ऐसी मनमें आती है कि फूसकी झोपड़ीमें थोड़े दिनके लिये हम भी रहें
ऐसी मनमें आती है कि फूसके झोपड़े बना देवें और एक आदमी रक्षाके लिये यहाँ रहे।
हमेशा रहनेवाले तो यहाँ साधु हैं, पर हम भी थोड़े दिनोंके लिये साधुके जैसे हो जाते हैं या साधुओंके पाहुने (अतिथि)।
उपरामता और वैराग्य किसी भी तरहसे हो इन्हींको बढ़ाता रहे। इसीका प्रकरण चलता रहे और विषयोंमें दुःख और दोष दृष्टि करता रहे। मुझे तो वैराग्यमें प्रत्यक्ष शान्ति मालूम होती है। देखिये कैसी सुगन्ध आ रही है। इतना कहते ही सुगन्धी आने लगी। वैराग्यके बिना युक्तियाँ काममें नहीं आती। मेरे ऊपर यह बात सैकड़ों दफे घटी है।
हमेशा प्रसन्न रहे इसी प्रकारका साधन करें। प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते । (गी. 2/65) अर्थात्- उस निर्मलताके होनेपर इसके संपूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है। यह भी एक साधन है।
आपलोगोंसे सत्संगकी बातें करके मुझे तो बड़ी प्रसन्नता रहती है। मेरे कई बार मनमें आती है कि भगवान् कहें कि क्या चाहिये? तो यही कि आपके प्रेम, प्रभाव और रहस्यकी बातें होती रहें। असली बात तो यह है कि हर जगह भगवान्को देखकर प्रसन्न होवें। और भगवान् हैं उनकी प्रेम और दयाकी दृष्टि है वे हमें प्रेम दृष्टिसे देख रहे हैं, ऐसा माननेसे ही शान्ति मिलती है। इसमें करना कुछ नहीं है केवल मानना ही है।
खूब भजन किया करो यह बात प्रेमी भक्तको कहना बनता नहीं क्योंकि प्रेमी भक्तके भजन हुआ ही करता है। हम तो प्रभुकी दया और प्रेमको मानते हैं। भक्तको भजन करना नहीं पड़ता भजन स्वतः होता है। जैसे मछलीका जलसे वियोग होता है तो मछलीको यह भजन नहीं करना पड़ता कि मेरे लिये जलका वियोग असह्य है।
जैसे भूख-प्यास लगनेपर भोजन और जलकी अपने आप ही याद आती है। इसी प्रकार मछलीको जलका हरवक्त भजन होता (यादगिरी रहती) है। इसी तरह विरही पुरुषके हृदयमें सदा भजन होता रहता है। भगवान् दयालु हैं, सुहृद् हैं यह भाव मनमें पक्का जम जावे तो आप ही भजन होने लगे। जैसे किसीने हमारा बहुत उपकार किया हो तो उसकी कितनी याद आती है। उसकी सुहृदता और भगवान्की सुहृदतामें लाखों, करोड़ों गुणा फर्क है। तो अब अन्दाज लगाइये कि उस भगवान्का कितना भजन होना चाहिये। जिसमें बहुत प्रेम होता है उसे मनुष्य भुला नहीं सकता। यह भूमि, गंगाजी और गंगाजीकी सुगन्धी सभी स्वाभाविकरूपसे यहाँ हैं।
भगवान् हमारे सुहृद् हैं। उनका हमारे सिरपर हाथ है। नहीं दीखने पर भी वह हमारे पास हैं। कोई कहे कि यह बात हम समझते हैं फिर भी शान्ति नहीं होती तो यह उसके माननेमें कमी है। मानने के साथ ही शान्ति अवश्य और निश्चय मिलती है। जैसे इन्द्र और ब्रह्मासे प्रेम हो जावे कि चाहे जब ही वे आ जावे और हमारी इच्छा पूर्ति करते रहें तो हमें कितना आनन्द और शान्ति मिलती है।
इस मुँहसे कह देते हैं और बुद्धिसे एक अंशमें मान लेते हैं। पर बराबर नहीं मानते। यदि भगवान्को हम सुहृद् मान लें और वे हमपर प्रसन्न हैं उनकी हमपर पूर्ण दया और प्रेम है तो हमें फिर क्या करना पड़े, फिर साधन भी क्या करना पड़े? साधन-भजन-ध्यान तो स्वतः होगा। करना नहीं पड़ेगा। और भगवान्की स्मृति बराबर रहेगी।
जैसे-जैसे जप ज्यादा होता है वैसे-वैसे अन्त:करण साफ होता जाता है। और आसक्तिका नाश होता जाता है। वैराग्यकी वृत्ति रागके नाश होनेसे ही होती है।
समय- समयपर विचारके द्वारा वैराग्यको बढ़ाना चाहिये। विचारकर ध्यानके अनुसार चले तो परमात्माकी प्राप्ति बहुत ही जल्दी हो जाती है।
विशेष बात- अब तो अपने सामने दो चीज हैं। (I) गीताप्रेसके द्वारा पुस्तकोंका प्रचार (2) व्याख्यान द्वारा प्रचार |
हम तो भगवान्की राय समझकर ही यह काम (गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचारका कार्य) करते हैं, उनकी राय नहीं होवे तो हम करें ही क्यों। हमको यह भी नहीं समझना चाहिये कि इस कार्यमें अपनी हार है या यह भी नहीं समझना चाहिये पूरी विजय है। हम सबको तो यह कार्य करना ही चाहिये।
आपलोग सत्संगी 7 आदमी हो, इस कार्यके लिये सात तो बहुत हैं। ऋषि भी सात हुवे हैं (सप्तऋषि)। सातकी संख्या बहुत अच्छी है। आपलोग तत्परतासे तैयार होवो तो सब कुछ कर सकते हो।
प्रश्न- हमलोगोंको (प्रचारके लिये) क्या करना चाहिये?
उत्तर- आठ दिशाको घेर लेवो, तो पूरे हिन्दुस्तानको घेर लिया। फिर पूरे हिन्दुस्तानमें पुस्तकोंका प्रचार करें।
इस कार्यमें यह दो बात रहनी चाहिये। (1) ईश्वरपर निर्भरता (2) स्वार्थका त्याग।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...