Seeker of Truth

व्यापारसुधारकी आवश्यकता

भारतवर्षके व्यापार और व्यापारियोंकी आज बहुत बुरी दशा है। व्यापारकी दुरवस्थामें विदेशी शासन भी एक बड़ा कारण है, परन्तु प्रधान कारण व्यापारी-समुदायका नैतिक पतन है। व्यापारकी उन्नतिके असली रहस्यको भूलकर लोगोंने व्यापारमें झूठ, कपट, छलको स्थान देकर उसे बहुत ही घृणित बना डाला है। लोभकी अत्यन्त बढ़ी हुई प्रवृत्तिने किसी भी तरह धन कमानेकी चेष्टाको ही व्यापारके नामसे स्वीकार कर लिया है। बहुत-से भाई तो व्यापारमें झूठ, कपटका रहना आवश्यक और स्वाभाविक मानने लगे हैं और वे ऐसा भी कहते हैं कि व्यापारमें झूठ, कपट बिना काम नहीं चलता। परन्तु वास्तवमें यह बड़ा भारी भ्रम है। झूठ, कपटसे व्यापारमें आर्थिक लाभ होना तो बहुत दूरकी बात है परन्तु उलटी हानि होती है। धर्मकी हानि तो स्पष्ट ही है। आजकल व्यापारी-जगत् में अंग्रेज-जातिका विश्वास औरोंकी अपेक्षा बहुत बढ़ा हुआ है। व्यापारी लोग अंग्रेजोंके साथ व्यापार करनेमें उतना डर नहीं मानते जितना उन्हें अपने भाइयोंके साथ करनेमें लगता है। यह देखा गया है कि गल्ला, तिलहन वगैरह अंग्रेजोंको दो आना नीचे भावमें भी लोग बेच देते हैं, आमदनी मालके लेन-देनका सौदा करनेमें भी पहले अंग्रेजोंको देखते हैं, इसका कारण यही है कि उनमें सच्चाई अधिक है। इसीसे उनपर लोगोंका विश्वास अधिक है। इस कथनका यह अभिप्राय नहीं है कि अंग्रेज सभी सच्चे और भारतवासीमात्र सच्चे नहीं हैं। यहाँ मतलब यह है कि व्यापारी कार्योंमें हमारी अपेक्षा उनमें सत्यका व्यवहार कहीं अधिक है। वह भी किसी धर्मके खयालसे नहीं, व्यापारमें उन्नति होने और झूठे झंझटोंसे बचनेके खयालसे है।

सच्चाईके व्यवहारके कारण जिन अंग्रेज और भारतीय फर्मोंपर लोगोंका विश्वास है, उनका माल कुछ ऊँचे दाम देकर भी लोग लेनेमें नहीं हिचकते। बराबरके भावमें तो खुशामद करके उनके साथ काम करना चाहते हैं।

व्यापारमें प्रधानत: क्रय-विक्रय होता है, क्रय-विक्रयके कई साधन हैं, कोई चीज तौलपर ली-दी जाती है, कोई नापपर, तो कोई गिनतीपर। नमूना देखना-दिखलाना भी एक साधन होता है। जो दूसरोंके लिये या दूसरोंका माल खरीदते-बेचते हैं वे आढ़तिया कहलाते हैं और जो दूसरोंसे दूसरोंको ठीक भावमें किसीका पक्ष न कर उचित दलालीपर माल दिला देते हैं वे दलाल कहलाते हैं। इन्हीं सब तरीकोंसे व्यापार होता है। वस्तुओंके खरीदने-बेचनेमें तौल-नाप और गिनती आदिसे कम देना या अधिक लेना, चीज बदलकर या एक वस्तुमें दूसरी (खराब) चीज मिलाकर दे देना या धोखा देकर अच्छी ले लेना, नमूना दिखाकर उसको घटिया चीज देना और धोखेसे बढ़िया लेना, नफा, आढ़त, दलाली ठहराकर उससे अधिक लेना या धोखेसे कम देना, दलाली या आढ़तके लिये झूठी बातें समझा देना अथवा झूठ, कपट, चोरी, जबरदस्ती या अन्य किसी प्रकारसे दूसरेका हक मार लेना, ये सब व्यापारके दोष हैं। आजकल व्यापारमें ये दोष बहुत ज्यादा आ गये हैं। किसी भी दोषका कोई भी ख्याल न कर किसी तरह भी धन पैदा कर लेनेवाला ही आजकल समझदार और चतुर समझा जाता है। समाजमें उसीकी प्रतिष्ठा होती है। धनकी कमाईके सामने उसकी सारी चोरियाँ घरवाले और समाज सह लेता है। इसीसे चोरी और झूठ-कपटकी प्रवृत्ति दिनोदिन बढ़ रही है। व्यापारमें झूठ, कपट नहीं करना चाहिये या इसके बिना किये भी धन पैदा हो सकता है ऐसी धारणा ही प्राय: लोप हो चली है। इसीसे जिस तरफ देखा जाता है उसी तरफ पोल नजर आती है।

अधिकांश भारतीय मिलोंके साथ काम करनेमें व्यापारियोंको यह डर बना ही रहता है कि तेज बाजारमें हमें या तो नमूनेके अनुसार क्वालिटीका माल नहीं मिलेगा या ठीक समयपर नहीं मिलेगा। कपड़ेकी मिलोंमें जिस तरहकी कार्यवाहियाँ होती सुनी गयी हैं, वे यदि वास्तवमें सत्य हैं तो हमारे व्यापारमें बड़ा धक्का पहुँचानेवाली हैं। रूई खरीदनेमें मैनेजिंग एजेंट लोग बड़ी गड़बड़ किया करते हैं।

रूईके बाजारमें घटबढ़ बहुत रहती है। रूईका सौदा करनेपर भाव बढ़ जाता है तो एजेंट रूई अपने खाते रख लेते हैं और यदि भाव घट जाता है तो अपने लिये अलग खरीदी हुई रूई भी मौका लगनेपर मिल खाते नोंध देते हैं। वजन बढ़ानेके लिये कपड़ोंमें माँडी लगानेमें तो अहमदाबाद मशहूर है। रूईका भाव बढ़ जानेपर सूतमें भी कमी कर दी जाती है। अनेक तरहके बहाने बताकर कंट्राक्टका माल भी समयपर नहीं दिया जाता। प्राय: लंबाई-चौड़ाईमें भी गोलमाल कर दी जाती है। सूतमें वजन भी कम दे दिया जाता है, इन्हीं कारणोंसे बहुत-सी मिलोंकी साख नहीं जमती। पक्षान्तरमें विलायती वस्त्र-व्यवसाय भारतके लिये महान् घातक होनेपर भी कंट्राक्टोंकी शर्तोंके पालनमें अधिक उदारता और सच्चाई रहनेके कारण बहुत-से व्यापारी उस कामको छोड़ना नहीं चाहते। यहाँके मालके दाम ज्यादा रहनेका एक कारण अत्यधिक लोभकी मात्रा ही है।

अनाज आदि खानेकी चीजोंमें दूसरे घटिया अनाज मिलाये जाते हैं—मिट्टी मिलायी जाती है। जीरा, धनिया आदि किरानेकी और सरसों, तिल आदि तिलहन चीजोंमें भी दूसरी चीज या मिट्टी मिलायी जाती है। किसान तो मामूली मिट्टी मिलाते हैं परन्तु व्यापारी लोग भी उसी रंगकी मिट्टी खरीदकर मिलाया करते हैं। वजन ज्यादा करनेके लिये बरसातमें माल गीली जगहमें रखते हैं जिससे कहीं-कहीं माल सड़ जाता है, खानेवाले चाहे बीमार हो जायँ, पर व्यापारियोंके घरोंमें पैसे अधिक आने चाहिये। गल्ला आदि जहाँ रखा जाता है वहाँ पहलेसे ही घटिया माल तो नीचे या कोनोंमें रखते हैं और बढ़िया माल सामने नमूना दिखानेकी जगह रखा जाता है, वजनमें भी बुरा हाल है। लेन-देनके बाट भी दो प्रकारके होते हैं।

पाटके व्यापारमें भी चोरियोंकी कमी नहीं है। वजन बढ़ानेके लिये पानी मिलाया जाता है। मिलोंमें माल पास करानेवाले बाबुओंको कुछ दे-दिलाकर बढ़ियाके कंट्राक्टमें घटिया माल दे दिया जाता है। वजनमें चोरी होती ही है। इसी तरह रूईमें पानी तथा धूल मिलायी जाती है। पाटकी तरह इनकी गाँठोंके अंदर भी खराब माल छिपाकर दे दिया जाता है।

सभी चीजोंमें किसानोंसे माल खरीदते समय दामोंमें, वजनमें, घटियाके बदले बढ़िया लेनेमें धोखा देकर लूटनेकी चेष्टा रहती है और बेचते समय ठीक इससे उलटा व्यवहार करनेकी कोशिश होती है।

खाद्य पदार्थोंमें भी शुद्ध घी, तैल या आटातक मिलना कठिन हो गया है। ऐसा कोई काम नहीं जो आजकल व्यापारी लोभवश न करते हों। घीमें चरबी, तैल, विलायती घी और मिट्टीका तेल मिलाया जाता है। तैलमें भी बड़ी मिलावट होती है। सरसोंके साथ तीसी, रेड़ी तो मिलाते ही हैं परन्तु बड़ी-बड़ी मिलोंमें कुसुमके बीज भी मिलाये जाते हैं। जिसके तैलसे बदहजमी, हैजा, संग्रहणी आदि बीमारियाँ फैलती हैं। मनुष्य दु:ख पाते हैं, मर जाते हैं। परन्तु लोभियोंको इस बातकी कोई परवा नहीं! इसी तैलकी खली गायोंको खिलायी जाती है, जिससे उनके अनेक प्रकारकी बीमारियाँ हो जाती हैं। गौभक्त और गौसेवक कहानेवाले लोगोंकी यह गंदी करतूत है! ऐसी मिलोंमें जब जाँचके लिये सरकारी अफसर आते हैं तो उन्हें धोखा देकर या उनकी कुछ भेंट-पूजा कर पिण्ड छुड़ा लिया जाता है। साइनबोर्डोंपर ‘जलानेका तैल’ लिखकर भी दण्डसे बचनेकी चेष्टा की जाती है।

नारियल, तिल, सरसों आदिके तैलोंमें कई तरहके विलायती किरासिन तैल मिलाये जाते हैं जो पेटमें जाकर भाँति-भाँतिकी बीमारियाँ पैदा करते हैं।

आजकल देशमें जो अधिक बीमारी फैल रही है, घर-घरमें रोगी दीख पड़ते हैं इसका एक प्रधान कारण व्यापारियोंका लोभवश खाद्य पदार्थोंमें अखाद्य चीजोंका मिला देना भी है।

कपड़ेके व्यापारमें भी बड़े-छोटे सभी स्थानोंमें प्राय: चोरी होती है। बम्बई, कलकत्ते आदि बड़े शहरोंके बड़े दूकानदारोंकी बड़ी चोरियाँ होती हैं। देहातके दूकानदार भी किसी तरह कमी नहीं करते। जहाँ अमुक नफेपर माल बेचनेका नियम है, वहाँ ग्राहकोंको ठगनेके लिये एक झूठा बीजक मँगा लेते हैं। हाथीके दाँत खानेके और दिखानेके और!

सूतके देहाती व्यापारी भी सूतके बंडलोंमेंसे मुट्ठे निकालकर उसे ८ नंबरसे १६ नंबरतकका बना लेते हैं। इस बेईमानीके लिये कलकत्तेमें कई कारखाने बने हुए हैं जिनमें खरीदार जुलाहोंको धोखा देनेके लिये गोलमाल की जाती है, दूसरी बंडल बनाकर बेचनेमें जुलाहे ठगे जाते हैं, खर्च बढ़ जाता है और सूत उलझ जाता है।

कई जगह चीनीके ऐसे कारखाने हैं जिनमें विदेशी चीनीमें गुड़ मिलाकर उसका रंग बदल दिया जाता है और फिर वह बनारसी या देशीके नामसे बेची जाती है।

आढ़त, दलाली, कमीशनमें भी तरह-तरहकी चोरियाँ की जाती हैं। वास्तवमें आढ़तियेको चाहिये कि महाजनके साथ जो आढ़त ठहरा ले उससे एक पैसा भी छिपाकर अधिक लेना हराम समझे। महाजनको विश्वास दिलाया जाता है कि आढ़त॥।) या॥) सैकड़ा ली जायगी परन्तु छल, कपटसे जितना अधिक चढ़ाया जाय उतना ही चढ़ाते हैं। २) ४) ५) सैकड़ेतक वसूल करके भी सन्तोष नहीं होता। बोरा, बारदाना, मजदूरी आदिके बहानेसे महाजनसे छिपाकर या मालपर अधिक दाम रखकर दलाली या बट्टा वगैरह उसे न देकर, अथवा गुप्तरूपसे अपना माल बाजारसे खरीदा हुआ बताकर तरह-तरहसे महाजनको ठगना चाहते हैं।

कमीशनके काममें भी बड़ी चोरियाँ होती हैं। बाजार मंदा हो गया तो तेज भावमें बिके हुए मालकी बिक्री मंदेकी दे देते हैं। तेज हो गया तो किसी दूसरेसे मिलकर बिना बिके ही बहुत-सा माल खुद खरीदकर पहलेका बिका बताकर झूठी बिक्री भेज देते हैं। बँधे भावसे कम-ज्यादा भावमें भी माल बेचते हैं।

दलालीके काममें अपने थोड़ेसे लोभके लिये ‘ग्राहकका गला कटा दिया जाता है।’ दलालका कर्तव्य है कि वह जिससे जिसको माल दिलवावे उन दोनोंका समान हित सोचे। अपने लोभके लिये दोनोंको उलटी-सीधी पट्टी पढ़ाकर लेनेवालेको तेजी और बेचनेवालेको झूठ ही मंदीकी रुख बताकर काम करवा देना बड़ा अन्याय है। अपनी जो सच्ची राय हो वही देनी चाहिये। दोनों पक्षोंको अपनी स्पष्ट धारणा और बाजारकी स्थिति सच्ची समझानी चाहिये।

कहाँतक गिनाया जाय! व्यापारके नामपर चोरी, डकैती और ठगी सब कुछ होती है। न ईश्वरपर विश्वास है न प्रारब्धपर और न न्याय तथा सत्यपर ही। वास्तवमें व्यापारमें कुशलता भी नहीं है। कुशल व्यापारी सच्चा होता है, वह दूसरोंको धोखा देनेवाला नहीं होता। सच्चाईसे व्यापार कर वह सबका विश्वासपात्र बन जाता है, जितना विश्वास बढ़ता है उतना ही उसका झंझट कम होता है और व्यापारमें दिनोदिन उन्नति होती है। मोल-मुलाई करनेवाले दूकानदारोंको ग्राहकोंसे बड़ी माथापच्ची करनी पड़ती है। विश्वास जम जानेपर सच्चे एक दाम बतानेवाले दूकानदारको माल बेचनेमें कुछ भी कठिनाई नहीं होती, ग्राहक चाहकर बिना दाम पूछे उसका माल खरीदते हैं, उन्हें वहाँ ठगे जानेका भय नहीं रहता। परन्तु आजकल तो दूकान खोलनेके समय प्रतिदिन लोग प्राय: भगवान् से प्रार्थना किया करते हैं—‘शंकर! भेज कोई हियेका अंधा और गठरीका पूरा’ यानी भगवान् ऐसा ग्राहक भेजें जिसे हम ठग सकें, जो अपनी मूर्खतासे अपने गलेपर हमसे चुपचाप छुरी फिरवा ले। इससे यह सिद्ध होता है कि कोई ग्राहक अपनी बुद्धिमानी और सावधानीसे तो भले ही बच जाय, परन्तु दूकानदार तो उसपर हाथ साफ करनेको सब तरह सजा-सजाया तैयार है।

थोड़ेसे जीवनके लिये ईश्वरपर अविश्वास करके पाप बटोरना बड़ी मूर्खता है। आमदनी तो उतनी ही होती है जितनी होनी होती है, पाप जरूर पल्ले बँध जाता है। पापका पैसा ठहरता नहीं, इधर आता है उधर चला जाता है, बट्टाखाता जितना रहना होता है उतना ही रहता है। लोग अपने मनमें ही धन आता हुआ देखकर मोहित हो जाते हैं। पापसे धन पैदा होनेकी धारणा बड़ी ही भ्रम-मूलक है। इससे धन तो पैदा होता नहीं परन्तु आत्माका पतन अवश्य होता है। लोक-परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं। जो अन्यायसे धन कमाकर उसमेंसे थोड़ा-सा दान देकर धर्मात्मा बनना और कहलाना चाहते हैं वे बड़े भ्रममें हैं। भगवान् के यहाँ इतना अन्धेर नहीं है, वहाँ सबकी सच्ची परख होती है।

अतएव परमात्मापर विश्वास करके व्यापारमें झूठ-कपटको सर्वथा त्याग देना चाहिये। किसी भी चीजमें दूसरी कोई चीज कभी मिलानी नहीं चाहिये। वजनमें ज्यादा करनेके लिये रूई, पाट, गल्ले आदिमें पानी मिलाना या गीली जगहमें रखना नहीं चाहिये। खाद्य पदार्थोंमें मिलावट करके लोगोंके स्वास्थ्य और धर्मको कभी नहीं बिगाड़ना चाहिये। वजन, नाप और गिनतीमें न तो कम देना चाहिये और न ज्यादा लेना चाहिये। नमूनेके अनुसार ही मालका लेन-देन करना अत्यन्त आवश्यक है।

आढ़त ठहराकर किसी भी तरहसे महाजनकी एक पाई ज्यादा लेना बड़ा पाप है। इससे खूब बचना चाहिये। इसी प्रकार कमीशनके काममें भी धोखा देकर काम नहीं करना चाहिये। दलालको भी चाहिये कि वह सच्चा रुख बताकर लेने-बेचनेवालेको भ्रमसे बचाकर अपने हक और मेहनतका ही पैसा ले।

हम जिसके साथ व्यवहार करें उसके साथ हमें वैसा ही बर्ताव करना चाहिये जैसा हम अपने साथ चाहते हैं। हम जैसा अपने हित और स्वार्थका खयाल रखते हैं वैसा ही उसके हित और स्वार्थका भी खयाल रखना चाहिये। सबसे उत्तम तो वह है कि जो अपना स्वार्थ छोड़कर पराया हित सोचता है—दूसरेके स्वार्थके लिये अपने स्वार्थको त्याग देता है। व्यापार करनेवाला होनेपर भी ऐसा पुरुष वास्तवमें साधु ही है।

आजकल सट्टेकी प्रवृत्ति देशमें बहुत बढ़ गयी है। सट्टेसे धन, जीवन और धर्मको कितना धक्का पहुँच रहा है, इस बातपर देशके मनस्वियोंको विचारकर शीघ्र ही इसे रोकनेका पूरा प्रयत्न करना चाहिये। पहले यह सट्टा अधिकतर बम्बईमें ही था और जगह कहीं-कहीं बरसातके समय बादलोंके सौदे हुआ करते थे, परन्तु अब तो इसका विस्तार चारों ओर प्राय: सभी व्यापार-क्षेत्रोंमें हो गया है। कुछ वर्षों पूर्व व्यापारी लोग सट्टे-फाटकेसे घृणा करने और सट्टेबाजोंके पास बैठने और उनसे बातें करनेमें हिचकते थे, पर अब ऐसे व्यापारी बहुत ही कम मिलते हैं जो सट्टा न करते हों। सट्टा उसे कहते हैं कि जिसमें प्राय: मालका लेन-देन न हो, सिर्फ समयपर घाटा-नफा दिया-लिया जाय। रूई, पाट, हेसियन, गल्ला, तिलहन, हुण्डी-शेयर और चाँदी आदि प्राय: सभी व्यापारी वस्तुओंका सट्टा होता है। सट्टेबाज न कमानेमें सुखी रहता है न खोनेमें, उसका चित्त सदा ही अशान्त रहता है। सट्टेवालोंके खर्च अनाप-शनाप बढ़ जाते हैं। मेहनतकी कमाईसे चित्त उखड़ जाता है। ये लोग पल-पलमें लाखोंके सपने देखा करते हैं। झूठ-कपटको तो सट्टेका साथी ही समझना चाहिये। सट्टेवालोंकी सदियोंकी इज्जत-आबरू घंटोंमें बरबाद हो जाती है। सट्टेके कारण बड़े शहरोंमें प्रतिवर्ष एक-न-एक आत्महत्या या आत्महत्याके प्रयत्न सुननेमें आते हैं। आत्महत्याके विचार तो शायद कई बार कितनोंके ही मनमें उठते होंगे। सट्टेबाजोंको आत्माका सुख मिलना तो बहुत दूरकी बात है, वे बेचारे गृहस्थके सुखसे भी वंचित रहते हैं। कई लोगोंका चित्त तो सट्टेमें इतना तल्लीन रहता है कि उन्हें भूख, प्यास और नींदतकका पता नहीं रहता। बीमार पड़ जाते हैं, बेचैनीसे कहीं लुढ़क पड़ते हैं और नींदमें उन्हें प्राय: सपने सट्टेके ही आते हैं। धर्म, देश, माता, पिता आदिकी सेवा तो हो ही कहाँसे, अपने स्त्री-बच्चोंकी भी पूरी सार-सँभाल नहीं होती; घरमें बच्चा बीमारीसे सिसक रहा है, सहधर्मिणी रोगसे व्याकुल है, सट्टेबाज विलायतके तारका पता लगाने बाड़ोंमें भटक रहे हैं। एक सज्जनने यह आँखों देखी दशा वर्णन की थी! खेद है कि इस सट्टेको भी लोग व्यापारके नामसे पुकारते हैं जिसमें न घरका पता है, न संसारका और न शरीरका। मेरी समझसे यदि इतनी तल्लीनता थोड़े समयके लिये भी परमात्मामें हो जाय तो उससे परमार्थके मार्गमें अकथनीय उन्नति हो सकती है। इस सट्टेकी प्रवृत्तिसे मजूरीके काम नष्ट हो रहे हैं। कला नाश हो रही है। इस अवस्थामें यथासाध्य इसका प्रचार रोकना चाहिये।

इस सट्टेके सिवा एक जुआ घुड़दौड़का होता है, जिसमें बड़े-बड़े धनी-मानी लोग जा-जाकर बड़े चावसे दाव लगाया करते हैं। मनु महाराजने जीवोंके जुएको सबसे बड़ा पापकारी जुआ बतलाया है। अतएव सट्टा, जुआ सब तरहसे त्याग करनेयोग्य है। यदि कोई भाई लोभवश या दोष समझकर भी आत्माकी कमजोरीसे सर्वथा त्याग न कर सकें तो कम-से-कम घुड़दौड़में बाजी लगाना तो बिलकुल ही बंद कर दें और सट्टेमें बिना हुई चीज माथे कर-कर बेचनेका काम कभी न करें। बिना हुए माथे कर-कर बेचनेवालेका माल वास्तवमें किसीको लेना नहीं चाहिये, इससे बड़ी भारी हानि होती है। जो सट्टेकी हानि समझकर भी उसका त्याग नहीं करता वह खुद अपनी हिंसाका साधन तो करता ही है, पर दूसरोंको भी यथेष्ट नुकसान पहुँचाता है। जो लोग ‘खेला’ (कार्नर) वगैरह करके मालके दाम बेहद चढ़ा देते हैं वे बड़ा पाप करते हैं, अतएव खेला करनेवालेमें कभी शामिल नहीं होना चाहिये, उसमें गरीबोंकी आह और उनका बड़ा शाप सहन करना पड़ता है।

कुछ ऐसे व्यापार होते हैं जिनमें बड़ी हिंसा होती है जैसे लाख, रेशम और चमड़ा आदि।

लाख कीड़ोंसे उत्पन्न होती है। वृक्षोंसे लाल गोंद-जैसे टुकड़े उतारे जाते हैं, उसमें दो प्रकारके जीव रहते हैं। एक तो बहुत बारीक रहते हैं जो बरसातमें गरमीसे जहाँ लाख पड़ी होती है वहाँ निकल-निकलकर दीवारोंपर चढ़ जाते हैं, दीवाल उन कीड़ोंसे लाल हो जाती है। दूसरे जीव लंबे कीड़े-जैसे होते हैं, ये लाखके बीज समझे जाते हैं, इन असंख्य जीवोंकी बुरी तरह हिंसा होती है। प्रथम तो लाखके धोनेमें ही असंख्य प्राणी मर जाते हैं फिर थैलियोंमें भरकर जलती हुई भट्ठीमें उसे तपाया जाता है जिससे चपड़ा बनता है, जानवरोंके खूनका लखवटिया बनता है। जिस समय उसको तपाते हैं उस समय उसमें चटाचट शब्द होता है। चारों ओर दुर्गन्ध फैली रहती है, पानी खराब हो जाता है जिससे बीमारियाँ फैलती हैं। इस व्यवहारको करनेवाले अधिकांश वैश्य भाई ही हैं।*

*बड़े खेदकी बात है कि मारवाड़ी समाजमें इसी लाखकी चूड़ियाँ सोहागका चिह्न समझकर स्त्रियाँ पहनती हैं, इन चूड़ियोंको बनानेवाले मुँहमाँगे दाम लेते हैं। जिस लाखमें इतनी हिंसा होती है, जो इतनी अपवित्र है उसकी चूड़ियोंका तुरंत त्याग कर देना चाहिये। इसीलिये इसके बदलेमें काँचकी चूड़ियोंके प्रचारकी कोशिश हो रही है, कलकत्तेमें गोविन्दभवन-कार्यालय, १५१, महात्मा गाँधीरोडको पत्र लिखनेसे काँचकी सुन्दर सस्ती मजबूत ठीक लाखकी-सी पात लगी हुई चूड़ियाँ मिल सकती हैं। प्रत्येक धर्मप्रेमीको उनके प्रचारमें सहायता करनी चाहिये।—सम्पादक

इसी प्रकार रेशमके बननेमें भी बड़ी हिंसा होती है। रेशमसहित कीड़े उबलते जलमें डाल दिये जाते हैं, वे सब बेचारे उसमें झुलस जाते हैं, पीछे उनपर लिपटा हुआ रेशम निकाल लिया जाता है।

चमड़ेके लिये भारतवर्षमें कितनी गौ-हत्या होती है यह बतलाना नहीं होगा। अतएव लाख, रेशम और चमड़ेका व्यापार और व्यवहार प्रत्येक धर्मप्रेमी सज्जनको त्याग देना चाहिये।

कुछ लोग केवल व्याजका पेशा करते हैं। यद्यपि व्याजका पेशा निषिद्ध नहीं है परन्तु व्यापारके साथ ही रुपयेका व्याज उपजाना उत्तम है। व्याजके साथ व्यापार करनेवाला कभी अकर्मण्य नहीं होता, आलसी और नितान्त कृपण भी नहीं होता। उसमें व्यापारकुशलता आती है। लड़के-बच्चे काम सीखते हैं। कर्मण्यता बढ़ती है। अतएव केवल व्याजका ही पेशा नहीं करना चाहिये परन्तु यदि कोई ऐसा न कर सके तो लोभवश गरीबोंको लूटना तो अवश्य छोड़ दे। व्याजके पेशेवाले गरीबोंपर बड़ा अत्याचार किया करते हैं। कम रुपये देकर ज्यादाका दस्तावेज लिखवाते हैं। जरा-जरा-सी बातपर उनको तंग करते हैं। व्याजपर रुपया लेनेवाले लोगोंकी सारी कमार्ई व्याज भरते-भरते पूरी हो जाती है। कमाई ही नहीं, स्त्रियोंका जेवर, पशु, धन, जमीन, घर-द्वार सब उस व्याजमें चले जाते हैं। व्याजके पेशेवाले निर्दयतासे उनके जमीन-मकानको नीलाम करवाकर गरीब स्त्री-बच्चोंको राहका कंगाल निराधार बना देते हैं। लोभसे ये सारे पाप होते हैं। इन पापोंकी अधिक वृद्धि प्राय: केवल व्याजका पेशा करनेवालोंके अत्यधिक लोभसे होती है। अतएव व्याज कमानेवालोंको कम-से-कम लोभसे अन्याय तो नहीं करना चाहिये।

यथासाध्य विदेशी वस्त्र और अन्यान्य विदेशी वस्तुओंके व्यापारका त्याग करना चाहिये।

सबसे पहली और अन्तिम बात यह है कि झूठ, कपट, छलका त्यागकर, दूसरेको किसी प्रकारका नुकसान न पहुँचाकर न्याय और सत्यताके साथ व्यापार करना चाहिये। यह तो व्यापार-शुद्धिकी बात संक्षेपसे कही गयी। इतना तो अवश्य ही करना चाहिये। परन्तु यदि वर्णधर्म मानकर निष्कामभावसे व्यापारके द्वारा परमात्माकी पूजा की जाय तो इसीसे परमपदकी प्राप्ति भी हो सकती है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur