वटवृक्ष स्थानकी विशेषता एवं अनुभवकी बातें
प्रथम तो सब लोग आसनसे बैठ जावें। एकान्त देश, पवित्र भूमि और गंगाजीकी रेणुका तो है ही । 'समं कायशिरोग्रीवं' यानी काया, शिर और ग्रीवाको सीधा करके और वृत्ति नासिकाके अग्रभाग पर रखें या आलस्य नहीं आनेपर आँखें बंद कर लें।
आलस्य और विक्षेप दोनों ध्यानमें बाधक हैं। ऐसी धारणा करें कि प्रात: कालके समय आलस्य कैसे आवे। विवेकसे आलस्य नहीं आता और एक तार नाम-जपसे विक्षेपका भी नाश हो जाता है। साथ ही वैराग्य और उपरामतासे शरीरमें चेतनता जाग्रत् हो जाती है। उपरति और वैराग्यका तो यह स्वभाविक ही स्थान है। ऋषि, महात्मा वैराग्यके लिये ही ऐसे वनमें आया करते थे। हमलोगोंके सिवाय यहाँ और कौन आता है। इस घोर जंगलमें हाथी, सिंह वगैरह रहते हैं। दिनमें दूर चले जाते हैं। जंगलमें प्रवेश होनेपर जिज्ञासु और मुमुक्षुको स्वभाविक ही वैराग्य और उपरति होती है। दिनमें ध्यान करनेका यह अच्छा स्थान है।
गंगा किनारे-किनारे आप कलकत्ते तक चले जाइये पर ऐसा दृश्य नहीं मिलेगा। हाँ कर्णवासमें ऐसा ही स्थान है। और जंगल नाले वगैरह भी ऐसे ही हैं। पर वहाँका जल इतना शीतल नहीं रहता। यहाँ तो ऐसा स्थान है कि हम 12 महीने रहें तो उत्तम है। एक तो यह कि हमारा प्रारब्ध नहीं है और दूसरा भोगाम आसक्तिक कारण यहाँ हमेशा रहना कठिन है।
शीतल-मंद-सुगन्ध वायु गंगाको स्पर्श करती हुई चलती है। यह ध्यानमें बड़ी सहायक है। ग्रीष्मकालमें ठंडी वायु और सुगन्धी बड़ी सहायक होती है। गंगाकी ध्वनि, वेद-ध्वनि सी मालूम होती है। इससे दूसरे शब्दोंका विनाश होकर मन लग जाता है। इस ध्वनिय नामजपको भी जोड़ सकते हैं। गंगाजीके दर्शनसे नेत्र और हृदय पवित्र हो जाते हैं। नेत्रोंकी दोष-दृष्टि मिट जाती है और हृदयमें जाकर यह बहुत काम करती है।
घरपर भी इस दृश्यको याद करें तो ध्यानमें बड़ा सहायक होगा। साधन-चतुष्टयमें दो बातें- वैराग्य और उपरामता मुख्य है।
ध्यानके पूर्वमें मनकी कामनाओंको उठाकर बार-बार प्रश्न करें कि तुम्हें क्या चाहिये? तो यही उत्तर मिलना चाहिये कि कुछ नहीं चाहिये। कामनाओं और संकल्पसे रहित हो जाना चाहिये। विवेक वैराग्यकी दृष्टि द्वारा बाहरकी वृत्ति हटाकर फिर भीतरकी भी हटा देनी चाहिये। जो बातें सुनी जाती हैं उनका मनन करके भीतरकी बातोंको मिटा देना चाहिये। फिर भी संसारका चिन्तन हो जावे तो उसे तुरन्त हटा देना चाहिये। संकल्प समझकर मनकी क्रियाको जब रोक देते हैं तो संकल्प रहित हो जाते हैं। तो सहज ही शान्ति प्राप्त होती है। अत्यन्त आनन्द प्राप्त होता है। आनन्द ही चेतन है। अतः चेतनता और प्रकाश हो जाता है। इन्द्रियोंमें विशेष ज्ञानकी जागृति हो जाती है।
बाहरी प्रकाश नेत्रोंका विषय है, भीतरी प्रकाश भीतरी चक्षुका विषय है। ज्ञानकी दीप्ति बुद्धिका विकास है आगे जाकर केवल चेतन है जो किसीका भी विषय नहीं है। इसलिये उसे ज्योतियोंका भी ज्योति कहा है-
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥
(गीता 13/17)
अर्थात्- वह ब्रह्म ज्योतियोंका भी ज्योति एवं मायासे अति परे कहा जाता है तथा वह परमात्मा बोधस्वरूप और जाननेके योग्य है एवं तत्त्वज्ञानसे प्राप्त होनेवाला सबके हृदयमें स्थित है।
वह विज्ञानानन्दघन ब्रह्म सारी ज्योतियोंका ज्योति है। इन्द्रियाँ, प्राण, मन और बुद्धि यह सब ज्योति है। इन सबका प्रकाशक होनेसे इसे ज्योतियोंका भी ज्योति बतलाया है। परमात्मा तीनों प्रकारके अन्धकारोंसे रहित है और ज्योतियोंका ज्योति है।
नारायण नारायण नारायण, आनन्दमय आनन्दमय पूर्णानन्द आनन्द आनन्द...
इस प्रकार नारायणके नामकी ध्वनि सब विक्षेपोंका नाश कर देती है। प्रत्यक्षमें यह बात है। विशेषतः एक तार ध्वनि हो जानेपर तो मन स्वभाविक ही एकाग्र हो जाता है। मनको खूब कह दो तो (समझानेपर) भी उसे स्फुरना नहीं होती।
नारायण नाम साकार और निराकार दोनोंका वाचक है। भगवन्-नामका उच्चारण मुग्ध होकर करना चाहिये। संसारका स्मरण करना ही मौतका, कालका या विषका चिन्तन करना है। भूलसे चिन्तन हो जावे तो उसी वक्त त्याग कर दें।
परमात्मा तत्त्वज्ञानके द्वारा जाना जाता है, वह सब जगह है। सबके पास अपने हृदयमें भी है। ऐसा समझकर हृदयमें परमात्माका ध्यान करना चाहिये।
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥
(गीता 13/24)
अर्थात्- हे अर्जुन ! उस परम पुरुष, परमात्माको, कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्मबुद्धिसे, ध्यानके द्वारा हृदयमें देखते हैं तथा अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा देखते हैं और अपर कितने ही निष्काम कर्मयोगके द्वारा देखते हैं।
साधक ध्यानके द्वारा ही उस परमात्माका अनुभव करता है। इस प्रकारके ध्यानकी कोशिश करनेके पूर्व ही शान्ति, समता, ज्ञान-बुद्धिका विषय, चेतन आत्माका स्वरूप, निर्मलता आदि गुण स्वभाविक ही उत्पन्न हो जाते हैं। फिर यह गुण उसमें भर जाते हैं। फिर वह साधक बाहर-भीतर विज्ञानानन्दघन ब्रह्मको ही देखता है। आनन्दमय आनन्दमय... देखिये कैसी शान्ति हो रही है। मानो हम शान्तिके समुद्रमें डूबे हुए हैं। शान्ति निराकार है, आँखोंसे नहीं दीखती पर शान्तिका अनुभव होता है। साथ ही बड़ी प्रसन्नता भी होती है। चित्तमें चेतनता, बोध या ज्ञानकी दीप्ति हो जाती है। बाहर-भीतर शान्ति हो रही है।
चन्द्रमासे भी बढ़कर शान्ति है। आनन्द इतना बढ़ जाता है। कि वह आनन्दमें विभोर हो जाता है। अभी कितनी प्रसन्नता है, यह प्रसन्नता बनी रहे तो भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। चित्तके प्रसाद (शान्ति)-से बुद्धि स्थिर होकर उसका कल्याण हो जाता है। बस एक आनन्दके सिवा कोई पदार्थ है ही नहीं, दूसरा पदार्थ प्रतीत हो तो सोचे जैसे स्वप्नमें मरुभूमिमें जल या आकाशमें तिरविरा (धूलकण) दीखते हैं वैसा ही समझें।
(परमात्म-विषयक) जो वस्तु है वह प्रतीत नहीं होती और (सांसारिक विषयक) जो नहीं है वह दीखती है। जो कुछ देखने, सुनने और समझनेमें आती है वह सब मायिक है। अत्यन्त आनन्द पूर्णआनन्दमें ही मग्न रहना चाहिये। और सबको भुला देना चाहिये। यह आनन्द ही ब्रह्म है, यह आनन्द-ही-आनन्द है।
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥
(गीता 2/65)
अर्थात्- उस निर्मलताके प्राप्त होनेपर इसके संपूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले पुरुषकी बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार परमात्मामें स्थिर हो जाती है।
प्रसन्न चित्तवालेकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है। शरीर और संसार दोनोंको भुलाकर एक आनन्दका ही आश्रय लेना चाहिये।
शरीरको भी विचारके द्वारा भुला देना चाहिये। फिर आनन्द ही आनन्द रह जायगा ।
बार-बार दृश्यका अभाव करके शेषमें जो अभाव करनेवाला चेतन पुरुष ही रह जाता है। वह चेतन ही चेतन है। जब वह शरीरको भुला देता है फिर चेतनताका भण्डार हो जाता है। वह नित्य चेतन है। वह चेतन ही आनन्द है। हरवक्त आनन्दमें रहना चाहिये।
आगे जाकर समय काल भी वहाँ नहीं रहता है। वहाँ केवल शुद्धात्मा ही रह जाता है। जो सच्चिदानन्द परमेश्वर है उसका आज ध्यानका समय है। उसे समझनेके लिये गीताजीके कई श्लोक चुनकर कंठस्थ करके उनका मनन करना चाहिये ।
वेदान्तमें अस्ति भाति प्रिय इसे ही सत्, चित् और आनन्द कहते हैं। आनन्द सात्त्विक सुख परमात्माके स्वरूपका वाचक है। बुद्धिके अन्दर परमात्माका जो प्रतिबिम्ब आता है वह सात्त्विक सुख आता है।
नारायण नारायण... आनन्दमय आनन्दमय पूर्णानन्द...
यह आनन्दकी ध्वनिसे, आनन्दकी गर्जनासे आनन्द-ही-आनन्द परिपूर्ण हो जाता है। आनन्दसे शरीरमें रोमाञ्च धर-धरी और कम्पन होने लगता है। एकान्त देशमें रहनेको भी ज्ञानका साधन बतलाया है।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥
(गीता 13/10)
अर्थात्- एकान्त और शुद्ध देशमें रहनेका स्वभाव और विषयासक्त मनुष्योंके समुदायमें प्रेमका न होना।
यहाँ एकान्त है ही। साधक जो हैं यह जन समुदायमें नहीं गिने जाते हैं। यहाँका वातावरण भी अनुकूल है और व्याख्यान भी।
निराकारका व्याख्यान साकारमें भी सहायक है क्योंकि निराकार साकार यह सब मिलकर ही समग्ररूप है।
यह भगवान्का सगुण निराकारका स्वरूप यदि समझमें नहीं आवे तो इसे समझना चाहिये।
वह सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और ज्ञाता है। ज्ञाता संज्ञा उठा दी जावे तो केवल चेतन रह जाता है। पुराण- यानी वह सदासे है। सबको शिक्षा देनेवाले हैं।
हमारा एक विज्ञानानन्दघन परमात्माके सिवाय और कोई नहीं है। ऐसा मानना चाहिये और ऐसा माननेवाली बुद्धिको भी भुला देना चाहिये। ऐसा ध्यान जहाँ लग जाता वहाँ ही मैं बैठ जाता था और समझता था कि मुझे ब्रह्मकी प्राप्ति हो गई। पर बादमें घोटाला निकलता। यानी हर्ष शोक होते ।
इसी प्रकार सगुणवाले ध्यानमें भी होता कि भगवान् प्रत्यक्ष दीखते हैं और बातचीत भी करते हैं। तो मालूम होता कि प्रत्यक्ष दर्शन हो गये। पर दृढ भावनासे ऐसा स्वरूप दीख जाता है। ऐसा स्वरूप भी भगवान्के बहुत नजदीक का होता है। और ऐसे रूपको देखकर बड़ी व्याकुलता हो जाती है। जैसे गोपियोंकी तथा चैतन्य महाप्रभुकी हालत हो गई थी वैसी ही हालत हो जाती है।"
'अब उसी प्रकरणको लीजिये। बाहर-भीतर सब तरफ एक चेतनताका पुँज होता है जिसमें संसार स्फुरना मात्र मालूम होता है। वह चेतन ही आनन्द है। जैसे इस शरीरमें द्रष्टा है यह द्रष्टा ही आनन्द है पर आनन्दका अनुभव अज्ञानीको मायाके कारण नहीं होता ।
वह आनन्द बोध, ज्ञान, प्रकाश और ज्योति स्वरूप आनन्द है। वह अपार पूर्ण चेतन आनन्द है। उसके अलावा कोई भी स्फुरना हो तो उसे भुला देना चाहिये। फिर वही शेष रह जाता है। 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' का भी वही अभिप्राय समझना चाहिये।
अब ख्याल करके देखो कि ऐसी उपरामतामें कोई फुरना तो हो ही नहीं सकती और स्फुरना नहीं होती तो वहाँ शान्ति है ही । और शान्तिमें आनन्द ही है। संसारका ख्याल छोड़नेसे वस्तु ही रह जाती है।
आनन्दमय आनन्दमय पूर्णानन्द आनन्द ही आनन्द आनन्द ही आनन्द
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
आनन्दकी बार-बार घोषणा करें और निश्चय करें कि आनन्द-ही-आनन्द है। जब आनन्द ही आनन्द हो जाता है तो फिर शरीरको जला दो तो भी क्या ?
ध्यानमें हम घन्टों बैठे रह सकते हैं, ध्यानमें बहुत आगे बढ़ने पर हम कीलोंपर (लोहेकी), काँटोंपर भी बैठ सकते हैं और उनके गड़नेका कुछ भी आभास नहीं होता। और ध्यानमें आगे चलनेपर धूप, पानी आदि कितना ही हो किसीका भी ज्ञान नहीं रहता। ऐसी हालतमें कोई आग भी लगा दे तो कोई बात नहीं।
ऐसी हालतमें मृत्यु भी हो जावे तो बड़ी उत्तम बात है। और साधन इतना तीव्र भी हो सकता है कि हमेशाके लिये समाधि लग जावे। जैसे मुर्देको जलानेपर उसे मालूम नहीं होता इसी प्रकार जीवन्मुक्त महापुरुषको अनुभव नहीं होता। उसकी आत्मा तक कोई बात नहीं पहुँचती ।
आनन्दमय आनन्दमय पूर्णआनन्द आनन्द ही आनन्द कैसी प्रत्यक्षमें शान्ति, आनन्द और चेतनता रोम-रोममें है। यही भगवान्का ज्ञानमय चेतन स्वरूप है। यह सब पदार्थ आकाशमें तिरवरों (घूलके कणों) की भाँति हैं।
ऐसे ही मस्त रहें। चले तो ऐसी ही मस्तीमें चलें। और चलनेपर ध्यानमें बाधा आती है तो चले ही नहीं और बैठा ही रहे। भोजन तो प्रारब्धसे आप ही मिल जायगा। सारे ब्रह्मण्डके हिस्सेको संकल्पमें ही समझे।
समष्टि बुद्धिके एक अंशमें ही संकल्पको समझे। गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं ऐसा समझे (गीता 3/28)।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...