Seeker of Truth

विद्या, अविद्या और सम्भूति, असम्भूतिका तत्त्व

ईशोपनिषद् यजुर्वेदमन्त्रसंहिताका ४०वाँ अध्याय है। वेदका आशय बहुत ही गहन है। हरेक मनुष्य वेदका तत्त्व नहीं समझ सकता। कोई महापुरुष ही ऐसे गूढ़ विषयोंका तात्पर्य बता सकते हैं। मेरा न तो वेदका तत्त्व बतानेका अधिकार है और न ऐसी योग्यता ही है तथापि प्रेमी भाइयोंकी प्रेरणासे अपनी साधारण बुद्धिके अनुसार जैसा समझमें आया, लिखा जाता है।

विद्या, अविद्या और सम्भूति, असम्भूतिका अर्थ विद्वानोंने अनेक प्रकारसे किया है। परन्तु मन्त्रोंमें जो इनके ज्ञानसे महान् फल बतलाया है, वह फल किस प्रकारकी उपासनासे मिल सकता है, इसका ठीक-ठीक निर्णय समझमें नहीं आता, अत: इसका विवेचन करके समझनेकी आवश्यकता है; सुतरां पहले विद्या और अविद्याके अर्थपर विचार किया जाता है।

मेरी समझमें यहाँ विद्याका अर्थ ब्रह्मविद्या और अविद्याका अर्थ यज्ञ, दान, तप आदि कर्मोंका करना तथा स्ववर्णोचित स्वाभाविक कर्मोंका करना, इस प्रकार मानना ठीक है२ क्योंकि यहाँपर विद्या और अविद्याके तत्त्वको न समझनेवालेकी निन्दा करके, इन दोनोंके तत्त्वको समझनेवालेकी प्रशंसा की गयी है और इनका तत्त्व समझनेका फल मृत्युसे तरकर अमृतत्वकी प्राप्ति बतलायी गयी है और ऐसा फल उपर्युक्त अर्थ माननेसे ही हो सकता है।

२-शास्त्रनिषिद्ध चोरी, व्यभिचार और मिथ्याभाषणादि पापकर्म भी अविद्या ही है पर इनकी उपासना नहीं बन सकती, अत: इनकी गणना उनके साथ नहीं की गयी है।

कोई-कोई विद्वान् यहाँ विद्यामें रत रहनेका अर्थ देवोंकी उपासना मानते हैं, किन्तु यह अर्थ युक्तिसंगत समझमें नहीं आता। क्योंकि यज्ञ, दान, तप आदि कर्मोंकी अपेक्षा, देवोपासनाका फल नीचा बतलाना यानी देवोपासना करनेवाला, उनसे भी बढ़कर घोर अन्धकारमें प्रवेश करता है, यह कहना नहीं बन सकता; क्योंकि स्वर्गादिकी प्राप्तिको अन्धकारमें प्रवेश करना मान लेनेसे, उससे बढ़कर घोर अन्धकार शूकर-कूकर आदि तिर्यक्-योनियोंकी या रौरवादि नरकोंकी प्राप्तिको ही मानना पड़ेगा, सो देवोपासनाका ऐसा फल मानना युक्तिसंगत या शास्त्रसंगत नहीं प्रतीत होता।

अतएव यहाँ ‘विद्यामें रत होनेका’ अभिप्राय ब्रह्मविद्याका केवल अभिमानमात्र करना समझना चाहिये, क्योंकि यहाँपर यथार्थ न समझकर रत होनेवालेकी निन्दा की गयी है, उपासना करनेवालेकी नहीं। इसलिये जो मनुष्य विवेक, वैराग्य और उपरामतादिसे रहित हैं, वास्तवमें जिनका देहाभिमान नष्ट नहीं हुआ है, केवल शास्त्रोंके अभ्याससे ब्रह्मविद्याकी बातें पढ़-सुनकर अपनेको ज्ञानी मानने लग जाते हैं तथा ऐसे ज्ञानाभिमानमें रत रहनेके कारण स्ववर्णाश्रमोचित शास्त्रविहित कर्मोंकी अवहेलना करके स्वेच्छाचारी हो जाते हैं, उनको यहाँ विद्यामें रत बतलाया है। अतएव उनके लिये घोर नरकोंकी प्राप्ति बतलाना उचित ही है। गोस्वामीजीने भी कहा है कि—

ब्रह्मग्यान जान्यो नहीं, कर्म दिये छिटकाय।
तुलसी ऐसी आतमा, सहज नरकमें जाय॥

इसी तरह स्वामी शंकराचार्यजीने भी कहा है—

कुशला ब्रह्मवार्तायां वृत्तिहीना: सुरागिण:।
ते ह्यज्ञानितमा नूनं पुनरायान्ति यान्ति च॥
(अपरोक्षानुभूति १३३)

‘जो ब्रह्मवार्तामें कुशल हैं किन्तु ब्राह्मी वृत्तिसे रहित और रागयुक्त हैं, निश्चय ही वे अत्यन्त अज्ञानी हैं और बारम्बार जन्मते-मरते रहते हैं।’

जो इस प्रकारके विपरीत ज्ञानसे अपनेको ज्ञानी समझते हैं, वे मनुष्य इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थोंमें बर्तती हैं, गुण ही गुणोंमें बर्त रहे हैं, काम-क्रोधादि दुर्गुण अन्त:करणके धर्म हैं, इनका अन्त:करणमें रहना अनिवायर् है, इत्यादि बहाना करके सदा भोगोंके भोगनेमें फँसे रहते हैं और ईश्वरको तथा शास्त्रोंको एवं धर्म-अधर्मको कल्पित समझकर, विहित कर्मोंका त्याग कर बैठते हैं, निषिद्ध कर्मोंसे निर्भय हो जाते हैं, फिर ऐसे मिथ्याज्ञानियोंको घोर नरककी प्राप्ति हो, इसमें कहना ही क्या है?

यहाँ विद्यामें रत होनेका फल घोर अन्धकारकी प्राप्ति बतलाया जानेके कारण, पहले-पहल साधारण दृष्टिसे यह शंका होती है कि यदि विद्याका तात्पर्य ब्रह्मविद्या होता तो उसका ऐसा उलटा फल कैसे बतलाया जाता, परन्तु मन्त्रोंकी उक्तिपर विशेष लक्ष्य करनेसे इस प्रकारकी शंकाको स्थान नहीं रहता। क्योंकि मन्त्रमें विद्याकी उपासनाका फल घोर अन्धकारकी प्राप्ति नहीं बताया गया है, उसका फल तो परब्रह्मकी प्राप्ति है। किन्तु जो विद्याके तत्त्वको न जाननेके कारण उसकी उपासना नहीं करके केवल विद्याके अभिमानमें रत हैं यानी सत्यासत्यके विवेकपूर्वक अनात्म-वस्तुओंसे सर्वथा विरक्त होना और तत्त्वज्ञानके अर्थका निरन्तर चिन्तन करना आदि साधनोंकी चेष्टा न करके, शरीरमें अहंता, ममता और आसक्ति रहते हुए ही केवल ब्रह्मविद्याका अभिमानमात्र करके, अपनेको पण्डित और ज्ञानी मान बैठते हैं, उनके लिये घोर अन्धकारकी प्राप्ति बतायी गयी है।

अविद्या अज्ञानका नाम है। अत: अज्ञानके कार्यरूप यज्ञ, दान, तप आदि शास्त्रविहित कर्मोंके अनुष्ठानको यहाँ अविद्याकी उपासना बतलायी गयी है।

एकादश मन्त्रमें, विद्या और अविद्याको एक साथ जाननेके लिये कहा गया है, इससे यह शंका उपस्थित होती है कि यदि विद्याका अर्थ ब्रह्मविद्या और अविद्याका अर्थ यज्ञादि कर्म मान लिया जाय तो दोनोंका समुच्चय यानी एक साथ उपासना कैसे हो सकेगी। क्योंकि यज्ञ, दान और तप आदि कर्मोंका अनुष्ठान करते समय साधककी ईश्वरमें और अपनेमें एवं कर्म और कारकादिमें भेददृष्टि रहती है तथा विद्याकी उपासनामें यानी ब्रह्म-विचाररूप ज्ञानाभ्यासमें अभेददृष्टि होती है, अत: दोनोंकी उपासना एक साथ नहीं हो सकती। सो ठीक है, यहाँ यह कहना भी नहीं है, यहाँ तो दोनोंका तत्त्व एक साथ समझनेवालेकी प्रशंसा की है।

यहाँ दसवें मन्त्रमें केवल संकेतमात्रसे ही दोनोंका फल बताया है, उसका स्पष्टीकरण नहीं किया—इससे इस प्रकरणका तात्पर्य समझनेमें बहुत कठिनता पड़ जाती है। शास्त्रका तात्पर्य समझकर उपासना करनेसे विद्या और अविद्या अर्थात् ज्ञान और कर्मानुष्ठानका दूसरा ही फल होता है। विचार करनेसे मालूम होता है कि यज्ञ, दान, तप आदि कर्मोंका और स्ववर्णाश्रमोचित स्वाभाविक कर्मोंका,जो सकामभावसे अनुष्ठान करना है, यह तो वास्तविक अर्थ बिना समझे अविद्याकी उपासना करना है। अत: इसका फल स्वर्गादिकी प्राप्तिरूप अन्धतमकी प्राप्ति बतायी गयी है पर इन्हीं कर्मोंका जो अभिमान, राग, द्वेष और फलकामना छोड़कर अनुष्ठान करना है, यह तात्पर्य समझकर अविद्याकी उपासना करना है, अत: इसका फल उससे दूसरा अर्थात् राग-द्वेष आदि समस्त दुर्गुणोंका और हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मिथ्याभाषणादि दुराचारोंका तथा हर्ष, शोक आदि समस्त विकारोंका सर्वथा अभाव हो जाना बताया गया है।

इसी तरह शास्त्रके तात्पर्यको न समझकर ब्रह्मविद्याका केवल अभिमानमात्र कर लेना उसकी उपासना नहीं है, उसमें अज्ञानपूर्वक रत होना है। इसलिये उसका फल घोर अन्धतमकी प्राप्ति बतायी गयी है। किन्तु नित्यानित्य वस्तुके विवेकसे क्षणभंगुर, नाशवान्, अनित्य शरीर और संसार आदि दृश्य पदार्थोंसे और सम्पूर्ण क्रियाओंसे विरक्त होकर उपराम होना एवं निरन्तर केवल नित्यविज्ञानानन्दघन ब्रह्मके ध्यानमें अभेद-भावसे स्थित होना, यह शास्त्रोंके तात्पर्यको समझकर विद्याकी उपासना करना है। अत: इसका फल उससे दूसरा अर्थात् तत्त्वज्ञानपूर्वक परब्रह्मकी प्राप्ति बतायी गयी है।

इस प्रकार मन्त्रोंके प्रत्येक अक्षरपर ध्यान देकर अर्थका विचार करनेसे किसी प्रकारकी शंका नहीं रह जाती, इस विवेचनके अनुसार मन्त्रोंका अर्थ इस प्रकार मानना चाहिये—

अन्धन्तम: प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाॸरता:॥
(ईश० ९)

‘जो मनुष्य अविद्याकी उपासना करते हैं अर्थात् सकामभावसे यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्म और स्वाभाविक कर्मोंका आचरण करते हैं, वे अज्ञानरूप अन्धकारमें प्रवेश करते हैं यानी इस लोकमें और स्वर्गादि परलोकमें भोगोंको भोगते हैं।’

* सम्पूर्ण संसार मायामय अनित्य होनेके कारण वास्तवमें समस्त भोग अन्धकाररूप ही है, इसलिये स्वर्गादिको अन्धतम बतलाया गया है।

और जो विद्यामें रत हैं अर्थात् जो शास्त्रोंको पढ़-सुनकर ब्रह्मविद्यामें अभिमान करके अपनेको धीर और पण्डित, ज्ञानी मानते हैं (किन्तु वास्तवमें ज्ञानी नहीं हैं) वे मानो उस सकाम कर्म करनेवालेसे भी बढ़कर घोर अन्धकारमें ही प्रविष्ट होते हैं यानी पशु-पक्षी, कीट-पतंगादि योनियोंको या रौरवादि घोर नरकोंको प्राप्त होते हैं।

अन्यदेवाहुर्विद्ययान्यदाहुरविद्यया ।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद् विचचक्षिरे॥
(ईश० १०)

शास्त्रके तात्पर्यको समझकर विद्याकी उपासना करनेसे दूसरा ही फल बताया है अर्थात् नित्यानित्यवस्तुके विवेकपूर्वक क्षणभंगुर,नाशवान्, अनित्य शरीर और स्त्री-पुत्र-धनादि सम्पूर्ण दृश्यमात्रसे विरक्त होकर, केवल एक नित्यविज्ञानानन्दघन ब्रह्मके ध्यानमें अभेद-भावसे स्थित रहनेसे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होकर, परब्रह्म परमात्माकी प्राप्तिरूप फल बताया है। तथा अविद्यासे दूसरा ही फल बताया है अर्थात्कर्तृत्वाभिमान, राग-द्वेष और फल-कामना छोड़कर शास्त्रविहित यज्ञ, दान, तपादिका और स्ववर्णाश्रमोचित स्वाभाविक कर्मोंका अनुष्ठान करनेसे उसका फल राग-द्वेष आदि समस्त दुर्गुणोंका और हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मिथ्याभाषणादि दुराचारोंका एवं हर्ष-शोकादि विकारोंका सर्वथा अभाव होकर संसारसे पार होना बताया है, इस प्रकार हमने उन पुरुषोंके वचनोंसे सुना है जिन धीर महापुरुषोंने हमें इस विषयकी शिक्षा दी थी।

अब विद्या और अविद्या—इन दोनोंके तत्त्वको एक साथ समझनेका फल बताते हैं—

विद्यां चाविद्यां च यस्तद् वेदोभय्ँसह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते॥
(ईश० ११)

जो मनुष्य विद्या और अविद्याके तत्त्वको एक साथ भली प्रकार समझ लेता है अर्थात् ब्रह्मविद्याद्वारा बताये हुए विज्ञानानन्दघन ब्रह्मके तत्त्वको भली प्रकार समझ लेता है तथा मन, वाणी और शरीरद्वारा होनेवाले समस्त शास्त्रविहित कर्मोंमें फल, अभिमान तथा राग-द्वेष आदिको त्यागनेसे दुर्गुण, दुराचार एवं समस्त विकारोंका अभाव होकर अन्त:करण पवित्र हो जाता है, इस रहस्यको भी भली प्रकार समझ लेता है; वह—इस प्रकार समझनेवाला मनुष्य, अविद्या अर्थात् कर्मोंके रहस्यज्ञानसे, मृत्युको तरकर यानी पुनर्जन्मरूप संसारसे पार होकर, विद्यासे अर्थात् ज्ञानसे अमृतत्वको प्राप्त होता है यानी अविनाशी परमात्माके स्वरूपमें लीन हो जाता है।

इस प्रकार इन मन्त्रोंका अर्थ मान लेनेसे सब प्रकारकी शंकाओंका समाधान हो जाता है और श्रुतिका महत्त्वपूर्ण विशाल आशय प्रतीत होने लगता है।

इसी प्रकार अब सम्भूति और असम्भूतिके अर्थपर भी विचार किया जाता है।

मेरी समझमें सम्भूतिका अर्थ नित्य, अविनाशी, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् परमेश्वर है, जिससे इस सारे विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होता है। और असम्भूतिका अर्थ विनाशशील देव आदिके नाना भेदोंको मानना ठीक है। क्योंकि सम्भूति शब्द सम्पूर्वक ‘भू’ धातुका रूप है, ‘भू’ धातुका अर्थ सत्ता है, अत: जिसकी सत्ता सम्यक्रूपसे हो, जिसका कभी किसी अवस्थामें भी नाश न हो सके, जो उत्पत्ति, विनाशादि समस्त विकारोंसे रहित हो; ऐसा परब्रह्म परमेश्वर ही सम्भूतिका वाच्यार्थ हो सकता है। उससे अतिरिक्त अन्य देव आदिके नाना भेद प्रकृतिजनित विनाशशील होनेके कारण, उन सबको असम्भूतिका वाच्यार्थ समझा जा सकता है।

इसके सिवा सम्भूतिके ज्ञानसे अमृतत्वकी प्राप्तिरूप फल बतलाया गया है। इससे भी सम्भूतिका अर्थ परमेश्वरको मानना ही ठीक प्रतीत होता है।

कोई-कोई विद्वान् यहाँ असम्भूतिका अर्थ अव्याकृत प्रकृति और सम्भूतिका अर्थ हिरण्यगर्भ—कार्यब्रह्म मानते हैं। किन्तु इस प्रकार मानना युक्तिसंगत नहीं मालूम होता। क्योंकि हिरण्यगर्भकी उपासनाका फल, घोर अन्धकाररूप कीट-पतंगादि योनियोंकी प्राप्ति या रौरव आदि नरकोंकी प्राप्तिरूप नहीं हो सकता। और दोनोंकी समुचित उपासनाका जो विशेष फल उन्होंने बतलाया है, वह भी मन्त्रके शब्दोंके अनुकूल महत्त्वपूर्ण नहीं जान पड़ता, इसके सिवा ऐसा अर्थ माननेके लिये उनको अक्षरार्थमें भी बहुत क्लिष्ट कल्पना करनी पड़ती है। अर्थात् ‘विनाश’ शब्दको ‘सम्भूति’ का पर्याय माननेके लिये चतुर्दश मन्त्रमें, सम्भूति शब्दके साथ दो जगह अकारका अध्याहार करना पड़ा है। परन्तु विद्या, अविद्याके प्रसंगका क्रम देखते हुए ‘विनाश’ शब्द असम्भूतिका ही पर्याय माना जाना उचित है। एवं प्रत्येककी अलग-अलग उपासनाका बुरा फल बताते हुए, अव्याकृतकी उपासनाका फल उसके अनुरूप अदर्शनात्मक तमकी प्राप्ति बतलाया है और दोनोंकी समुचित उपासनाका विशिष्ट फल बतलाते हुए भी, अव्याकृत प्रकृतिकी उपासनाका फल अमृतत्वके अर्थमें उस प्रकृतिमें लीन होना बतलाया है; सो विचार करनेसे मालूम होता है कि अव्याकृत प्रकृति स्वयं अदर्शनात्मक है, अत: उसमें लीन होना भी तो अदर्शनात्मक तममें ही लीन होना है, फिर अलग-अलग फल क्या हुआ? इसके सिवा उन विद्वानोंने यह भी नहीं बतलाया कि शास्त्रोंमें ऐसी उपासनाका कहाँ विधान है? इत्यादि कारणोंसे उनका बतलाया हुआ अर्थ ठीक समझमें नहीं आता।

मन्त्रके अक्षरोंपर ध्यान देकर विचार करनेसे प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि बारहवें मन्त्रके पूर्वार्द्धमें असम्भूतिकी ‘उपासना’ का फल बतलाया है, किन्तु उत्तरार्द्धमें सम्भूतिकी ‘उपासना’ का फल नहीं बतलाया है, केवल उसमें अज्ञानपूर्वक ‘रत’ होनेका यानी सम्भूतिमें स्थित होनेके मिथ्या अभिमानका फल बतलाया है। उसके बाद तेरहवें मन्त्रमें विद्या और अविद्याकी भाँति ही उपासनाके तात्पर्यको समझकर, सम्भूति और असम्भूतिकी उपासना करनेसे जो विशिष्ट फल मिलता है उसका लक्ष्य कराया है, फिर चौदहवें मन्त्रमें दोनोंके तत्त्वको एक साथ समझनेका फल बतलाया है।

श्रुतिका भाव ऐसा प्रतीत होता है कि जो मनुष्य शास्त्रोक्त विधिके अनुसार देव आदिकी सकामभावसे उपासना करते हैं वे अज्ञानरूप अन्धकारमें प्रवेश करते हैं। अर्थात् उन-उन देवके लोकों या योनियोंको प्राप्त होते हैं!

श्रीमद्भगवद्गीतामें भी भगवान् ने कहा है—

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया॥
(७। २०)

‘नाना प्रकारकी कामनासे जिनका विवेकज्ञान नष्ट हो गया है, ऐसे (विषयासक्त) सकामी मनुष्य अपनी-अपनी प्रकृतिसे प्रेरित होकर, उन नाना देवोंकी उपासनाके (संसारमें प्रचलित) नियमोंको धारण करके, ईश्वरसे भिन्न अन्य देवोंकी पूजा-उपासना करते हैं।’

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥
(गीता ७। २३)

‘परन्तु उन अल्पबुद्धिवालोंका वह फल नाशवान् है तथा वे देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्तमें वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’

यान्ति देवव्रता देवान् पितॄन्यान्ति पितृव्रता:।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥
(गीता ९। २५)

‘देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं, पितरोंको पूजनेवाले पितरोंको या उनकी योनियोंको प्राप्त होते हैं, भूतोंको पूजनेवाले भूतोंको या उनकी योनियोंको प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसीलिये मेरे भक्तोंका पुनर्जन्म नहीं होता है।’

उन-उन देवोंके लोक एवं योनियाँ विनाशशील और मायामय होनेके नाते उनकी प्राप्तिको अन्धकारकी प्राप्ति बतलाया गया है।

उत्तरार्द्धमें कहा गया है कि जो मनुष्य सम्भूतिमें रत है उसे उन असम्भूतिकी उपासना करनेवालोंसे भी बढ़कर घोर अन्धकारकी प्राप्ति अर्थात् शूकर-कूकर, कीट-पतंग आदि तिर्यक्-योनियोंकी और रौरव आदि नरकोंकी प्राप्ति होती है। यहाँ साधारण दृष्टिसे ऐसी शंका हो सकती है कि सम्भूतिका अर्थ यदि अविनाशी परब्रह्म परमेश्वर मान लिया जाय, तब फिर उनकी उपासनाका फल नरकादिकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? किन्तु इसका उत्तर पहले ही बता दिया गया है कि इस मन्त्रके उत्तरार्धमें सम्भूतिकी ‘उपासना’ का फल नहीं बताया गया है पर उसमें ‘रत’ होनेका अर्थात् मिथ्या अभिमान कर लेनेका फल बताया गया है।

जो मनुष्य शास्त्रके तात्पर्यको न समझनेके कारण भगवान् का भजन-ध्यान नहीं करते, जिनका विषय-भोगमें वैराग्य नहीं हुआ है, जो भगवान् को सर्वभूतोंमें व्यापक समझकर भगवद्बुद्धिसे उनको सुख पहुँचानेकी चेष्टा नहीं करते, जो भगवान् के तत्त्व और रहस्यको नहीं समझते, ऐसे विषयासक्त मनुष्य ईश्वरोपासनाका मिथ्याभिमान करके लोगोंसे अपनी पूजा कराने लग जाते हैं। वे इस अभिमानके कारण अन्य देव आदिमें तुच्छ बुद्धि करके, शास्त्रविधिके अनुसार करनेयोग्य, देवपूजनादिका त्याग कर देते हैं। दूसरोंको भी ऐसी ही शिक्षा देकर देवादिकी उपासनामें अश्रद्धा उत्पन्न कर देते हैं। ईश्वरोपासनामें मिथ्याभिमानके कारण स्वयं अपनेको ईश्वरके तुल्य मानकर स्वेच्छाचारी हो जाते हैं और लोगोंसे अपनेको पुजवाने लग जाते हैं; ऐसे पुरुषोंको ही यहाँ घोर अन्धकारकी प्राप्ति बतलायी गयी है।

जो पुरुष शास्त्रके इस तत्त्वको समझता है कि सम्पूर्ण यज्ञ और तपोंका भोक्ता परमेश्वर ही है (गीता ५। २९)। अन्यान्य देवादिमें भी उनकी आत्माके रूपमें भगवान् ही व्याप्त हैं, सब भूत-प्राणियोंकी सेवा, पूजा, सम्मान आदि करना, उस सर्वव्यापी परमदेव परमेश्वरकी ही पूजा है; वह निष्कामभावसे शास्त्राज्ञानुसार, देव आदिकी उपासना प्राप्त होनेपर विधिपूर्वक उनकी उपासना करता है। उसको ऐसी उपासनाका फल बारहवें मन्त्रमें बतायी हुई सकामभावसे की जानेवाली देवादिकी उपासनाकी अपेक्षा विलक्षण मिलता है अर्थात् निष्कामभावसे इस प्रकार की हुई देवादिकी उपासनासे, उसका अन्त:करण बहुत शीघ्र पवित्र हो जाता है, उसके समस्त, दुर्गुण-दुराचार और समस्त दोषोंका नाश हो जाता है।

इसी तरह शास्त्रके तात्पर्यको समझकर जो अक्षर, अविनाशी, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् परमेश्वरकी उपासना करते हैं, जैसे भगवान् ने कहा है कि—

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥
(गीता ८। ८)

‘हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वरके ध्यानके अभ्यासरूप योगसे युक्त दूसरी ओर न जानेवाले चित्तसे निरन्तर चिन्तन करता हुआ पुरुष परम प्रकाशस्वरूप दिव्य पुरुषको अर्थात् परमेश्वरको ही प्राप्त होता है।’

कविं पुराणमनुशासितार
मणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-
मादित्यवर्णं तमस: परस्तात्॥
(गीता ८। ९)

इससे जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता१, सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करनेवाले, अचिन्त्यस्वरूप, सूर्यके सदृश नित्य चेतन प्रकाशरूप, अविद्यासे परे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका स्मरण करता है।’

१-अन्तर्यामीरूपसे सब प्राणियोंके शुभ और अशुभ कर्मके अनुसार शासन करनेवाला।

प्रयाणकाले मनसाचलेन
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥
(गीता ८। १०)

‘वह भक्तियुक्त पुरुष अन्तकालमें भी योगबलसे भृकुटीके मध्यमें प्राणको अच्छी प्रकार स्थापित करके, फिर निश्चल मनसे स्मरण करता हुआ, उस दिव्यस्वरूप परम पुरुष परमात्माको ही प्राप्त होता है।’

पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥
(गीता ८। २२)

हे पार्थ! जिस परमात्माके अन्तर्गत सर्वभूत हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मासे यह सब जगत् परिपूर्ण है, वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्यभक्तिसे ही प्राप्त होनेयोग्य है।’

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥
(गीता ९। १३)

‘तथा हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृतिके आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतोंका सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मनसे युक्त होकर निरन्तर भजते हैं।’

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता:।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥
(गीता ९। १४)

‘वे दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं।’

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
(गीता १०। ९)

‘वे निरन्तर मेरेमें मन लगानेवाले और मेरेमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले२ भक्तजन सदा ही मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं।’

२-मुझ वासुदेवके लिये ही जिन्होंने अपना जीवन अर्पण कर दिया है उनका नाम है ‘मद्गतप्राणा:’।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
(गीता १०। १०)

‘उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ कि जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’

इस प्रकार जो भगवान् के भजन-ध्यानमें निरन्तर लगे रहते हैं, उनको ऐसी उपासनाका दूसरा ही फल मिलता है अर्थात् वे अपने आराध्यदेव अविनाशी परमेश्वरको प्राप्त हो जाते हैं। तथा जो अविनाशी परमेश्वरको और विनाशशील देव आदिको तत्त्वसे समझ लेते हैं, वे उन देवादिके विनाशशील लोक और योनियोंके तत्त्वको समझ लेनेके कारण, उन-उन लोकोंको लाँघकर (अतिक्रमणकर) परमेश्वरको प्राप्त हो जाते हैं।

इस विवेचनके अनुसार सम्भूति और असम्भूति-विषयक तीनों मन्त्रोंका अर्थ इस प्रकार मानना चाहिये।

अन्धं तम: प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याॸरता:॥
(ईश० १२)

जो मनुष्य असम्भूतिकी उपासना करते हैं अर्थात् शास्त्रके तात्पर्यको न समझनेके कारण विनाशशील देव आदिकी सकामभावसे उपासना करते हैं, वे अज्ञानरूप अन्धकारमें प्रवेश करते हैं अर्थात् उन-उन देव आदिके लोकोंको और योनियोंको पाते हैं।*

* ब्रह्मलोकतकके सभी लोक और योनियाँ विनाशशील हैं। अत: वहाँतक जानेवाले जीवोंका भी पुनरागमन होता है (गीता ८। १६) एवं ब्रह्मलोकतक सभी लोक मायामय हैं, इसलिये इन सबकी प्राप्तिको भी अन्धकारमें प्रवेश करना कहा गया है, क्योंकि इनको प्राप्त होना भी अज्ञानरूप संसारको ही प्राप्त होना है।

इनसे अन्य जो सम्भूतिमें रत हैं अर्थात् ईश्वरमें श्रद्धा न होनेके कारण, ईश्वरकी भक्तिका साधन किये बिना ही अपनेको भक्त मानते हैं, वे सकामभावसे देवादिकी उपासना करनेवालोंसे भी बढ़कर घोर अन्धकारमें ही प्रवेश करते हैं अर्थात् शूकर-कूकरादि तिर्यक्-योनियोंको और रौरवादि नरकोंको प्राप्त होते हैं।

अन्यदेवाहु: सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥
(ईश० १३)

सम्भूतिकी उपासनासे यानी नित्य, अविनाशी, सर्वव्यापी, विज्ञानानन्दघन परमेश्वरकी भक्तिसे दूसरा ही फल बताया है अर्थात् उन सम्भूतिमें ‘रत’ होनेवालोंको जो फल मिलता है उससे भिन्न अपने आराध्यदेव परमेश्वरकी प्राप्तिरूप फलका मिलना बताया है और असम्भूतिसे अर्थात् भगवान् की आज्ञा समझकर देवादिकी उपासना शास्त्रोक्त विधिके अनुसार निष्कामभावसे करनेपर उसका दूसरा ही फल बताया है अर्थात् सकामभावसे उपासना करनेवालोंके फलसे भिन्न अन्त:करणकी शुद्धिरूप फल बताया है; इस प्रकार हमने उन धीर तत्त्वज्ञ पुरुषोंके वचनोंसे सुना है, जिन्होंने हमें इस तत्त्वकी शिक्षा दी थी।

सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयॸसह।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते॥
(ईश० १४)

जो मनुष्य सम्भूतिको और विनाशको अर्थात् नित्य, अविनाशी, विज्ञानानन्दघन परमेश्वरको और विनाशशील देवादिको तत्त्वसे जानता है यानी नित्य अविनाशी परमात्मा सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान्, सबका आत्मा और सर्वोत्तम है, इस प्रकार परमेश्वरके निर्गुण-सगुणरूप समग्र तत्त्वको भलीभाँति समझता है एवं सब देवादिकी योनियाँ और इनके सब लोक विनाशशील, क्षणभंगुर हैं, इनमें जो कुछ शक्ति है वह भी भगवान् की ही है, इस प्रकार उन देवादिके तत्त्वको समझता है, वह उन विनाशशील देवादिके तत्त्वको समझनेके कारण मृत्युको लाँघकर अर्थात् विनाशशील मृत्युरूप उन-उन लोकोंमें आसक्त न होता हुआ यानी उनमें न अटककर, सम्भूतिके तत्त्वज्ञानसे अर्थात् अविनाशी, नित्य विज्ञानानन्दघन परमेश्वरके समग्र स्वरूपको भलीभाँति समझनेसे अमृतको यानी अमृतस्वरूप परमेश्वरको प्राप्त हो जाता है।

इस प्रकार इन मन्त्रोंका अर्थ मान लेनेसे सब प्रकारकी शंकाओंका समाधान हो जाता है और श्रुतिका महत्त्वपूर्ण आशय झलकने लगताहै।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur