जो भगवान् के नामका जप और ध्यान करता है उसे भगवान् स्वयं आकर दर्शन देते हैं
जो भगवान् के नामका जप और स्वरूपका ध्यान करता है। उसे भगवान् स्वयं आकर दर्शन देते हैं।
ईश्वरकी शरणसे चित्तवृत्तियाँ रुक जाती हैं। इसी प्रकार पातञ्जलयोगदर्शनमें भी कहा है- 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।' (1/12) अर्थात्- 'अभ्यास और वैराग्यसे उन ( चित्तवृत्तियों) का निरोध होता है।' इसके अलावा दूसरा उपाय है- 'ईश्वरप्रणिधानाद्वा' (योग. 1/23) अर्थात् अभ्यास और वैराग्य तो मनके निरोध करनेके उपाय हैं ही, जो साधक इन उपायोंको जितना अधिक काममें लाता है, उतना ही शीघ्र उसका मन निरुद्ध होता है। परन्तु ईश्वरप्रणिधानसे भी मन बहुत ही शीघ्र समाधिस्थ हो जाता है। ईश्वरकी शरणसे वृत्तियाँ निरोध होकर (रुक कर) ईश्वर दर्शन हो जाता है। शास्त्रोंमें, गीताजीमें और संत-महात्मा अपनी वाणीमें यही बात कहते हैं कि भगवान् के नामका जप और स्वरूपका ध्यान करते रहना चाहिये। भगवान् कहते है-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(गीता 18/66)
अर्थात्- सर्व धर्मोको अर्थात् संपूर्ण कर्मोंके आश्रयको त्यागकर केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्माकी ही अनन्यशरणको प्राप्त हो, मैं तेरेको संपूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूंगा, तू शोक मत कर।
ऐसी बात है, बड़ी अच्छी बात है। भगवान्में प्रेम भगवान्की कृपासे होता है। भगवान् के शरण होनेसे कृपा होती है और प्रेमसे प्राप्ति हो जाती है।
हरि ब्यापक सर्वत्र समाना ।
प्रेम तें प्रकट होहिं मैं जाना ॥
(रा.च.मा.बालकाण्ड 185/3)
सच्ची बात है । संसारमें, शास्त्रोंमें विचारपूर्वक देखा जाय तो दो ही मार्ग हैं भक्ति और ज्ञानमार्ग। दोनोंका फल एक है।
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥
(गीता 13/24)
अर्थात्- हे अर्जुन ! उस परम पुरुष परमात्माको, कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्मबुद्धिसे ध्यानके द्वारा हृदयमें देखते हैं तथा अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा देखते हैं और अपर कितने ही निष्काम कर्मयोगके द्वारा देखते हैं।
भगवान्ने स्पष्ट कहा है-
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
(गीता 5/5)
अर्थात्- ज्ञानयोगियोंद्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, निष्काम कर्मयोगियोंद्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है, इसलिये जो पुरुष ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोगको फलरूपसे एक देखता है, वह ही यथार्थ देखता है।
बहुतसे ऐसा मानते हैं कि भेद उपासनासे अभेद उपासना श्रेष्ठ है। यह वेदान्तका सिद्धान्त है पर दूसरे कई सम्प्रदायोंका जैसे वल्लभ गोडीयमें प्रेमकी प्रधानता मानी जाती है। हम तो सबका सिद्धान्त ठीक समझते हैं। जबकि सबका फल एकही है।
प्रश्न- भेद और अभेदमें रात-दिनका या पूर्व-पश्चिमका फर्क है।
उत्तर- अमेरिका हमारी दृष्टिमें ठीक नीचे है, यह पूर्वका रास्ता है। पूर्ववाला भी अमेरिका पहुँच जाता है और पश्चिमसे जाता है वह भी अमेरिका पहुँच जाता है। दोनों ही सच्चे मार्ग हैं।
इसी प्रकार भगवान्ने गीतामें यह बात बतलाई।
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
(गीता 5/5)
हम दोनों मार्गके साधनकी बातें कहेंगे जो जिसका अधिकारी है जिसे जो प्रिय लगता है वह उसे ले ले। यह बात जरूर है कि जो पढ़े लिखे हैं वेदान्त जाननेवाले हैं जिनमें देहाभिमान कम है उनके लिये ज्ञानका मार्ग है। ज्ञानका मार्ग बहादुर पुरुषोंका है। और भक्तिका मार्ग सीधा है जो पढ़े लिखे नहीं हैं उन लोगोंके लिये है।
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥
(गीता 12/5)
अर्थात्- उन सच्चिदानन्दघन, निराकार, ब्रह्ममें आसक्त हुए चित्तवाले पुरुषोंके साधनमें क्लेश अर्थात् परिश्रम विशेष है, क्योंकि देहाभिमानियोंसे अव्यक्तविषयक गति, दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है, सच्चिदानन्दघन, अर्थात् जबतक शरीरमें अभिमान रहता है, तबतक शुद्ध, निराकारब्रह्ममें स्थिति होनी कठिन है।
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा ।
उभय हरहिं भव संभव खेदा ॥
(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड 115/7)
अर्थ- भक्ति और ज्ञानमें कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसारसे उत्पन्न क्लेशोंको हर लेते हैं।
कौन बड़ा कौन छोटा, नहीं कह सकते ।
को बड़ छोट कहत अपराधू ।
(रा.च.मा. बालकाण्ड 21/2)
अर्थ- इन (नाम और रूप) - में कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है।
यहाँ तो दोनों ही प्रकारके मार्गकी चर्चा होती रहती है। बीच-बीचमें दोनों चर्चा कर देते हैं। जैसे कभी वह और कभी वह जिससे दोनों तरहके साधकों को रस आता रहे। ज्ञानके सिद्धान्तमें, वेदान्त शास्त्रमें निर्णय किया गया है और गीताजीमें उस निर्णयको जहाँ बताया वहाँ कहा है। पहले भक्तिकी बात कही फिर ज्ञानकी ।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥
(गीता 9/13)
अर्थात्- परन्तु हे कुन्तीपुत्र ! दैवी प्रकृतिके आश्रित हुए जो महात्माजन हैं, वे तो मेरेको सब भूतोंका सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मनसे युक्त हुए निरन्तर भजते हैं।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥
(गीता 9/14)
अर्थात्- वे दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए और मेरेको बारम्बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त हुए, अनन्य भक्तिसे मुझे उपासते हैं।
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥
(गीता 9/15)
अर्थात्- उनमें कोई तो मुझ विराट्स्वरूप परमात्माको ज्ञानयज्ञके द्वारा पूजन करते हुए, एकत्वभावसे अर्थात् जो कुछ है, सब वासुदेव ही है, इस भावसे उपासते हैं और दूसरे पृथक्त्वभावसे अर्थात् स्वामी-सेवकभावसे और कोई-कोई बहुत प्रकारसे भी उपासते हैं।
दोनों बातें भगवान्को स्वीकार हैं। गीताके अध्याय 9 के श्लोक 4-5-6 में जो बात है वह एक ही श्लोकमें दोनों भाव निकलते हैं।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
(गीता 7/19)
अर्थात्- जो बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है अर्थात् वासुदेवके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, इस प्रकार मेरेको भजता है वह महात्मा अति दुर्लभ है।
बहुत जन्मोंके अन्तमें मुझको भजते हैं। जो पुरुष कर्ता मां प्रपद्यते धातु क्रियाका कर्ता 'य' और 'स' है।
ज्ञानके सिद्धान्तमें सबसे बढ़कर यह साधन है।
योऽन्तः सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥
(गीता 5/24)
अर्थात्- जो पुरुष निश्चय करके अन्तर आत्मामें ही सुखवाला है और आत्मामें ही आरामवाला है तथा जो आत्मामें ही ज्ञानवाला है, ऐसा वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके साथ एकीभाव हुआ सांख्ययोगी शान्त ब्रह्मको प्राप्त होता है।
ब्रह्मभूत ब्रह्म स्वरूप अपने आपको ब्रह्ममें हवन करनेवाला यानी जीवात्मा और परमात्माकी एकता हो जाती है। सर्वव्यापी ब्रह्ममें एकीभावसे स्थित होनेवाला ब्रह्मभूत है। जैसे घटाकाश और महाकाशमें ब्रह्म महाकाश है। घटाकाश जीव है। घटाकाशरूपी अज्ञानके फूटनेपर महाकाश रूपी ज्ञानका प्रकाश हो जाता है। ज्ञान प्रभुकी कृपासे, उनकी भक्ति करनेसे देते हैं। और भक्त भी देते है- परिप्रश्नेन सेवया (गी. 4/34) उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे ।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥
(गीता 4/38)
अर्थात्- इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह कुछ भी नहीं है, उस ज्ञानको कितने ही कालसे अपने आप समत्व बुद्धिरूप योगके द्वारा अच्छी प्रकार शुद्धान्त:करण हुआ पुरुष आत्मामें अनुभव करता है।
ज्ञान मिले कहाँ? श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महात्माओंके पास। उनकी सेवा, साष्टांग प्रणाम और निष्कपटभावसे पूछने और उनकी आज्ञापालन करनेसे ज्ञान मिलता है।
प्रश्न- क्या महात्मा मान-बड़ाई और सेवा सत्कार चाहते हैं?
उत्तर- नहीं चाहते। यदि चाहते हैं तो वे महात्मा ही नहीं हैं। अपनेको सेव्य मानना और दूसरोंको सेवक मानना ठीक नहीं। जो अपनेको ज्ञानी मानते हैं वे ज्ञानी नहीं बल्कि अज्ञानीसे भी बढ़कर हैं।
महापुरुष मान, पूजा, प्रतिष्ठा और नाम कुछ नहीं चाहते।
प्रश्न- तो फिर उनको प्रणाम करके सेवा करनेका क्यों कहा?
उत्तर- यह बात साधकके लिये और साधकके लाभके लिये कही है। सारे भूतों (प्राणियों) में भगवान्को देखें।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥
(गीता 6/29)
अर्थात्- हे अर्जुन ! सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योग से युक्त हुए आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको संपूर्ण भूतोंमें बर्फमें जलके सदृश व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतोंको आत्मामें देखता है, अर्थात् जैसे स्वप्नसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नके संसारको अपने अन्तर्गत संकल्पके आधार देखता है वैसे ही वह पुरुष संपूर्ण भूतोंको अपने सर्वव्यापी अनन्त चेतन आत्माके अन्तर्गत संकल्पके आधार देखता है।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥
(गीता 18 /54)
अर्थात्- फिर वह, सच्चिदानन्दघन ब्रह्ममें एकीभावसे स्थित प्रसन्न चित्तवाला पुरुष, न तो किसी वस्तुके लिये शोक करता है और न किसीकी आकांक्षा ही करता है एवं सब भूतोंमें समभाव हुआ, मेरी पराभक्तिको प्राप्त होता है। हुआ,
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
(गीता 18 /55)
अर्थात्- उस, पराभक्तिके द्वारा, मेरेको तत्त्वसे भली प्रकार जानता है कि मैं जो और जिस प्रभाववाला हूँ तथा उस भक्तिसे मेरेको तत्त्वसे जानकर, तत्काल ही मेरेमें प्रवेश हो जाता है अर्थात् अनन्यभावसे मेरेको प्राप्त हो जाता है, फिर उसकी दृष्टिमें मुझ वासुदेवके सिवाय और कुछ भी नहीं रहता ।
ज्ञानी भक्त सांसारिक वस्तुका नाश होनेपर शोक नहीं करते। गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः (गी. 2/ 11) अर्थात्- पण्डितजन जिनके प्राण चले गये हैं उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिये भी शोक नहीं करते। न शोचति न काङ्क्षति (गी. 18/54 ) अर्थात्- न तो किसी वस्तुके लिये शोक करता है और न किसीकी आकांक्षा ही करता है।
भक्ति करनेसे, मैं जैसा हूँ उसको जान जाता है। और फिर मुझमें प्रवेश कर जाता है। ब्रह्मभूत योगी विज्ञानानन्दघनब्रह्मको प्राप्त हो जाता है। अब भगवान् ब्रह्मभूत योगीके विशेषण बताते हैं-
योऽन्तः सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः
(गीता 5/24)
अर्थात्- जो पुरुष निश्चय करके अन्तर आत्मामें ही सुखवाला है और आत्मामें ही आरामवाला है तथा जो आत्मामें ही ज्ञानवाला है।
ये तीन विशेषण दिये हैं। वह ब्रह्म चन्द्रमा और बुद्धि जैसी बाहरी ज्योति नहीं है अन्दरकी ब्रह्मकी ज्योति है। ऐसी जिसकी ज्योति है वह अंतरज्योति है।
अन्तराराम भीतरी सुखवाला। उसकी क्रीड़ा विज्ञानानन्द- घनब्रह्ममें है। यह बड़ी दामी बात है। समझनेकी ही है।
'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' रात दिन वह उस आनन्दमें रमता और उसीमें सुख पाता है। सारे संसारका आनन्द उस आनन्द सागरकी बूँदके बराबर भी नहीं है। चिंता, शोक स्वप्नमें भी उसके पास नहीं फटकते। यह उसका आलौकिक रमण है। उसे सभी दृश्य शरीर, मन और बुद्धि सब स्वप्नवत् प्रतीत होते हैं। जागनेके बाद स्वप्नके चित्रकी तरह संसार उसे याद आता है। दूसरा उपाय है वह भगवान् देते हैं-
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।।
(गीता 10/10)
अर्थात्- उन निरन्तर मेरे ध्यानमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको, मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ कि जिससे वे मेरेको ही प्राप्त होते हैं।
सार यह निकला कि भक्तोंकी, महात्माओंकी तथा प्रभुकी कृपासे और संसारको स्वप्न समझनेसे ऐसा ज्ञान होता है। यह परमात्मामें रमणकी बात है। भक्ति करनेवालेको भगवान् मिलते हैं और ज्ञानवालेको अपने सिद्धान्तानुसार ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है।
प्रेमका विषय वाणीका विषय नहीं है। शास्त्रोंमें भी उसकी छायाका (तटस्थताका) वर्णन है। न लाज तीन लोककी, न वेदको कह्यो करै । जब उसमें प्रेम व्यापक हो जाता है तो लोग उसे पागल समझते हैं। वह वास्तवमें पागल नहीं है। सारी दुनियाँ धन आदिके लिये पागल हो रही है। और गोपियाँ प्रेममें पागल हो गई थी।
प्रेममें तीनों लोकोंकी लाज नहीं। यह नहीं कि वह निर्लज्ज है पर प्रेमकी अधिकतामें उसे ज्ञान नहीं है, उस भक्तके ऊपरसे वेद अपना अधिकार उठा लेते हैं। वह कर्तव्यका त्याग नहीं करता, प्रेमके कारण उससे वेदकी आज्ञाका पालन नहीं होता। दूसरेकी बात वह नहीं सुनता, प्रेमके गीत गाता है।
उद्धवजी गोपियोंके पास गये। उन्हें (गोपियोंको) भगवान् कृष्णकी चिठ्ठी पाकर बड़ा आनन्द हुआ। प्रेमाश्रुओंकी धारासे लिखे हुए सब आंक बिगड़ (शब्द धुल गये। प्रेमके पत्र इस तरह पढ़े जाते हैं।
उद्धवजीने कहा कि भगवान्ने मुझे ज्ञानयोगका उपदेश देने भेजा है। तुम प्रेम करती हो वह तो पांचभौतिक है।
गोपियोंने कहा वे हमें कभी याद करते हैं तो उद्धवने कहा हमारी ज्ञानकी बातें बट्टे खाते गई। एक गोपीने कहा क्या करूँ, उनकी बिना याद किये याद आती है। मैं तो भुलाना चाहती हूँ पर याद आ ही जाती है। भँवरेको देखकर भी उसी (कन्हैया) की याद आती है। गोपीने कहा कि योग कहाँ रखें। यहाँ तो रोम-रोममें श्याम है। उद्भवने लौटकर भगवान्से कहा कि आपने मुझे प्रेम सिखनेको भेजा था? अब आप मुझे बनावें तो ब्रजमें लता-पता बनावें ।
पूतना (कन्हैयाको) मारने गई, भगवान्ने बदलेमें उसे भी मुक्ति दी। विष देनेवालीको मुक्ति और यशोदाको भी क्या मुक्ति दी ? नहीं, यशोदाको तो भगवान्ने सर्वस्व अपने आपको अर्पण कर दिया।
प्रेमके राज्यमें भय, लज्जा, संकोच कुछ भी नहीं वे दूसरोंकी बातें नहीं सुनते जैसे गोपियाँ अपनी ही बात कहती रहीं ।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
(गीता 10/9)
अर्थात्- वे निरन्तर मेरेमें मन लगानेवाले और मेरेमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन, सदा ही मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं।
जैसे जलके वियोगके समय मछलीका चित्त जलमें रहता है। ऐसे ही भक्तका भी भगवान्में चित्त रहता है।
प्रेमका लक्षण- तद्विस्मरणे परम व्याकुलता ।
मद्गत प्राण- सारी इन्द्रियाँ जिसकी मुझमें लगी हैं। कानों, आँखों और वाणीसे मेरी ही बात सुनता, देखता और बोलता है। जिनका जीवन मद्गत है। जैसे मछलीका जलमें, जैसे सीताजीका भगवान्में था। जिनकी सारी क्रिया रोना, गाना और जीना मेरे लिये है।
बोधयन्तः परस्परम्- परस्पर एक दूसरेको मेरी लीला, गुण और रहस्यको बताते हुए 'बोधयन्तः परस्परम्' है।
भक्त भगवान्को छूकर स्पर्श द्वारा अमृतका पान करता है। भगवान्की मधुर सुगन्ध ऐसी मालूम होती है कि नासिकाके द्वारा अमृतका पान कर रहा हूँ। भगवान्की सुन्दरता और रमणीयताको देखकर आँखोंसे अमृत पीता हूँ। और सारे संसारकी सुन्दरता उसकी एक बूँद बराबर भी नहीं है। नेत्रोंमें अलौकिक ज्ञान है। भक्त भगवान् से कहता है कि आप मुझे जैसे अपने ध्यानमें दर्शन दे रहे हैं वैसे प्रत्यक्ष दें।
एक बार भगवान्का ध्यान हो गया तो तुम्हारी ताकत नहीं कि उधरसे मनको हटा सको। क्योंकि वह रसराज हैं। भगवान् कहते हैं। कि मैं वैकुण्ठको त्याग देता हूँ पर जहाँ मेरे भक्त बैठते हैं, गाते हैं वहीं मैं रहता हूँ। 'नाहं वसामि वैकुण्ठे' ।
प्रेमकी स्थितिको कोई नहीं बतला सकता। भक्त भगवान्के प्रकट होनेपर पलक भी नहीं झपकाता। भक्त और भगवान् दोनों एक दूसरेको देखकर इतने मुग्ध और मग्न हो जाते हैं कि एक दूसरेको भूल जाते हैं अर्थात् एकीभावमें स्थिति हो जाती है। यहाँ कोई भाव नहीं रहता, सब भाव समाप्त हो जाते हैं।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥
(गीता 6/31)
अर्थात्- इस प्रकार जो पुरुष एकीभावमें स्थित हुआ संपूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी मेरेमें ही बर्तता है; क्योंकि उसके अनुभवमें मेरे सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं।
वह भक्त चलता, खाता, पीता और सोता सभी काम करता हुआ मुझमें ही बर्तता है।
'तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।'
(गीता 6/30)
अर्थात्- उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता है, क्योंकि वह मेरेमें एकीभावसे स्थित है।
दोनों एक हो जाते हैं। भक्त पहले सर्वत्र मुझको देखता है फिर वह मेरेको प्राप्त हो जाता है। फिर वह मुझको देखता है और मैं उसे जो मेरा त्याग नहीं कर सकता तो मैं भी उसका त्याग नहीं कर सकता। वह मेरेको सर्वस्व समर्पण कर देता है तो मैं भी उसे सर्वस्व समर्पण कर देता हूँ।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...