Seeker of Truth

विषयसुखकी असारता

यह बात प्राय: देखनेमें आती है कि भगवद्भजनकी आवश्यकताको समझ लेनेपर भी उस ओर वैसी प्रगति नहीं होती—सब बातोंको जान-बूझकर भी चित्त प्राय: भगवान् से दूर ही रहता है—इसका क्या कारण है? सो विचारना चाहिये। मेरे विचारसे इसमें मुख्य हेतु श्रद्धा-विश्वासकी कमी है, क्योंकि पूर्वसंचित पाप और अज्ञानके कारण लोग विषयोंमें आसक्त हो रहे हैं—प्रभुमें पूर्ण श्रद्धा और उनकी दयालुतामें पूरा विश्वास नहीं रखते। इसीलिये लोग प्राय: उनसे दूर ही रहते हैं। अज्ञानवश ही विषयी पुरुषोंको क्षण-क्षणमें बदलनेवाले, देश-कालसे परिच्छिन्न, अनित्य, विनाशी और दु:खरूप तथा दु:खके हेतु इन विषयोंमें सुख प्रतीत होता है, इसीसे वे इनमें आसक्त रहते हैं। परन्तु जो बुद्धिमान् पुरुष विषयोंके यथार्थ स्वरूपको जान लेते हैं वे कदापि इनमें आसक्त नहीं होते। इसीलिये श्रीभगवान् कहते हैं—

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥
(गीता ५। २२)

‘जो ये इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषोंको भ्रमसे सुखरूप भासते हैं, परन्तु ये नि:सन्देह दु:खके ही हेतु और आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं। इसीलिये हे कौन्तेय! बुद्धिमान् विवेकी पुरुष इनमें नहीं रमता।’

अतएव विषयोंके स्वरूपको समझकर इनकी आसक्तिसे छूटनेके लिये हमें यह विचार करना चाहिये कि जिस सुखसे आकृष्ट होकर लोग विषयोंमें फँसते हैं, क्या वस्तुत: वह विषयोंमें है? यदि विषय ही सुखस्वरूप होते तो उनकी सन्निधिमें सर्वदा ही सुख होना चाहिये था। परन्तु यह बात देखी नहीं जाती। उनमें सुखकी तो केवल क्षणिक प्रतीतिमात्र ही होती है। वस्तुत: तो वे क्षणभंगुर और दु:खरूप ही हैं। रसनेन्द्रियके विषयको ही लीजिये। हमें लड्डू बहुत प्रिय है। परन्तु उसकी प्रियता जैसी भूखके समय जान पड़ती है वैसी तृप्ति हो जानेपर नहीं रहती; यही नहीं, पूर्ण तृप्ति हो जानेपर तो वह हमें अरुचिकर हो जाता है और उसे खिलानेका आग्रह भी बुरा मालूम होने लगता है। इसी प्रकार भोगान्तरक्षणमें स्त्री आदि जो अन्य इन्द्रियोंके विषय हैं वे भी नीरस हो जाते हैं।

अत: अब यह विचारना चाहिये कि वस्तुत: सुख कहाँ है? विचारपूर्वक देखनेपर यही निश्चय होता है कि सम्पूर्ण सुखका भण्डार एकमात्र विज्ञानानन्दघन परमात्मा ही है; जहाँ-जहाँ भी सुखकी अनुभूति होती है उसीकी सत्तासे होती है—सम्पूर्ण प्रिय पदार्थोंमें उसीका सुख प्रतिबिम्बित हो रहा है।

एक मनुष्य समुद्रतटपर खड़ा हुआ है। उसके सामने अपार और अगाध जलनिधि उत्ताल तरंगोंमें उछल-कूद मचा रहा है। इतनेमें ही उसकी दृष्टि समुद्रतलमें टिमटिमाती हुई एक मणिपर जाती है। जल किनारेपर भी बहुत गम्भीर है, परन्तु मणि-प्राप्तिका प्रलोभन उसे अधीर कर देता है। वह कपड़े उतारकर सागरमें डुबकी लगाता है; परन्तु बार-बार बहुत गहरे पानीमें जानेपर भी मणि उसके हाथ नहीं आती; वह विफलमनोरथ ही रहता है। परन्तु मणिकी दिपती हुई चमचमाहट उसे बेचैन कर रही है; इसलिये वह बहुत क्लान्त और दु:खी हो जानेपर भी बार-बार डुबकी लगानेसे नहीं हटता। इस प्रकार उसे डूबते-उतराते बहुत समय हो गया।

इतनेमें वहाँ कोई अनुभवी महात्मा स्नान करनेके लिये आते हैं। वे देखते हैं कि एक मनुष्य बार-बार डुबकी लगाता है और हताश चित्तसे निकल आता है। उसकी आकृतिसे वह बहुत ही उद्विग्न और दु:खी जान पड़ता है, मानो किसी वस्तुको पानेके लिये अत्यन्त व्यग्र है और वह उसे मिल नहीं रही है। उन्होंने उसके समीप जाकर पूछा—‘क्यों भाई! तुम किसलिये इतने व्यग्र हो रहे हो और क्यों बार-बार समुद्रमें डुबकी लगाते हो?’ किन्तु वह मनुष्य अपना भेद खोलना नहीं चाहता, क्योंकि उसे यह आशंका है कि कहीं बाबाजी ही उस मणिको न निकाल ले जायँ। अत: वह बातको टाल देता है।

किन्तु इतनेहीमें महात्माजीकी दृष्टि भी उस मणिपर पड़ जाती है। उसे देखकर वे उसकी व्यग्रताका मर्म समझ गये और उससे बोले—‘क्यों भाई! तू इस मणिको लेनेके लिये ही बारंबार डुबकी लगाता है न?’ अब भेद खुला देखकर उसे भी स्वीकार करना ही पड़ा। बाबाजीने कहा—‘तुझे इस प्रकार डुबकी लगाते कितना समय हो गया?’

उसने कहा—बहुत समय हो गया।

बाबाजी—तुमने कितनी डुबकियाँ लगायीं होंगी?

मनुष्य—कुछ गिनती ही नहीं, मैं तो आया तबसे गोते ही लगा रहा हूँ।

बाबाजी—कुछ हाथ भी लगा?

मनुष्य—कुछ नहीं।

बाबाजी—तो फिर क्यों डुबकी लगा रहा है?

मनुष्य—इसीलिये कि डुबकी लगाते-लगाते कभी तो मणि मिल ही जायगी।

बाबाजी—भाई! इसी प्रकार तू सारी आयु भी गोते लगाता रहे तो भी तुझे यह मणि नहीं मिल सकती।

मनुष्य—क्यों?

बाबाजी—तुझे जो मणि दिखायी दे रही है वह वस्तुत: वहाँ है ही नहीं।

मनुष्य—यह आप कैसी बात कह रहे हैं, वह तो प्रत्यक्ष दिखायी दे रही है।

बाबाजी—(हँसकर) अच्छा कुछ देर ठहर, तुझे अभी सारा भेद ज्ञात हो जायगा। इसपर वह मनुष्य रुक गया। थोड़ी देरमें जब जल ठहर गया तो बाबाजीने कहा—क्यों भाई! जहाँ तुझे मणि दिखायी देती है वहाँ कुछ और भी है क्या?

मनुष्य—हाँ, एक वृक्ष तो दिखायी देता है।

बाबाजी—तो क्या वस्तुत: वह वहाँ है। और यदि है तो इतनी बार डुबकी लगानेपर क्या तेरे हाथ उसकी कोई डाली भी आयी?

मनुष्य—नहीं, डाली या पत्ता आदि तो कुछ भी हाथ नहीं लगा, परन्तु यदि वह वहाँ नहीं है तो फिर कहाँ है?

बाबाजी—अरे, यदि वहाँ वृक्ष होता तो तेरे हाथ अवश्य उसका कोई पत्ता तो लगता ही। वस्तुत: वहाँ कोई वृक्ष है नहीं। देख, यह किनारेका वृक्ष। यही जलमें प्रतिबिम्बित हो रहा है। ऐसा कहकर बाबाजीने किनारेके उस वृक्षकी एक टहनी हिलायी। उसके हिलनेसे जलमें प्रतिबिम्बित वृक्षकी टहनी भी हिलती देखकर वह मनुष्य सहम गया और उसने महात्माजीसे कहा—आपका कथन ठीक है, वस्तुत: यह इस वृक्षकी ही परछाईं है। कृपया अब इस मणिके मिलनेका उपाय भी बतलाइये।

बाबाजी—यदि तुझे यह मणि प्राप्त करनी है तो तू इस वृक्षपर चढ़कर देख। प्रतिबिम्बमें जहाँ मणिकी प्रतीति होती है उसीकी बिम्बभूत डालीपर तुझे यह रत्न मिल सकता है।

तब उस मनुष्यने वृक्षपर चढ़कर देखा तो उसे वह अनुपम लाल उसकी सबसे ऊँची टहनीपर पड़ा मिला। वह लालको पाकर निहाल हो गया और महात्माजीके प्रति कृतज्ञता प्रकाशित करने लगा।

यह संसार ही समुद्र है, विषय ही उसमें जल है, विषयसुख ही मणिकी परछाईं है, जीव ही डुबकी लगानेवाला मनुष्य है, बार-बार जन्मना-मरना ही डुबकी लगाना है, सद्गुरु ही महात्माजी हैं, दृढ़ वैराग्य ही किनारेका वृक्ष है, साधन उस वृक्षपर चढ़ना है और परमानन्दरूप परमात्माका स्वरूप ही उसपर स्थित सच्ची मणि है।

इस प्रकार जलमें मणिकी परछाईंकी भाँति तुम्हें यहाँ विषयोंमें जो आनन्द प्रतीत होता है, वह उस विज्ञानानन्दघन परमात्माका ही प्रतिबिम्ब है। यदि उसे पानेकी इच्छा है तो इस संसार-समुद्रमें प्रतीत होनेवाले विषयोंकी आपातरमणीयतासे आकृष्ट न होकर किसी सद्गुरुके बतलाये हुए दृढ़ वैराग्यरूप वृक्षपर चढ़कर उसे ढूँढ़ो। तभी तुम्हें उस विशुद्ध परमानन्दकी प्राप्ति हो सकती है।

एक मनुष्य किसी कुटियामें बैठा हुआ है। प्रात:कालका समय है। उस कमरेके बाहर वह देखता है कि प्रात:कालीन मन्द-मन्द घाम फैल गया है। इससे वह निश्चय कर लेता है कि सूर्योदय हो गया। यद्यपि इस समय सूर्य उसके सामने नहीं है, तो भी उस घामसे ही उसकी सत्ताका निश्चय हो जानेमें कोई त्रुटि नहीं रहती। प्रकाश तो उसकी कुटियामें भी है परन्तु वह सूर्यसे सीधा न आकर उस घामसे ही प्रतिफलित हो रहा है। इस प्रकार सूर्य न दीखनेपर भी वह उसीके प्रकाशसे प्रकाशित हो रहा है। यदि किसी प्रकार उस कुटियाके छप्परको हटा दिया जाय तो वह वहाँ बैठे-बैठे ही सूर्यका दर्शन कर सकता है। इसी प्रकार परमात्मा भी अविद्याके कारण हमसे छिपा हुआ है। उस परमानन्दका प्रकाशरूप जो सात्त्विक आनन्द है, उसीकी आभा इन विषयोंमें पड़ी हुई है और उसीके कारण ये सुखमय जान पड़ते हैं। यदि किसी प्रकार वह अविद्याका पर्दा हटा दिया जाय तो हमें उस आनन्दघनका स्फुट साक्षात्कार हो सकता है। परन्तु इस विषयानन्दसे भी तो उस परमानन्दघनका निश्चय हो जानेमें कोई बाधा नहीं रहनी चाहिये। जब हम स्पष्ट ही सर्वत्र अल्प सुखका अनुभव करते हैं, तो उसके अधिष्ठानभूत पूर्णानन्दघन परमात्माकी सत्ता निश्चय ही सिद्ध होती है। इसमें अविश्वास या अश्रद्धाके लिये तनिक भी अवकाश नहीं है।

परन्तु इस विषयानन्दकी अपेक्षा भगवान् में कितना अधिक आनन्द है, इसका परिचय उसी प्रकार नहीं कराया जा सकता, जिस प्रकार कि खद्योतोंके समूहसे सूर्यका। मानवबुद्धि उसका आकलन करनेमें सर्वथा असमर्थ है। भगवदानन्दकी बात तो दूर रही, विषयासक्त पुरुषोंके लिये तो शुद्ध सात्त्विक आनन्द भी अत्यन्त दुर्लभ है। प्रभुके परमानन्दको समझानेके लिये एक दृष्टान्तपर ध्यान देना चाहिये। एक दर्पण है। उसमें सूर्यका प्रतिबिम्ब दिखायी देता है और उस सूर्यप्रतिबिम्बयुक्त दर्पणका चिलका दीवारपर पड़ रहा है, तथा उस चिलकेकी आभासे ही वह दीवार भी प्रकाशित हो रही है। इस प्रकार दीवारपर जो सामान्य प्रकाश है वह सूर्यप्रकाशके प्रतिबिम्बके प्रकाशका भी आभास है। इसी प्रकार विषयानन्द भी भगवान् के परमानन्दके प्रतिबिम्बके प्रकाशकी केवल आभामात्र ही है। विषयानन्द दीवारपर पड़े हुए सामान्य प्रकाशके समान है, दीवारपर पड़ा हुआ चिलका सात्त्विक आनन्द है। दर्पणप्रतिबिम्बित सूर्य अथवा घाम मानो सात्त्विक आनन्दका पुंज है और भगवान् साक्षात् सूर्यदेव हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि विषयानन्दकी अपेक्षा प्रभुका परमानन्द असंख्य कोटि गुना अधिक बतलाया जाय तो भी उसकी उपमा नहीं बनती।

थोड़ी-सी विचार-दृष्टिसे देखा जाय तो विषयोंकी असारता, अस्थिरता और तुच्छता स्पष्ट प्रतीत होती है। देखिये, आकाशमें उड़नेवाला वायुयान जब पृथ्वीपर होता है तो पचीस-तीस फुट लंबा होता है। आकाशमें उड़ते समय वह प्राय: चार-पाँच फुटका दिखायी देता है, और भी ऊँचा चढ़ जानेपर केवल एक पक्षीके समान दिखायी देता है, यदि और दूर चला जाय तो दिखलायी भी नहीं देगा। इसी प्रकार यह देखा जाता है कि संसारमें प्रत्येक वस्तु अवस्थाभेदसे भिन्न-भिन्न रूपसे दिखायी देती है, और अवस्था क्षणिक है। क्षण-क्षणमें प्रत्येक पदार्थका भी क्षय हो रहा है। अभी एक सुगन्धित पुष्प तोड़ा गया है। वह घ्राणेन्द्रियको बड़ा ही प्रिय जान पड़ता है, परन्तु दो-चार बार सूँघनेपर वह उत्तरोत्तर अप्रिय होता जाता है। फिर वह सूखकर किसी कामका नहीं रह जाता और अन्तमें नष्ट हो जाता है। इस प्रकार जब कि देश और कालके भेदसे प्रत्येक पदार्थ भिन्न-भिन्न प्रकारका प्रतीत होता है और प्रतिपल क्षय होता है तो उसे सत्य कैसे माना जा सकता है? सत्य तो वही वस्तु मानी जा सकती है जो सदा-सर्वदा एकरस रहे और जिसमें कभी कोई विकार-व्यभिचार न होता हो। स्थानभेद अथवा कालभेदके कारण कुछ-की-कुछ प्रतीत होनेवाली वस्तुएँ सत्य नहीं मानी जा सकतीं। जो सत्य है उसका कभी अभाव नहीं होता और जिसका अभाव या क्षय होता है, वह सत्य नहीं हो सकता। भगवान् ने भी कहा है—

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥
(गीता २। १६)

अर्थात् ‘असत् वस्तुका तो अस्तित्व नहीं है, और सत्का अभाव नहीं है, इस प्रकार ज्ञानी पुरुषोंद्वारा इन दोनोंका ही तत्त्व देखा गया है।’

किसी न्यायाधीशके यहाँ एक अभियोग उपस्थित होता है। उसकी पुष्टिके लिये वादी पाँच गवाह उपस्थित करता है। उसका दावा है कि अमुक व्यक्तिको मैंने दस हजार रुपये दिये थे, जिन्हें वह अन्यायपूर्वक दबाना चाहता है। न्यायाधीश पूछता है—इसमें कोई गवाह भी है?

वादी—जी हाँ, अमुक-अमुक पाँच व्यक्ति गवाह हैं, मैंने उनकी उपस्थितिमें उसे दस सहस्र रुपये दिये थे। इनमेंसे एक तो मेरे गिने रुपयोंको दुबारा गिन-गिनकर उसे दे रहा था।

न्यायाधीश—तुमने रुपये दिये थे या नोट?

वादी—रुपये।

न्यायाधीश—कहाँपर दिये थे?

वादी—अमरूदों और फूलोंके बगीचेमें।

न्यायाधीश—किस समय दिये थे?

वादी—दोपहरके समय।

इसके पश्चात् उसे हटाकर न्यायाधीश एक-एक गवाहको बुलाकर पूछने लगा। उसने पहले गवाहसे पूछा—क्या इस मनुष्यने तुम्हारे सामने अमुक मनुष्यको कुछ रुपये दिये थे?

पहला गवाह—जी हाँ, आठ हजार रुपये दिये थे।

न्यायाधीश—उस समय और भी कोई था?

पहला गवाह—जी हाँ, तीन आदमी और थे।

न्यायाधीश—वह दिनका कौन समय था?

पहला गवाह—प्रात:काल था।

न्यायाधीश—ठीक है, अच्छा जाओ।

फिर दूसरे गवाहको बुलाकर पूछा—इस आदमीने अमुक मनुष्यको कितने रुपये दिये थे?

दूसरा गवाह—दस हजार।

न्यायाधीश—वह दिनका कौन-सा समय था?

दूसरा गवाह—सायंकालका समय सुना गया था।

न्यायाधीश—ठीक है, अच्छा जाओ।

फिर तीसरे गवाहसे पूछा।

न्यायाधीश—इस आदमीने अमुक मनुष्यको कितने रुपये दिये थे?

तीसरा गवाह—बारह हजार।

न्यायाधीश—तुमने स्वयं देखा था?

तीसरा गवाह—देखा क्या! मैंने दुबारा गिन-गिनकर दिये थे।

न्यायाधीश—वह कौन-सा समय था?

तीसरा गवाह—रातको भोजनके बाद।

न्यायाधीश—अच्छा जाओ।

इसी प्रकार चौथे और पाँचवें गवाहको भी बुलाकर पूछा गया। एकने कहा—मैं बगीचेमें बड़े तड़के फूल लेने जाया करता हूँ, मैंने रुपये देते नहीं देखा। दूसरेने कहा—मैं तो वहाँ जाकर अमरूद खाया करता हूँ, रुपयोंकी बात मैं नहीं जानता। इस तरह सबकी अव्यवस्थित और विषम बातें सुनकर न्यायाधीशने अभियोगको मिथ्या ठहराकर खारिज कर दिया। जब वादीने आकर अनुनय-विनय की और अभियोग खारिज करनेका कारण पूछा तो न्यायाधीशने कहा—तुम्हारा एक गवाह कहता है कि आठ हजार रुपये दिये गये थे।

वादी—जी सरकार, आठ हजार ही थे, मैंने भूलसे दस हजारकी नालिश की थी।

न्यायाधीश—दूसरा बारह हजार कहता है।

वादी—हुजूर! उसे याद नहीं रहा होगा।

न्यायाधीश—गवाह कहते हैं रुपये नहीं, नोट दिये गये थे।

वादी—जी हाँ, नोट ही दिये गये थे।

न्यायाधीश—गवाह कहता है, उस समय हम दो ही व्यक्ति थे।

वादी—जी!

न्यायाधीश—वह प्रात:कालका समय बतलाता है।

वादी—जी हुजूर, प्रात:काल ही था। मैं कहनेमें भूल गया।

इस प्रकार अपनी बातोंका ही खण्डन करते देख न्यायाधीशको निश्चय हो गया कि यह आदमी झूठा है और इसका अभियोग एक जाल ही है। इसी तरह इन विषयोंको ग्रहण करनेवाली—इनकी साक्षी हमारे पास पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इनमेंसे किसी भी एकका अनुभव दूसरीसे नहीं मिलता। कर्ण केवल शब्द ही ग्रहण करता है, घ्राणेन्द्रिय केवल गन्धका साक्षी है, रसना केवल रस बतला सकती है, त्वचा केवल स्पर्श ही जान सकती है और नेत्रोंसे बस रूपका ही ज्ञान होता है। इस प्रकार जब सभी गवाहोंका अनुभव एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्न है, तो उनमेंसे किसीकी भी बातको प्रामाणिक कैसे मान सकते हैं?

इस तरह जो विषय न सबको एक-से दीखते हैं, न सबको उसमें एक-सा सुख-दु:ख होता है, जो पल-पलमें बदलते रहते हैं, अभी हैं, दूसरे ही क्षणमें नष्ट हो जाते हैं, ऐसे विषयोंको सत् मानकर उनमें आसक्त होना मूर्खताके सिवा और क्या है?

अतएव विषयोंकी असारता, अस्थिरता और दु:खरूपतासे उनकी असत्ताका निश्चयकर एकमात्र परमात्माको ही सर्वाधिष्ठान, पूर्णानन्दघन और सत्पदार्थ समझकर श्रद्धा, भक्ति और वैराग्यपूर्वक निरन्तर उन्हींका भजन-चिन्तन करना चाहिये, उन्हींके भक्तोंका सहवास करना चाहिये और एकमात्र उन्हींकी कृपामें दृढ़ विश्वास रखना चाहिये। इससे अविद्या, आसक्ति आदि सब प्रकारके क्लेशोंका एवं पाप और सम्पूर्ण दु:खोंका सर्वथा अभाव होकर सदाके लिये परम शान्ति एवं परमानन्दकी प्राप्ति हो सकती है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur