सत्संगकी महत्त्वपूर्ण कीमती बातें
(1) जो कुछ आपके सामने हो रहा है वह भगवान्की लीला हो रही है जैसे भगवान्ने व्रजमें लीला करी वही बात हम मानें तो हमारेको भी वही बात प्रतीत होने लगेगी।
(2) जैसे भगवान् त्रेतामें एक क्षणमें सबसे मिले वैसे ही भगवान् हम सबसे मिलने लग जायेंगे।
(3) भगवान् एक ही रूपमें प्रकट होकर लीला कर रहे हैं। ऐसा माननेपर फिर आपके पास कोई भी विकार नहीं ठहर सकते।
(4) भगवान् कहते हैं-अतिशय दुराचारी भी हो तो उसका भी बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है। क्योंकि भगवान् गीता 19/30-31 में कहते हैं कि वह निरन्तर मेरेको भजता है और उसने निश्चय कर लिया है कि भगवान्के भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है।
(5) कैसा ही पापात्मा हो भगवान्के भजनके द्वारा उसका शीघ्र ही उद्धार हो जाता है।
(6) भगवान्के अनन्य चिन्तनसे बहुत ही सुलभतासे भगवान्की प्राप्ति हो जाती है।
(7) सब काम छोड़कर आपको भगवान्की शरण होकर निरन्तर भगवान्का भजन करना चाहिये।
(8) शुरूमें यही प्रधानता कर लेवे कि हमारा एक क्षण भी भगवान्के भजन बिना व्यर्थ नहीं जावे ।
(9) वाणीसे वही बोलना चाहिये जिससे भगवान् मिले।
(10) वही काम करना चाहिये जिससे भगवान् मिले।
(11) अपनी कोई भी क्रिया ऐसी नहीं होनी चाहिये जो भगवान्को मिलाने वाली न हो।
(12) हमारेपर ईश्वरकी दया, महात्माओंकी दया और शास्त्रोंकी दया है। ऐसा मौका पाकर भी हमारा कल्याण नहीं होवे तो हमारी मूर्खता है।
(13) भावका सुधार होनेसे सब सुधार अपने आप हो जायगा।
- ईश्वरकी, महात्माकी, शास्त्रकी और अपनी खुदकी दयासे भावका सुधार हो सकता है। हमारी दया क्या है, कि सुनी हुई बातको काममें लाकर साधनमें लग जाना यानि कि सुनी हुई बातको जीवनमें लावें, आचरणमें उतारें और भजन- ध्यानका साधन निरन्तर तेजीसे करें।
- हृदयका भाव सुधरनेसे सबका सुधार हो जाता है।
(14) भावकी बात बतलाई जाती है। एक भाव ही प्रधान है। भाव हर समय ऊँचे दर्जेका रहना चाहिये। ऊँचा भाव ही होनेसे भगवान्के पास बहुत ही जल्दी पहुँचता है। भाव-
- यहाँपर माया और मायाका कटक अर्थात् सेना आ ही नहीं सकती यह विश्वास करनेसे माया आ ही नहीं सकती।
- भगवान्की बड़ी भारी दया है।
- यहाँ कोई भी विघ्न नहीं आ सकते यदि आ जावे तो गीताजीका पाठ कर लिया तो सब भाग जावे।
- यदि आपके ऊपर काम-क्रोधका वेग आ जावे तो हे नाथ ! हे नाथ !! पुकारें फिर वेग आ ही नहीं सकता।
- यहाँपर कोई विघ्न आ ही नहीं सकते।
- ऐसा माने कि सब जगह शान्तिका साम्राज्य है तो फिर वैसा ही हो जायगा। आप जो कुछ मानोगे वह हो जायगा आप दृढ़ भावना कर लो।
- हमलोग आनन्दमें मुग्ध होते रहें तो अश्रुपात वगैरह होता रहेगा।
- प्रसन्न चित्तवालेकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जावेगी।
(15) प्रह्लाद भगवान्को सब जगह प्रत्यक्ष देखा करता था, उस माफिक हमें भी सब जगह भगवान्को प्रत्यक्ष देखना चाहिये।
(16) भगवान्को कोई भी भावसे देखो जैसे गोपी, दास, सखा, माधुर्य चाहे जिस भावसे देखो भगवान्को प्रत्यक्ष देखना चाहिये।
(17) केवल भाव ही कल्याण करनेवाला है। हमलोगोंको ईश्वरके भावमें भावित होकर समय बिताना चाहिये।
(18) एकान्तमें मन लगे तो एकान्तमें ज्यादा समय लगाना चाहिये।
(19) चलते-उठते-बैठते परमेश्वरको याद करना चाहिये। परमेश्वरकी भक्तिके प्रतापसे सारे गुण आ जाते हैं। परमेश्वरकी भक्ति करनेसे ध्रुव आदिकी तरह सारे गुण आ जाते हैं। और सारे आचरण पवित्र हो जाते हैं। इसपर विशेष ध्यान देकर काममें लाना चाहिये।
(20) भगवान्के दरबारमें बहुत छूट दी गई जैसे अन्तकाले च मामेव..... (गीता 8/5) जो अन्तकालमें मेरेको स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागकर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त हो जाता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
(21) यमराज अपने किंकरोंसे कहते हैं जहाँ भगवान्का कीर्तन, जप, ध्यान होता है वहाँ मत जाना, वहाँ भगवान् गुप्त रूपमें रहते हैं। आपसे और कुछ भी न हो तो सब जगह भगवान् ही भगवान्का दर्शन करें वासुदेवः सर्वमिति (गीता 7/19)।
(22) तीर्थवास, सत्संग, सर्वत्र भगवद्दर्शन, और भगवन्नामका जप ज्यादा-से-ज्यादा करें।
(23) जो स्त्रियाँ पढ़ी हुई हैं उन्हें गीताप्रेसकी पुस्तकें शुरूसे अन्त तक पढ़नी चाहिये। और सब जगह सब समय परमेश्वरका चिन्तन और सेवा करते रहना चाहिये, समय खाली नहीं बीते, 5 मिनट भी व्यर्थ न बितावें। कोई भी काम हो, करना चाहिये। गीता पाठ, जप और ध्यान करते रहें।
(24) कटु वचन नहीं बोले और दीवालकी तरह सहनशील हो जावें। किसीकी निन्दा नहीं करें, दूसरा कोई अपनी निन्दा करे सच्ची या झूठी यदि सच्ची है तो अपने दोषोंको हटावें यानी सुधार करें और झूठी है तो दीवालकी तरह सहनशील बन जावे। उसके गाली निकालनेसे कोई कुछ थोड़े हो जावेगा, बिना अपराधके किसीका शाप लगता नहीं। परमात्मासे प्रार्थना करें, ईश्वर इसको सद्बुद्धि दो मेरे तो कुछ भी नहीं बिगड़ता पर इनकी तो हानि हुई है, तो इनपर कृपा करो।
(25) लोग ईसामसीहके साथ अत्याचार कर रहे हैं पर वह कह रहे हैं भगवान्से कि इनको सद्बुद्धि दो, जिस प्रकार इनका आचरण सुधरे। अनिष्ट करनेवालेके साथ भी भला करें। बुराई करनेवालेके साथ बुराई और भलाई करनेवालेके साथ भलाई यह तो गहों, कुत्तोंमें भी है। यही बात यदि मनुष्योंमें भी है तो मनुष्योंकी क्या विशेषता रही। दुर्योधनने सारी उम्र पाण्डवोंको मारनेकी चेष्टा की, पर जब वनमें युधिष्ठिरके पास दुर्योधन आने लगे तब गन्धर्वोने दुर्योधनको पकड़ लिया तो युधिष्ठिरने अपने भाइयोंको गन्धवसे दुर्योधनको छुड़ानेकी आज्ञा दी। मित्रोंसे (गन्धर्व पाण्डवोंके मित्र थे) लड़ाई की और शत्रुओंको छुड़ाया। आज उन्हीं (पाण्डवों) का नाम है नहीं तो बहुत मरते हैं, किसका नाम होता है। सभीके लिये यह बात आदरणीय है।
(26) दो बातोंका ध्यान रखें एक तो उदारता रखें और दूसरी जिसके पास वस्त्र, धन या जो वस्तु उसके काम की उसके पास न हो, उसे दें। दरकार (आवश्यक) होवे तो देवें, आप तकलीफ पावो भले ही, पर गिनावे (जतावे) नहीं।
(27) परमात्माका भजन, ध्यान साक्षात् अमृत है, उसमें समय लगानेके लिये तत्परतासे कोशिश करें। भजन-ध्यान करें। बहुत जल्दी-जल्दी भगवान्का चिन्तन-स्मरण होना चाहिये। जप होवे इसके लिये हठसे चेष्टा करें। ज्यादा करके मनको यह बात समझावे कि संसारके भोगोंका चिन्तन करना तो जन्म-मरणकी बीमारी देनेवाला है। जैसे रोगीको कुपथ्य अच्छा लगता है इस प्रकार भोगोंका सेवन कुपथ्य है। अपनी आसक्तिके कारण भोग अच्छे लगते हैं इसलिये इसका संयम करना चाहिये। भजन- ध्यान करते समय भजन-ध्यान करना अच्छा नहीं लगता, पर भजन-ध्यान करनेसे परिणाममें जीवन अच्छा होता है और जीवन अमृत तुल्य हो जाता है। इस प्रकार भजन- ध्यानका परिणाम अमृत तुल्य है। इसलिये विचारकर, हठसे भी भजन ध्यान करना चाहिये। विचारके द्वारा, हठसे भजन-ध्यानमें लग जावे तो यह दोष मिट सकते हैं। विचारके द्वारा विश्वास करके जबरदस्तीसे इस काम में यानी भजन ध्यानके काममें लग जावे तो ये दोष मिट सकते हैं। विचारके द्वारा बिना रुचि हुवे भी इसमें श्रद्धा करके साधन करनेके परायण हो जावे। हठसे तो मनुष्य कर ही सकता है।
(28) शरीरकी आसक्ति, मान-बड़ाईमें आसक्ति, रुपयोंमें आसक्ति यह मामूली मामूली दोष तो बहुत मिल जाते हैं। पर उनके यानी भगवान्के भजन- ध्यानसे इनका नाश आप ही हो सकता है।
(29) अपनी बात कोई नहीं माने उससे द्वेष थोड़े ही करोगे यानी उससे द्वेष नहीं करना चाहिये।
(30) प्रश्न- ऐसी कौन-सी बात है जो कि हमारे कल्याण में बाधक है।
उत्तर-
- अकर्मण्यता- करने लायक कार्यमें प्रवृत्ति नहीं होना।
- आलस्य- करने लायक कामको कर लेंगे, कर लेंगे ऐसे आलस्यमें काम करनेमें विलम्ब करना।
- दीर्घसूत्रता- उसको कहा जाता है कि जो थोड़े कालमें होने लायक साधारण कार्यको भी फिर कर लेंगे ऐसी आशासे बहुत समय तक पूरा नहीं करता।
- निरुत्साह- कार्यमें पर उस कामको करनेमें उत्साह नहीं है। प्रवृत तो हो गया
कार्यकी तत्परतामें बाधा लगानेवाले यही सब दोष हैं। कर्तव्य पालन करनेमें ऊपर बताये कारण नुकसान पहुँचानेवाले हैं। यह क्यों है ? प्रत्यक्षमें तो इनका फल दीखता नहीं यानी फल दूर होनेके कारण प्रत्यक्षता दीखती नहीं इसलिये तत्पर होकर भजन- ध्यानके साधनमें लग जाना चाहिये। विशेष बाधक यही बातें है। और श्रद्धाकी कमी भी है।
(31) मृत्युको नजदीक देखें जीवनका समय थोड़ा समझें। जीवन अल्प होकर कितना अल्प है उसका पता नहीं है। एक दिनका भी पता नहीं है। यदि मर भी जायेंगे तो इस समय में किया हुआ भजन-ध्यानका साधन और स्वभावका सुधार ही काममें आयेगा। यानी साथ जायगा।
(32) विषयोंको छोड़कर परमात्माका चिन्तन करना और उसमें बराबर मुग्ध होना।
(33) मनको विषयोंसे रोककर नियम पूर्वक मनको भजन- ध्यानमें लगाना।
(34) एकाग्रता होनेमें दो बात- एक तो भगवान्में प्रेम होना और प्रेम होनेके लिये पुनः पुनः विचार करना ये विचार ही मनुष्यको मदद दे सकते हैं दूसरी बात असली मदद तो वैराग्यसे मिल सकती है।
(35) साधन जोरसे करेंगे उनको एकान्तमें नींद और आलस्य क्यों आयेंगे।
(36) मनुष्यको अच्छे संगमें अपना समय बिताना चाहिये।
(37) भजन-ध्यानकी क्रिया अच्छी है पर भावकी कमी है तो वह क्रिया बहुत ऊँची नहीं है। ऐसे ही सांसारिक और व्यवहारिक क्रिया देखनेमें तो नीची है पर उसका भाव ऊँचा है तो वह क्रिया ऊँची है।
(38) भगवान्में प्रेम चाहे जब ही कर लेवो, वे तो प्रेम करनेके लिये तैयार हैं। चाहे आज ही कर लो, पर उनको दूसरोंसे भी प्रेम करें यह अच्छा नहीं लगता यानी एक भगवान्में ही प्रेम हो और संसारमें किसीसे भी नहीं।
(39) मैं तो सबको भजन- ध्यान कराना चाहता हूँ। यानी सबको भजन-ध्यानमें लगाना चाहता हूँ। पर हमारे चाहनेसे क्या होगा, करेगा तो वह खुद (साधक) तब ही होगा।
(40) यह विश्वास हो जावे कि भगवान्ने गीता 8/14 में कहा है। कि-
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
अर्थात्- हे अर्जुन ! जो पुरुष मेरेमें अनन्यचित्तसे स्थित हुआ, सदा ही निरन्तर मेरेको स्मरण करता है, उस निरन्तर मेरेमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।
(41) दुनियाका सारा मूल्य पारसके अन्तर्गत है। पर परमात्माकी प्राप्तिके सामने कुछ नहीं ।
परमात्माकी प्राप्ति इतनी सुगम और इतनी सहज है फिर उससे वह (साधन करनेवाला) कैसे वंचित रह सकता है। उससे दूसरा प्रयत्न यानी दूसरा काम होगा ही कैसे। वह तो पहले परमात्माकी प्राप्तिका काम ही करेगा।
(42) गुप्त धन है भजन, भजनकी यहाँ भी कीमत है और वहाँ भी।
(43) किसी भी मार्गमें चलो विषमता मिटाने की बात भगवान् सभी मार्गमें बतलावेंगे। विषमता विष है और समता अमृत है।
(44) हाँ वह विषमता ठीक है एवं सहायक है जैसे मैं अपने शरीरकी अपेक्षा दूसरेके शरीरका पक्ष करूँ।
मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाको अपमान समझें और अपमानको अच्छा समझें। यह विषमता दीखनेपर समता है, पर यह समतासे बढ़कर है। दूसरेके दुःखसे दुःखी और दूसरेके सुखसे सुखी यह संतोंके लक्षण हैं। अपने बालककी अपेक्षा दूसरे बालकोंको बढ़िया, पहले और ज्यादा दें। यह विषमता उस समतासे बढ़कर है। क्योंकि इसमें चूक नहीं सकता पर उसमें चूक सकता है।
(45) सांसारिक भोगोंको सुखदायक समझकर इनमें स्वाभाविक प्रेम है। संसारके भोगकी कोई बात करे इसमें आलस्य, निद्रा आ नहीं सकते।
(46) जहाँ बैठे हैं उस जगह फालतू बातमें समय बिता देते हैं तथा आलस्य निद्रामें भी समय बिता देते हैं इन सब बातोंको सोचकर नित्य सुखकी खोज करनी चाहिये। अपना इस मनुष्य शरीरका समय बीत रहा है इसलिये यह तो देखना चाहिये कि अपनी उन्नति हो रही है या नहीं। यदि उन्नति नहीं होती होवे तो उस कामको क्यों करें। हमें जिस कामसे उन्नति होती है वही काम करते हैं। इसलिये सत्संगसे उन्नति होवे तो सत्संगसे उन्नति करनी चाहिये।
(47) मनुष्यका समय अपने बुरे स्वभावसे नष्ट हो रहा है। भगवान् तो इस विषयमें मौन हैं। परन्तु माँगनेवालेको भगवान् मदद देते हैं।
आप यह कोशिश नहीं करेंगे तो गिर जाएँगे, थोड़ी कोशिश करनेसे बचेंगे। विशेष कोशिश करनेसे गिरनेसे बचेंगे एवं और भी विशेष कोशिश करनेसे उद्धार होगा दूसरा उपाय नहीं है।
(48) इस शरीरको (ऐश, आराम और विलासिता से) पालनेसे क्या फल होगा? इसकी तो राख ही होनी है।
(49) अपने अधिकारमें जो चीज (वस्तु) हो उसे हमको ऊँचे-से-ऊँचे काममें लगानी चाहिये। जो अपनेको अच्छे काममें मदद देवे।
(50) आत्माके कल्याणके लिये सबसे बढ़कर कौनसी बात है सब बातोंको सोच-सोचकर विचारकर पहले सत्य बोलने की सोचे।
(51) मनके प्रतिकूल रहनेसे बहुत दुःख होता है इसलिये किसी चीजमें अनुकूलता प्रतिकूलता नहीं रहनी चाहिये।
(52) नीच पुरुषको याद करनेसे और उसका कृत्य याद करनेसे अपनेको उसके ऊपर घृणा होती है। इससे अपना ही पतन होता है। उसके ऊपर घृणा करनेसे अपना ही नुकसान है।
(53) किसीमें अपनेको दोष प्रतीत होता है तो उसका दोष नहीं कहना चाहिये।
(54) किसीकी निन्दा नहीं करनी चाहिये।
(55) जिस मार्ग (भक्ति, कर्म और ज्ञानमार्ग) जाना हो उस मार्गको अच्छी तरह तय करके ठीक जँच जावे तो उस मार्गपर जोरसे चलना चाहिये।
(56) स्वभावके वशमें होकर जो प्रतिकूल (मनमानी) चेष्टा कर रहे हैं उसका तो मानो पतन हो गया।
(57) स्वभाव, प्रयत्न और कुंसग यह तीन ही डुबोनेवाले हैं।
(58) प्रयत्न और कुंसग यह तो बदल सकते ही हैं। इनके बदलनेकी चेष्टा करनेसे स्वभाव भी बदल सकता है।
(59) सद्गुण सदाचारका सेवन करना है वह ही उद्धार करनेवाला है।
(60) समय बीत रहा है और (मृत्यु) काल नजदीक आ रहा है। काल आ गया फिर रोवो। इसलिये मृत्यु आनेके पहले अपने उद्धारका काम बना लेना चाहिये।
(61) अभी सोचनेकी बात है वह समय (मृत्युकाल) आयेगा। इसलिये अपनी आत्माका उद्धार हो वही काम सोचना चाहिये और काम भले ही सब नष्ट हो जायें। आप मुख्य कामको गौणता देकर दूसरी तरफ अपना समय लगा रहे हो।
(62) अपना मुख्य काम क्या है? पर अपना समय मुलाहिजे (संकोच) में नष्ट हो रहा है। कभी तो औरतोंके, कभी भाईके, कभी किसीके काममें नष्ट हो रहा है।
(63) अपना बहुत-सा काम तो आलस्यमें नष्ट हो रहा है। एक जरूरी काम किसी जगह जानेका है पर आलस्य करके नहीं गये। पर निकलना हो गया तो हो गया। इसी प्रकार आलस्यसे अपनी आत्माके कल्याणका मार्ग रुक रहा है, उसमें ढीलापन आ रहा है। किसी समय अपने कोई काम नहीं है, फालतू बैठे हैं और ऐसे ही समय बिता रहे हैं। ऐसे समयमें समझ लिया कि भगवान्का नाम लेना अच्छा है। पर फालतू समयका भी उपयोग नहीं करते। उस समय भगवान्का नाम याद नहीं आना स्वभावके दोषके कारण है।
(64) मनुष्य होकर पशु माफिक समय बिता देवे तो मनुष्यमें और पशुमें क्या फर्क है।
(65) जितनी प्रकारके साधन हैं उसमें सबसे उत्तम साधन भगवान्का ध्यान है। इस साधनमें जितनी शान्ति है उतनी न सेवामें है, न यज्ञमें है, न दानमें किसीमें नहीं है। पर ध्यान तो श्रद्धासे बनता है। ध्यान बननेमें रुकावट आ रही है, ध्यान बन जावे तो उसके बराबर कोई भी साधन नहीं है।
(66) परमात्माको याद रखते हुए ही काम करना चाहिये। भगवान्के वचनको याद रखो। देखें (गीता 8/7) एवं (गीता 18/57)।
(67) आसक्ति छोड़े, देखें (गीता 4/20)। आसक्ति तो स्वभावका दोष है। इस काममें भगवान्की राय नहीं अपने मित्रकी राय नहीं फिर हम यह काम क्यों करें।
(68) भगवान्के काममें तो पाप घुसना ही नहीं चाहिये। भगवान्की राजी माफिक ही काम करें। भगवान्की राजी माफिक, आज्ञा माफिक समय बितावें।
(69) राग कैसे छोड़ना चाहिये? राग छोड़ दो या स्वार्थ छोड़ दो फिर उसमें आसक्ति नहीं रहेगी।
(70) जिस कार्यसे ईश्वरकी विस्मृति होवे उसको छोड़ देना चाहिये।
(71) परमात्माके सब प्रकारसे अधीन हो जाना ही शरणागति है।
- रस्सा लटका हुआ है उसको पकड़ना अवलम्बन यह नाम-जप है।
- भगवान्की आज्ञानुसार चलना ।
- भगवान्को हर समय याद रखना।
- उनके चरणोंमें जाकर गिर जाना।
(72) प्रश्न- भगवान् पर कैसे निर्भर होवें ।
उत्तर- जैसे प्रह्लाद। वह तो भगवान्की भक्ति करता रहता है। अपनी रक्षाकी कोई परवाह नहीं, निष्काम भक्ति ही ऊँचे दर्जेकी श्रेणी है।
(73) भगवान्का स्मरण तो करते हैं पर उसमें हेतु क्या है, भगवान् में प्रेम होना।
(74) देवताओंसे परमेश्वरकी भक्ति उत्तम है। अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थोंके लिये भगवान्को भजनेवाला) भक्तकी अपेक्षा आर्त (संकट निवारणके लिये भगवान्को भजनेवाला) भक्त उत्तम है, आर्तसे जिज्ञासु (मेरेको यथार्थरूपसे जाननेकी इच्छासे भजनेवाला) भक्त उत्तम है, जिज्ञासुसे ज्ञानी अर्थात् निष्कामी भक्त श्रेष्ठ है। जो भगवान्की भक्ति नहीं करता है उससे देवताकी भक्ति करनेवाला अच्छा है।
(75) भगवान्की निरन्तर स्मृतिसे फिर मनसे प्रत्यक्ष भगवान् दीखने लग जाते हैं। फिर दीखते दीखते प्रकट हो जाते हैं।
(76) मनसे भगवान्का स्मरण, नामका जप करता हो तो भगवान्के नामका जाप कहा जाता है।
(77) हमलोग आपको नहीं जानते थे पर आपका नाम जानते थे, नामके जाननेसे आपके पास पहुँच गये। ऐसे ही भगवान्के नामका जप करनेसे उनके पास पहुँच जायँगे।
(78) भगवान्के स्मरण नामजपके बिना रह नहीं सके, साधककी ऐसी स्थिति हो जानी चाहिये।
(79) भगवान्के नाम-जपका महत्त्व तो उसका है जिसके साथ भगवान् के स्वरूपका स्मरण हो। स्वरूपकी भूल नहीं करना चाहिये।
(80) प्रश्न- साकारकी मानसिक, काल्पनिक मूर्तिको स्थिर करना कठिन है।
उत्तर- पूर्वके संस्कार काम करते हैं हमलोगोंने सांसारिक चीजोंका मनसे चिन्तन किया है इसलिये कठिन लगता है।
(81) हमको कोई चीज हटानेकी जरूरत नहीं है, चीजोंमें भगवत् भावना करनी चाहिये।
(82) आँख मीचकर बैठनेसे बाहरका दृश्य हट जाता है, पर भीतरका दृश्य रहता है उसको हटाना चाहिये।
(83) विश्वास तो हमलोगोंका है पर शंकायुक्त है। जब पूरा विश्वास होगा तो नुकसानके नजदीक नहीं जायँगे। यानी आध्यात्मिक नुकसानका विचार करेंगे तो झूठ, कपट, व्यभिचारकी तरफ वह बिलकुल नहीं जायगा ।
(84) दर्शनका आनन्द अपने साधनमें प्रधान है और वियोगका आनन्द भी प्रधान है। जैसे गोपियाँ वृन्दावनमें रहकर मथुरा नहीं गईं वे भगवान्को तत्त्वसे समझती थीं।
(85) जो भगवान्के वियोगको नहीं सह सके उनको भगवान् मिले हैं। जैसे भरतजीने कहा है- 'बीतें अवधि रहहिं जौं प्राणा' (रा.च.मा. उत्तरकाण्ड 1/4)
(86) प्रश्न- 'बीतें अवधि रहहिं जौं प्राणा' मनुष्य ऐसी अवस्था क्यों नहीं कर सकता है।
उत्तर- श्रद्धा-प्रेमकी कमी है। पूर्वकृत पापके कारण वैसी श्रद्धा नहीं होती है।
प्रश्न- अश्रद्धाको नष्ट करनेका शीघ्र उपाय बतलाएँ।
उत्तर- श्रद्धालु पुरुषोंके संग, प्रेमी पुरुषोंके संगसे ऐसी बुद्धि उत्पन्न होगी। और समय-समयपर भजन-ध्यानकी चेष्टा करनी चाहिये।
(87) काम करते समय आठ आना (आधा) भजन होता है और एकान्तमें बारह आना भजन होता है। तो काम करते समय वाला भजन अच्छा है। और अधिकारके अनुसार ये बातें हैं।
(88) साधकके मनके दौड़नेसे जितनी हानि है उतनी शरीरसे दौड़ने में नहीं है।
(89) भजनके लिये कम-से-कम तीन घंटे तो जरूर रखने चाहिये।
(90) बात तो यही अच्छी है कि हर समय भजन ही किया करें। पर मन एक जगह टिकता नहीं है इसलिये इसको कुछ काम देकर फिर भजनमें लग जावें। प्रधानता भजनकी रखें।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...