Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

क्रोध शान्त होनेका उपाय, शान्तिके वचन

प्रवचन- 3
दिनांक 03-05-1940स्वर्गाश्रम

कोई आदमी झगड़ रहा है, क्रोध कर रहा है तो कोई समझदार आदमी आकर कहे कि शान्ति रखो, तो झगड़नेवाला कहता है कि आप चुप रहो तो दूसरा कहता है कि देखो आपके सामने ही ऐसा कहता है। समझानेवाला उनकी सब बातें सुनता है और कहता है कि इसकी बातपर धूल दो।

शान्तिके वचन ही जल है, क्रोध करनेवालेके प्रति अनुकूल वचन कहे और शान्तिसे कहे तो वह ठंडा एवं नरम हो जाता है।

क्रोध आनेपर भजन करे। तो कहा जा सकता है कि मनके प्रतिकूल होनेपर भजन कैसे करें? भगवान्के भक्तको तो क्रोध आता ही नहीं। रामचरित मानसमें भी आया हैं- 

खल कामादि निकट नहिं जाहीं ।

बसइ भगति जाके उर माहीं ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड 120/3)

अर्थात्- जिसके हृदयमें भक्ति बसती है, काम, क्रोध और लोभ आदि दुष्ट तो उसके पास भी नहीं जाते।

कोई पूछे तुम ईश्वरके भक्त हो ? तो वह कहता है कि थोड़ा बहुत हूँ न ! तो यदि थोड़े भक्त हो तो थोड़ा ही क्रोध आना चाहिये।

तुम भगवान् के भक्त हो तो लाभ-हानि, जय-पराजय आदि भगवान् के विधानसे ही होता है यह मानते हो न । हाँ, यह तो मानता हूँ। तो फिर क्रोध क्यों आता है?

प्रारब्धका भोग परेच्छा, अनिच्छा और स्वेच्छासे होता है। हम यहाँ बैठे हैं और पेड़की डाल टूटे या भूकम्प आ जाय तो इस घटनाको दैवेच्छा या अनिच्छा कहा जायगा। यह फल भगवान् ही भुगताते हैं।

मनके विपरीत जो कुछ होता है वह हमारे पापका फल है अथवा ईश्वरका विधान है, यह समझ जावे तो क्रोध नहीं आवे।

हमें ईश्वरके विधानको ईश्वरका भेजा पुरस्कार समझकर प्रसन्न होकर सिर चढ़ाना चाहिये। यदि हम रोवेंगे, दुःख करेंगे तो भगवान् समझेंगे कि यह मेरे भरोसेपर नहीं है।

हमारा कर्तव्य है कि हम तो किसीपर क्रोध करें ही नहीं पर कोई हमपर क्रोध करे, तो भी उसपर क्रोध नहीं करना चाहिये। कोई क्रोध करता है तो समझें कि मेरेसे ही कोई कसूर हुआ है। किसीको भी क्रोध आवे तो उसका नहीं बल्कि अपना कसूर ही मानें।

दूसरेको क्रोध आनेपर भक्त सोचता है कि मेरे द्वारा कोई ऐसी प्रतिकूल क्रिया हुई है जिससे इसे क्रोध आया है।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ।

(गीता 12/15 ) 

अर्थात्- जो हर्ष-अमर्ष, भय और उद्वेगादिकोंसे रहित है, वह भक्त मेरेको प्रिय है।

यदि मुझे अपना सुधार करना है तो अपनेमें क्रोध नहीं आने देना चाहिये।

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥

(गीता 12/14 )

अर्थात्- जो ध्यानयोगमें युक्त हुआ, निरन्तर लाभ-हानिमें संतुष्ट है तथा मन और इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें किये हुए, मेरेमें दृढ़ निश्चयवाला है, वह मेरेमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मेरेको प्रिय है।

यदि हरवक्त तुम्हारे चित्तमें सन्तोष नहीं तो तुम कैसे भक्त हुए। भक्त तो इसे अपने पापका फल और ईश्वरका विधान समझता है । परन्तु हम तो इस बातको समझते ही नहीं। बिना पाप किये किसीको दण्ड नहीं मिलता इससे समझें कि इन दुःखोंका कारण पाप ही है। क्या कोई भगवान्‌की मर्जी हुए बिना बाल भी बांका कर सकता है। यदि ऐसा नहीं होता तो हमारे शत्रु हमें मार डालते। और विपरीत परिस्थितिमें खुश होंगे तो भगवान् बड़े प्रसन्न होंगे कि इसके कितना विपरीत ही विपरीत होता है फिर भी प्रसन्न रहता है तो भगवान् अपना भक्त समझेंगे। प्रह्लादजीके जीवनमें कितनी प्रतिकूलता हुई!

भक्तके लक्षण- गीता अध्याय 12 श्लोक 13 से 19 तक देखें। जब ये लक्षण हमारेमें आ जायँगे तब हमारे संग करनेवाले भी पवित्र हो जायँगे।

आप किसीके क्रोधको सहन कर लेंगे और उसे वापसी जबाब देनेकी शक्ति होते हुए भी जबाब नहीं देंगे तो वह स्वयं आकर माफी माँगता है।

दूसरी बात है कि यदि कोई क्रोध करता है तो उसपर आप पानी-पानी हो जायँ और उससे माफी माँगें और कहें कि मुझसे बड़ी भूल- कसूर हो गई, मुझे मालूम नहीं। मेरे कसूरसे ही आप अप्रसन्न हो रहे हैं।

किसी प्रकार किसीसे आपका अनिष्ट हो गया तो उसे आप केवल निमित्त मात्र समझें। और वह आकर आपसे अपनी भूल स्वीकार करे तो आप उसे कहें कि आप उस बातको भूल जाइये, उसमें तो आप केवल निमित्त बन गये।

यह महात्माओंका व्यवहार है। इसे माता बहिनों भाइयोंको करना चाहिये । यदि घरमें एक स्त्री सुधार करना चाहे तो कर सकती है। मोहल्ले भरका सुधार कर सकती है। पर जो अपना ही सुधार नहीं कर सकी वह दूसरोंका क्या सुधार करेगी। जिसकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं, काम-क्रोधके वशमें है वह क्या सुधार करेगी। काम-क्रोधको नरकके दरवाजे समझें।

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥

(गीता 16/21)

अर्थात्- हे अर्जुन ! काम, क्रोध तथा लोभ यह तीन प्रकारके नरकके द्वार आत्माका नाश करनेवाले हैं अर्थात् अधोगतिमें ले जानेवाले हैं, इससे इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।

यह ध्यान देना चाहिये कि घरमें एक स्त्री अच्छी आ जाती है तो घरका सुधार कर देती है। उदाहरण-

एक वैश्य था, उसके घरमें 20 सदस्य थे। स्त्रियाँ आपसमें लड़ा करती थीं। पुरुष घरमें आते तो वापस बाहर जानेकी इच्छा होती। पुरुषोंकी कमी है कि घरके सुधारका उपाय नहीं करते, न इसमें समय ही देते हैं। उस घरमें सभी दुःखी हो रहे थे, वहाँ एक भले घरकी बेटी ब्याह कर आ गई, उसके घरके सभी सदस्य बड़े सुशील थे और वहाँ साक्षात् सत्युग था। उसे इस घरमें आनेपर बड़ी उदासी हुई। सोचने लगी मैं यहाँ कहाँ आ गई। मैंने कौन-से पाप किये कि मुझे यहाँ आना पड़ा। किन्तु वह सत्संगकी बातोंसे शिक्षित थी अतः उसने सन्तोष और धैर्य धारण करके सोचा कि प्रभुने मुझे यहाँ सेवा करनेके लिये भेजा है। प्रभो ! प्रभो !! मुझे क्षमा कीजिये। प्रभुकी उसपर विशेष कृपा हुई अब वह अपने घरका व्यवहार याद करती है। उसके घरमें भी लड़ाई होती थी और यहाँ भी होती है। पर दोनोंमें बड़ा अन्तर और विभिन्नता थी, एक नरक देनेवाली लड़ाई थी और एक स्वर्ग देनेवाली ।

वह घरमें देखती है कि रसोईमें स्त्रियोंकी रोटी बनाने, चौका लगाने आदिके सब काम पारी पारीसे होते हैं। किसीको कुछ बुखार आदि हो जाय और दूसरीको कहलावे तो कोई काम करनेको तैयार नहीं होती। उसको ही तकलीफ पाकर काम करना पड़ता, साथ कोई नहीं देती। ऐसे ही सबका हाल था। नई बहूने अपनी बड़ी जिठानीसे कहा- मुझे भोजन बनानेकी आज्ञा दें दें, तब कहा कि अभी तू नई है फिर तुझे भी पारी दे दी जायगी। उसने कहा पारी क्या, रोज मैं ही बनाऊँगी। जिठानीजीने इन्कार किया, तब उसने कहा कि मुझसे कोई अपराध हुआ हो तो क्षमा करो। आखिर वह रोज ही रसोई करने लगी। सासने रोका तो उसने कहा कि माताजी आप इसमें बाधा मत डालो। मेरे पिताने शिक्षा दी है कि यह शरीर क्या काम आयेगा, सच्चा धन तो सेवा ही है। उसकी बात सभीको मीठी लगी।

सेवा तथा प्रेम-भावसे उस घरमें धन बढ़ गया तो घरमें एक-एक साड़ी सबको लाकर दी गई, उस छोटी बहूको भी देने लगे। तो उसने नहीं ली। और उसे मिली हुई तथा अपने घरसे लाई हुई। साड़ियाँ भी उसने बहुत आग्रहसे, प्रेमसे सबको दे दीं।

सासूने कहा कि तूने उन्हें कपड़े भी देने शुरू कर दिये, उसने कहा कि वे कपड़े तो आपके ही थे फिर कहा कि मेरे पिताने यही शिक्षा दी है कि तू अपने सब कपड़े (आवश्यकतासे अधिक) दूसरोंको दे देना। नहीं तो कपड़ोंमें मन रह जायगा तो बुरी गति होगी। इसलिये मुझे सेवा करके असली धन बढ़ा लेने दो ।

अब उस घरमें लाखों रुपये बढ़ गये, घरमें गहने बनवाये गये। 10-10 गहने सबको मिले तो वह सबके पास गहने ले गई और जबरदस्ती रख आई। इसी तरह सबको उसने गहने बाँट दिये। और उसने अपनी जिठानियोंसे कहा कि पिताजीने मुझे यही शिक्षा दी है कि गहने मिलें तो बाँट देना इसीसे तेरा उद्धार हो जायगा, तो आप मेरे उद्धारमें बाधा मत डालिये। अब सासके पास गई और कहा कि आप मेरे उद्धारमें बाधा मत डालिये। उसने अपने पिताकी शिक्षा कह सुनाई कि तन, मन, धन और जन दूसरोंकी सेवामें लगा देवें तो | इसका फल मुक्ति है।

सास इसे सुनकर दंग रह गई और सोचने लगी कि मेरा तो मरनेका समय नजदीक आ गया पर मैंने नहीं बाँटे। अब सासु स्वयं अपने गहने लेकर सब बहुओंको बाँटने लगी और सबको दे दिये। दूसरी सब सोचने लगीं कि बात क्या है ? पहले तो ससुरके देनेपर भी सास लड़ने लगती थी।

अब छोटी बहू शामकी रसोई बनानेके लिये भी हाथ जोड़ने लगी। इतनेमें सास आ गई और उसने कहा कि तू अकेली ही सेवा करेगी, क्या मुझे मुक्ति नहीं चाहिये ? दूसरी बहूके पूछनेपर सासुने कहा कि छोटी बहू हम सबको ठगती है, यह हमारी सेवा करके हमारा हिस्सा लेती है। छोटी बहू बोली मैं तो हिस्सा नहीं लेतीं, तो सासुने कहा मैं सब जानती हूँ। तो अब दूसरी बहुओंने भी जबरदस्ती भोजन बनानेका काम ले लिया और बनाने लगीं।

छोटी बहूको पता लगा कि आटा बाजारसे आता है तो वह गेहूँके बोरे मँगवाकर पीसने लगी। सासके पूछनेपर कहा कि रसोईका काम तो मुझसे छिन गया और मुझे खाली बैठे अच्छा नहीं लगता। सासके रहस्य पूछनेपर कहा कि रोटी बनानेसे जितना कल्याण होता है उससे अधिक कल्याण इससे होता है। अब सास भी पीसने लगी और दूसरी बहुओंको मालुम होनेपर वे भी पीसने लगीं।

अब उसने सोचा पानी भरें। ग्वाला (पानी भरनेवाला) 8 बजे आता है तो वह 5 बजे उठकर पानी भर देती। सासुके पूछनेपर कहा कि यह काम चक्की पीसनेसे भी बढ़कर है, तब सासु भी पानी भरने। लगी। अब बरतन माँजने और झाडू लगानेका काम बाकी रहा तो वह बाहरकी झाडू पहले लगा देती। सासुके पूछनेपर उसने कहा कि चरणोंकी धूली बुहारनेसे जल्दी कल्याण होता है, तो सासु भी बुहारने लगी। अब उसने सोचा कि क्या करें ? अब कोई काम हो तो सासुको न बतावे। अब उसने बरतन माँजने शुरू किये। सासुने कहा कि बरतन क्यों माँजती है ? आराम कर। तो उसने कहा कि आराम करनेसे दुर्गति होगी। अब सब बहुओंने कहा कि हम भी बरतन माँजेंगीं।

रोटी बनानेसे ऊँचा काम बरतन माँजनेका, उससे ऊँचा झाडू देनेका और सबसे ज्यादा ऊँचे दर्जेका काम बीमारकी सेवा करनेका है। जिस कामको आपलोग नीचा समझते हो वह उतना ही ऊँचा है।

अब भोजन करनेवाले उठें कि सब स्त्रियाँ छीन छीन कर बरतन माँजने लगतीं। पहले कपड़े गहनोंके लिये झगड़े होते थे पर अब जूठे बरतन माँजनेके लिये झगड़ती हैं। अब उस घरमें सत्युग आ गया। लोग उस घरके ऐसे झगड़े के दर्शन करने आने लगे। ऐसे घरमें देवता भी दर्शन करने आते हों तो कोई बड़ी बात नहीं। तो माता-बहनोंसे यही प्रार्थना है कि इसी तरह सेवा करो, यही मुक्तिका मार्ग है।

अतिथिको खिलाकर भूखे रहना पड़े तो उस उपवासका फल 24 एकादशियोंसे भी बढ़कर है। यह महायज्ञ है।

महाभारतमें तो इसे अश्वमेघ यज्ञसे भी बढ़कर बतलाया गया है। जब महाराज युधिष्ठिरके अश्वमेघ यज्ञमें ब्राह्मणों, सम्बन्धियों, बन्धु बान्धवों और दीन-दरिद्रोंके तृप्त हो जानेपर उनके यज्ञ और दानकी भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी तब वहाँ एक नेवला आया और वह मनुष्यकी बोलीमें बोला- 'राजाओं ! आपलोगोंका यह यज्ञ कुरुक्षेत्र निवासी उच्छवृत्तिधारी उदारचेता ब्राह्मणके सेरभर सत्तूदानके बराबर भी नहीं है।' नेवलेकी बात सुनते ही सबको बड़ा आश्चर्य हुआ। वहाँ उपस्थित ब्राह्मणोंके प्रश्न करनेपर नेवलेने बतलाया-'कुरुक्षेत्रमें उच्छवृत्तिसे जीविका चलानेवाले एक ब्राह्मण रहते थे। वे कबूतरकी तरह अन्नके दाने चुनकर लाते और उसीसे कुटुम्बका पालन करते थे। एक समय वहाँ बड़ा भारी अकाल पड़ा। अतः उनको कई दिनोंतक खेतोंमें भूमिपर पड़े दाने नहीं मिले, इससे उनको भूखे ही रहना पड़ा।कुछ दिनोंके बाद उनको सेरभर जौ प्राप्त हुए। उन्होंने उसका सत्तू बनाकर चार भागों में बाँटा । एक भाग अपनी स्त्रीके लिये, एक भाग पुत्रके लिये, एक भाग पुत्रवधूके लिये और एक भाग अपने लिये रखकर वे भोजन करनेको तैयार हुए। इतनेमें ही एक ब्राह्मण अतिथि वहाँ आये। उन अतिथिको देखकर वे चारों ही बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अतिथिको प्रणाम किया; उनसे कुशल-मंगल पूछा और फिर वे उनको अपनी कुटीपर ले आये। वहाँ उञ्छवृत्तिवाले ब्राह्मणने कहा- 'विप्रवर ! आपके लिये ये अर्घ्य, पाद्य और आसन तथा न्यायपूर्वक उपार्जन किया हुआ यह परम पवित्र सत्तू है मैं आपकी सेवामें प्रसन्नतापूर्वक समर्पण कर रहा हूँ, आप इसे स्वीकार करें। तब अतिथिने वहाँ बैठकर और उनके हिस्सेका एक पाव सत्तू लेकर खा लिया, किंतु उसकी तृप्ति नहीं हुई। यह देखकर ब्राह्मणकी पत्नीने आग्रह करके पतिके द्वारा अपने हिस्सेका सत्तू भी अतिथि ब्राह्मणको दिलवा दिया। फिर भी उनकी तृप्ति न होनेपर उनके पुत्रने भी अपने हिस्सेका सत्तू आग्रह करके पिताके द्वारा अतिथिको दिलवा दिया। इससे भी जब उनकी तृप्ति नहीं हुई तो पुत्रवधूने भी आग्रहपूर्वक अपने हिस्सेका भी सत्तू श्वसुरके द्वारा अतिथिको दिलवा दिया। इससे वे अतिथि ब्राह्मण उन सबपर बड़े ही प्रसन्न हुए। ब्राह्मण अतिथिके रूपमें साक्षात् धर्मराज ही उनकी परीक्षा लेनेके लिये आये थे। वे अपने वास्तविक रूपमें प्रकट हो गये। फिर उनके कहनेपर वे उच्छवृत्तिधारी ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधूसहित विमानपर बैठकर दिव्यलोकको चले गये।'

नेवलेने फिर कहा-'उन अतिथि ब्राह्मणके भोजन कर लेनेपर उनके जूँठे हाथ धोनेसे गिरे हुए जलके कीचड़में मैं लोटा तो मेरा सिर और आधा शरीर सोनेका हो गया। मैनें जब राजा युधिष्ठिरके यज्ञकी प्रशंसा सुनी तब शेष आधे शरीरको भी सोनेका बनानेकी इच्छासे यहाँ आकर कीचड़में लोटा, पर कुछ नहीं हुआ। इसीलिये मैंने कहा था कि यह यज्ञ उस अतिथिसेवाव्रती ब्राह्मणके सेरभर सत्तूदानके बराबर भी नहीं है।' इतना कहकर वह नेवला अन्तर्धान हो गया।

अतिथि सेवा महायज्ञ है। क्योंकि अतिथिकी आत्माकी तृप्ति होनेसे सारी आत्माओंकी तृप्ति हो जाती है।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...