Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

जीते-जी मुर्दा बन जावे वही जीवन्मुक्त है

प्रवचन-1
दिनांक 29-05-1943 सांयकालस्वर्गाश्रम, टीबड़ी

जीते-जी मुर्दा बन जावे उसीका नाम जीवन्मुक्त है। इसमें शुकदेवजी मुनिका दृष्टांत दिया करते हैं। उनके ऊपर चाहे धूल डाले चाहे पुष्प, उनके दोनों समान ही हैं। साधकको तृण से भी नीचा और वृक्षकी तरह सहनशील हो जाना चाहिये। तृणके माफिक अपनी इज्जत माने, इससे अहंकारका नाश होता है। शरीर जो है वह मुर्दा ही तो है। मरनेके बाद इसका चाहे मान करो चाहे अपमान। इस प्रकार जीते-जी अपनेको मुर्दा बना लेवे तो क्या परिश्रम होता है? क्या बाधा आती है?

परेच्छासे कोई काम मनके प्रतिकूल होनेपर क्रोध आता है, दैवेच्छासे होनेपर उतना ज्यादा नहीं आता। थोड़ा बहुत आता है किन्तु उतना नहीं आता। परेच्छासे होनेवालेमें क्रोध आता है किन्तु दैवेच्छासे होनेपर क्रोध कम आता है और अपनेसे बलवान पर क्रोध कम आता है।

प्रश्न- परमात्मामें एकाकार वृत्ति कैसे रहे ?

उत्तर- सत्संगसे, नाम-जपसे, वैराग्यसे और भगवान्‌के ध्यानका अभ्यास लगातार करने से (खूब करे) जप, ध्यान, सत्संग, वैराग्य यह मुख्य है।

अपनेको कोई मान देता है, बड़ाई देता है तो इसकी चाहना स्वाभाविक हो जाती है क्योंकि इसकी चाहना अनन्तकालसे है। यह कोई आज की नहीं है यह स्वतः सिद्ध ही है। मान-बड़ाई चाहना रोग है। यह मनुष्यकी बीमारी है। इस बीमारीकी कोई औषध (दवाई) नहीं है पर चेष्टा करे तो यह बीमारी मिट सकती है। मान-बड़ाई मिटानेके लिये गहरा विचार नहीं करते। विचार भी नहीं करते और विश्वास भी नहीं है, दोनों बातें ही हैं। शास्त्र कहता है उसपर विश्वास नहीं है। खतरेकी चीजसे बचनेके लिये शास्त्र उसे विषके तुल्य बतलाता है। मान-बड़ाईको प्लेगकी बीमारी समझें। विचार करें! सोचें कि इसका क्या नतीजा है, सोचनेपर नतीजा यही निकलता है कि यह बड़ी खतरनाक चीज है। विचार करें तो अपनेमें ये दोष घट नहीं सकता। यदि दोष घट जावे तो सिद्धान्त जोरदार नहीं, कच्चा सिद्धान्त है। स्वतन्त्र विचार से सोचें और श्रद्धा भी हो तो फिर दोष नहीं आता।

भक्ति एवं ज्ञानका जैसे एक ही फल है, वैसे ही श्रद्धा और निश्चयात्मिका बुद्धिका भी एक ही फल है, तोलकर देख लो।

जैसे पतंगे दीपक पर पड़-पड़कर भस्म हो जाते हैं। वैसे ही ये विषयोंके भोग हैं। विषय-भोग अग्निके माफिक हैं, भोगी विषय-भोगकी तरफ खिंचता है और जाकर स्वाहा हो जाता है। जैसे चुम्बक लोहेको खींचता है वैसे ही विषय-भोग भोगीको खींचते हैं। आसक्ति ही खींचती है। विषयोंमें सुख-बुद्धि है, इससे आसक्ति है। अज्ञान है, आसक्ति है, क्यों ठहरी है विचार और विश्वास नहीं है। कैसे हटे? ईश्वर, महापुरुषोंकी कृपासे आसक्तिको भीतरसे मांजें, खूब घर्षण करें, फिर नाश हो जावे। पुस्तकोंमें जो बातें हैं उनको विचारें। हार कर ईश्वरके आगे रोवें। ईश्वर दयालु हैं, दया आ जावे तो आप ही उपाय कर देते हैं, हमारेमें तो वैसी शक्ति नहीं। लोगोंमें साधनकी तत्परता नहीं। शास्त्रोंमें, महात्माओंमें किसीमें श्रद्धा कर लेवे तब भी काम बन जावे। परन्तु उसमें संशय, पदार्थोंमें आसक्ति, विषयों में सुख-बुद्धि यही कारण है और स्वार्थकी मात्रा इतनी बढ़ी हुई है कि चकाचौंध हो रहे हैं सूझता ही नहीं मोहित हो रहे हैं। भगवान् कहते हैं-

नाह प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥

(गीता 7/25)

अर्थात्- अपनी योगमायासे छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ, इसलिये यह अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित, अविनाशी परमात्माको तत्त्वसे नहीं जानता है, अर्थात् मेरेको जन्मने, मरनेवाला समझता है।

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥

(गीता 9/11)

अर्थात् - ऐसा होनेपर भी, संपूर्ण भूतोंके महान् ईश्वररूप मेरे परमभावको न जाननेवाले मूढ़लोग, मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझ परमात्माको तुच्छ समझते हैं, अर्थात् अपनी योगमायासे संसारके उद्धारके लिये मनुष्यरूपमें विचरते हुए मुझको साधारण मनुष्य मानते हैं।

भगवान्का तिरस्कार करते हैं इससे मोहित हैं, भगवान्‌के शरण चले जावे तो बेड़ा पार है।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥

(गीता 7/14)

अर्थात्- क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष मेरेको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं, अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।

भगवान् कहते हैं जो मेरी शरण हो जाता है वह संसारसे तर जाता है।

आसक्ति एकदम समझमें आती है, शरीरमें, मान-बड़ाई में। क्रोध बुरी चीज है इसको विचार द्वारा बुरा समझें और हटाना भी चाहिये किन्तु स्वभावसे लाचार हो जाते हैं, यही बात काम की और लोभकी भी है। विचार द्वारा समझते हैं हटाना भी चाहते हैं पर हटानेका काम पड़ता है तो स्वभावके दोषसे कठिनाई पड़ जाती है। वह हटे कैसे ? विचार द्वारा और दृढ़ रहें, तथा ईश्वर, महात्मा, शास्त्रमें श्रद्धा करें, उसे वीरता द्वारा हटावें । निश्चय बिना शूरवीरता आवे नहीं | विचार द्वारा दृढ़ निश्चय करें कि यह ठीक नहीं है। प्रत्यक्षमें हानिकारक है। बार-बार निश्चय करें और जोर लगावें तो हट सकता है, वैराग्य हो जावे। दुःख-बुद्धिसे अनित्य मानकर वैराग्य करें। वैराग्य वृत्ति बड़ी दामी है। वैराग्य होता है किन्तु क्षणिक होता है, कायम नहीं रहता हट जाता है। अपने तो खूब सावधान रहें। कामना और आसक्ति है उसको बुद्धि द्वारा मनको वशमें करके मारें। विचार ही प्रधान है। भगवान्‌के वचनोंमें विश्वास करके, आत्मा बलवान है ही फिर बुद्धि द्वारा निश्चय करके मनको जीतें फिर आत्माको मिलाकर उसको जीत लेवें।

भगवान् की भक्ति द्वारा भी उसको जीता जा सकता है। बुद्धि द्वारा मनको समझावें कि संसारके पदार्थ क्षणिक और नाशवान हैं।

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥

(गीता 5/22)

अर्थात् - जो यह इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुखरूप भासते हैं तो भी निःसन्देह दुःखके ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं, इसलिये हे अर्जुन! बुद्धिमान्, विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।

जितने भोग पदार्थ हैं दुःखरूप हैं, आदि अन्तवाले हैं, अनित्य हैं, जो ऐसा जानते हैं, वे उनमें नहीं रमते । असली चीज वैराग्य है, वैराग्य और उपरति बनी रहे उसके लिये जप, ध्यान, स्वाध्याय तथा सत्संग करते ही रहें। एक उपाय और है- भगवान्‌के सामने रोवें, रोते ही रहें इससे भी काम बन जाता है।

जोश दिलानेसे भी काम बन जाता है, खूब जोश दिलावें । अपने तो धर्मात्मा बनना है, यह दृष्टि कायम रखें। तो फिर आत्मबल बढ़कर काम सिद्ध हो जाता है। विश्वास ही आत्मबल है, आत्मबलकी जरूरत है। विचार करके निश्चय दृढ़ करो फिर काम क्यों नहीं हो। वैराग्य, विवेक, उपरति तथा श्रद्धा चारों बड़ी दामी हैं। वैसे ही जैसे जप, ध्यान, स्वाध्याय तथा सत्संग बड़े मददकारी हैं। श्रद्धा और विवेक हो तो वे चीजें बड़ी दामी हो जावें। इनकी कमीके कारण ही वह चीजें मजबूती नहीं पकड़ती हैं। यह बातें समझ बूझकर निर्णय की हुई हैं। इनमें शंका-संन्देह नहीं, अकील (सत्य) है हटा नहीं सकते। कई बहुत-सी दामी चीजें हैं जिनको मनुष्यको इकट्ठी करना चाहिये। कई होनेकी तथा कई करनेकी हैं।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...