त्याग, वैराग्य, उपरामता जितनी हो उतनी ही शोभा है
वैराग्य ऐसा हो कि कोई प्रबन्धमें भी टाइम नहीं लगावे । चाहे कोई आवो चाहे कोई जाओ। वैराग्य धारण करनेकी चीज है।
कोई वक्त किसीसे बात हो गई तो हो गई नहीं तो अपने ध्यानमें मस्त रहे। वैराग्य और उपरामता दोनों ही रखे। यह गृहस्थ में ही संन्यास है।
साधु बनकर असाधु हो जावे तो आपत्ति है, साधु नहीं बने तो कोई बात नहीं। असाधु होकर
साधुओंमें तो जितना त्याग, वैराग्य और उपरामता अधिक हो उतनी ही शोभा है।
त्याग- स्वरूपसे पदार्थोंका त्याग जैसे संन्यास आश्रममें है।
संयम- समग्र प्रकारसे इन्द्रियोंको अपने काबूमें रखना।
वैराग्य- जिसमें राग न हो।
इन्द्रियों द्वारा विषयोंके त्यागका नाम उपरामता नहीं है। उपरामता यानी वृत्तियाँ उस तरफ जाये ही नहीं। जैसे मांस से घृणा करनेवालेकी वृत्ति मांस की दूकानपर जाती ही नहीं ।
हठसे त्याग करना त्याग है उपरामता नहीं। जिसमें विरक्ति होकर वृत्ति जावे ही नहीं वह उपरति है। भगवान्ने गीताजी में उदाहरण दिया-
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।
(गीता 2/58)
अर्थात्- कछुआ अपने अंगोको जैसे समेट लेता है, वैसे ही यह पुरुष जब सब ओरसे अपनी इन्द्रियोंको इन्द्रियोंके विषयोंसे समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
जिसमें वैराग्य और उपरति दोनों हैं उनके अन्तर्गत त्याग है। त्यागसे ऊँचा दर्जा संयमका है। संयमसे ऊँचा वैराग्य और वैराग्यसे ऊँचा दर्जा उपरामताका है। राग होनेपर इन्द्रियाँ कठिनतासे वशमें होती हैं।
संयम और वैराग्य है तो साधक उपरति चाहे जब कर सकता है जैसे आँख खुली है तो बंद कर लो।
रागका अभाव वैराग्य है। रागका हेतु रमणीयता और सुख-बुद्धि है उसमें अज्ञान हेतु है। जैसे स्वप्नके पदार्थोंमें सुख होना । मूर्खताके कारण ही मनुष्यने उसमें सुन्दरता और सुखबुद्धि समझ रखी है।
जैसे हजामत कई प्रकारसे बनवाते हैं, वस्त्र भी कई प्रकारके बनवाये और पहने जाते हैं। यदि सुख एक ही प्रकारके वस्त्रमें होता तो उसीसे होता। यही बात हरेक प्रकारके पदार्थ में है। सुन्दरता तो बहुत ही गई बीती है। सबको अलग-अलग सुन्दरता मालूम होती है। किसी स्त्रीको पीला, किसीको नीला, लाल आदि रंग सुन्दर लगता है। रूपमें सब अपनी-अपनी कल्पना ही है। इसी प्रकार नाना प्रकारकी रसोइयोंकी बात है। 5-6 प्रकारकी रसोई (व्यंजन, खानेकी वस्तु) की क्या जरूरत है, एक ही प्रकार की वस्तु जो बढ़िया हो उसे ही क्यों नहीं खाते हो ।
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥
(गीता 2/65)
अर्थात्- उस निर्मलताके होनेपर इसके संपूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले पुरुषकी बुद्धि शीघ्रही अच्छी प्रकार एक परमात्मामें ही स्थिर हो जाती है।
सत्संगकी बातोंसे जो आनन्द आता है वह सात्त्विक आनन्द है। उपरामतामें वैराग्यकी जितनी ही कमी है उतनी ही उपरामता कम दामी है।
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति ।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥
(गीता 4/26)
अर्थात्- अन्य योगीजन श्रोत्रादिक सब इन्द्रियोंको संयम अर्थात् स्वाधीनतारूप अग्निमें हवन करते हैं, अर्थात् इन्द्रियोंको विषयोंसे रोककर अपने वशमें कर लेते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादिक विषयोंको इन्द्रियरूप अग्निमें हवन करते हैं, अर्थात् राग-द्वेषरहित इन्द्रियोंद्वारा विषयोंको ग्रहण करते हुए भी भस्मरूप करते हैं।
अमृतका भोजन रसास्वादन है। इन्द्रियरूपी अग्निमें विषयकी आहुति दी जा रही है, रागका अभाव है।
नेत्रोंसे स्त्रीको देख रहा है परन्तु स्त्रीको देखनेमें जो स्वाद आता है वह नहीं है। इसी प्रकार कानोंसे निन्दा, स्तुति सुनता है पर उसमें द्वेष और राग नहीं है। इसी तरह सुगन्धकी बात है। इस प्रकार राग रहित जिसकी इन्द्रियाँ विचरती हैं वह प्रसादको प्राप्त होता है। संयमरूपी अग्निमें इन्द्रियोंका हवन है। विषयोंसे वृत्तिको कछुए की तरह समेट लें।
संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥
(गीता 6/24)
अर्थात्- इसलिये मनुष्यको चाहिये कि संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली संपूर्ण कामनाओंको निःशेषतासे अर्थात् वासना और आसक्तिसहित त्यागकर और मनके द्वारा इन्द्रियोंके समुदायको सब ओरसे ही अच्छी प्रकार वशमें करके ।
साधन करते समय यदि द्वेष और घृणा बुद्धि रहती है तो आगे चलकर उसका भी त्याग हो जाता है।
मानको विषके समान समझकर त्याग करें और निंदाको अमृतके समान समझें। यह साधकके साधन कालकी हालत है।
पुण्यके त्यागमें कोई देर नहीं लगती पर पापका त्याग नहीं होता, उसे भोगना ही होगा। यानी उसका त्याग कठिन है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...