Seeker of Truth

योगक्षेमका वहन

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(गीता ९। २२)

‘जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।’

कोई-कोई इस श्लोकका सर्वथा सकाम और निवृत्तिपरक अर्थ करते हैं और संसारयात्राकी कुछ भी चिन्ता न कर केवल भगवान् पर निर्भर रहते हुए भजन करना ही उचित मानते हैं। इसपर वे निम्नलिखित दृष्टान्त दिया करते हैं।

एक ईश्वरभक्त गीताभ्यासी निवृत्तिप्रिय ब्राह्मण थे। वे अर्थको समझते हुए समस्त गीताका बार-बार पाठ करने एवं भगवान् के नामका जप तथा उनके स्वरूपका ध्यान करनेमें ही अपना सारा समय व्यतीत करते थे। वे एकमात्र भगवान् पर ही निर्भर थे। जीविकाकी कौन कहे, वे अपने खाने-पीनेकी भी परवा नहीं करते थे। उनके माता-पिता परलोक सिधार चुके थे। वे तीन भाई थे। तीनों ही विवाहित थे। वे सबसे बड़े थे और दो भाई छोटे थे। दोनों छोटे भाई ही पुरोहितवृत्तिके द्वारा सारे गृहस्थका काम चलाया करते थे। एक दिनकी बात है, दोनों छोटे भाइयोंने बड़े भाईसे कहा—‘आप कुछ समय जीविकाके लिये भी निकाला करें तो अच्छा रहे।’ बड़े भाई बोले—‘जब सबका भरण-पोषण करनेवाले विश्वम्भर भगवान् सर्वत्र सब समय मौजूद हैं, तब अपनी जीविकाकी चिन्ता करना तो निरा बालकपन है। भगवान् ने गीताके नवम अध्यायके बाईसवें श्लोकमें स्वयं योगक्षेमके वहनका जिम्मा लिया है—

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

इसलिये भाई! हमलोगोंको तो बस, अपने भगवान् पर ही निर्भर रहना चाहिये। वे ब्रह्मासे लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र जीव-परमाणुतक—सबका ही भरण-पोषण करते हैं। फिर जो उनके भरोसे रहकर नित्य-निरन्तर उन्हींका स्मरण-चिन्तन करता है, उसका योगक्षेम चलानेके लिये तो वे वचनबद्ध ही हैं। हमलोगोंको तो नित्य गीताका अध्ययनाध्यापन और निरन्तर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक भगवान् का भजन-स्मरण ही करना चाहिये।

दोनों भाइयोंने कहा—‘भाई साहब, आपका कहना तो ठीक है पर जीविकाके लिये कुछ भी चेष्टा किये बिना, भगवान् किसीको घर बैठे ही नहीं दे जाते।’ बड़े भाईने विश्वासके साथ उत्तर दिया—‘श्रद्धा-विश्वास हो तो घर बैठे भी भगवान् दे सकते हैं।’ दोनों छोटे भाइयोंने कुछ झुँझलाकर कहा—‘भाई साहब! बातें बनानेमें कुछ नहीं लगता। हमलोग कमाकर लाते हैं, तब घरका काम चलता है। आप केवल पड़े-पड़े श्लोक रटना और बड़ी-बड़ी बातें बनाना जानते हैं। आपको पता ही नहीं, हमलोग कितना परिश्रम करके कुछ जुटा पाते हैं। आप जब हमलोगोंसे अलग होकर घर चलायेंगे, तब पता लगेगा; तब हम देखेंगे कि जीविकाके लिये बिना प्रयत्न किये आपका काम कैसे चलता है।’ बड़े भाईने धीरजके साथ कहा—‘भाई! तुमलोग यही ठीक समझते हो तो बहुत आनन्द। मुझे अलग कर दो। मैं किसीपर भाररूप होकर नहीं रहना चाहता। भगवान् किस प्रकार मेरा निर्वाह करेंगे, इसको वे खूब जानते हैं।’ इसपर दोनों भाई निश्चिन्त-से होकर बोले— ‘बहुत ठीक है। कल ही हम सबको अपने-अपने हिस्सेके अनुसार बँटवारा कर लेना चाहिये।’ बड़े भाईने कहा—‘जिस प्रकार तुमलोग उचित समझो, उसी प्रकार कर सकते हो, मेरी ओरसे कोई आपत्ति नहीं है। मैं तो तुमलोगोंकी राजीमें ही राजी हूँ।’

दूसरे ही दिन दोनों भाइयोंने, जो कुछ सामान-सम्पत्ति थी, सबके तीन हिस्से कर दिये। ब्राह्मण भक्तके हिस्सेमें एक छोटा-सा कच्चा मकान, कुछ नकद रुपये और कुछ साधारण गहने-कपड़े तथा रसोईके बर्तन वगैरह आये। तीसरे हिस्सेकी यजमानोंकी वृत्ति भी उनके हिस्सेमें दे दी गयी; पर यजमानोंका यह हाल था कि उनके पास यदि कोई पुरोहित चला जाता तो भले ही उनसे कुछ ले आता; घर बैठे पुरोहित महाराजको कोई याद नहीं करता।

इस प्रकार जब तीनों भाई अलग-अलग हो गये, तब उस ब्राह्मण भक्तने अपनी पत्नीसे कहा—‘मेरे भाइयोंने हमलोगोंको जो कुछ भी दिया है, वह बहुत ही सन्तोषजनक है; किंतु अब हमें इस बातका पूरा ध्यान रखना चाहिये कि हम केवल भगवान् पर ही निर्भर करें। किसीके भी घर जाकर कभी कुछ भी याचना न करें और न किसीके देनेपर ही कुछ ग्रहण करें। भगवान् स्वयं योगक्षेम वहन करनेवाले हैं, वे ही हमारा योगक्षेम चलायेंगे। भाइयोंने जो कुछ दिया है, अभी तो उसीसे काम चलाना चाहिये।’

ब्राह्मणी भी ईश्वरकी भक्त और पतिव्रता थी। उसने पतिकी बात बड़े आदरके साथ स्वीकार की। उसने सोचा—‘अभी तो निर्वाहके लिये कुछ हाथमें है ही। इसके समाप्त होनेके बाद स्वामी जैसा उचित समझेंगे, अपने-आप ही व्यवस्था करेंगे।’

वे भगवद्भक्त ब्राह्मण प्रात:काल चार बजे ही उठते और शहरसे लगभग डेढ किमी० दूर एक तालाबपर जाकर शौच-स्नान करते। फिर सन्ध्या-वन्दनके अनन्तर भगवान् की मानस-पूजा, जप, ध्यान करके सम्पूर्ण गीताका भावसहित अर्थको समझते हुए पाठ किया करते, इसके बाद दिनमें ग्यारह बजे घर लौटकर भोजनादि करते। भोजन करनेके बाद पुन: दोपहरमें एक बजे वापस वहीं तालाबपर जाकर जप, ध्यान, स्वाध्याय करते। फिर सायंकाल चार बजे शौच-स्नान करके सन्ध्या-वन्दन करते। तदनन्तर मानस-पूजा करके सत्-शास्त्रोंका श्रद्धापूर्वक स्वाध्याय करते। सूर्यास्तके बाद भगवान् के नामका जप और उनके स्वरूपका ध्यान किया करते थे। अन्तमें रातको आठ बजेके बाद घर लौटकर भोजन करते और फिर अपनी पत्नीसे सदालाप करके दस बजे शयन किया करते। उनकी साध्वी धर्मपत्नी भी दोनों समय पतिको भोजन कराकर स्वयं भोजन करती और प्रतिदिन पतिको नमस्कार करना, उनकी सेवा-शुश्रूषा करना, उनकी आज्ञाका पालन करना तथा ईश्वरका भजन-ध्यान करना अपना परम कर्तव्य समझती थी। इस प्रकार दोनोंका समय बीतता था। प्रतिदिन व्यय तो होता ही था। कुछ दिनोंमें उनके पास जो कुछ रुपये-पैसे थे, सब समाप्त हो गये। पत्नीने स्वामीसे कहा—‘रुपये सब पूरे हो गये हैं।’ पतिने पूछा—‘क्या गहने-कपड़े भी समाप्त हो गये?’ पत्नीने कहा—‘नहीं।’ इसपर ब्राह्मणीने सोचा—अभी गहने-कपड़ोंसे काम चलानेकी स्वामीकी सम्मति है। अतएव वह उन्हें बेचकर घरका काम चलाने लगी। पर वे गहने-कपड़े भी कितने दिनके थे। वे भी समयपर शेष हो गये। फिर एक दिन पत्नीने कहा—‘गहने-कपड़े भी सब समाप्त हो गये हैं।’ पतिने कहा—‘कोई चिन्ता नहीं, अभी बर्तन-भाँडे और मकान तो हैं ही।’ इससे ब्राह्मणीने समझा कि अभी स्वामीकी सम्मति मकान और बर्तनोंसे काम चलानेकी है। उसने प्रसन्नतासे मकानको बेच दिया और वे दूसरे किरायेके मकानमें चले गये। कुछ दिन इससे काम चला। इसके बाद बर्तन-भाँडे भी बेच दिये, पर उनसे क्या होता। अन्तमें ब्राह्मणीके पास तन ढाँकनेके लिये एक साड़ी बची और ब्राह्मण देवताके लिये एक धोती और एक गमछा बचा। एक दिन ब्राह्मण देवता जब चार बजे जंगलकी ओर जाने लगे तो पत्नीने बड़े विनीतभावसे हाथ जोड़कर निवेदन किया—‘स्वामिन्! अब सब कुछ शेष हो गया है। घर तो किरायेका है, बर्तन-भाँडे भी सब समाप्त हो चुके हैं। केवल आपकी यह गीताजीकी पोथी, धोती, गमछा और मेरी एक साड़ी बची है। आज भोजनके लिये घरमें अन्न भी नहीं है। जो कुछ था, कल शेष हो गया।’ ब्राह्मणने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया और वे सदाकी भाँति जंगलकी ओर चल दिये।

सदाकी भाँति ही पण्डितजी तालाबपर गये और शौच-स्नानसे निवृत्त हो उन्होंने सन्ध्या-गायत्रीजप आदि नित्यकर्म किया। उसके अनन्तर जब वे गीताका पाठ करने लगे तो उनके सामने वही अपना इष्ट श्लोक आया—

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(९। २२)

उस दिन पण्डितजी इस श्लोकको पढ़कर चौंक पड़े और इसे पढ़ते हुए मन-ही-मन विचार करने लगे कि ‘मालूम होता है, इस श्लोकमें भगवान् के वचन नहीं हैं, शायद क्षेपक होगा। यदि यह भगवान् का कथन होता तो भगवान् क्या मेरी सँभाल नहीं करते? मैं तो सर्वथा उन्हींपर निर्भर हूँ। उन्होंने आजतक मेरी सुधि जरा भी नहीं ली।’ ऐसा समझकर ब्राह्मणने उस श्लोकपर हरताल लगा दी और वे उस श्लोकको छोड़कर गीताका पाठ करने लगे।

ब्राह्मण देवताके हृदयके इस भावको देखकर सर्वहृदयेश्वर भक्त-वांछाकल्पतरु भगवान् तुरंत एक विद्यार्थीके रूपमें घोड़ेपर सवार होकर ब्राह्मणके घर उनकी धर्मपत्नीके पास पहुँचे और मिठाईका एक थाल भेंटमें रखकर पूछने लगे—‘गुरुजी कहाँ हैं?’ ब्राह्मणपत्नीने कहा—‘यहाँसे लगभग डेढ़ किमी० दूर एक तालाब है, वे प्रतिदिन वहाँ शौच-स्नान और नित्यकर्मके लिये जाते हैं और लगभग ग्यारह बजे लौटते हैं। अभी दस बजे हैं, उनके आनेमें एक घंटेकी देर है। आप कौन हैं और यह मिठाई किसलिये लाये हैं!’ विद्यार्थीने उत्तर दिया—‘मैं पण्डितजीका शिष्य हूँ और गुरुजीकी तथा आपकी सेवाके लिये यह मिठाई लाया हूँ। इसे आप रख लें।’ ब्राह्मणपत्नीने कहा—‘पण्डितजी न किसीको शिष्य ही बनाते हैं और न किसीकी दी हुई कोई वस्तु ही लेते हैं। मुझको भी उन्होंने किसी भी वस्तुको स्वीकार न करनेकी आज्ञा दे रखी है। इसलिये मैं किसीकी दी हुई कोई वस्तु नहीं ले सकती। इसको आप वापस ले जाइये।’ विद्यार्थीने कहा—‘आप जैसा कहती हैं, वैसा ही मैं भी मानता हूँ। वे किसीको भी शिष्य नहीं बनाते, यह बात भी सही है। मुझको छोड़कर उन्होंने न तो किसीको शिष्य बनाया है और न बनावेंगे ही। मुझपर उनकी विशेष कृपा है, इसीसे मुझको उन्होंने शिष्य माना है। केवल मैं एक ही उनका शिष्य हूँ, इसके लिये मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ।’ ब्राह्मणपत्नीने कहा—‘मैंने तो यह बात कभी नहीं सुनी कि उन्होंने आपको शिष्य बनाया है। मैं तो जानती हूँ कि उन्होंने किसीको शिष्य बनाया ही नहीं है। फिर मैं इस बातको कैसे मान लूँ कि आप उनके शिष्य हैं। जो भी कुछ हो, मैं इस मिठाईको किसी हालतमें भी स्वीकार नहीं कर सकती। पण्डितजीके लौटनेपर आप उन्हें दे सकते हैं।’ विद्यार्थीने कहा—‘अच्छा, यह थाली यहाँ रखी है और मेरा घोड़ा भी यहीं बँधा है। मैं लौटकर पण्डितजीसे मिल लूँगा।’ इसपर ब्राह्मणपत्नीने उत्तर दिया—‘आप इस थालीको वापस ले जाइये, पण्डितजीके आनेपर आप फिर ला सकते हैं। मैं पण्डितजीकी आज्ञाके बिना इसको किसी भी हालतमें नहीं रख सकती।’ किंतु भगवान् तो विचित्र ठहरे। वे थालीको वहीं छोड़कर चल दिये। चलते समय ब्राह्मणपत्नीने पूछा—‘अपना नाम-पता तो बतला दीजिये, जिससे पण्डितजीके आनेपर यह मिठाईकी थाली आपके घर वापस पहुँचा दी जाय।’ विद्यार्थीने कहा—‘वे मुझे जानते हैं। उनकी मुझपर अत्यन्त कृपा है; क्योंकि मैं उनका एक ही शिष्य हूँ। मेरे सिवा दूसरा कोई शिष्य है ही नहीं। आप कह दीजियेगा कि आज प्रात:काल जिसके मुँहपर आपने हरताल पोती थी, वही शिष्य आया था। इससे वे समझ जायँगे।’ इतना कहकर भगवान् चलते बने।

एक घंटेके बाद पण्डितजी जंगलसे वापस लौटे और घरमें प्रवेश करते ही देखा कि एक थाली मिठाईसे भरी रखी है। पण्डितजीने कुछ उत्तेजित-से होकर पूछा—‘यह मिठाई कहाँसे आयी, किसने दी और क्यों रखी गयी?’ ब्राह्मणपत्नीने हाथ जोड़कर विनयपूर्वक उत्तर दिया—‘स्वामिन्! मैंने नहीं रखी है। एक विद्यार्थी जबरन् इसे रख गया। वह कहता था कि मैं गुरुजीकी सेवाके लिये लाया हूँ। इसपर भी मैंने स्वीकार नहीं किया। परंतु वह जबरन् छोड़कर चला ही गया।’ ब्राह्मणने कहा—‘तुम तो इस बातको जानती हो कि मैंने न तो आजतक किसीको शिष्य बनाया है और न बनाता ही हूँ।’ पत्नीने कहा—‘यह बात सत्य है। मैंने भी उससे यही कहा कि ‘न तो पण्डितजीने किसीको शिष्य बनाया है, न बनाते हैं और न बनावेंगे।’ इसपर उसने मेरी बातका समर्थन करते हुए कहा कि ‘मैं इस बातको जानता हूँ। गुरुजीने मुझको छोड़कर किसीको शिष्य नहीं बनाया और न बनावेंगे। एकमात्र मैं ही उनका शिष्य हूँ। मुझपर उनकी विशेष दया है। इसीलिये मुझको उन्होंने शिष्य स्वीकार किया है। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि यह मेरी बात सच्ची माननी चाहिये।’ इसपर भी मैंने तो यही कहा कि ‘मैंने यह कभी नहीं सुना कि आपको उन्होंने शिष्य बनाया है। जो भी हो, मैं उनकी आज्ञाके बिना यह भेंट नहीं रख सकती; परंतु वह रखकर चल दिया।’ पण्डितजीने कहा—‘उसका नाम-पता तो पूछना चाहिये था, जिससे उसके घर चीज वापस लौटा दी जाती।’ ब्राह्मणपत्नीने कहा—‘मैंने पूछा था, तब उसने यह कहा है कि मुझको गुरुजी जानते हैं। आज प्रात:काल ही उन्होंने मेरे मुँहपर हरताल पोती है, मुझे इतनी ही देरमें वे थोड़े ही भूल जायँगे। आप कह दीजियेगा कि जिसके मुँहपर आज प्रात:काल हरताल पोती थी, वही आपका एकमात्र शिष्य भेंट दे गया है। बस, इतना कहकर वह चला गया और कह गया कि मिठाईकी थाली यहीं रखी है, मेरा घोड़ा भी यहीं बँधा हुआ है। मैं फिर आकर गुरुजीसे मिल लूँगा।’

यह सुनते ही पण्डितजीके रोमांच हो आया और वे गद्‍गद होकर बोले—‘ब्राह्मणी! तुम धन्य हो। वे तो साक्षात् भगवान् थे। तुम्हारा बड़ा सौभाग्य है, जो तुमको उनके साक्षात् दर्शन हुए। मैं अविश्वासी और हतभाग्य हूँ, इसीलिये मुझको उन्होंने दर्शन नहीं दिये। मैंने एक दिन भी भूख नहीं निकाली और अधीर होकर भगवान् के वचनोंपर हरताल पोत दी। गीता स्वयं भगवान् के मुखसे निकली हुई है, उसपर हरताल पोतना सचमुच भगवान् के मुखपर ही हरताल लगाना है। आज गीताका पाठ करते समय जब यह श्लोक आया कि—

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(९। २२)

—तब मुझ अविश्वासीके मनमें भगवान् के वचनोंपर शंका हो गयी कि यदि सचमुच ये भगवान् के वाक्य होते तो वे निश्चय ही मेरा योगक्षेम वहन करते; यह क्षेपक है। ऐसा सोचकर मैंने उसपर हरताल पोत दी। मैं बड़ा ही नीच, पापी और अविश्वासी हूँ। मेरे हृदयमें यदि तनिक भी धैर्य होता तो मैं ऐसा नीच कार्य कभी नहीं करता। वे परम दयालु भगवान् तो सदा योगक्षेम चला ही रहे हैं। सब कुछ समाप्त होनेके साथ ही आ ही पहुँचे। हरताल लगानेके अपराधके कारण मैं उनके दर्शनोंसे वंचित रहा। तुम शुद्ध और अनन्यभक्त तथा पतिव्रता हो। इसलिये तुम्हें दर्शन दे गये। अब तो जबतक वे नहीं आते तबतक मुझे चैन नहीं।’ इसके बाद उनकी दृष्टि बाहरकी ओर गयी तो क्या देखते हैं कि घोड़ेपर भार लदा हुआ है। उन्होंने तुरंत जाकर भार उतारा और उसे अंदर लाकर देखने लगे। उसमें लाखों रुपयोंके रत्न भरे थे। ब्राह्मण यह देखकर अपने कृत्यपर पश्चात्ताप करने लगे। वे पुन: गद्‍गद हो गये और प्रेममें तन्मय होकर भागवतका यह श्लोक गाने लगे—

अहो बकी यं स्तनकालकूटं
जिघांसयापाययदप्यसाध्वी ।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं
कं वा दयालुं शरणं व्रजेम॥*
(३। २। २३)

* आश्चर्यकी बात है कि पापिनी पूतनाने जिस श्रीकृष्णको मारनेकी इच्छासे उन्हें स्तनोंमें लगाया हुआ हलाहल विष पिलाया था, वह भी माताके योग्य उत्तम गतिको प्राप्त हुई; फिर उन भगवान् को छोड़कर हम और किस दयालुकी शरणमें जायँ?

‘मुझे धिक्कार है कि ऐसे दीनबन्धु पतितपावन सबका धारण-पोषण करनेवाले विश्वम्भर प्रभुपर मैंने झूठा दोष लगाकर अपनेको कलंकित किया। मैं तो अर्थका दास हूँ। यदि सचमुच मैं प्रभुका दास होता तो मुझे भोजनाच्छादनकी चिन्ता ही क्यों होती और क्यों भगवान् मुझे संतुष्ट करनेके लिये यह रत्न-राशि दे जाते! मैं वास्तवमें यदि भगवान् के तत्त्व-रहस्यको जानता, मेरा उनमें सच्चा प्रेम होता और मेरे मनमें अर्थकी कामना न होती तो वे मुझे ये रत्न देकर क्यों भुलाते।’ यों कहते-कहते ब्राह्मण आनन्दमुग्ध हो गये।

बहुत देर होते देखकर ब्राह्मणीने कहा—‘भगवान् का दिया हुआ प्रसाद तो पा लें।’ पण्डितजी बोले—‘जब भगवान् यह कह गये हैं कि हम आवेंगे तो अब तो उनके आनेपर ही प्रसाद पाऊँगा।’ सायंकाल हो गया, पर भगवान् नहीं आये। तब ब्राह्मणीने फिर कहा—‘अब तो प्रसाद पा लें।’ पण्डितजी कब माननेवाले थे, उन्होंने फिर वही बात कह दी। जब रात्रिके दस बज गये, शयनका समय हो गया और भगवान् नहीं आये, तब ब्राह्मणीने पुन: विनयपूर्वक कहा—‘प्रसाद तो पा लीजिये।’ ब्राह्मण देवताने फिर भी प्रसाद नहीं पाया और दोनों बिना कुछ खाये ही सो गये।

रातके ग्यारह बजे थे। दरवाजा खटखटाते हुए किसीने बड़े ही मधुर स्वरोंमें पुकारा—‘गुरुआनीजी! गुरुआनीजी! दरवाजा खोलिये।’ ब्राह्मण-दम्पतिको अभी नींद तो आयी ही नहीं थी। सुमधुर स्वर तथा गुरुआनीजी सम्बोधन सुनकर ब्राह्मणी चौंक पड़ी और आनन्दविह्वल होकर बोली—‘स्वामिन् ! लीजिये, आपके भगवान् आ गये हैं।’ ब्राह्मणने तुरंत दौड़कर दरवाजा खोला और वे भगवान् के चरणोंपर गिर पड़े। भगवान् ने उनको उठाकर अपने हृदयसे लगा लिया। उस समय पण्डितजीकी बड़ी विचित्र दशा थी। उनका शरीर रोमांचित था, नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बह रही थी, हृदय प्रफुल्लित था और वाणी गद्‍गद थी। फिर भी वे किसी तरह धीरज धरकर बोले—‘नाथ! मैं तो एक अर्थका दास हूँ। मुझ-जैसे पामरपर भी जो आपने इतनी कृपा की, इसमें आपका परम कृपालु स्वभाव ही हेतु है। यदि मेरे भाव और आचरणोंकी ओर ध्यान दिया जाय तो आपके दर्शन तो दूर रहे, मुझे कहीं नरकमें भी ठौर नहीं मिलनी चाहिये। मैंने आप-जैसे सर्वथा निर्दोष महापुरुषपर दोष लगाया। मुझ-जैसा अर्थकामी नीच कोई शायद ही होगा। मैं तो अर्थके लिये ही आपको भजता था, तभी तो आपने मेरे सन्तोषके लिये ये रत्न दिये हैं। मैं बड़ा भारी सकामी हूँ, इसीलिये तो मैंने आपको सांसारिक योगक्षेम चलानेवाला ही समझा; नहीं तो मैं पारमार्थिक योगक्षेमकी ही कामना करता। और जो निष्कामभावसे केवलमात्र आपपर ही निर्भर हैं, वे तो इस योगक्षेमको भी नहीं चाहते; किंतु आप तो बिना उनके चाहे ही उनका योगक्षेम वहन करते हैं। मुझ-जैसे अभागेमें ऐसी श्रद्धा, प्रेम, विश्वास और निर्भरता कहाँ, जो आप-जैसे महापुरुषके हेतुरहित अनन्य शरण होता।’

भगवान् बोले—‘इसमें तुम्हारा कोई दोष ही नहीं है। तुम तो मुझपर ही निर्भर थे। मेरे आनेमें जो विलम्ब हुआ, यह मेरे स्वभावका दोष है। पर अभीतक तुमने भोजन क्यों नहीं किया?’ पण्डितजीने कहा—‘जब आप कह गये थे कि मैं फिर आकर मिलूँगा तो बिना आपके आये मैं कैसे भोजन करता। आप भोजन कीजिये, उसके बाद हमलोग भी प्रसाद पायेंगे।’ भगवान् ने कहा—‘नहीं-नहीं, चलो, हमलोग एक साथ ही भोजन करें।’ फिर ब्राह्मणपत्नीने भगवान् का संकेत पाकर दोनोंको भोजन कराया। ब्राह्मण देवताने अत्यन्त प्रेम-विह्वल होकर प्रसाद पाया। भोजनके बाद भगवान् बोले— ‘तुम्हारी जो इच्छा हो माँग लो, तुम्हारे लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है।’ ब्राह्मणने कहा—‘जब आप स्वयं ही पधार गये तो अब माँगना बाकी ही रहा क्या? नाथ! मैं तो यही चाहता हूँ कि अब तो मेरे मनमें योगक्षेमकी भी इच्छा न रहे और केवल आपमें ही मेरा अनन्य विशुद्ध प्रेम हो।’ भगवान् ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्धान हो गये। इसके बाद ब्राह्मणपत्नीने भी प्रसाद पाया।

इधर, जबसे उन छोटे भाइयोंने अपने ज्येष्ठ भ्राता भगवद्भक्त ब्राह्मणको अलग कर दिया था, तबसे वे उत्तरोत्तर नितान्त दरिद्री और दु:खी होते चले गये। उनकी इतनी हीन दशा हो गयी कि न तो उनको कहींसे कुछ उधार ही मिलता था और न माँगनेपर ही। जब उन्होंने सुना कि हमारे भाई इतने धनी हो गये हैं कि उनके द्वारपर सदा याचकोंकी भीड़ लगी रहती है तो वे भी अपने भाईके पास गये। परम भक्त पण्डितजीने भाइयोंको आये देखकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और उनकी कुशल-क्षेम पूछी। उन्होंने उत्तरमें कहा—‘आप-जैसे सज्जन पुरुषोंसे अलग होकर हमें कुशल कहाँ? हम तो मुँह दिखानेलायक भी नहीं हैं। फिर भी आप हमलोगोंपर दया करके प्रेमसे मिलते हैं, यह आपका सौहार्द है।’ बड़े भाईने कहा—‘नहीं-नहीं भैया! ऐसा मत कहो। हम तीनों सहोदर भाई हैं। हमलोग कभी अलग थोड़े ही हो सकते हैं। यह तो एक होनहार थी। हमलोग जैसे प्रेमसे पहले रहा करते थे, अब भी हमें वैसे ही रहना चाहिये।’ संसारमें सहोदर भाईके समान अपना हितैषी और प्रेमी कौन है? तुमलोगोंको लज्जा या पश्चात्ताप न करके पूर्ववत् ही प्रेम करना चाहिये। यह जो कुछ तुम ऐश्वर्य देखते हो, इसमें भैया! मेरा क्या है। यह सब श्रीभगवान् की विभूति है। जो कोई भी भगवान् पर निर्भर हो जाता है, भगवान् सब प्रकारसे उसका योगक्षेम वहन करते हैं। जैसे बालक माता-पितापर निर्भर होकर निश्चिन्त विचरता है और माता-पिता ही सब प्रकारसे उसका पालन-पोषण करते हैं, उसी प्रकार, नहीं-नहीं, उससे भी बढ़कर भगवान् अपने आश्रितका पालन-पोषण और संरक्षण करते हैं। यही क्या, वे तो अपने-आपको ही उसके समर्पण कर देते हैं। अत: तुमलोगोंको—

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(गीता ९। २२)

—इस श्लोकमें कही हुई बातपर विश्वास करके नित्य-निरन्तर भगवान् का ही चिन्तन करना चाहिये तथा अर्थ और भावको समझकर नित्य श्रीगीताका अध्ययनाध्यापन करना चाहिये।

इसके बाद वे दोनों भाई बड़े भाईके साथ रहकर उनकी आज्ञाके अनुसार नित्य-निरन्तर जप-ध्यान तथा गीताका पाठ करने लगे एवं थोड़े ही समयमें भगवान् की भक्ति करके भगवत्कृपासे भगवान् को प्राप्त हो गये।

यह कहानी कहाँतक सच्ची है, इसका पता नहीं है; किंतु हमें इससे यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि भगवान् पर निर्भर होनेपर भगवान् योगक्षेमका वहन करते हैं। अत: हम भी इसपर विश्वास करके भगवान् पर निर्भर हो जायँ। सबसे उत्तम बात तो यह है कि नित्य-निरन्तर भगवान् का निष्कामभावसे चिन्तन करना चाहिये। योगक्षेमकी भी इच्छा न करके भगवान् में केवल अहैतुक विशुद्ध प्रेम हो, इसीके लिये प्रयत्न करना चाहिये। किंतु यदि योगक्षेमकी ही इच्छा हो तो सच्चे—पारमार्थिक योगक्षेमकी इच्छा करनी चाहिये। अप्राप्तकी प्राप्तिका नाम ‘योग’ है और प्राप्तिकी रक्षाका नाम ‘क्षेम’ है। पारमार्थिक योगक्षेमका अभिप्राय यह है कि परमात्माकी प्राप्तिके मार्गमें जहाँतक हम आगे बढ़ चुके हैं, उस प्राप्त साधन-सम्पत्तिकी तो भगवान् रक्षा करते हैं और भगवान् की प्राप्तिमें जो कुछ कमी है, उसकी भी पूर्ति भगवान् कर देते हैं। ऐसा भगवान् ने आश्वासन दिया है। इस प्रकार समझकर और इसपर विश्वास करके भगवान् पर निर्भर एवं निर्भय हो जायँ; भगवच्चिन्तनके सिवा और कुछ भी चिन्ता न करें।

जो लोग सांसारिक योगक्षेमके लिये भगवान् को भजते हैं, वे भी न भजनेवालोंकी अपेक्षा बहुत उत्तम हैं; क्योंकि भगवान् ने अर्थार्थी, आर्त आदि भक्तोंको भी उदार—श्रेष्ठ बतलाया है ‘उदारा: सर्व एवैते’ (गीता ७। १८); और ज्ञानी निष्काम अनन्य भक्तको तो अपना स्वरूप ही बतलाया है; क्योंकि उस निष्कामी ज्ञानीके एक भगवान् के सिवा अन्य कोई गति है ही नहीं।

अत: हमको उचित है कि हम भगवान् के निष्काम ज्ञानी अनन्य भक्त बनें, क्योंकि ऐसा भक्त भगवान् को अत्यन्त प्रिय है। भगवान् ने कहा है—

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥
(गीता ७। १७)

‘उन भक्तोंमें नित्य मुझमें एकीभावसे स्थित अनन्य-प्रेमभक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है; क्योंकि मुझको तत्त्वसे जाननेवाले ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है।’


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur