संसारसे उपरामता ही असली त्याग है, उस पार झाड़ियोंमें विरक्तसंतोंकी बातें
ज्ञानयोगमें वैराग्य और उपरति इन दोनोंकी आवश्यकता है। इनके बिना समझमें भी आना कठिन है। चार बातें- (1) मन इन्द्रियों का संयम (2) संसारके भोग-पदार्थोंमें अनित्य और दुःख बुद्धि करके विवेकपूर्वक, विचारपूर्वक इनका त्याग करना, नहीं समझे तो हठसे त्याग करें। (3) संसारके पदार्थोंमें वैराग्य हो जाना यानी आसक्तिका नाश हो जाना। (4) उपरति यानी वैराग्य होकर वृत्ति भी उनसे हट जावे। ये चारों बातें बड़ी लाभदायक है।
संसारसे उपरामता ही असली त्याग है। ऐसी उपरामता महात्माओंमें और पुस्तकोंमें देखनेमें आयी है। गंगाके उस पार झाड़ियोंमें कई विरक्त पुरुष थे, अब भी होंगे। उनकी उपरति विलक्षण थी। कई के दर्शन किये थे और कई के नाम सुने हैं।
एक तपस्वीजी नाम करके थे, उनका इतना प्रभाव था कि जिसमें वैराग्य, उपरामता नहीं हो वह उनके समीप झाड़ियोंमें रह नहीं सकता था।
शास्त्रोंमें तो अलौकिक उल्लेख मिलता है। जैसे जड़भरत, शुकदेवजी और ऋषभदेवजी थे इन सरीखे आज कहीं देखनेमें नहीं आते। ऋषभदेवजी की उपरति सातवीं भूमिका की थी।
शुकदेवजी और जड़भरतजीकी उपरति सराहने लायक है। उनकी उपरति पाँचवीं और छठी भूमिका की थी। छठवीं भूमिका में जो होते हैं वे उपदेश भी नहीं दे सकते।
उन्हें भगवान्में अतिशय तन्मयताके कारण बाहरका ज्ञान नहीं होता। सातवीं भूमिकामें सुई चुभाओ या काटो तो भी पता नहीं लगता। वह मुर्देकी तरह होता है। केवल फर्क इतना है कि उसमें जान है और मुर्देमें जान नहीं होती। जो वास्तवमें सातवीं भूमिका में होते हैं उन्हें लक्ष्य रखकर जो महात्मा परमहंस वृत्तिमें आविष्ट होते हैं वह सातवीं भूमिकाको लक्ष्य करके ही होते हैं। ऐसे होते होते सातवीं भूमिका हो जाती है।
मैंने छठवीं भूमिकाके व्यक्तिको देखा है उनका नाम सांइजी था। उपरति संन्यास आश्रमका भूषण है। गृहस्थाश्रममें एकान्तमें रहकर उपरति करे। उपरति होनेपर अपने आप ध्यान हो जाता है।
वैराग्य और उपरति दोनों ध्यानके लिये सबसे अधिक सहायक है । संसारके भोग प्यारे नहीं लगे इसका नाम वैराग्य है। और प्यारे नहीं लगकर उधर वृत्ति ही नहीं जावे इसका नाम उपरामता है। भीतरसे जब उपरामता जोर करती है तो बाहर तो उसका स्वभाविक ही असर पड़ जाता है।
शनैः शनैरुपरमेदबुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥
(गीता 6/25 )
अर्थात्- क्रम-क्रमसे अभ्यास करता हुआ उपरामताको प्राप्त होवे तथा धैर्ययुक्त बुद्धिद्वारा मनको परमात्मामें स्थित करके, परमात्माके सिवाय और कुछ भी चिन्तन न करे।
आहिस्ते-आहिस्ते विवेक, वैराग्य द्वारा होनेवाली उपरति बहुत दामी है।
यहाँ (गंगाके किनारे) वैराग्य और उपरामता स्वभाविक ही होनी चाहिये क्योंकि यहाँका दृश्य घर जाकर स्मरण करें तो वैराग्य और उपरामता हो सकती है। गंगाके इस पार और उस पार झाड़ी में दोनों जगहका दृश्य बड़ा सुन्दर है। स्वभाविक ही वैराग्य उत्पादक है।
गंगाका स्पर्श करके चलनेवाली हवामें स्वभाविक ही वैराग्य भरा है। गंगाके दर्शनसे वैराग्य होता है। दुर्गुण-दुराचारोंका नाश होनेपर अपने आपही वैराग्य हो जाता है। यानी वैराग्य ही शेष रह जाता है।
गंगाका तट और वटका वृक्ष दोनों यहाँ स्वभाविक ही हैं। आजीविका का प्रबन्ध हो गया हो तो यहीं अकेला रहे ।
यहाँका स्थान तो वैराग्यमय है ही और इसपर गीता और महाभारतका वैराग्यका प्रसंग चले तो भोगीको भी वैराग्य हो जाय और यदि वक्तापुरुष भी शुकदेवजी जैसा हो तब तो कहना ही क्या है। मनुष्य जैसा सुनता और देखता है वैसी ही वृत्तियाँ बन जाती हैं और वह भी वैसा ही बन जाता है।
स्थिर और सुखपूर्वक आसनसे 'समं कायशिरोग्रीवं' होकर बैठ जावे। शरीर संसारका अभाव करके भावरूप परमात्माका ही ध्यान करना चाहिये। नेत्रसे बाहरका, मनसे अन्दरका व्यापार बंद हो जाता है। ऐसा होकर भगवान्के स्वरूपका ध्यान करें।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥
(गीता 15/3)
अर्थात्- इस अंहता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलोंवाले संसाररूप पीपलके वृक्षको दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्रद्वारा काटकर ।
यानी संसारको भुला दें। त्याग दें। जैसे स्वप्नसे उठनेपर स्वप्नके संसारका त्याग हो जाता है। उसी तरह इसे भी त्याग दें। विचार करनेपर स्वप्नकी बात याद आती है पर वह जानता है कि यह केवल मेरा संकल्प (स्वप्न) है। इसी तरह इस संसारको भी केवल संकल्प समझकर त्याग दे। इसको भुलाकर परमात्माके सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म (तैत्तिरीयोपनिषद् 2/21) अर्थात्- 'ब्रह्म सत्य, चेतन और अनन्त है' का ध्यान करें। वह सत्य, चिन्मय, ज्ञान स्वरूप और असीम है। वह आकाशसे भी बढ़कर असीम है, अनन्त है क्योंकि आकाश जड़ है।
हममें जो ज्ञान आता है वह ब्रह्मसे ही आता है, उस ज्ञान सागरकी एक बूंद सारे संसारमें ज्ञान रूपसे है। वहीं ब्रह्म सबको जानता है हम भी उसकी शक्तिको लेकर जानते हैं। जैसे पावर हाउससे बिजली लेकर सभी बल्ब जलते हैं। इसी प्रकार भगवान् चेतनताके केन्द्र हैं।
हममें बुद्धि और बुद्धिमें ज्ञान है, वह उस परमात्माका आभास है। और जो आत्मा है वह बिजली है। बिजलीके तारकी ज्यों स्थूल शरीर और उसके भीतरमें तांत (बारीक तार) सूक्ष्म शरीर है और बिजली आत्मा है। वह ज्ञाता है वह स्वयं ही अपने आपको जानता है वह ऐसा है।
सबका त्याग कर दें और फिर त्याग करनेवाली वृत्तिको भी त्याग दें । त्यागका अभिमान भी उसके नहीं रहता इसलिये त्यागी भी नहीं कह सकते वह तो वस्तु मात्र है। आनन्दमय आनन्दमय।
देखो, कैसी शान्ति है, आनन्द है। वायुमें कैसी भगवती गंगाकी गंध है। क्यों न हो क्योंकि गंगा भगवान्के चरणोंका जल है। कहीं ऐसा भी लेख मिलता है कि भगवान् ही इस रूपमें हैं। प्रेमसे भगवान् ही द्रवीभूत होकर बह गये। यह भगवान्का ही प्रेम रस है। जब भगवान्के प्रेम रसमें ऐसी गंध है तो भगवान्में कैसी गंध होगी। इसका नाम सुरसरी यानी देवताओंकी नदी अथवा सुरोंके लोक आकाश से यह आई है। भगीरथजी बड़ी तपस्या करके वरदान माँगकर इसे लाये हैं। भगीरथके पूर्वजोंकी हड्डियाँ गंगाजीमें बहने से उनका उद्धार हो गया।
गंगाने कहा मुझे कोई झेलनेवाला होना चाहिये। तब भगीरथजीने शंकरजीकी आराधना की। शंकरजी प्रसन्न हुए और कैलाश पर खड़े होकर जटा बढ़ाकर उसीमें गंगा समा ली। फिर भगीरथजीने प्रार्थना की तब शंकरजीने अपनी जटासे धारा बहाई। फिर गंगोत्री में गिरी और उत्तरकाशी से होकर ऋषिकेश होती हुई गंगासागरको गई।
जैसे हम कस्तूरी या कपूरको धोवें तो जलमें गंध आ जाती है। इसी प्रकार इसमें भगवान्के चरणोंकी गंध आ गई है।
भगवान् शिवजीने एक बार नृत्य किया तो प्रेमके कारण भगवान्का शरीर चूने लगा। उसको अमृत कहो या प्रेम कहो, ब्रह्माजीने उसे अपने कमण्डलुमें ले लिया फिर उसे उन्होंने स्वर्गमें छोड़ा और भगीरथने तपस्या करके अपने पूर्वजोंके लिये गंगाजीको स्वर्गसे यहाँ ले आये।
गंगाजीसे स्वर्ग प्राप्ति होना तो मामूली बात है। पर परमात्माकी प्राप्ति भी हो जाती है। अतएव हमें (गंगाजीके तटपर रहनेवालोंको) रोज तीन बार नहीं तो दो बार अथवा एक बार तो अवश्य स्नान करना चाहिये।
अब फिर प्रकरण पर आता हूँ। जो कुछ दीखता है समझमें आता है उसे भुला देना चाहिये। भुलानेवाली वृत्तिको भी भुला दें और ध्यान करें परमात्मा का। चेतन ही आनन्द है। एकान्तमें बैठकर सबको भुलाकर उस चेतन परमात्माका ध्यान करें।
आनन्दमय आनन्दमय पूर्णानन्द अपार आनन्द घन आनन्द आदि । ऐसी स्थितिमें होनेपर फिर संसारका ज्ञान हो तो फिर संसारको भुला दो, बार-बार भुला दें।
संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥
(गीता 6/24)
अर्थात्- इसलिये मनुष्यको चाहिये कि संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली संपूर्ण कामनाओंको निःशेषतासे अर्थात् वासना और आसक्तिसहित त्यागकर और मनके द्वारा इन्द्रियोंके समुदायको सब ओरसे ही अच्छी प्रकार वशमें करके।
शनै: शनैरुपरमेदबुद्धया धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥
(गीता 6/25 )
अर्थात्- क्रम-क्रमसे अभ्यास करता हुआ उपरामताको प्राप्त होवे तथा धैर्ययुक्त बुद्धिद्वारा मनको परमात्मामें स्थित करके, परमात्माके सिवाय और कुछ भी चिन्तन न करे।
संकल्प त्यागकी यही रीति है कि मनसे पूछे कि बोल तेरी क्या इच्छा है? तू क्या चाहता है? तो जबाव मिलता है कोई चीजकी इच्छा नहीं है। यह अपनी आत्मासे कहला दे कि हमें कोई भी बातकी इच्छा नहीं, परवा नहीं है इसीसे उपरामता होती है। वस्तुका ज्ञान होवे और परवा नहीं करें इसका नाम बेपरवाह है और ज्ञान ही नहीं होना उपरति है। फिर मनके द्वारा इन्द्रियोंको सब विषयोंसे सब ओर से हटा लें। बाहर भीतर दोनोंकी उपरामता करें।
धृतिके द्वारा विवेक और वैराग्यपूर्वक बुद्धिकी वृत्तिके द्वारा उपरामताको प्राप्त हो। संकल्प रहित हो जावें और संसारको त्याग दें।
धीरज धारणकी हुई बुद्धिके द्वारा मनको उस परमात्मा 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' में जोड़ दें। मनके उसमें प्रवेश करनेपर फिर संसारका चिन्तन ही नहीं करें चिन्तन हो तो फिर वैसे ही करें। यही अजातवाद है। यानी संसारका अत्यन्त अभाव है। यह वेदान्तके सिद्धान्त साक्षात् परमात्माके स्वरूपको प्राप्त हो जाता है।
यह तो एकान्तमें करनेकी बात हुई अब व्यवहारमें कैसे करें यह बताया जाता है। गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं द्रष्टा होकर के यह देख रहा है कि गुण ही करता है। इस तरह देखनेवालेको भगवान् कहते हैं कि वह मेरेको प्राप्त हो जाता है। इस तरह देखनेकी युक्ति आपको बतलाई जाती है।
यह युक्ति बड़ी अच्छी है किसी तरह समझमें आ जावे तो एक क्षणमें कल्याण हो जाता है। जैसे स्वप्नमें किसी दुःखी व्यक्ति (स्वप्नमें दु:ख पानेवाले) को जगा दें तो उसका उसी क्षण दुःख दूर हो जाता है। इसी तरह हम भी स्वप्नमें हैं कोई महापुरुष जगा सकते हैं। दूसरी बात यह है कि स्वप्नमें जब ऐसी भावना होती है कि यह स्वप्न तो नहीं है और बार-बार जब ऐसी भावना करता है तो आँख खुल जाती है। इसी तरह कहना चाहिये कि यह संसार स्वप्न तो नहीं है तो इससे जाग जायेंगे तब यह संसार स्वप्नवत् मालूम होगा। जैसे अज्ञानीको अपने शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरके नाशमें दुःख नहीं होता। रिश्तेदारोंके मरनेपर दुःख होनेमें मेरापन (ममता) ही दुःखका कारण है।
पृथ्वी, जल आदि चारों तत्त्व आकाशमें हैं और आकाश उस परमात्माके संकल्पमें है। अहंकार बुद्धिमें, बुद्धि, समष्टिबुद्धिमें है।
जैसे आकाश सबके बाहर-भीतर है। उसी तरह परमात्मा भी व्यापक है। कार्यमें कारण रहता ही है। जैसे बर्फके अणु-अणुमें जल है। समष्टि बुद्धिमें स्थित होकर अपने ही संकल्पको देखें। अपने शरीरमें भी औरोंके शरीर की ज्यों बुद्धि करें यानी दूसरोंके शरीरको हम अपना नहीं मानते ऐसे ही अपने शरीरको भी अपना नहीं मानें।
पृथ्वी पर शरीर चल रहा है तो पृथ्वी और शरीर दोनोंको संकल्पके आधार देखें। यदि ऐसा न मान सकें तो दूसरा साधन उपर्युक्तसे एक दर्जे नीचे की बात बताई जाती है। जैसे सारे पदार्थोंमें पर बुद्धि है, और सुखी दुःखी नहीं होते हैं। ऐसे ही पुत्र, स्त्री आदिको अपना मानना मूर्खता है यही बंधन है। जैसे स्वप्नकी वस्तु जाग्रत्में नहीं लायी जा सकती उसी तरह इस जगत्की चीजें मरनेपर साथ नहीं चलेंगी। जब सबका त्याग कर दिया तब शरीरमें अहम् बुद्धिका भी त्याग कर दें।
जैसे किसी कारण हाथके कट जानेपर कटे हाथको अपना नहीं मानते उसी तरह इस शरीरको मानें। शरीरसे जरा भी मोह नहीं रखें। स्थूल, अन्नमय, प्राणमय कोष इन सबको छोड़कर विचार द्वारा, बुद्धिके द्वारा शरीरसे बाहर निकलकर शरीरको देखें।
भक्ति सिद्धान्तमें भक्त चलता है तो भगवान्को भी साथ-साथ चलते देखता है। इसी तरह इस शरीरकी आत्माके साथ-साथ चलें।
शरीरमें अहम् बुद्धि हो रही उसे निकाल दें। सबके शरीर और इन्द्रियाँ एक सरीखी हैं। शरीरको अपना माननेसे ही दुःख होता है। जिसमें हमारी ममता है उसके नाश होनेपर हमें दुःख होता है। तो ममतामें दुःख है। तो फिर ममताका त्याग कर दो। जबतक शरीरमें मेरेपनका भाव है तभी तक दुःख होता है। जब शरीरमें मेरापन नहीं रहेगा तो शरीरको चाहे कोई आग लगा दे या टुकड़े-टुकड़े कर दे तो भी दुःख नहीं होगा।
जैसे मनुष्य अपने कटे हुए हाथको अलग देखता है उसी प्रकार अपने शरीरको अलग देखे । देहाभिमानसे अलग हो जावें तो हमें बहुत अधिक सुख हो । बुद्धि विशिष्ट चेतन इस शरीरसे बाहर हो जावें।
व्यष्टि (व्यक्तिगत) शरीरसे निकलकर व्यष्टि बुद्धिसे शरीर और संसारको अलग देखे। शरीर आँखोंसे देखते हुए चल रहा है और हम शरीरको देख रहे हैं इस हालतमें हम इस स्थूल शरीरसे छूट गये। पर अभी सूक्ष्म शरीरमें हैं। सीढ़ी चढ़ना दोनों तरहसे होता है एक तो एक-एक सीढ़ी चढ़ो या एक सीढ़ीको उलांघकर चढ़ जावें ।
जैसे आकाश बादलके बाहर-भीतर है। उसी प्रकार समष्टि बुद्धि इस ब्रह्माण्डके बाहर भी है और भीतर भी है। तो समष्टि बुद्धि (ज्ञान) के द्वारा देखें और समष्टि बुद्धिसे अपनेको समझें। अपने ही संकल्पमें ब्रह्माण्डको समझें। एकान्तमें बैठे तब उस संकल्पको भी त्याग दें और आनन्दमें मस्त हो जावे। आनन्दमय आनन्दमय यही वेदान्तका खास सिद्धान्त है।
आत्माके अलग होनेपर शरीर कुम्हारके चक्केकी तरह घूमता रहता है। पर इससे भी अच्छा उदाहरण है रेल इंजनका जैसे ड्राइवर, इंजन चलानेवाला इंजनसे कूद जावे, तो इंजनमें जब तक स्टीम ( ईंधन) रहता है तब तक इंजन चलता रहता है। और जिस लाइन पर छोड़ा उसीपर चलता रहता है। ऐसे ही वह परमसुखी हो जाता है जो जीता हुआ इस शरीररूपी कोटड़ीका त्यागकर देता है।
शरीरमें मोह रहनेसे शरीरको त्यागनेका दुःख होता है। पर जीवित अवस्थामें तीनों शरीरोंको छोड़कर अलग हो जावें। जैसे टसर (रेशम) का कीड़ा अपने ऊपरके आवरणको फोड़कर निकल जाता है। उसी रेशमी आवरणका मुकटा (एक प्रकारका रेशमी वस्त्र) होता है उसमें हिंसा नहीं होती पर जो चमकीले होते हैं उसमें हिंसा होती है। जैसे कीड़ा दाँतोंसे काटकर निकल जाता है उसी तरह हमें भी बुद्धिकी वृत्तिसे बाहर निकल जाना चाहिये। यही बुद्धिमानी है।
स्वप्नके शरीरकी आंच (आग) इस सोये हुए शरीरमें नहीं पहुँचती। इसी प्रकार इस शरीरकी आंच ब्रह्मको नहीं पहुँचती यानी इस शरीरके जलनेपर आत्माका कुछ भी बिगाड़ नहीं होता। वहाँ ब्रह्ममें शरीर शरीरी नहीं है। स्वयं ब्रह्म बन जाता है। इसी प्रकार ब्रह्ममें स्थित होकर इस शरीरको मिटाना चाहिये।
जागनेके दो तरीके हैं। (1) स्वप्नमें अधिक दुःखी देखकर कोई जगा दे। (2) स्वप्नको स्वप्न समझे तो फिर स्वप्न नहीं रहता। तो इसी प्रकार इस जगत्को सोचें कि यह स्वप्न तो नहीं। यह दृष्टांत वेदान्तमें एक नम्बर है। और यहीं एक नम्बर उपाय है। सोनेवाला एक दम स्वप्न नहीं लेता। संकल्प करते-करते सो जाता है तो उसी संकल्पकी दृढ़ता होनेपर वैसा स्वप्न आने लगता है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...