म करनेवाला दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता है।

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥

(गीता ६/४१ )

अर्थात्- वह योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानोंके लोकोंको अर्थात् स्वर्गादिक उत्तम लोकोंको प्राप्त होकर उनमें बहुत वर्षोंतक वास करके शुद्ध आचरणवाले श्रीमान् पुरुषोंके घरमें जन्म लेता है।

यहाँ श्रद्धा एवं प्रयत्नकी कमी रही। जहाँ वैराग्य होता है वहाँ उपरति विद्यमान रहती है एवं जहाँ प्रीति होती है वहाँ चित्तकी वृत्ति एकाग्र रहती है, दोनों सगी बहिनें है। यदि दोनों धारण करनेकी सामर्थ्य न हो तो एकसे भी काम चल जाता है। दोनों साथ ही रहते हैं किन्तु कहीं घट भी जाते हैं। परमात्मामें श्रद्धा एवं प्रेमका संग्रह करना चाहिये।

हमारेमें जो कमी है, उसको निकालना चाहिये। इस कार्य में इतना विलम्ब क्यों हो रहा है? इसका यही प्रधान कारण है कि हमारा जो कर्तव्य है उसमें जितनी तत्परता होनी चाहिये उतनी हमारेमें है नहीं। भगवान् कहते हैं मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि (गीता २/४७) अर्थात्- तेरी कर्म न करनेमें भी प्रीति न होवे । कर्मोंमें कभी भी तेरी आसक्ति न होवे, तुम्हारा जो कर्तव्य कर्म है इसमें अकर्मण्यता और शिथिलता नहीं दिखानी चाहिये। हमको जो देरी हो रही है इसमें तत्परताकी कमी है, तत्परतामें कमी नहीं होनी चाहिये। भगवान् कहते हैं-

तं विद्यादुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥

(गीता ६/२३)

अर्थात्- जो दुःखरूप संसारके संयोगसे रहित है तथा जिसका नाम योग है; उसको जानना चाहिये, वह योग न उकताये हुए चित्तसे अर्थात् तत्पर हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है। वह योग कैसा है इसपर भगवान् कहते हैं- 

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।

यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥

(गीता ६/२२)

अर्थात्- परमेश्वरकी प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता है और भगवत्प्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित हुआ योगी बड़े भारी दुःखसे भी चलायमान नहीं होता।

वही यह योग है, जिसको कि (गीता 6/22) में भगवान्ने खोल दिया है। अत्यन्त सुख जिसकी कोई सीमा ही नहीं है। वह आनन्दमय है, यह बुद्धिके समझमें नहीं आता। जिस समय इस आनन्दका अनुभव होता है फिर वह तत्त्वसे चलायमान नहीं होता। उसको प्राप्त होनेके बाद कुछ भी जानना या समझना शेष नहीं रहता। फिर चाहे उसके शरीरको जला दो या शस्त्रोंसे काट दो उसको कुछ भी • अनुभव नहीं होगा। वह आनन्दमें इतना मग्न हो जाता है कि उसे अपने शरीरकी भी सुध नहीं रहती है। उस समय वह पूर्णानन्दमें मग्न रहता है, उसे सांसारिक कामोंसे कोई भी चिन्ता या झंझट नहीं रहता, उस आनन्दको जानना चाहिये। फिर भगवान् कहते हैं कि जानकर क्या करना चाहिये? निश्चयेन योक्तव्यो (गीता 6/23) निश्चयपूर्वक इसका पालन करना चाहिये। इस प्रकार भगवान् इस पर विशेष जोर देकर कहते हैं कि ऐसी बातोंको सुनकर यदि तत्परता नहीं आती तो प्रीतिकी कमी समझनी चाहिये। यह प्रेमकी कमी क्यों होती है, जब श्रद्धाकी कमी हो जाती है तो प्रीति भी घट जाती है और जब प्रीति घट जाती है तो साधनमें कमी आ जाती है, जब साधनमें ही कमी आ जाती है तो उद्धार नहीं हो सकता।

जो गई सो गई अब राख रही को

जो समय गया वह तो गया, अब जो समय बच गया है। उसको तो बचावो। अरे ! जितना जीवन व्यर्थ बातोंमें गया सो तो गया कम-से-कम अब तो अपने कल्याणके साधनमें लगो। भगवान्‌में श्रद्धा एवं प्रेम बढ़ानेकी चेष्टा करें। प्राणोंकी बाजी लगाकर भी इस श्रद्धा-प्रेमको खरीद लेना चाहिये। हमको व्यापारमें घटती-बढ़ती यानी आमदनीमें नफा-नुकसान हो जाता है पर इसमें यानी भगवान् के मार्गमें, भजन-ध्यानमें कुछ भी घाटा नहीं खाना पड़ता। इसमें तो लाभ ही लाभ होता है। भगवान्की भक्ति यदि निष्कामभावसे की जाय तो वह अक्षय रहती है। वह रुपयोंकी तरह क्षय नहीं होती। यह [भजन- ध्यान] भी एक प्रकारका धन ही है। वह धन तो नाशवान है किन्तु यह धन अविनाशी है। हमको विनाशी धन न लेकर अविनाशी धन ही लेना चाहिये।

श्रद्धाकी कमीके कारण प्रेमकी कमी हो जाती है, और प्रेमकी कमी के कारण भगवान् भी मुख मोड़ लेते हैं। हमें भगवान्से प्रार्थना करनी चाहिये कि हे प्रभो ! मुझे श्रद्धा-प्रेम दीजिये, कातरभावसे यह याचना करनी चाहिये। भगवान् तो भावग्राही हैं यदि भाव उत्तम होगा तो भगवान् श्रद्धा एवं प्रेम हमें प्रदान कर देंगे। यदि यह भाव नहीं हो तो भगवान्‌के प्रति जो श्रद्धालु व्यक्ति हैं उनमें प्रेम करना चाहिये। एक और बात किसीमें भी अवगुण नहीं देखना चाहिये, सबमें गुण ही देखने चाहिये। किसीके दोषोंको नहीं देखना चाहिये यदि कोई देखता है तो वह अविवेकी है। किसीमें भी दोष दृष्टि नहीं रखनी चाहिये। अतः दोष दृष्टि हो तो उसका त्याग कर देना चाहिये। दोष दृष्टि देखनी हो तो अपनेमें ही देखनी चाहिये। अरे! तू दूसरे पर दोष दृष्टि रखता है, पर अपनी ओर तो देख तू तो दूधका धोया है क्या? इसलिये महात्मा या और किसीमें दोष दृष्टि देखकर अपनेको गर्तमें नहीं गिराना चाहिये और इस भयसे अपनेको बचाना चाहिये। महात्माकी कोई बात नहीं समझे तो उसे छोड़ देनी चाहिये। ईश्वरका कोई चरित्र समझमें नहीं आवे तो उसे छोड़ देना चाहिये। इसी प्रकार किसीकी कोई बात समझमें नहीं आवे तो उसे भी छोड़ देनी चाहिये। दोष दृष्टिको तो हटानेकी चेष्टा करनी चाहिये यदि न हटे तो परमात्मासे प्रार्थना करनी चाहिये कि हे प्रभो ! मैं महामूर्ख हूँ, मैं सबमें दोष दृष्टि रखता हूँ इसलिये हे प्रभो ! मेरा यह दोष आपकी दयासे हट सकता है। सच्ची प्रार्थना होगी तो भगवान् हटा भी सकते हैं।

अन्तःकरणकी शुद्धिसे प्रेम एवं श्रद्धा होती है, जैसी श्रद्धा होती है वैसा ही वह बनता है। निष्कामभावसे जप, तप एवं पुण्यकर्म करना चाहिये, सकामभावसे नहीं। निष्कामभावसे ही भगवान्की भक्ति करनी चाहिये। जपसे, तपसे एवं ध्यानसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है, इन बातोंका विशेष रूपसे पालन करना चाहिये। किसीमें दोषकी कल्पना स्वप्नमें भी नहीं करनी चाहिये, यदि हो भी तो उसे सर्वथा निकाल दें। तभी हमारी मुक्ति हो सकती है।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...