Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

मनुष्यमें कितने ही दोष हों भजनसे सबका नाश होकर भगवत् प्राप्ति हो जाती है

प्रवचन नं० 3
दिनांक 14-5-1949, रात्रीस्वर्गाश्रम

इस बातकी ओर विशेष ध्यान देना चाहिये कि मनुष्यमें कितने ही दोष हों भजनसे सबका नाश होकर भगवत्प्राप्ति हो जाती है।

प्रश्न- इस विषयमें उन्नति होनेकी परीक्षा कैसे हो?

उत्तर- इस बातके लिये यह कसौटी है कि भगवान्‌का भजन- ध्यान करनेसे मनुष्यमें दैवी - सम्पत्ति आती है और आसुरी- सम्पत्तिका नाश होता है। जिस प्रकार सूर्य भगवान्‌के आगमन के पहले (पूर्व ही) कुछ-कुछ प्रकाश होनेसे तारागणोंकी ज्योति मलीन पड़ने लगती है, ज्यों-ज्यों सूर्य भगवान् उदय होने लगते हैं त्यों-त्यों तारे मिटने लग जाते हैं। अरुणोदयके समय केवल एक-दो तारे ही दिखते हैं और उदय होनेपर एक भी नहीं दिखता। इसी प्रकार मोह रूपी रात्रीमें जब भगवान् रूपी सूर्यनारायणका उदय होता है तो समस्त मायिक दृश्य विदा हो जाते हैं। अरुणोदयके समयमें रहनेवाले वे एक-दो काम-क्रोध आदि भी नहीं रहते उस पुरुषको संसारके सब विषय-भोग फीके लगने लगते हैं और उनमें रस नहीं रह जाता। उसके अवगुण नष्ट हो जाते हैं, उस प्रकाशमें उसकी अपनी यथार्थ स्थिति भी दिखने लगती है।

मनुष्यको हर समय दोषोंके जो समूह हृदयमें स्थित हैं उनको निकालनेका प्रयत्न करते रहना चाहिये। विषयोंसे जितनी कम अनुरक्ति होगी उतने हम प्रभुके समीप होंगे। परमात्मा सम हैं, परमात्माके समीप पहुँचने पर समता आती है। जिसके पास जितनी समता होगी वह उतना ही प्रभुके नजदीक होगा। राग-द्वेषके कारण ही दुःख होता है, मनकी प्रतिकूलताको दुःख और अनुकूलताको सुख कहते हैं। जहाँ अविद्या रहती है वहीं दोष हैं, अनुकूलता- प्रतिकूलता यह दो वृत्तियाँ हैं इनमें ही द्वन्द्व होते हैं। और भगवत्प्राप्तिसे इनका नाश हो जाता है। जिसमें जितना राग-द्वेष कम होता है उसे उतना ही प्रभुके पास पहुँचा हुआ समझना चाहिये । यदि भजन-ध्यान करनेवाले व्यक्तिसे पाप क्रियायें होती हैं तो समझना चाहिये कि उससे उचित भजन नहीं होता, उसको अपना भजन ठीक करना चाहिये। भजन मनसे करना उत्तम है और उससे अधिक उत्तम उसे गुप्त रखना है, वह भजन भी प्रभुके ध्यान सहित करना चाहिये। निष्कामभाव और उत्साहसे करनेकी तो बात ही क्या है। भजनकी कमीके कारणसे यथेष्ट लाभ नहीं मिल रहा है। उन्नतिके लिये हमेशा ध्यान रखना चाहिये कि मेरेमें अमुक कमी है, परीक्षाका दूसरा उपाय आत्म निरीक्षण करना है।

दुर्गुणोंका समूह आसुरी सम्पत्ति है और सद्गुणोंका समूह दैवी सम्पत्ति है। भगवान्ने गीता अध्याय 16 श्लोक 1, 2, 3 में दैवी सम्पत्तिके लक्षण बतलाये हैं। हिंसा आदि कामोंका नाम दुराचार है। भजन-ध्यानका भाव रखना, प्रिय बोलना, क्षमा, दया, उदारता आदि सद्गुण और तदनुसार क्रियायें सदाचार हैं। सद्गुण सदाचारकी वृद्धि भजन-ध्यानके कारण स्वाभाविक ही होती है, दैवी सम्पत्तिवाले ही भगवान्का भजन करते हैं।

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥

(गीता १६ / १)

अर्थात्- श्रीभगवान् बोले- भयका सर्वथा अभाव, अन्तःकरणकी पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञानके लिये ध्यानयोगमें निरन्तर दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियोंका दमन, भगवान्, देवता और गुरुजनोंकी पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मोंका आचरण एवं वेद-शास्त्रोंका पठन-पाठन तथा भगवान्‌के नाम और गुणोंका कीर्तन, स्वधर्मपालनके लिये कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियोंके सहित अन्तःकरणकी सरलता ।

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ॥

(गीता १६/२)

अर्थात्- मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकार भी किसीको कष्ट न देना तथा यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करनेवालेपर भी क्रोधका न होना, कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानका त्याग एवं अन्तःकरणकी उपरति अर्थात् चित्तकी चंचलताका अभाव और किसीकी भी निन्दादि न करना तथा सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियोंका विषयोंके साथ संयोग होनेपर भी उनमें आसक्तिका न होना और कोमलता तथा लोक और शास्त्रसे विरुद्ध आचरणमें लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओंका अभाव।

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥

(गीता १६ / ३)

अर्थात्- तेज, क्षमा, धैर्य और बाहर-भीतरकी शुद्धि एवं किसीमें भी शत्रुभावका न होना और अपनेमें पूज्यताके अभिमानका अभाव, यह सब तो हे अर्जुन ! दैवी संपदाको प्राप्त हुए पुरुषके लक्षण हैं।

दैवी सम्पत्तिवाले महात्मा मुझको सब भूतोंका आदि समझकर अनन्यमनसे भजते हैं और भजनसे दुराचार मिटकर अच्छे गुण आ जाते हैं। गीताजी अध्याय 9 श्लोक 30-31 में भगवान्ने कहा है कि अतिशय दुराचारी पुरुष भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है तो वह भी साधु मानने योग्य है क्योंकि उसने अच्छा व्यवसाय यानी निश्चय किया है इसलिये वह शीघ्र ही धर्मात्मा होकर शाश्वत शान्तिको प्राप्त हो जाता है। हे कौन्तेय ! मेरे भक्तका कभी नाश नहीं होता, इस प्रकार विश्वास दिलाकर भक्तिके प्रभावसे पाप नाश होकर परमात्माकी प्राप्ति होनेकी बात भगवान्ने गीताजीमें कही है। इन सब बातोंको ध्यान में रखकर परमात्माका भजन करना चाहिये। प्रभुका भजन करना चाहिये, प्रभुका भजन करके यदि कुछ लाभ न दिखे तो यह समझना चाहिये कि भजनमें कुछ गलती है और उस गलतीका सुधार करना चाहिये। भजन बढ़ाना चाहिये इससे प्रत्यक्ष लाभ होगा। अपने गुणोंकी वृद्धि हो रही है तो भगवान्के समीप हैं ऐसा समझना चाहिये। ऐसा नहीं होता हो यानी गुण वृद्धि नहीं होती है तो भगवान्‌के विरहमें व्याकुल होकर एकान्तमें रोना चाहिये और कहना चाहिये कि मैं आपकी शरण हूँ आपकी कृपासे ही मेरा सुधार हो सकता है। हे नाथ ! मुझे ऐसी शक्ति दो कि जिससे मैं आपको कभी न भूलूँ । इस प्रकार प्रार्थना करनेसे भी वे सुनते हैं और यह बात भी है कि भक्ति करनेसे अज्ञानका नाश होकर ज्ञान हो जाता है। तुलसीदासजी कहते हैं-

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार ।

तुलसी भीतर बाहेरहूँ जौं चाहसि उजिआर ॥

(रा.च.मा. बालकाण्ड दोहा -२१)

अर्थ- तुलसीदासजी कहते हैं जो तू बाहर और भीतर दोनों ओर प्रकाश चाहता है तो रामनाम रूपी मणिके दीपको जीभ रूपी देहरीपर रख ले अर्थात् राम नामका जप कर ।

ऐसा करनेसे लोक और परलोक दोनों ही बन जाते हैं। प्रभुका दर्शन हो जाता है, पाप नाश हो जाते हैं, मन प्रसन्न होता है और तत्त्वज्ञान हो जाता है।

हृदयमें भगवान्का नाम उच्चारण करनेसे पापका नाश इस प्रकार हो जाता है जैसे अग्निकी चिन्गारीसे घासकी ढेरी जलकर भस्म हो जाती है। भगवान्‌के भजनके प्रतापसे भगवान् उसके वशमें हो जाते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं-

सुमिरि पवनसुत पावन नामू ।

अपने बस करि राखे रामू ॥

(रा.च.मा.बा. २६/३)

पवनसुत हनुमानजीने भगवान्के पावननामका जप करके भगवान्‌को अपने वशमें कर लिया। भजन करनेवालेके भगवान् आधीन हो जाते हैं। अम्बरीष और दुर्वासाका प्रमाण है, दुर्वासाजीसे भगवान् कहते हैं कि मैं तो अम्बरीषके वशमें हूँ, भक्तके अपराधीको मैं क्षमा नहीं कर सकता।

भजनके प्रतापसे अजामिल, गज, गणिका आदि पापी भी तर गये, मैं तुलसीदास राम-नामकी महिमाका क्या वर्णन करूँ स्वयं भगवान् भी अपने नामके गुणोंको नहीं कह सकते। इस प्रकार गीता और रामायणमें सब जगह भगवान्‌के भजन - ध्यानकी महिमा गायी गई है। भगवान्के नामका जप और स्वरूपका ध्यान इसकी सदैव स्मृति रखी जावे तो बहुत जल्दी ही संसारकी सत्ताका अभाव होकर तत्त्वज्ञान हो जाता है अथवा प्रभुकी प्राप्ति हो जाती है। जिस प्रकार सागरमें जल इकट्ठा हो जाता है उसी प्रकार भजन करनेवालेमें सब सदाचार और सद्गुण आ जाते हैं। भक्त सदैव अपनेको नीचा मानता है पर उसमें अवगुण नहीं रहते, सद्गुण आ जाते हैं। ऐसे ही सबको अपना उत्थान करना चाहिये, पतनकी ओर नहीं जाना चाहिये। भगवान्‌ के ऊपर निर्भर होकर कमर कसके साधन करना चाहिये। भजन करनेसे सब ओर आनन्द-ही-आनन्द हो जाता है और भक्तिका प्रकाश होनेसे दुर्गुण विदा हो जाते हैं।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...