Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

झूठ कपटका व्यापार नरक देनेवाला और सत्यतापूर्वक व्यापार कल्याण करनेवाला है

प्रवचन- 8
दिनाक 07-05-1940, सायंकालस्वर्गाश्रम

झूठ-कपट जिस व्यापारमें होता है वह नरकको देनेवाला है। तोलमें, नापमें कम देना तथा लेनेके समय तोल, नापमें अधिक लेना भी नरक ले जानेवाला है। और अच्छी चीजमें खराब चीज मिला देना जैसे घी में चर्बी मिला देना। अच्छे आटेमें खराब आटा मिला देना जिससे बीमारी फैलती है। यह व्यापार नरकका देनेवाला है।

परन्तु जो सत्यतापूर्वक व्यापार यह कल्याण करनेवाला है। नफा, दलाली आदि ठहराकर किसीको कम ज्यादा नहीं देना। जो सकामभावसे करता है उसे स्वर्ग देनेवाला है और निष्कामभावसे करनेवालेको मोक्ष प्राप्त होता है।

जैसे कोई खेतीका काम करे निष्कामभावसे और दूसरोंके हितके लिये करे, वह कर्मयोग है।

इसी प्रकार शिल्प वगैरहकी कला सिखाकर बेकार लोगोंको आजीविकाके योग्य बना देना ऐसा व्यापार मुक्तिप्रद है।

सत्य न्यायप्रद व्यापार करें। सारा ही व्यवहार जो स्वार्थ रहित, आसक्ति रहित और भगवान्की प्रसन्नताके लिये किया जाता है तो उत्तम गतिको प्राप्त हो जाता है। हमारे यहाँ ऐसे बहुत महापुरुष हुये हैं।

महाभारतमें आया है- समुद्रके किनारे जाजली नामके ऋषिने । ऐसी तपस्या की कि सुनकर रोमांच हो जाता है। चिड़ियोंने उनके मस्तकपर घोंसला डाल दिया। जब उन्हें मालूम हुआ तो वे वैसे ही बैठे रहे। यहाँ तक कि अंडे दे दिये। चिड़ियोंका जोड़ा उड़ गया और छोटे बच्चे रह गये फिर वे भी चले गये और एक महीने तक वे नहीं आये तो फिर घोंसला फेंक दिया। पर अभिमान हो गया, इतना भी बहुत है हम तो घरके कोनेमें भी घोंसला नहीं रखने देते। जाजली ऋषिको अभिमान होनेपर आकाशवाणी हुई कि जैसी तपस्या तुलाधार वैश्य करता है वैसी तू क्या करेगा। तुलाधार वैश्यके पास जाकर देखा तो मालूम हुआ कि यह तो क्रय-विक्रय करनेवाला बनियाँ है। और वहाँसे जाने लगा तब तुलाधारने कहा कि आप जाते कैसे हैं? आपको मुझसे मिलनेके लिये आकाशवाणी हुई। उसने कहा तुमको कैसे मालूम हुआ, उसने कहा कि तुम नहीं देखते मेरा कर्म, मैं किसीके साथ भेद-बुद्धि नहीं करता और सत्य व्यापार करता हूँ। इतनेमें वह पक्षी आ गये तो उन वैश्यने कहा कि ये वही पक्षी हैं जो तुम्हारे सिरमें घोंसला डाले थे वे पक्षी जाजली ऋषिके सिरपर बैठ गये। यह बात भी उसने कह दी थी, तो उसे वैश्यपर श्रद्धा हो गई।

अभिप्राय यह है कि हमें न्यायका पैसा पैदा करना चाहिये। वह पैसा किसीको देगें तो वैसा ही उसपर असर पड़ेगा।

जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन। महाभारतका युद्ध समाप्त होनेके बाद युधिष्ठिरको युद्धभूमिमें शरशय्यापर लेटे भीष्मजीके उपदेश देते समय द्रोपदी हँस दी। भीष्मजी कह रहे थे कि जिस सभामें अन्याय होता हो, तो उसका विरोध करना चाहिये या उठकर चले जाना चाहिये। यह बात सुननेसे द्रोपदीके हँसनेपर भीष्मने कहा कि मैं तुम्हारे हँसनेका कारण जानता हूँ, मैंने उस समय ( कौरवोंकी सभामें) दुर्योधनका अन्यायपूर्ण अन्न खाया था इसलिये मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी।

इससे सबको ध्यान रखना चाहिये अन्नके स्थूल अंशसे शरीर, उसके सूक्ष्मसे हड्डी और मन आदि बनते हैं। और वैसी ही बुद्धि हो जाती है। श्वेतकेतु उद्दालक की बात है। उसे समझानेके लिये श्वेतकेतुको 15 दिनका उपवास करवाया तब पूछा तो वेद भूल गया। फिर भोजन करनेके बाद उसको कहा कि वेद पढ़ो तब उसे स्मृति हो गई। ऐसा करके दिखला दिया कि भोजनसे तुरन्त ही तेज आ गया और स्मृति हो गई।

भगवान्ने बतलाया है कि सात्त्विक अन्न खानेसे सात्त्विक बुद्धि होती है और राजसीसे राजसी तथा तामसीसे तामसी बुद्धि हो जाती है।

अन्न स्वरूपसे सात्त्विक हो और न्यायसे कमाना क्रियासे सात्त्विक है। एवं साधु-ब्राह्मणको जो प्रेमसे दिया जाता है वह भी सात्त्विक होता है।

जो पाप पूर्वक कर्मसे कमाकर और दुःख पूर्वक दिया जाता है उससे दाता और लेनेवाला दोनोंकी बुद्धि भ्रष्ट होती है।

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥

(गीता 18/44)

अर्थात्- खेती, गौपालन और क्रय-विक्रयरूप सत्यव्यवहार ये वैश्यके स्वाभाविक कर्म हैं और सब वर्णोंकी सेवा करना, यह शूद्रका भी स्वाभाविक कर्म है।

खेती, गौपालन और क्रय-विक्रयरूप सत्य व्यवहार ये तीनों न्यायसे हों तो स्वर्ग देनेवाले और निष्कामभावसे किये जाय तो मुक्ति देते हैं।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥

(गीता 2/47)

अर्थात्- इससे तेरा कर्म करनेमात्रमें ही अधिकार होवे, फलमें कभी नहीं और तू कर्मोंके फलकी वासनावाला भी मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी प्रीति न होवे।

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किश्चित्करोति सः ॥

(गीता 4/20)

अर्थात्- जो पुरुष, सांसारिक आश्रयसे रहित सदा परमानन्द परमात्मामें तृप्त है, वह कर्मोंके फल और संग अर्थात् कर्तृत्व-अभिमानको त्यागकर कर्ममें अच्छी प्रकार बर्तता हुआ भी कुछ भी नहीं करता है।

ऐसा करनेवाला नित्य अमृतमें रहता है, यज्ञसे बचा हुआ अन्न ही अमृत है तथा हर काममें निष्कामभाव ही अमृत है।

वह कर्ममें प्रवृत हुआ भी नहीं करता है। इन सब बातोंको ध्यान में रखकर फल और आसक्तिका त्याग करके काम करना चाहिये। अथवा भगवान् जैसे करावें वैसे करे, उसमें भूल भी नहीं होती।

जैसे छोटा बच्चा स्वयं लिखे तो गलती होती है। पर बच्चेका हाथ गुरु पकड़कर लिखवावे तो गलती नहीं होती।

अर्जुनने गीता अध्याय 3/36 में भगवान्से पूछा कि मनुष्यके न चाहते हुवे पापका आचरण कौन कराता है ? तब भगवान्ने कहा-

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।

महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥

(गीता 3/37)

अर्थात्- इस प्रकार अर्जुनके पूछनेपर श्रीकृष्ण महाराज बोले, हे अर्जुन। रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम क्रोध है, यह ही महाअशन अर्थात् अग्निके सदृश भोगोंसे न तृप्त होनेवाला और बड़ा पापी है, इस विषय में इसको ही तू बैरी जान।

रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है यह काम बड़ा ही पापी है इस विषयमें इसको ही तू बैरी जान।

हमें न्याय और सत्यतापूर्वक व्यापार (कर्म) करना चाहिये।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥

(गीता 2/51)

अर्थात्- क्योंकि बुद्धियोगयुक्त ज्ञानीजन कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले फलको त्याग कर जन्मरूप बन्धनसे छूटे हुए, निर्दोष अर्थात् अमृतमय परमपदको प्राप्त होते हैं।

भगवान् कहते हैं- मनुष्य अपने-अपने कर्मोंको करके परमसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।

(गीता 18/46)

अर्थात्- उस परमेश्वरको अपने स्वभाविक कर्मद्वारा पूजकर, मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त होता है।

इन सब बातों में भगवान्ने निष्कामभावपर बहुत जोर दिया है।

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः ।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥

(गीता 18/57)

अर्थात्- इसलिये हे अर्जुन! तू सब कर्मोंको मनसे मेरेमें अर्पण करके मेरेमें परायण हुआ, समत्व बुद्धिरूप निष्काम कर्मयोगको अवलम्बन करके, निरन्तर मेरेमें चित्तवाला हो।

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि । (गीता 18/58)

अर्थात्- इस प्रकार तू मेरेमें निरन्तर मनवाला हुआ, मेरी कृपासे जन्म, मृत्यु आदि सब संकटोंको अनायास ही तर जायगा। अध्याय 9 में भगवान् कहते हैं- सारे कर्म मेरे अर्पण कर दे।

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥

(गीता 9/27)

अर्थात्- इसलिये हे अर्जुन ! तू जो कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है, जो कुछ स्वधर्माचरणरूप तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर।

इससे क्या होगा-

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।

संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥

(गीता 9 / 28 )

अर्थात्- इस प्रकार कर्मोंको मेरे अर्पण करनेरूप संन्यासयोगसे युक्त हुए मनवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा। और उनसे मुक्त हुआ, मेरेको ही प्राप्त होवेगा।

भगवान् कहते हैं मेरेको स्मरण करते हुए ही युद्ध कर- मामनुस्मर युध्य च (गीता 8/7 ) । मनसे भगवान्‌के स्वरूपका स्मरण, वाणीसे भगवान्‌का नामजप और शरीरसे सबकी सेवा करनेवाला भगवान्‌को प्राप्त हो जाता है।

मिट्टी डालनेवाला यदि स्वार्थ त्यागकर सेवा करता है तो उसकी मुक्ति हो जाती है। पर यदि कोई लौकिक कामना रखकर भगवान्का ध्यान करता है वह भी स्वार्थ त्यागपूर्वक मिट्टी डालनेवाले कर्मसे नीचा है।

शास्त्रमें बतलाया है कि जो मनुष्य कर्ममें स्वार्थका त्याग करता है उसे मुक्ति प्राप्त होती है। जो स्वार्थका त्याग करता है। उसको सभी ठीक समझते हैं और उससे सभी प्रसन्न रहते हैं।

माता-बहनोंके कामकी बातें- आजकल बहुत खर्च और कुरीतियाँ बढ़ गई हैं उनका नाश करना चाहिये। पहले अपना फिर घरका और बादमें मोहल्लेका और देशका सुधार करना चाहिये।

द्रोपदी जहाँ रहती थी उस देशमें अकाल आदि मिट जाते थे। अज्ञातवासमें दुर्योधनके गुप्तचर पाण्डवोंको खोजने में निराश हो गये तब भीष्मजीने बताया कि जहाँ पाण्डव होंगे उस देशमें महामारी, चोरी, बीमारी, भूकम्प आदि नहीं होंगे। तब गुप्तचरोंने कहा यह सब विराटनगर में है। इससे यह अभिप्राय लेना चाहिये कि जहाँ पाण्डव लोग रहेंगे वहाँ दैवी प्रकोप नहीं होगा।

ऐसे ही काकभुशुण्डिजीके आश्रममें भी चार-चार योजन तक बुरे विचार, माया नहीं आ सकती है।

एक अच्छी स्त्रीका भी इतना प्रभाव पड़ता है कि दूसरी स्त्रियाँ भी उसे देखकर बहुत सुधर जाती हैं। आजकलकी स्त्रियाँ अपने धनको आभूषण और ऐश-आराममें लगा देती हैं। इसका उनको ध्यान रखना चाहिये कि अपना धन अपनेपर कम खर्च करके सत्-कार्योंमें खर्च करना चाहिये। साधु-महात्मा जैसे अपनेपर कम खर्च करते हैं वैसे ही अपनेपर कम खर्च करनेवाला साधु सरीखा ही है। इसी तरह गृहस्थको कम खर्च करके उन रुपयोंको बचाकर दूसरोंकी सेवामें खर्च करना चाहिये। जैसे 13 रुपयेवाली चद्दर नहीं लेकर 1 रुपयेवाली चद्दरसे भी काम चल सकता है। तो । रुपयेवाली चद्दर लाकर बाकी के रुपयोंसे जरूरतमन्दोंको जरूरतकी वस्तु बाँट देनी चाहिये।

ओढ़नी (साड़ी) रेशमकी (महंगे वस्त्र) पहने तो क्या और खादी, सूतीकी (साधारण, कम मूल्यके) पहने तो क्या? लाडू (नाना प्रकारके व्यंजन) खाये तो क्या और रूखा (यानी सादा भोजन) खाये तो क्या, सब मल बन जाता है।

कोई-कोई स्त्रियाँ अपने साथ 30-40 पोशाक (साड़ियाँ) रखती हैं। वह मर जाती है तो पोशाक साथ नहीं जाती। जब तक देहमें प्राण हैं तब तक सब ( भगवत्-विषयक) काम कर लेना चाहिये। नहीं तो राम नाम सत्य होनेपर कुछ नहीं होगा।

सो पर दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ ।

कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा-43)

अर्थ- वह परलोकमें दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा [अपना दोष न समझकर] कालपर, कर्मपर और ईश्वरपर मिथ्या दोष लगाता है।

कालको दोष लगाना यह है कि कलियुग है और भाग्यको यह कि भगवान्ने ऐसा ही मेरे भाग्यमें लिखा है।

माता-बहिनों का उद्धार तो इसलिये शीघ्र हो जाता है कि उसका आधा पाप पतिको चला जाता है और पतिका पुण्य भी वह आधा ले लेती है। पतिका पाप पत्नीको नहीं लगता। और पत्नी पतिव्रता हुई तो पतिको भी परमगति करवा देती है।

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥

(गीता 16/21)

अर्थात्- हे अर्जुन ! काम, क्रोध तथा लोभ यह तीन प्रकारके नरकके द्वार आत्माका नाश करनेवाले हैं अर्थात् अधोगतिमें ले जानेवाले हैं, इससे इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।

क्रोध करनेवालेको तथा जिसपर क्रोध करता है उसे भी जलन होती है और कामकी हानि होती है। लोभसे झूठ, कपट करनेवाले नरकमें जाते हैं। कल्याण चाहनेवाली स्त्रीको तो यह मौका बहुत ही सुगम है, ऐसा मौका नहीं खोना चाहिये और अपना कल्याण कर लेना चाहिये।

कलिजुग सम जुग आन नहिं जीं नर कर विस्वास ।

गाइ राम गुन गन बिमल भव तर विनहिं प्रयास ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा-103क)

अर्थ- यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुगके समान दूसरा कोई युग नहीं है। क्योंकि इस युगमें श्रीरामजीके निर्मल गुणसमूहोंको गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम के संसाररूपी समुद्र से तर जाता है।

इसलिये भगवान्की भक्ति अभी करनेका बड़ा माहात्म्य है। और गंगा किनारे करनेकी तो बात ही क्या है!

यहाँ गंगा किनारे आकर मन इन्द्रियोंका संयम करना चाहिये। यह नहीं कि यहाँ आकर खूब मालपुवा खावे और ऐश-आराम करे। ऐश-आराम करना हो तो घर पर ही करें यहाँ आनेकी जरूरत नहीं।

साधु और ब्राह्मणकी तन, मन और वस्तुओंसे सेवा करें। सत्संग करना, भजन-ध्यान करना और उसका प्रचार करना ऐसा समय बितानेवालोंको यहाँ आना चाहिये।

तीर्थमें अर्थ तो खर्च होता है। पर बाकीके धर्म, काम और मोक्ष तीन पदार्थ मिलते हैं।

राजसिक भाव वाले व्यक्ति- काम चाहते हैं। सात्त्विक और राजसिक मिश्रित भाव वाले व्यक्ति-धर्म चाहते हैं।

सात्त्विक भाव वाले व्यक्ति- केवल कल्याण चाहते हैं। और उससे ऊँचे भाव वाले व्यक्ति निष्कामभावसे उत्तम उत्तम कार्य करते हैं।

महात्मा पुरुष तो संसारके कल्याण और लोकसंग्रहके लिये कार्य करते हैं। वे तीथको भी पवित्र करते हैं। गंगाजीने ब्रह्मासे पुकार की कि मेरे पाप कैसे नष्ट होंगे? तब ब्रह्माने कहा कि महापुरुषोंके चरण स्पर्शसे तुम्हारे सब पाप नष्ट हो जायेंगे। जितने संसारमें तीर्थ हैं उनकी संज्ञा प्राय भक्तोंसे ही है। भक्त भगीरथ ही इसे लाये थे और यहाँ भागीरथी तीर्थके नामसे प्रसिद्ध है।

जैसे भगवान् अवतार लेते हैं उसी तरह महात्मा साधुभाव वाले व्यक्तियोंके कल्याणके लिये फिरते हैं। और दुष्टोंकी बुद्धि भी सुधारते हैं उन्हें मारते नहीं, मारना काम भगवान्‌का है।

माता-बहनोंके लिये एक बहुत दामी बात है, उसे काममें लानेपर सहज ही कल्याण हो सकता है। सबके साथ व्यवहार हँस करके करना चाहिये, कोई क्रोध करे तो अपने को क्रोध नहीं करना चाहिये। हँस करके प्रेमसे बोलना और अपने व्यवहारसे मुग्ध कर देना चाहिये। घरमें खर्च कम करना चाहिये और कुरीतियाँ, व्यर्थ खर्च हटा देना चाहिये। बहुत कुरीतियाँ हैं क्योंकि स्त्रियोंमें शिक्षाका और बुद्धिका अभाव है। बहुत-सी धूर्त और कुटनियाँ (कुलटा स्त्रियाँ) फिरती हैं जो भोली स्त्रियोंको बिगाड़ देती हैं। जैसे किसीके लड़का नहीं है तो वह उन कुटनियोंके बहकावे में आ जाती है। जैसे किसीके बच्चा होनेवाला है तो वह कहती है हनुमानजी ! लड़का होगा तो तुम्हारे यहाँ बाल उतराऊँगी। यह सब ठीक नहीं, क्या तुम्हारे घरपर कोई बाल उतारे तो तुम राजी होवोगे, क्या उतारने दोगे। यह व्यर्थकी कुरीतियाँ बंद करनी चाहिये और शास्त्रकी मर्यादाका त्याग नहीं करें। शास्त्रकी मर्यादानुसार सब काम करना चाहिये।

अपने आपको समझना चाहिये कि यह शरीर सेवा करनेको ही मिला है। शरीर मिट्टीमें मिलानेसे भगवान् मिले तो मिट्टीमें मिला देना चाहिये।

देखिये भगवान्‌की कितनी कृपा है कि हम हिन्दुस्तानमें और अच्छी जातिमें पैदा हुए फिर यहाँ गंगा किनारे आये हैं। ऐसे मौकेपर भी अपना उद्धार नहीं करेंगे तो वही हालत होगी जो तुलसीदासजीने कहा है-

जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ ।

सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ॥

(रा.च.मा.उत्तरकाण्ड दोहा-44)

अर्थ- जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागरसे न तरे, वह कृतघ्न और मन्द-बुद्धि है और आत्म हत्या करनेवालेकी गतिको प्राप्त होता है।

एहि तन कर फल बिषय न भाई ।

स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड 44/1)

अर्थ- हे भाई! इस शरीरके प्राप्त होनेका फल विषयभोग नहीं है। [इस जगत्के भोगोंकी तो बात ही क्या] स्वर्गका भोग भी बहुत थोड़े समयका है और अन्तमें दुःख देनेवाला है।

जैसे मरनेके समय दुःख होता है वैसे ही स्वर्गसे पुण्य भोगकर गिरनेसे दुःख होता है।

नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं ।

पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड 44 / 1 )

अर्थ- अतः जो लोग मनुष्यशरीर पाकर विषयोंमें मन लगा देते हैं, वे मूर्ख अमृतको बदलकर विष ले लेते हैं।

विष खानेवाला एक बार ही मरता है पर विषयोंका सेवन करनेवाला करोड़ों बार जन्मता मरता ही रहता है।

जो मनुष्य शरीरको पाकर खाने-पीने, स्वाद-शौकीनीमें समय बिताता है तो उसमें और पशुमें क्या अन्तर है।

मखमलके गद्देपर जो सुख आता है वही गधेको राखपर आता है। उस मनुष्यके जीवनको, उसके माता-पिताको धिक्कार है जो ऐसे सुखमें समय बिताता है। उत्तम गुण परमात्माकी प्राप्तिमें सहायक हैं। जिसमें गुण नहीं उसकी ऐसी दशा है।

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।

ते मर्त्यलोके भूवि भारभूताः, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥

अर्थात्- जिसके पास न विद्या है, न तप है, न ही वह कोई दान करता है तथा उसके पास कोई ज्ञान, शील, गुण और न तो धर्मका आचरण ही है। वे तो इस मृत्युलोकमें (धरतीपर) भारस्वरूप ही हैं और मनुष्यके रूपमें पशुकी तरह ही रहते हैं।

ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई।

गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड 44/2)

अर्थ- जो पारसमणिको खोकर बदलेमें घुँघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुद्धिमान्) नहीं कहता।

परमात्माकी प्राप्तिको छोड़कर जो विषय ग्रहण करता है वह महामूर्ख है। चिरमी चमकीली होती है पर उसका मुँह काला होता है। इसी तरह भोग चमकीले तो हैं पर भोग भोगनेवालोंका मुँह काला होता है। भोग भोगनेवालोंकी गति बुरी है। जब तक मृत्यु दूर है उसे है परमात्माकी प्राप्ति शीघ्र कर लेनी चाहिये। यह मनुष्य शरीर आत्माके उद्धारके लिये मिला है। मृत्यु कब होगी पता नहीं। आज मौत आ जावेगी तो उसे कह नहीं सकेंगे कि कल जावेंगे। इसलिये जल्दी ही काम बना लेना चाहिये।

इसीपर समझें परमात्माने घोषणा कर रखी है कि जब तक जीवन है तब तक भजन-ध्यानका साधन करके परमात्माकी प्राप्तिका लाभ उठा लेना चाहिये। समझदारी और बुद्धिमानी इसीमें हैं कि शीघ्र से शीघ्र, अतिशीघ्र भजन-ध्यानका साधन करके अपने उद्धारका काम बना लेना चाहिये।

धन, मकान आदि मेरापनकी यानी ममताकी चीजें हैं वे दूसरोंके उपकारमें यानी दीन-दुःखी, अनाथकी सेवामें लगा देवें। मर गये तो धन, दौलत, स्त्री सबसे सम्बन्ध उठ जायगा। हम पहले (पिछले जन्ममें) भी कहीं थे, वहाँ भी क्या-क्या छोड़कर आये (धन-सम्पत्ति, परिवार) पता नहीं, इसी तरह यहाँसे जानेपर यहाँका भी कोई पता नहीं रहेगा। इसलिये जबतक शरीरमें प्राण है तब तक कल्याण कर लेना चाहिये।

सबसे बड़ी दामी बात-

मनुष्य-शरीरमें ही कल्याण हो सकता है और उत्तम-से-उत्तम आनन्द मनुष्य शरीरमें प्राप्त होता है। जब भगवान्ने ज्ञान और बुद्धि दी है तो हमें ऐसी दशामें दुःखोंका अत्यन्त अभाव करके आत्यन्तिक आनन्दकी प्राप्ति कर लेनी चाहिये।

यदि कुत्तेको बुलाकर उपदेश करें तो वह समझेगा ही नहीं। आपको मनुष्य शरीर दिया है तो आपका पहला कर्तव्य है कि उस आनन्दके लिये प्रयत्न करें।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥

(गीता 2/16)

अर्थात्- हे अर्जुन ! असत् वस्तुका तो अस्तित्त्व नहीं है और सत्का अभाव नहीं है, इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व ज्ञानी

पुरुषोंद्वारा देखा गया है। संसारके सुख क्षणभंगुर हैं और देखते ही देखते नाश हो जाते हैं। जिसका कभी नाश नहीं होता उसकी कसौटी बताई है-

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।

यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥

(गीता 6/22)

अर्थात्- परमेश्वरकी प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता है और भगवत्प्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित हुआ योगी बड़े भारी दुःखसे भी चलायमान नहीं होता है।

भक्त जिस परमानन्दको पाकर उससे बढ़कर किसी आनन्दको नहीं समझता। अन्य संसारके जीव सुख भोगते हैं पर और सुख मिल जाये इसकी इच्छा रहती है। पर परमात्माका सुख ऐसा है कि उसमें 'अलम्' (पूर्ण तृप्त) हो जाता है।

जब आप उस सुखको प्राप्त हो जावेंगे तब आपके मनमें कोई इच्छा नहीं रहेगी। जैसे घड़ा जलसे भर जाता है वैसे ही आनन्दसे पूर्ण हो जावेगा ।

दूसरी कसौटी - यस्मिन्स्थितो न दुःखेन.... (गीता 6/22) अर्थात्- भगवत्प्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित हुआ योगी बड़े भारी दुःखसे भी चलायमान नहीं होता है।

जिस परमात्मामें स्थित हुआ मनुष्य बड़े-से-बड़े दुःखसे भी विचलित नहीं होता। तीनों प्रकारके दुःखोंका अभाव मुक्ति है इतना ही नहीं दुःखसे छूटकर आनन्दकी प्राप्ति होती है।

तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥

(गीता 6/23)

अर्थात्- जो दुःखरूप संसारके संयोगसे रहित है तथा जिसका नाम योग है; उसको जानना चाहिये, वह योग न उकताये हुए चित्तसे अर्थात् तत्पर हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।

उस योगको जानना चाहिये । दुःखोंके संयोगका वियोग ही योग है उसे जानना चाहिये।

भगवान् जोर देते हैं कि यह निश्चय करके करना कर्तव्य है। अनिर्विण्णचेतसा वैराग्यवाले चित्तसे साधन करना चाहिये। याद रखना चाहिये हमें दुःख प्रारब्धसे होते हैं।

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।।

(गीता 2 /11)

अर्थात्- हे अर्जुन ! तू न शोक करने योग्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके से वचनोंको कहता है, परन्तु पण्डितजन जिनके प्राण चले गये हैं उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिये भी शोक नहीं करते हैं।

इससे यह सिद्ध होता है कि शोक अज्ञानी करते हैं। आनेवाले दुःखोंका त्याग करना चाहिये। 'तस्य हेतुः अविद्या' अविद्या (अज्ञान), अस्मिता (अहंकार, मै पन) राग-द्वेष अभिनिवेश (मरण भय) इन सारे दुःखोंकी जड़में अविद्या है। अविद्याके नाशसे आनन्द प्राप्त होता है।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥

(गीता 10/10)

अर्थात्- उन निरन्तर मेरे ध्यानमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको, मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ कि जिससे वे मेरेको ही प्राप्त होते हैं।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥

(गीता 4/34)

अर्थात्- इसलिये तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानी पुरुषोंसे भली प्रकार दण्डवत् प्रणाम तथा सेवा और निष्कपटभावसे किये हुए प्रश्नद्वारा उस ज्ञानको जान, वे मर्मको जाननेवाले ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञानका उपदेश करेंगे।

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।

येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥

(गीता 4/35)

अर्थात्- जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा और हे अर्जुन ! जिस ज्ञानके द्वारा सर्वव्यापी अनन्त चेतनरूप हुआ अपने अन्तर्गत समष्टि-बुद्धिके आधार संपूर्ण भूतोंको देखेगा और उसके उपरान्त मेरेमें अर्थात् सच्चिदानन्द स्वरूपमें एकीभाव हुआ सच्चिदानन्दमय ही देखेगा।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।

तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥

(गीता 4/38)

अर्थात्- इसलिये, इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह कुछ भी नहीं है, उस ज्ञानको कितनेक कालसे अपने आप समत्व बुद्धिरूप योगके द्वारा अच्छी प्रकार शुद्धान्त:करण हुआ पुरुष आत्मामें अनुभव करता है।

वह ज्ञान हमें मुफ्त में मिलता है। सब चीजें पैसे से मिलती हैं पर ज्ञान मुफ्त में मिलता है।

बहुत महात्मा तो बड़े प्रेमसे ज्ञानका उपदेश करते हैं। ऐसा होनेपर भी हमारी दुर्दशा हो इससे बढ़कर और क्या लज्जाकी, दुःखकी बात होगी। हमें कोई कुत्ता या गधा कह दे तो हम नाराज होते हैं, पर याद रखो कि परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी तो न मालूम कितनी बार, कुत्ते-गधे बनेंगे। फिर तो जन्म-मृत्युका समुद्र ही भरा है। दु:खका कारण अविद्या है, प्रारब्ध नहीं है। भगवान् कहते हैं जो सब जगह वासुदेवको देखता है वह महात्मा अति दुर्लभ है।

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥

(गीता 7/19)

अर्थात्- जो बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है अर्थात् वासुदेवके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, इस प्रकार मेरेको भजता है वह महात्मा अति दुर्लभ है।

'तत्र कः मोह कः शोकः' यह देखना बड़ा सुगम है, कठिन नहीं। ध्यान देना चाहिये-शोक वगैरह सब अज्ञानमें है। ज्ञानीको शोक नहीं रहता।

अज्ञान वास्तवमें रहने लायक चीज नहीं है यह मूर्खोंमें रहता है। यह परमात्माकी और महात्माकी कृपासे हट सकता है।

यदि अज्ञानका नाश नहीं हुआ तो बहुत बुरी दशा होगी। आप कहते हो कि आज जरूरी काम हो गया सत्संगमें जाना नहीं हुआ, आग लगे वैसे काममें जिससे हमारा वह बड़ा जरूरी (भगवद् प्राप्तिका) काम बाकी रह जाय। वह तुम्हारे करनेसे ही होगा, दूसरा कोई नहीं करेगा। यह तुम्हारा सांसारिक काम तो दूसरे लोग सम्भाल लेंगे, मर जानेपर कोई दूसरा सम्भालता ही है।

मुझे बताओ कि तुम्हारा यह काम ( भगवद् प्राप्तिका) रह जायगा तो कौन करेगा? तुम्हारा कितना ही जरूरी काम होगा तो सब पड़ा ही रह जायगा।

तुम आज मर जावोगे तो तुम्हारी सम्पत्तिपर अधिकार जमानेवाले कई हो जायेंगे। मरनेके वक्त लड़के भी पास बैठे हैं, पर रुपया अच्छे काममें लगा नहीं पाते। अत: जब तक वस्तु और सम्पत्तिपर अधिकार है तब तक जो कुछ करना हो कर लो।

इस बातको एक कहानी के द्वारा समझाया जाता है- एक देश था, उसमें ऐसा नियम था कि वहाँके राजाका चुनाव करके उस राजाको तीन वर्ष तक के लिये उस देशपर शासन करनेको दिया जाता और उसे तीन वर्ष तक के लिये ही चुना जाता। तीन वर्ष बादमें उस राजाको घोर जंगलमें उस पार भेज दिया जाता, जिससे वह वापस इस पार आ ही नहीं सकता और वह वहाँ जंगलमें ही मर जाता, ऐसा उस देशका नियम था। जो भोगी लोग थे वे इस बुद्धिसे राजा बन जाते कि तीन वर्ष तक तो राज आदिका भोग भोगेंगे आगे जो होगा देखा जायगा। एक बार एक बुद्धिमान राजा आया, उसने आते ही गुप्त रूपसे दूसरी तरफका जंगल कटवाकर वहाँ आबादी बसवाई। धनियों और व्यापारियोंकों वहाँ बसा दिया और इस देशका सारा-का-सारा धन वहाँ खर्च करने लगा। धन और जनसे उधर यहाँसे बढ़कर आबाद कर दिया।

तीन वर्ष बाद वह हँसते हुए उस देश से विदा हुवे। लोगोंने कहा यहाँसे जो राज्य करके जंगलमें जाता है वह रोता हुआ जाता है, आप हँसते हुए जा रहे हैं। उसने कहा रोवो तुम, मैंने तो अपने अधिकारकी चीजोंका उपयोग कर लिया और अपना काम सदाके लिये बना लिया है और सदाके लिये उस देशका राजा हो गया हूँ।।

इस कहानी का यह मतलब लेना चाहिये- यह संसार राजधानी है, यह शरीर राजाका मिला है, परमार्थका कार्य करना उस जंगलको आबाद करना है। इसका अभिप्राय यह है कि हमारे जो अधिकारमें धन, जन, वस्तु, बुद्धि, सामर्थ्य आदि हैं उनको दीन, दु:खी, अनाथ, गरीबोंकी सेवामें लगाना चाहिये। ईश्वरने हमें मनुष्य जीवन दिया है अमूल्य समय, ज्ञान और बुद्धि दी है। यह समय बहुत कीमती है, इसे सबके हितमें लगाना चाहिये।

मरनेपर मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और प्राण जावेंगे इसलिये ऐसी चेष्टा करनी चाहिये कि इनका सुधार करके इसी शरीरसे हमारा कल्याण हो जाय इसलिये मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और प्राणका सुधार करें। यानी इन मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और प्राणको भगवान्में लगा देना चाहिये और चेष्टा करें इसी जन्ममें कल्याण हो। ऐसा न हो तो योगभ्रष्ट (यानी अच्छे कुलमें मनुष्यका जन्म मिल जाय)- की गतिको तो प्राप्त हो जायें। भगवान्ने गीताजीमें अध्याय 6 श्लोक 40,41, 42 में अर्जुनके पूछनेपर योगभ्रष्टकी गतिका वर्णन किया है, विस्तारके लिये गीताजीमें देखना चाहिये। इसलिये मन, बुद्धि, और इन्द्रियोंका सुधार करना चाहिये। नेत्रोंकी अशुद्धताका सुधार करना चाहिये। हम जो बुरे फोटो आँखमें भरते (देखते) हैं वे ही साथ जायेंगे, तो अच्छे फोटो भरने चाहिये।

ये नेत्र दो कैमरे हैं। इनसे सारा फोटो हमारे हृदयमें इकट्ठा होता है। मरकर फिर जायँगे तो वही फोटो निकलेंगे इसलिये पवित्र दर्शन करने चाहिये। क्या दिखता है-संसार, पर्वत-पहाड़ दीखता है। हरे रंगके चश्मे में सब कुछ हरा दीखता है, इसी प्रकार हरिके नामका चश्मा चढ़ा लो तो सब संसार हरिमय दीखेगा। जरें-जरेंमें, अणु-अणुमें परमात्मा दीखेंगे।

फोनोग्राम (रिकार्डिड-टेप) में जो आवाज भरी जाती है, हजार कोसपर ले जानेपर भी वही आवाज निकलेगी। वैसे ही आपकी जैसी आवाज भरी होगी, वही सूक्ष्म शरीरमें संचित होकर आपके साथ जायगी। इसलिये कानोंके द्वारा परमात्माके शब्दोंको ही सुनना चाहिये।

नेत्रों, कानों और मनके द्वारा परमात्माको ही भरो तो इसी जन्मके थोड़े हिस्सेमें आपका कल्याण हो जायगा। नहीं तो अगले जन्ममें तो हो ही जायगा।

आपके मन-बुद्धिमें जो पाप है, आवरण है, उसे नष्ट कर देना चाहिये। अभी आप जीवित हैं, अभी जीवन बाकी है, अभी आप मर नहीं हैं इसलिये आप जो चाहें अभी कर सकते हैं। आप अपनी बुद्धिको तीक्ष्ण, पवित्र, सूक्ष्म बना लेंगे तो आपका कल्याण हो जायगा। ये मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और प्राण आपके हैं आप ही को इनके सुधारका काम करना पड़ेगा। दूसरा कोई नहीं कर सकेगा। क्या आपकी मन, बुद्धि आदिका सुधार कोई दूसरा करेगा? भगवान्ने आपको ऐसा मौका दिया है, इसे लात मत मारो। यदि चेत जाओगे तो ठीक है, नहीं तो कबीरजी सावधान कर रहे हैं-

कबीरा नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाइ ।

ए पुर पट्टन ए गली बहुरि न देखहु आइ ||

हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी केस जलैं ज्यूँ घास ।

सब जग जलता देखि कर भया कबीर उदास ॥

मरोगे मर जावोगे कोई न लेगा नाम ।

ऊजड़ जाय बसाओगे छांड़ि बसन्ता गाम ॥

यह सब सोच-समझकर जल्दी अपना काम बना लेना चाहिये।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...