Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

भगवान्‌का ध्यान करनेसे उनके गुण ध्यान करनेवालेमें आ जाते हैं

प्रवचन नं० 4
स्वर्गाश्रम

प्रश्न- भगवान्‌के ध्यानमें मन नहीं लगता ध्यान लगानेका क्या उपाय है?

उत्तर- हरेक माता-बहिन तथा भाइयोंको इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि ध्यानमें दो बाधायें आती हैं, एक तो नींद दूसरी स्फुरना। इसमें नींदसे बचनेके लिये आसन लगाकर बैठना चाहिये, काया, गर्दन और मस्तकको सीधा करके बैठे। नासिकाके अग्रभागमें दृष्टि लगाकर ध्यान करके बैठना चाहिये।

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।

सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥

(गीता ६/१३)

ऐसा करनेसे नींद नहीं आयेगी क्योंकि नींद कमर और गर्दन झुकनेसे आती है। इस तरह तीन घन्टे लगातार बैठनेसे पुरुष आसन जीत हो जाता है। नींद न आनेके लिये दूसरा उपाय खाने-पीनेकी चीजों का संयम करना चाहिये। अमचूर, इमली आदि खट्टी चीजें नहीं खानी चाहिये। दूसरी बात स्फुरनाकी है संसारकी क्रियाओं और पदार्थोंमें जो प्रीति है उसके कारण मन बार-बार उधर संसारमें जाता है। भगवान् कहते हैं कि संसारके पदार्थों और कर्मोंमें आसक्ति नहीं होनी चाहिये।

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।

सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥

(गीता ६/४)

अर्थात्- जिस कालमें न तो इन्द्रियोंके भोगोंमें आसक्त होता है तथा न कर्मोंमें ही आसक्त होता है, उस कालमें सर्व संकल्पोंका त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।

इस दृढ़ मूलवाले संसार वृक्षको वैराग्य रूपी दृढ़ शस्त्रसे काटना चाहिये।

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥

(गीता १५/३)

अर्थात्- इस संसारवृक्षका स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचारकालमें नहीं पाया जाता है, क्योंकि न तो इसका आदि है और न अन्त है तथा न अच्छी प्रकारसे स्थिति ही है, इसलिये इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलोंवाले संसाररूप पीपल के वृक्षको दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्रद्वारा काटकर ।

यह संसार वृक्ष दृढ इसलिये है कि अहंता, ममता और वासना रूप जड़ें बहुत जन्मोंसे हृदयमें जमी हुई हैं, यह वैराग्य रूपी प्रबल शस्त्रके द्वारा ही काटी जा सकती है। संसारके विषयोंसे राग रहित होना वैराग्य शस्त्र है। इस संसार वृक्षको भगवान्ने सुविरूढमूल कहा है यही सु और वि दो उपसर्ग लगाकर संसारकी दृढ़ता सिद्ध की गई है। जो वृक्ष मजबूत हो उसके लिये मजबूत शस्त्रकी ही आवश्यकता है अतएव दृढ़ वैराग्य रूपी शस्त्रसे इसका छेदन करना चाहिये।

प्रश्न- इस संसार वृक्षका काटना क्या है?

उत्तर- सांसारिक विषयोंकी स्फुरनासे रहित होना ।

सांसारिक पदार्थोंमें वैराग्य हो जानेपर स्फुरना अपने आप ही बन्द हो जाती है, मैं उस परमात्माकी शरण हूँ इस भावसे उस परब्रह्मका अन्वेषण करना चाहिये। परमात्माका स्वरूप साकार भी है तथा निराकार भी। जिस प्रकार सर्वत्र समभावसे व्यापक अग्नि निराकार है और अग्नि प्रज्वलित होना साकार है। जैसे दियासलाईको रगड़नेसे निराकार व्यापक अग्नि साकार रूपसे प्रकट हो जाती है, इसी प्रकार निराकार रूपसे व्यापक परमात्मा प्रेमकी रगड़से साकार रूपमें प्रकट होते हैं। वह सच्चिदानन्दघन परमात्मा सत्युगमें श्रीविष्णुरूपसे, त्रेतायुगमें श्रीरामरूपमें और द्वापरयुगमें श्रीकृष्णरूपमें प्रकट हुए हैं, इन सबको एक ही समझना चाहिये। ऐसे परमात्माका जो रूप रुचिकर हो साकार अथवा निराकार उनका ध्यान करना चाहिये। निराकार आनन्द स्वरूप हैं, यह सांसारिक सुख उस परमात्मा के सुखसे तुच्छ है। परमात्माका आनन्द इस सांसारिक सुखसे परे है, ऐसे आनन्दका अनुभव करना चाहिये। सब जगह आनन्द-ही-आनन्द है सब जीव उस आनन्दके भीतर ही हैं, आकाशके समान वह आनन्द सबमें परिपूर्ण है। वह आनन्द अपने आपमें है ऐसे विचारकर जो ध्यान करते हैं वह उस परमपदको प्राप्त करते हैं, जहाँसे लौटकर जीव फिर संसारमें नहीं आते।

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥

(गीता १५ / ६)

अर्थात्- उस स्वयम् प्रकाशमय परमपदको न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है। तथा जिस परमपदको प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसारमें नहीं आते हैं, वही मेरा परमधाम है।

साकार उपासक को पूरे संसारको परमात्माका स्वरूप समझकर ध्यान करना चाहिये। भगवान् गीताजीमें अध्याय 4 श्लोक 11 में कहते हैं जो मुझको जिस प्रकार भजता है उसको मैं उसी प्रकार भजता हूँ। इसलिये भगवान्‌को अपने सामने समझकर उनका ध्यान करना चाहिये। इस प्रकार निराकारका ध्यान करनेवालेको विज्ञानानन्दघन और साकाररूपका ध्यान करनेवालेको विष्णु, राम तथा कृष्ण किसी भी रुचिकर रूपका ध्यान करना चाहिये। भगवान्‌का ध्यान करनेसे उनके गुण ध्यान करनेवाले व्यक्तिमें आते हैं। और उसके दुर्गुण-दुराचार नष्ट हो जाते हैं।

परमात्माके स्वरूपमें स्थित रहकर मान, अपमान, आसक्ति, कामनाओं और द्वन्द्वोंसे रहित होकर पुरुष उस परमपदको प्राप्त होता है । संसारके भोगों में राग न होनेका नाम वैराग्य है और परमात्माके स्वरूपका बार-बार चिन्तन करनेका नाम अभ्यास है। मनको वशमें करनेके भी यही दो उपाय हैं।

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥

(गीता ६ / ३५)

अर्थात्- हे महाबाहो ! निःसन्देह मन चंचल और कठिनतासे वशमें होनेवाला है, परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! अभ्यास अर्थात् स्थिति के लिये बारम्बार यत्न करनेसे और वैराग्यसे वशमें होता है, इसलिये इसको अवश्य वशमें करना चाहिये।

आसक्ति रहित व्यक्तिको अनासक्त कहते हैं, वैराग्य तो उसमें पहलेसे ही है और परमात्माके स्वरूपमें स्थिति रहनेके कारण वह अध्यात्म नित्य है। जिनमें किसी प्रकारका राग-द्वेष नहीं है जो सुख-दुःख, मान-अपमान आदि द्वन्द्वोंसे रहित है उसे द्वंद्वैर्विमुक्ता कहा है। ऐसा व्यक्ति मान मोह आदि विकार और राग-द्वेष, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंको छोड़ देता है। वह उस परमपदको प्राप्त करता है जिसे सूर्य, चन्द्र, अग्नि भी प्रकाशित नहीं कर सकते एवं वहाँ जाकर जीव फिर लौटकर वापिस नहीं आता है वह भगवान्का परम धाम है।

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥

(गीता १५/६)

गीताजीके अध्याय 6 श्लोक 35 में मनकी चंचलताके विषयमें अर्जुनके प्रश्नका समर्थन करते हुए ही चंचल मनको वशमें करनेके दो उपाय अभ्यास और वैराग्य बतलाये हैं। साधकको ये दोनों ही अभ्यास और वैराग्यका रोजाना निरीक्षण (जाँच) करना चाहिये कि मेरेमें अभ्यास और वैराग्यकी उत्तरोतर वृद्धि हो रही है कि नहीं, नहीं तो संसारकी सत्ताका अभाव होना कठिन है।

सब पर्दार्थोंको क्षणभंगुर और नाशवान समझना चाहिये। भगवान्‌ने गीताजी अध्याय 5 श्लोक 22 में कहा है जितने भी विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे होनेवाले भोग हैं वे सब नाशवान हैं, उनमें जो सुख-दुःख होता है वह आदि अन्तवाला और दुःखका हेतु है, ऐसा विचारकर विवेकी इसमें नहीं रमते । मूर्ख लोग ही इसमें सुखका अनुभव करते हैं अतः इन विषयोंका अभाव कर देना चाहिये। जैसे हम जिस वस्तुको नहीं खाते कहीं बाजारमें किसी कसाईकी दुकानपर देखनेपर भी हमारा मन उधर नहीं जाता, इसी प्रकार इन विषयोंको समझकर छोड़ देना चाहिये। एकान्तमें बैठकर साधन करना चाहिये। सब पदार्थोंकी असत् सत्ता समझकर तीव्र वैराग्यके द्वारा अभ्यास करना चाहिये। परमात्मामें ही गुण बुद्धि तथा संसारमें दोष बुद्धि करनेसे मन संसारसे हटकर परमात्मामें लग जायेगा।

परमात्माके गुण- क्षमा, दया, शान्ति, सन्तोष आदिको समझकर भगवान् की कृपाका अनुभव करना चाहिये। भगवान्‌की दया सब जीवोंपर अपार है। अपने मनमें जो भगवान्की दयाका अनुभव किया जाता है उससे कहीं अधिक दया जीवोंपर भगवान्‌की समझनी चाहिये। माता-पिताका जिस प्रकार पुत्रपर प्रेम है उससे अधिक प्रेम जीवोंपर भगवान्का है। समस्त संसारका ज्ञान भगवान् के ज्ञानके एक अंशके समान भी नहीं है। इसी प्रकार दया, क्षमा, प्रेम सब ही संसारके मिलकर उस प्रभूके एक अंशकी समानता नहीं कर सकते। प्रत्येक कार्यमें भगवान्‌की दया ही समझनी चाहिये।

थियेटर (सिनेमा) देखनेवाला व्यक्ति पात्रोंके चरित्रको देखकर यदि हँसता और रोता है तो उससे मूर्ख और कौन है, क्योंकि वह तो तमाशा दिखा रहे हैं। इसी प्रकार भगवान् भी लीला कर रहे हैं ऐसा समझकर दुःखी नहीं होना चाहिये। तमाशा (लीला) देखकर जो सुख-दु:ख अनुभव करता है वह मूर्ख है। आये थे लीला देखने और सहजमें राग-द्वेषकी दो वृत्तियाँ बना ली और रोने लगे। इसलिये भगवान्‌की लीला समझकर सदा उसमें सन्तुष्ट रहना चाहिये और हर एक परिस्थितिमें भगवान्‌की दया समझनी चाहिये। रुपया मिले तो आनन्द, न मिले तो आनन्द, पुत्र मर जावे तो आनन्द और पैदा होवे तो आनन्द। हर एक घटनामें प्रभुकी कृपा समझकर आनन्दका अनुभव करना चाहिये। हमारे ऊपर प्रभुकी कितनी अपार दया है जो कि मानव शरीर दिया, भारतमें और उत्तराखण्डकी भूमि, हिमालयकी तराई, गंगाजीके पावन तटपर निरन्तर सत्संग। क्या यह कम दया है, भगवान्ने दयाका भण्डार खोल दिया है। यदि इस दयाका लाभ नहीं उठाया तो इससे बढ़कर और क्या मूर्खता होगी। उस दया सागरकी दयामें ही सब जीव डूब रहे हैं उसकी लीला समझकर प्रसन्न हो चाहिये। हर समयमें आनन्दमें मग्न रहना चाहिये। माननेसे प्रत्यक्ष आनन्द है। जितनी आप भावना करोगे उससे भी ज्यादा भगवान्‌की दया है, अपने ऊपर प्रभुकी ऐसी दया समझकर उस प्रभुपर निर्भर हो जाना चाहिये यही शरणागति है। वह जो कुछ करते हैं वह सब मंगलमय है। हर समय चिन्ता आदि विकारोंसे दूर रहकर प्रसन्नताका अनुभव करनेसे आनन्दका अनुभव होता है। विकार उसके समीप नहीं आते। परमात्मा सब लीलाके सूत्रधार हैं वे तो सबके हित और कल्याणके लिये लीला कर रहे हैं। उस लीलाको अपनी मानकर फँसना मूर्खता है। जो लोग इन चिन्ता आदि विकारोंको प्रारब्धका भोग मानते हैं वह समझते ही नहीं क्योंकि ज्ञान होनपर विकार नहीं रहते पर प्रारब्ध तो रहता है। यदि यह प्रारब्धका भोग होता तो ज्ञान होनपर भी रहना था। अतएव इन्हें प्रारब्धका भोग नहीं समझना चाहिये। यह चिन्ता आदि विकार अज्ञानसे होते हैं और अज्ञान मूर्खता है जो ज्ञान होनेपर मिट जाती है। भक्त इस ज्ञानको अपनेमें भगवत्कृपासे आया मानते हैं और ज्ञानी अपने प्रयत्नसाध्यसे अपनेमें मानता है। भक्तको भगवत्कृपाका विशेष बल रहता है। भगवान्‌की कृपाका परम अवलम्बन मानकर सब कुछ भगवान्‌का ही है, दर्शन करके काम करते रहना चाहिये। सबमें भगवान्का

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...