सारे संसारमें सच्चिदानन्दघन परमात्मा-ही-परमात्मा परिपूर्ण है
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
वह ब्रह्म, वह सच्चिदानन्द परमात्मा अपने आप करके परिपूर्ण है। जैसे समुद्र अपने आप करके परिपूर्ण है उसी प्रकार परमात्मा सच्चिदानन्दघन करके परिपूर्ण है। अहा ! कैसा आनन्द है, चिन्मय आनन्द है और उस आनन्दका ज्ञान भी उसीको ही है। वह नित्य आनन्द है। अनन्त आनन्द है। घन आनन्द है। कैसा घन आनन्द है जैसे देहमें आत्मा घन है, उसी प्रकार वह है। घन आत्मा इतना गहरा है जिसमें दूसरी वस्तुका प्रवेश करनेकी गुंजाइश ही नहीं है। नेत्र आदि इन्द्रियोंमें दूसरी वस्तु (चीज) प्रविष्ट हो सकती है, यहाँ तक कि मन, बुद्धिमें भी दूसरी चीज प्रविष्ट हो सकती है। आत्मामें किसी भी चीजके प्रविष्ट होनेकी गुंजाइश ही नहीं है। आत्मा ठोस है। जितने भी साकार एवं निराकार पदार्थ हैं सबमें दूसरी वस्तुके प्रविष्ट होनेकी गुंजाइश है। आत्मतत्त्वमें गुंजाइश नहीं। ज्ञान, ज्ञेय सभीमें पोल है किन्तु ज्ञातामें पोल नहीं है कि जिसमें कोई वस्तु प्रविष्ट हो जाय। चेतन घन जो परमात्मा है वह अपने आप करके परिपूर्ण है।
यह संसार परमात्मा करके ही परिपूर्ण है। सारे संसारमें सच्चिदान्दघन परमात्मा ही परमात्मा परिपूर्ण हैं। उस परमात्माके अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है। ज्ञान और ज्ञेय सभी संसार है, उस ज्ञातासे ही यह सारा संसार परिपूर्ण है। ज्ञान और ज्ञेय तो ज्ञातामें आरोपित है वास्तवमें ज्ञाता ही है। ज्ञान ज्ञेय नहीं। क्योंकि यह संसार पूर्ण जो परमात्मा हैं उनसे निकला है यानि उन्हींसे प्रकट हुआ है। परमात्मा ही इस संसारके कारण हैं और कार्य भी हैं। जिस प्रकार घडेमें मिट्टी है एवं बर्फमें जल है उसी प्रकार संसारमें परमात्मा हैं। जिस प्रकार आभूषणोंमें सोना-ही-सोना है उसी प्रकार देश-काल सब जगत्में वस्तुरूप परमात्मा - ही - परमात्मा परिपूर्ण हैं। श्वेतकेतु जब विद्या पढ़कर आया तो उसने अपने पिताको नमस्कार नहीं किया। तब उसके पिता आरुणीने श्वेतकेतुको कहा कि तुझे जिस विद्याका इतना घमण्ड है, तो तू यह तो बता कि जिस विद्यासे एक वस्तुको जाननेपर सब वस्तुओंका ज्ञान हो जाता है वह विद्या तू जानता है क्या? तब उसने सोचा ऐसा कौन-सा ज्ञान है, तब उसने विचार किया कि ऐसा ज्ञान तो मेरे गुरुदेव भी नहीं जानते यदि वे जानते तो मुझे अवश्य सिखाते। तब वह लज्जित हो गया और अपने पिताजीको हाथ जोड़कर कहा मुझे इस विद्याका ज्ञान नहीं हुआ आप मुझे ज्ञान करा दीजिये। तब उसके पिताने कहा मिट्टीका यदि ज्ञान हो। जाय तो घड़ा, , हांडी, दीपक आदि सबको जान जाता है कि यह सब मिट्टीसे ही बने हैं। उसी प्रकार पूर्णब्रह्मसे ही यह सारा संसार परिपूर्ण है उसके सिवाय कुछ है ही नहीं।
इस संसारको परिपूर्ण करनेवाला वह ब्रह्म ही है। उसे पकड़कर स्थित होनेसे पूर्ण ही रह जाता है। पकड़नेका मतलब है शरण होना। यानी अनुभव करना। परमात्माके स्वरूपका ध्यान ही पकड़ना है। ऐसे स्थित होनेपर पूर्ण ही रह जाता है। परमात्माके ध्यानमें मस्त हो जाता है तो परमात्माके सिवाय कुछ भी नहीं रहता। एक पूर्ण ब्रह्म परमात्मा ही रह जाते हैं। इस प्रकारसे ज्ञान होनेका फल परमात्माकी प्राप्ति है। इससे शान्ति मिलती है अतः यह शान्ति पाठ है, इसके बाद तीन बार शान्तिः शान्तिः शान्तिः बोला जाता है। एवं तीनों ताप भस्म हो जाते है।
प्रश्न- भगवान्को स्वीकार करना कैसे हो?
उत्तर- परमात्मा ही हैं उसके सिवाय दूसरी कोई चीज है ही नहीं। उस चीजको पकड़कर और सब चीजोंको छोड़ दें। उसमें ही स्थित हो जावे जैसे गीताजीमें कहा है-
शनैः शनैरुपरमेदबुद्धया धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥
(गीता ६/२५)
अर्थात्- क्रम-क्रमसे अभ्यास करता हुआ उपरामताको प्राप्त होवे तथा धैर्ययुक्त बुद्धिद्वारा मनको परमात्मामें स्थित करके, परमात्मा के सिवाय और कुछ भी चिन्तन न करे।
धीरे-धीरे धीरज धारण की हुई बुद्धिके द्वारा मनको परमात्मामें लगावे, और किसी दूसरेका चिन्तन न करे, फिर केवल परमात्मा ही बच जाते हैं और फिर केवल परमात्माका ही चिन्तन करे।
इस प्रकार परमात्माको पकड़कर यानी स्वीकार करके ध्यानके द्वारा मनको परमात्मामें लगा देना चाहिये। परमात्मामें मनको प्रवेश करा दें तो फिर परमात्माके सिवाय और किसीका भी चिन्तन न करें तो फिर केवल परमात्मा ही रह जाते हैं। इस प्रकारसे अभ्यास करें कि परब्रह्मके सिवाय कुछ है ही नहीं। इस प्रकार परमात्माको तो स्वीकार करे तथा और सबका अत्यन्त अभाव कर दें। ब्रह्मरूप स्वीकार कर सबका बाध (अभाव) कर दिया तो सबका बाध (अभाव) हो गया। और सब संसार मिथ्या है, स्वप्नवत् है ऐसा माननेसे भी सारे संसारका अभाव हो जाता है। यह दो प्रकारसे होता है, गीताजीमें बताया है-
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ॥
(गीता १३/३०)
अर्थात्- यह पुरुष जिस कालमें भूतोंके न्यारे-न्यारे भावको एक परमात्माके संकल्पके आधार स्थित देखता है तथा उस परमात्माके संकल्पसे ही संपूर्ण भूतोंका विस्तार देखता है उस कालमें सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होता है।
जो कुछ है सब ब्रह्म है, उस ब्रह्मसे ही सारा संसार परिपूर्ण है क्योंकि उस पूर्णब्रह्मसे यह सारा संसार निकला है, प्रकट हुआ है। अतः सब कुछ परमात्माका ही स्वरूप है। जिस प्रकार जलसे बर्फ बना है और वह जलका ही स्वरूप है, जो कुछ सोनेके आभूषण हैं। वह सोनेका ही स्वरूप है।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ॥
(गीता १३/३०)
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
(गीता ७/१९)
अर्थात्- जो बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है अर्थात् वासुदेवके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, इस प्रकार मेरेको भजता है वह महात्मा अति दुर्लभ है।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥
(गीता ४/२४)
अर्थात्- उन यज्ञके लिये आचरण करनेवाले पुरुषोंमेंसे कोई तो इस भावसे यज्ञ करते हैं कि अर्पण अर्थात् स्रुवादिक भी ब्रह्म है और हवि अर्थात् हवन करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप अग्निमें ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है, इसलिये ब्रह्मरूप कर्ममें समाधिस्थ हुए उस पुरुष द्वारा जो प्राप्त होने योग्य है, वह भी ब्रह्म ही है।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥
(गीता १३/१५)
अर्थात्- वह परमात्मा, चराचर सब भूतोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचररूप भी वही है और वह सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय है तथा अति समीपमें और दूरमें भी स्थित वही है।
सबका एक भाव होकर भी अलग-अलग अर्थ किया गया है। तत् शब्दका अर्थ है ब्रह्म । चारों श्लोकोंसे ब्रह्मका प्रतिपादन किया गया है, सिवाय ब्रह्मके और कुछ नहीं है। इसी बातको बतानेकी अलग-अलग पद्धति है। सब कुछ वासुदेव है ऐसा माननेवाला दुर्लभ है। यह जो अनुभव करता है कि जो कुछ है परमात्मा ही है वह ब्रह्मको ही प्राप्त होता है। फिर बताया कि परमात्मा सब भूत- प्राणियोंके बाहर भीतर सब जगह परिपूर्ण है। चर और अचर सब प्राणियोंमें वह परमात्मा परिपूर्ण है तथा चर और अचर भी वही है। अभिप्राय यह है कि परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है। चर और अचरमें परमात्मा सूक्ष्मरूपसे होनेके कारण ही समझमें नहीं आता। जिस प्रकार दियासलाईमें आग सूक्ष्मरूपसे है, जलानेसे समझमें आ जाती है उसी प्रकार ही यह परमात्मा सूक्ष्मरूप होनेसे जल्दी ही समझमें नहीं आता। परमात्मा नजदीक से नजदीक हैं, उससे नजदीक और कोई भी नहीं है एवं दूर-से-दूर भी है। कालकी दृष्टिसे वर्तमान कालमें नजदीकसे भी नजदीक है। वह परमात्मा इसमें भी है और दूर-से-दूर, भूत तथा भविष्यकाल है इनमें भी परमात्मा है। तीनों कालोंमें परमात्मा हैं और एक रस भी हैं। देशकी दृष्टिसे भी परमात्मा दूर-से-दूर है, नजदीक-से- नजदीक हैं। दूर-से-दूर तथा नजदीक से नजदीक जो कुछ भी है वह परमात्माका ही स्वरूप है।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ॥
(गीता १३/३०)
जब भूतोंका पृथक्-पृथक् भाव एकमें ही हो जाता है यानी सब परमात्मा-ही-परमात्मा है। जैसे स्वर्णमय आभूषणोंकी स्वर्ण [सोने] से ही उत्पत्ति हुई है। ऐसे ही सबका पृथक् भाव एकमें ही स्थित है। घटाकाशका आकाश महाकाशमें ही स्थित है उसी प्रकार आत्माका पृथक्-पृथक् भाव उस एकमें ही स्थित है। परमात्माकी सृष्टिमें उपादान तथा निमित्त कारण है वासुदेवः सर्वमिति (गीता ७/१९) अर्थात्– सब कुछ वासुदेव ही है।
सब श्लोकोंमें ब्रह्मरूपता का ही वर्णन है। वर्णन करनेका ढंग अलग-अलग है। सब कुछ ब्रह्म ही है इसमें परिणामपनेका दोष आ जाता है चाहे किसी भी प्रकारसे मान लो । साधन कालमें दोष तो कायम रहते हैं। जो कुछ देखनेमें सुननेमें आता है सब माया मात्र है। कुछ है ही नहीं इस प्रकार सबका बाध (अभाव) कर दिया। बाध (अभाव) करनेवाली वृत्तिका भी बाध (अभाव) कर दिया। फिर बाध (अभाव) करनेवाला जो बच गया उससे भी परमात्मा विलक्षण है। सबका बाध (अभाव) होनेके बाद भी परमात्मा विलक्षण ही रह जाते है। वह परमात्मा अद्भुत हैं परमात्माका स्वरूप कैसा ही मान लो। सबको काटकर जो बच गया उस विषयकी जो मान्यता है उससे भी विलक्षण है। चाहे कोई साकार माने या निराकार माने, जैसा रूप माना है जैसा लक्ष्य किया है उससे भी वह परमात्मा विलक्षण हैं। साधन कालमें जो मान्यता, लक्ष्य, ज्ञान है उससे वास्तविक स्वरूप पृथक् है। भावना प्रधान है। केवल एक ब्रह्म ही है ऐसी एकता मानने पर अपने आप ही ज्ञान हो जाता है।
प्रश्न- सबका नेति नेति करके अभाव कर दिया, उस वृत्तिका भी अभाव कर दिया तो फिर अभाव करनेवालेको क्यों बचाया।
उत्तर- ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेयकी जो त्रिपुटी है, ज्ञेयका बाध (अभाव) कर दिया सबको बाध (अभाव) करके बाध (अभाव) करनेवाली वृत्तिका भी बाध (अभाव) कर दिया। केवल भाव वाला ज्ञाता बचा उससे भी वह ज्ञाता विलक्षण है। बुद्धि विशिष्ट ही ब्रह्मका स्वरूप है। चाहे एकता, चाहे समता मान लो एक ही है। ब्रह्म सम है, वह ब्रह्मकी समता जड़ नहीं। मान्यताकी समता चाहे सूक्ष्मकी तह में चला जाय तो यह मनकी ही समता है, अतः जड़ है।
इहैव तैर्जितः सर्गों येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
(गीता ५/१९)
अर्थात्- जिनका मन समभावमें स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है, अर्थात् वे जीते हुए ही संसारसे मुक्त हैं, क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही स्थित हैं।
मनकी समता जिसमें है यानी जिसके मनमें समता है उसकी ब्रह्मके ही स्वरूपमें स्थिति मान लेनी चाहिये। जिसकी बुद्धिमें, मनमें समता हो जाती है वह ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है। मनकी समता ही कसौटी से है, मन-बुद्धिमें जो समता है सब जड़ है। ब्रह्म चिन्मय और सम है यह बात समझी बुद्धिसे। बुद्धिसे ब्रह्मको चेतन मानकर सम समझता है। आकाश समान है इसी प्रकार बुद्धिमें ब्रह्मकी समताका आरोप कर लिया। चिन्मय ब्रह्मकी जब प्राप्ति हो जाती है तब समझनेमें बुद्धिकी वृत्तिसे ही समझा जाता है। वह जो समझा जाता है वह बुद्धि मिश्रित है, असली और आगे है। किसी भी तरह चेतन मान लो । सबको बाध (अभाव) करनेके बाद चेतन रह गया। वह चेतन भी वास्तवमें जड़ है क्योंकि बुद्धि मिश्रित है किन्तु अपेक्षाकृत चेतन है। सब जड़ पदार्थ है उनमें अपेक्षाकृत चेतन माना गया है, बुद्धि करके मिला हुआ ब्रह्मका स्वरूप है। अपनी मान्यताके अनुसार जो ब्रह्मका स्वरूप है उससे वास्तविक ब्रह्मका स्वरूप विलक्षण है। जड़से विलक्षण चेतन होता है इसलिये परमात्मा चिन्मय हैं। उसका ज्ञान उसीको ही है। यह जो चेतनका स्वरूप है वास्तविक उससे भी विलक्षण है। चेतनका ज्ञान चेतनको ही है। यह जो निश्चय है वह बुद्धि मिश्रितका ही निश्चय है। हमारे साधनकालमें जो चेतनकी परिभाषा है उससे बहुत ही विलक्षण है। हम साधनकालमें परमात्माको सत् मानते हैं।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥
(गीता २/१६)
अर्थात्- हे अर्जुन ! असत् वस्तुका तो अस्तित्त्व नहीं है और सत्का अभाव नहीं है, इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व ज्ञानी पुरुषोंद्वारा देखा गया है।
इस प्रकार अभाव न होनेवालेका नाम सत् है। सत् वस्तुका अभाव नहीं होता, असत्का भाव नहीं होता। इन दोनोंका अन्तर तत्त्वदर्शियोंके द्वारा देखा गया है। यह मान्यतामें आ गया जड़ हो गया। वह ऐसा नहीं इससे भी विलक्षण है। ब्रह्म अनादि है न सत् तथा न असत् शब्दसे ही कहा जाता है। सत् शब्दसे जो समझा जाता है वह उससे विलक्षण है अतः उसका वास्तविक वर्णन हो ही नहीं। सकता।
गीताजीमें भगवान् ने कहा है- अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते । (गीता १३/१२) अर्थात् वह आदिरहित, परम ब्रह्म अकथनीय होनेसे न सत् कहा जाता है और न असत् ही कहा जाता है। और गीता ९/१९ में कहा है- सदसच्चाहमर्जुन । अर्थात्- हे अर्जुन ! सत् और असत् भी यानी सब कुछ मैं ही हूँ। और गीता ७/१९ में कहा है- वासुदेवः सर्वमिति । अर्थात्- सब कुछ वासुदेव ही है यानी जो कुछ है सब परमात्मा ही है। जो ऐसे देखता है वह दूसरोंकी हिंसा नहीं करता अतः वह परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥
(गीता १३/२८)
अर्थात्- क्योंकि वह पुरुष सबमें समभावसे स्थित हुए परमेश्वरको समान देखता हुआ अपने द्वारा अपनेको नष्ट नहीं करता, अर्थात् शरीरका नाश होनेसे अपने आत्माका नाश नहीं मानता है, इससे वह परमगतिको प्राप्त होता है।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥
(गीता १० / २०)
अर्थात्- हे अर्जुन ! मैं सब भूतोंके हृदयमें स्थित सबका आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतोंका आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।
सारे भूतोंकी आत्मा परमात्मा ही है। सारे भूतोंमें परमात्माको आत्मा रूपसे जो देखता है वह उस चेतनके अतिरिक्त सबका अभाव देखता है। नाश होनेवाली चीजोंमें नाश रहित है, वह परमात्मा है। सबका विनाश होता है केवल परमात्मा ही नाश रहित है।
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥
(गीता ६/२३)
अर्थात्- जो दुःखरूप संसारके संयोगसे रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिये। वह योग न उकताये हुए चित्तसे अर्थात् तत्पर हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है। यहाँ दुःखका अभाव बतलाया। यहाँ सुखका ही प्रकरण है, आनन्द है यह लौकिक नहीं है। वह आनन्द ऐसा है जिसको प्राप्त कर लेनेके बाद साधक विचलित नहीं होता वह अपने स्वरूपभूत आनन्दमें नित्य-निरन्तर मग्न रहता है।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
(गीता ६ / ३० )
अर्थात्- जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता है, क्योंकि वह मेरेमें एकीभावसे स्थित है।
जो सम्पूर्ण संसारको परमात्मामें और जो परमात्माको सम्पूर्ण संसारमें देखता है, वह उसी स्थितिको ही प्राप्त होता है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...