बुराई करनेवालेके साथ भी भलाईका व्यवहार करें
प्रश्न- भगवान्की स्मृति कैसे हो और व्यवहारिक तथा अध्यात्मिक उन्नति कैसे हो सकती है।
उत्तर- बहुत बढ़िया बात है। भगवान्में प्रेम होनेसे ही श्रद्धा होती है, प्रेम श्रद्धासे होता है। भगवान्में श्रद्धा होनेका उपाय है अन्तःकरणकी शुद्धि या श्रद्धावान् पुरुषोंका संग। जिनका भगवान्में प्रेम होवे, जिनकी भगवान्के प्रति श्रद्धा हो उनका संग करनेसे श्रद्धा-प्रेम बढ़ता है। श्रद्धा-प्रेम होनेसे निरन्तर स्मृति बनी रहती है। अन्तःकरणकी शुद्धिका उपाय है, दूसरोंका उपकार करना किन्तु निष्काम भाव अवश्य होना चाहिये। सेवा, परोपकार, यज्ञ, दान, तप आदि सभी निष्काम हों तो अन्तःकरणकी शुद्धि हो जाती है। और भी सरल उपाय है-भगवान्के नामके निरन्तर जपसे भी परमात्माकी स्मृति रह सकती है। तीर्थ, व्रत, प्राणायाम सभी भगवान्की स्मृतिके ही हेतु हैं इनसे भी अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। निष्कामभावसे सदा भगवान्की स्मृति रहती है और सकामभावसे फलकी समाप्तिके उपरान्त नष्ट हो जाती है फिर स्मृति नहीं रहती ।
आध्यात्मिक उन्नति तभी हो सकती है जब मनमें वैराग्य होवे। वैराग्य होनेसे अपने आप ही साधन तेज हो जाता है। वैराग्यसे चित्तकी वृतियाँ संसारकी तरफसे हटकर परमात्माकी तरफ लग जाती हैं। भगवन्नामका अभ्यास करना चाहिये। वैराग्यसे उन्नति होती है यह बात गीताजीमें भी बताई है-
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।
(गीता ६ / ३५ )
अर्थात्- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! अभ्यास अर्थात् स्थितिके लिये बारम्बार यत्न करनेसे और वैराग्यसे यह चंचल मन वशमें होता है इसलिये इसको अवश्य वशमें करना चाहिये।
अर्जुनके प्रति योगकी बात बताई। जब योग हो सकता है तो आध्यात्मिक उन्नति हो जाय इसमें तो कहना ही क्या है। अर्जुनने भगवान्से पूछा-
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
(गीता ६ / ३४)
अर्थात्- क्योंकि हे कृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन स्वभाववाला है तथा बड़ा दृढ़ और बलवान् है, इसलिये उसका वशमें करना मैं वायुकी भाँति अति दुष्कर मानता हूँ।
तब भगवान्ने कहा कि अभ्यास और वैराग्यसे यह मन वशमें हो सकता है। आध्यात्मिक उन्नति सत्संग स्वाध्यायसे भी हो सकती है। परमात्म-विषयक चीजको जितना जाने उतनी ही श्रद्धा होती है। आध्यात्म विषयक उन्नति सत्संग, स्वाध्यायसे ही विशेष रूपसे हो सकती है।
त्यागसे एवं सच्चे व्यवहारसे व्यवहारिक उन्नति हो सकती है। मारवाड़में व्यापारके विषयमें कहावत है- साँचो बोले, पूरो तोले, बीने ग्राहक ढूँढ़तो डोले । व्यापार यदि सच्चा हो तो ग्राहक दुकानको [व्यापारीको] ढूँढते फिरते हैं एवं उसका उन ग्राहकोंपर बड़ा ही अच्छा प्रभाव पड़ता है। हमारा व्यापार यदि सच्चा हो तो हमारी छाप ग्राहकोंपर पड़ती है। अंग्रेजोंका व्यापारके मामलेमें हिन्दुस्तानियों पर आज बड़ा ही प्रभाव है कारण उनके व्यापारकी सत्यता । अंग्रेजोंका गेहूँ, सूत, कपड़ेका जितना भी व्यापार था वह बड़ा ही सच्चा व्यापार था। मिल [फैक्ट्री] से माल देते तो इकरार [सौदा] किये हुयेके माफिफ ही देते, चाहे कम्पनी फेल ही क्यों न हो जावे। उनकी व्यापारिक दृष्टिसे हमारे पर छाप थी। कच्चा माल खरीदते तो हिन्दुस्तानियोंकी तरह मोल-भाव करनेके बाद बदलते नहीं। हिन्दुस्तानियोंकी व्यापारमें असत्यताके कारण ही उन्नति नहीं होती।
गीताप्रेसमें, कल्याण पत्रिकाके लिये हजारों रुपयोंका कागज लेनेका काम पड़ता है यदि टीटागढ़ पेपर एजेन्सीसे काम न होकर किसी हिन्दुस्तानी मिलसे काम होता तो कल्याण पत्रिकाको रोकना पड़ता। अभी बीचमें कागजोंके मूल्यमें बड़ी ही तेजी हो गई थी। टीटागढ़की मिल अंग्रेजोंके कारण ही है। हिन्दुस्तानी मिल पर कोई विश्वास तक नहीं करते। अहमदाबाद वाली मीलोंका भी व्यवहार ठीक नहीं वे भी धोखा देनेकी चेष्टा करते हैं। व्यवहारकी उन्नतिके लिये सच्चाई होनी चाहिये। शास्त्रोंका उदाहरण देना तो मैं इस समय उचित नहीं समझता। उस समय व्यापार कितना उच्चकोटिका था, द्वापरमें तो अच्छे-अच्छे वैश्य हुए। तुलाधार वैश्यका व्यवहार बड़ा ही उच्चकोटिका था, उसकी दुकानपर इतनी भीड़ रहती थी कि रातको 9 बजेके बाद ही ग्राहक निपटते । पद्म-पुराणमें कथा आती है कि नरोत्तम नामक ब्राह्मण तुलाधार वैश्यके पास उपदेश लेनेके लिये आया तो वैश्य बोला अभी समय नहीं है, ऐसा उस वैश्यने उत्तर दिया और कहा यह ग्राहकोंकी भीड़ रातके 9 बजे तक रहेगी इसके बाद समय मिलेगा। ज्यादा जल्दी हो तो पासमें ही एक सज्जन जिसका नाम अद्रोहक है वे बड़े महात्मा हैं वे आपको उपदेश करेंगे। ऐसा सुननेपर नरोत्तम ब्राह्मणके चित्तमें क्षोभ तथा क्रोध आ गया और बोला मैं यहाँ आया शिक्षाके लिये और आप मुझे कहते हो कि समय नहीं है, तब तुलाधार वैश्यने कहा नरोत्तम । मैं वह बगुली नहीं हूँ जिसे तुमने अपनी क्रोध दृष्टिसे भस्म कर दिया था और वहाँ जो आकाशवाणी हुई उसका भी मुझे यहाँ बैठे ज्ञान है और तुम्हारी धोती [वस्त्र] भी जो आकाशमें बिना सहारे सूखती थी और तुम्हारे द्वारा क्रोध करनेपर बगुली भस्म हो गई इसीकारणसे आकाशमें सूखना बन्द हुई है। तुलाधारके घरमें भगवान् ब्राह्मण रूपसे रहते थे, उन्होंने कहा मैं अद्रोहकका घर जानता हूँ तो वह नरोत्तम ब्राह्मण उन ब्राह्मण देवताके साथ गये उन्होंने अद्रोहकके घरपर पहुँचा दिया। उस तुलाधार वैश्यका व्यवहार शुद्ध एवं उच्चकोटिका था इसीलिये उसकी दुकानपर ग्राहकोंकी भीड़ लगी रहती थी इसी कारण उसकी बड़ी भारी उन्नति थी। द्वापरमें नन्दभद्र बहुत उच्चकोटिके वैश्य तथा शिव भक्त हुए। शिव भक्ति तथा निष्कामभावसे सेवाके कारण वह उत्तमगतिको चले गये। उनके व्यापारमें झूठका नाम भी नहीं था, सबके साथ सम-व्यवहार था, विषम नहीं था । त्यागपूर्ण व्यवहार हो व व्यापार सत्य हो तो उन्नति हो सकती है। आरम्भमें कठिनाई है। किन्तु अन्तमें इस लोक एवं परलोक दोनोंमें उद्धार हो सकता है। आरम्भमें भले ही कष्ट हो नतीजा अच्छा ही होता है। जैसे खेती करते हैं पहले कष्ट होता है पर अन्तमें नतीजा धान (अन्न) तैयार हो जाता है। संसारमें धर्मका पालन करना कठिन है किन्तु नतीजा अच्छा है यदि धर्मका पालन सहजमें ही हो जाता तो पाप कौन करता? पर धर्मका पालन करनेसे फल तो अच्छा है। सबके साथ व्यवहार उच्चकोटिका करना हो तो बिना अंहकार छोड़े कुछ भी नहीं होता। अहंकारका अभाव होना चाहिये। और त्यागपूर्ण व्यवहार होना चाहिये। स्वार्थके त्यागसे सुधार हो जाता है, स्वार्थके त्यागसे लाभ-ही-लाभ होता है।
रेल में जिस क्लास (श्रेणी) का टिकट है उसको उसी प्रकार काममें लावे तो कोई बड़ाई नहीं जैसे अपने रिजर्वेशन डिब्बेमें बैठे हैं आरामसे बैठे हैं तो इसमें त्याग या उदारता नहीं, न तो दूसरेकी सीट रोके और न देवे तो यह न पाप ही होगा न पुण्य ही, यह तो नीति है। थर्ड क्लासकी या इन्टर क्लासकी टिकट लेकर डिब्बेमें सो गये या जागते हुए ही कहें कि नींद आ रही है और दूसरोंको जगह न दें तो पाप है। खुद दुःख सह लें, दूसरोंको जगह देना यह पुण्य है। न देना न लेना यह तो नीति है, हरेक काममें त्यागका व्यवहार करना चाहिये। कहीं ठहरे हुए हैं; वहाँ मन, वाणीसे किसीका उपकार करें तो वह उच्चकोटिकी चीज है। ऐसा करनेपर अपना सुधार तथा कल्याण हो जाता है, इसीका नाम धर्म है। स्वार्थका हरेक काममें त्याग करना चाहिये। हमने कोई चीज [वस्तु] खरीद ली बादमें वह चीज वहाँ खत्म हो गई, तो फिर दूसरा आदमी यदि वह चीज लेने आवे तो उसे यह कहना चाहिये कि अब तो यह चीज खत्म हो गई आप और हम दोनों इसे आधी आधी बाँट लें यही ठीक है। स्वार्थका त्याग ही होना चाहिये दूसरी बात यह है कि दूसरोंमें गुण अथवा अवगुण दोनों ही होते हैं उनके गुणोंको ही कहना चाहिये, अवगुणोंको कहना बिल्कुल खराब है। सच्ची बात कहनी झूठी बात नहीं। अवगुणोंमें तो सदा मौन ही रहना चाहिये यही श्रेयस्कर है। अवगुण कहनेसे दुख होता है इसलिये अवगुणोंको कभी भी नहीं कहना चाहिये। गुणोंके कहनेसे सभी खुश होते हैं नीच व्यक्ति भी खुश होते हैं। नीच व्यक्ति भी खुश होता है तो भगवान्की प्रसन्नतामें तो बात ही क्या है। यों तो किसीके गुण या अवगुण दोनोंही नहीं कहना चाहिये अगर कहनेका काम पड़े तो गुणोंका ही बखान करना चाहिये ग्रहण भी गुणोंका ही करना चाहिये, अवगुणोंका नहीं ।
कोई अपने साथ बुरा बर्ताव करे तो उसके साथ अपने तो अच्छा ही व्यवहार करना चाहिये। यदि दूसरेके बुरे बर्तावको बर्दाश्त कर ले तो दो नम्बरकी बात है। एक नम्बर बनना हो तो बुराई करनेवालेके साथ भलाई ही करनी चाहिये। राजा युधिष्ठिरने बुराई करनेवालोंके साथ भी भलाईका ही बर्ताव किया था। अपने साथ भी कोई बुरा बर्ताव करे तो अपने भी उसके साथ भलाईका ही व्यवहार करना चाहिये।
व्यवहारको सुधारनेसे ही हमारी कीर्ति इस लोकमें तथा मरनेके बाद भी होगी और अच्छे लोकोंकी प्राप्ति होगी। जहाँ तक हो सके अच्छे-से-अच्छा व्यवहार करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। अपनी तरफसे अच्छा व्यवहार होगा तो उसकी तरफसे भी अच्छा ही होनेकी संभावना है। अपने तो कर्तव्य समझकर भला व्यवहार ही करना चाहिये। बदलेमें हितकी भावना ही करनी चाहिये, अहित करनेवालेके साथ अहित नहीं करना चाहिये । कोई बुरा करे तो उसके साथ बुरा तथा कोई भला करे तो उसके साथ भला, यह तो नीति है यह बात तो पशुओंमें भी है। एक कुत्ता दूसरेको भोंकता है तो दूसरा कुत्ता भी उसे भोंकता है, एक कुत्ता दूसरेको काटता है तो दूसरा कुत्ता भी उसे काटता है। काटनेवालेके साथ काटना एवं चाटनेवालेके साथ चाटना यह बात तो कुत्ते और पशुओंमें भी मिल सकती है। एक बन्दर दूसरेके बन्दरके खाज खुजलाता है तो दूसरा भी उसके खुजलाता है। एक गधा रेंगता है तो दूसरा भी रेंगता है। रेंगना, खुजलाना तो गधे-बन्दरमें भी है, हम मनुष्य हैं हमारेमें तो विशेषता होनी ही चाहिये। बुराई करनेवालेके साथ भलाई करनी चाहिये, अपने साथ कोई बुराई करे और हम बदलेमें भलाई करें तो अच्छा है। यदि ऐसा न हो सके तो बुराईको बर्दाश्त तो करना ही चाहिये।
किसीकी भलाई करें तो प्रत्युपकार नहीं चाहें, और कोई अपनी भलाई करे तो बदलेमें उसका हित करें। यदि भलाई करके उसे बार-बार कहेगा या जतायेगा तो सामनेवाला यदि स्वीकार नहीं करेगा तो दुःख होगा, इसलिये यह बात मनमें नहीं रखनी चाहिये कि मैंने इसकी भलाई की है। अपना कर्तव्य समझकर दूसरोंकी भलाई करनी चाहिये। व्यवहार सुधारनेके लिये त्यागकी बड़ी आवश्कता है। अपनी शक्तिके अनुसार मैंने यह काम किया, मैंने उसका यह उपकार किया इस प्रकार दूसरोंको कहते हैं, उसका त्याग कर देना चाहिये। यदि यह काम मान-बड़ाईके लिये न हो तो कल्याण हो जाता है और कीर्ति होती है। इस लोकमें भी कल्याण परलोकमें भी कल्याण। तीन बातें पूछी थी जिसका संक्षेपमें सबका उत्तर दिया है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...