साधनकी उत्साह वर्धक बातें
श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान कालके लिए श्रुति-स्मृति, इतिहास, पुराणादि सम्पूर्ण शास्त्रोंका सार एवं पक्षपात रहित सार्वभौम धार्मिक सद्ग्रंथ है।
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः ।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ॥
(गीता माहात्म्यम्)
गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात् श्रीगीताजीको भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अन्तःकरणमें धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है जो कि स्वयं श्रीपद्मनाभ विष्णु भगवान्के मुखारविन्दसे निकली हुई है। फिर अन्य शास्त्रोंके विस्तारसे क्या प्रयोजन है। इसलिये विशेष शास्त्रोंका अभ्यास न हो सके तो श्रीगीताजीका तो अवश्यमेव ही अभ्यास करना चाहिये।
१. सुख-दुःखकी एवं सुख-दुःख दायक पदार्थोंकी प्राप्ति और विनाशमें तथा हानि और लाभमें परमदयालु, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी परमेश्वरका ही किया हुआ विधान समझकर सदा सर्वदा प्रसन्नचित्त रहना अर्थात् परेच्छासे या अनिच्छासे जो भी कुछ प्रारब्धानुकूल प्राप्त हो उसमें उस प्रेमास्पद दयासिन्धु परमेश्वरकी दयाका पद-पदपर अनुभव करता हुआ सदा सर्वदा आनन्दमें मुग्ध रहना चाहिये।
२. संसारकी सम्पूर्ण वस्तुओंको न अपनी सम्पत्ति समझनी चाहिये एवं न अपने भोगकी सामग्री ही समझनी चाहिये क्योंकि वास्तवमें सब कुछ नारायणसे उत्पन्न होनेके कारण नारायण की ही है। इसलिये उनमेंसे ममताको निकालकर नारायणके ही अर्पण कर देनी चाहिये अर्थात् नारायणकी आज्ञानुसार नारायणके काममें ही लगा देनी चाहिये।
३. बुद्धिसे परमात्माके रहस्य और प्रभाव सहित तत्त्वको समझना चाहिये। श्रद्धा-प्रेम पूर्वक चित्तसे उस परमात्माके स्वरूपका चिन्तन करना चाहिये। श्वासके द्वारा भगवन्नाम जप करना चाहिये। कानोंसे भगवान्के गुण, प्रभाव और स्वरूपकी महिमाका श्रवण करना चाहिये। नेत्रोंसे भगवान्की मूर्तिका एवं उनके भक्तोंका दर्शन करना तथा सत्-शास्त्रोंका अवलोकन करना चाहिये। वाणीसे उनके गुणोंका कीर्तन करना एवं शरीरसे भगवान् और उनके भक्तोंकी सेवा, पूजा और नमस्कार आदि करना चाहिये तथा उनकी इच्छामें अपनी इच्छाको मिलाकर उनकी आज्ञानुसार केवल उन परमेश्वरके लिये ही फल और आसक्तिको छोड़कर सम्पूर्ण कर्मोंको करना, यह उनकी सब प्रकारसे शरण होना है।
उपरोक्त प्रकारसे मनुष्य जैसे-जैसे भगवान्की शरणमें जाता है वैसे-वैसे ही उसमें धीरता, वीरता, गंभीरता, क्षमा, दया, सन्तोष, समता आदि सद्गुणोंकी तथा शम, दम, तप, दान, त्याग, सेवा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि उत्तम आचरणोंकी एवं अतिशय शान्ति और परमानन्दकी क्रमशः वृद्धि होती चली जाती है। इस प्रकारसे उन्नत होता हुआ वह फिर उन परम दयालु परमात्माकी दयासे उन्नतिकी सीमाके शिखरपर पहुँच जाता है। अर्थात् परमधाम, परमपद, परमगति या यों कहिये परमात्माको प्राप्त हो जाता है। फिर उसके लिये कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रहता।
समय बहुत ही अमूल्य है, लाखों रुपये खर्च करनेपर भी जीवनका एक क्षण भी नहीं मिल सकता। ऐसे मनुष्य-जीवनका समय प्रमाद, आलस्य, पाप, भोग और अकर्मण्यतामें कदापि एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोना चाहिये। जो मनुष्य अपने इस अमूल्य समयको बिना सोचे विचारे बितावेगा, उसे आगे चलकर अवश्य ही पश्चात्ताप करना पड़ेगा। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीने कहा है-
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ॥
(रा.च.मा.उ. दोहा-४३)
कविराय गिरधरजीने भी कहा है-
बिना विचारे जो करे सो पाछे पछिताय ।
काम बिगारे आपनो जगमें होत हँसाय ॥
जगमें होय हँसाय चित्तमें चैन न पावे ।
खान पान सम्मान राग रंग मन नहीं भावै ॥
कह गिरधर कविराय कर्म गति टरइ न टारे ।
खटकत है जिय माँय किया जो बिना विचारे ॥
इसलिये मनुष्यको उचित है कि ऊपरमें बतलाये हुए अनन्यशरणरूप परमधर्ममय कर्तव्यके पालनमें ही अपने सम्पूर्ण अमूल्य समयका व्यय करना चाहिये। तथा प्रत्येक कर्म करनेसे पूर्व ही सावधानीके साथ मनुष्यको यह सोच लेना चाहिये कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह मेरे लिये सर्वथा लाभप्रद है या नहीं? यदि उसमें जहाँ कहीं त्रुटी मालूम पड़े तो उसका तुरन्त सुधार कर लेना चाहिये।
इसी प्रकार सावधानीसे समयका व्यय करनेसे उसका स्वार्थ भी परमार्थके रूपमें परिणत होकर उसके सम्पूर्ण कार्योंकी सफलता हो जाती है। अर्थात् वह कृतकार्य हो जाता है।
वास्तवमें वर्णाश्रम और स्वभावकी विभिन्नताके कारण समयके विभागमें फेर फार होना सम्भव है। अतएव सब मनुष्योंके लिये समयको बिताना एक जैसा नियत नहीं किया जा सकता। उपर्युक्त सिद्धान्तको लक्ष्यमें रखकर अपनी-अपनी बुद्धिसे ही अपनी सुविधाके अनुसार मनुष्योंको यथायोग्य समयका विभाग कर लेना चाहिये। किन्तु आपकी प्रसनन्ता के लिये समय विभागके विषयमें कुछ निवेदन भी किया जाता है। भगवान्ने गीताजीमें कहा है-
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
(गीता ६/१७)
अर्थात्- यह दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करनेवालेका तथा कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका और यथायोग्य शयन करने तथा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है।
उपरोक्त गीताजीके श्लोकका विवेचन करनेसे यही बात जाहिर होती है कि साधारणतः प्रत्येक मनुष्यको दिन-रातके २४ घन्टोंका चार विभाग कर लेना चाहिये। उनमेंसे छः घन्टेको लोकसेवा एवं स्वास्थ रक्षाके लिये यथायोग्य आहार-विहार आदिमें तथा छः घन्टे न्यायोपार्जित द्रव्य कमाने रूप कर्म करनेमें एवं छः घन्टे शयन करनेमें और छः घन्टे केवल आत्म उद्धार करनेके लिये योग साधन, भजन-ध्यानमें लगाना चाहिये।
अर्थात् छः घन्टे तो शौच, स्नान, भोजन आदि स्वास्थ्य रक्षाके लिये एवं कौटुम्बिक सामाजिक अपनी शक्ति हो तो राष्ट्रीय और जागतिक सेवा एवं सुधारके लिये लगाना चाहिये। कौटुम्बिक सामाजिक राष्ट्रीय जागतिक आदिके विशेष कार्यकी उपस्थिति होनेपर दूसरे विभागोंमेंसे भी समय निकाला जा सकता है। तथा छः घन्टा फल और आसक्तिको छोड़कर कर्तव्य बुद्धिसे वर्णाश्रमके अनुसार यथासाध्य ईश्वर प्रीत्यर्थ शरीर निर्वाहके लिये न्यायोपार्जित द्रव्य कमानेमें बिताना चाहिये। और छः घन्टेका समय स्वास्थ्य रक्षाके लिये शयन करनेमें व्यतीत करना चाहिये। और बाकी छः घन्टे केवल आत्मोद्धारके लिये ही पवित्र और एकान्त स्थानमें अकेला बैठकर संसारके भोगोंसे मन, बुद्धि और इन्द्रियोंकी वृत्तियोंको हटाकर श्रद्धा, भक्ति पूर्वक वैराग्ययुक्त अनन्य मनसे परमेश्वरके नामका जप और स्वरूपका ध्यान एवं सत्संग तथा सत्-शास्त्रोंका विचार करना चाहिये। सामान्यतः उपरोक्त समय विभागका प्रोग्राम नीचे लिखे मुजब भी नियत किया जा सकता है।
प्रोग्राम- प्रातःकाल सूर्योदयसे करीब १.३० या २ घन्टे पहले मनुष्यको उठना चाहिये। प्रातः ४ बजे उठकर यथासाध्य ईश्वरका स्मरण करके शौच-स्नानादिसे ५ बजे तक निवृत्त हो जाना चाहिये। ५ से ८ बजे तक एकान्त और पवित्र स्थानमें बैठकर आत्मोद्धारके लिये ही यथारुचि शास्त्र विधिके अनुसार उपरोक्त प्रकारसे केवल भजन-ध्यान आदि ईश्वरोपासनामें ही समय बिताना चाहिये। ८ से १० बजे तक कौटुम्बिक सामाजिक आदिका सेवा और सुधारके कार्य तथा भोजन आदि स्वास्थ्योपयोगी कार्योंमें समय खर्च करना चाहिये। १० से ४ बजे तक वर्णाश्रमके अनुसार जीविकोपार्जनके लिये न्यायानुकूल द्रव्य कमानेमें समय लगाना चाहिये। ४ से ६ बजे तक कौटुम्बिक सामाजिक तथा अपनी रुचि और शक्ति हो तो राष्ट्रीय और जागतिक सेवा और उन्नतिके कार्योंमें समय व्यतीत करना चाहिये। ६ से ९ बजे तक आत्मोद्धारके लिये यथारुचि शास्त्रविधिके अनुसार भजन- ध्यान, सत्संग, कथा, कीर्तन एवं शास्त्रके विचार और पठन-पाठन आदि ईश्वरोपासनामें ही समय बिताना चाहिये। ९ से १० बजे तक भोजन एवं स्वास्थ्य रक्षाके निमित्त समय बिताना चाहिये और रात्रीके १० बजेसे सुबह ४ बजे तक शयन करना चाहिये।
उपर्युक्त समय विभागका प्रोग्राम अपनी रुचि और सुविधाके अनुसार फेर बदल भी किया जा सकता है क्योंकि जाति, देश, काल, स्वभाव आदिकी विभिन्नताके कारण सबके लिये समयका विभाग एक जैसा अनुकूल नहीं पड़ता ।
अपने शरीर और कुटुम्बका निर्वाह जितने कम धनसे हो सके उतना ही कम खर्च करना चाहिये। इसके लिये यथासाध्य बराबर चेष्टा रखनी चाहिये। इसके बाद बचे हुए द्रव्यका अंश अपने वर्ण धर्मके अनुसार स्वार्थ त्याग कर शास्त्रानुकूल यथासाध्य देव, पितृ, मनुष्य और यावन्मात्र प्राणियोंके हितमें खर्च करना चाहिये ।
यह बात विशेष ख्याल रखनेकी है- परमेश्वरके नामका जप और स्वरूपका ध्यान हर समय ही करनेके लिये चेष्टा करनी चाहिये। अर्थात् परमेश्वरके नामका जप और स्वरूपका ध्यान नित्य-निरन्तर करते हुए ही परमेश्वरके प्रीत्यर्थ, शारीरिक, कुटुम्बिक, सामाजिक, राष्ट्रीय - जागतिक एवं जीविका आदिके भी सम्पूर्ण कर्म फलासक्तिको त्याग कर ही करने चाहियें।
भगवान्ने गीताजीमें कहा है-
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।।
(गीता ८/७)
अर्थात्- इसलिये हे अर्जुन ! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर, इस प्रकार मेरेमें अर्पण किये हुए मन, बुद्धिसे युक्त हुआ तू निःसन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥
(गीता १८/५७)
अर्थात्- इसलिये हे अर्जुन ! तू सब कर्मोंको मनसे मेरेमें अर्पण करके मेरेमें परायण हुआ, समत्व बुद्धिरूप निष्काम कर्मयोगको अबलम्बन करके, निरन्तर मेरेमें चित्तवाला हो।
इस प्रकार करनेसे मनुष्यके कायिक, वाचिक, मानसिक, बौद्धिक सम्पूर्ण कर्मोंका सुधार होकर उनका समय, श्रम और पैसे सार्थक हो जाते हैं। एवं परमात्माकी दयासे अनायास ही परमशान्ति एवं परमानन्दको अर्थात् परमपदको प्राप्त हो जाता है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...