वाल्मीकीय रामायणकी महिमा
श्रीसूतजीका वचन है—
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्।
बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति॥
(पद्म०, सृष्टि० २। ५१-५२)
‘इतिहास एवं पुराणोंके अध्ययनसे वेदोंका ज्ञान बढ़ाना चाहिये—परिष्कृत करना चाहिये। जो कोई मनुष्य इतिहास-पुराणोंका ज्ञान प्राप्त किये बिना ही वेदोंमें हाथ डालता है, उससे वेद डरते हैं कि कहीं यह हमपर प्रहार न कर बैठे—अर्थका अनर्थ न कर डाले।’
प्रथम तो वेदोंके अध्ययनका अधिकार ही सबको नहीं है। फिर वेदोंकी भाषा अत्यन्त प्राचीन तथा अर्थ अत्यन्त गम्भीर एवं दुरूह होनेके कारण उसे सब लोग सुगमतासे समझ नहीं सकते। युग-धर्मके अनुसार वेदोंके पठन-पाठनकी परम्परा भी क्रमश: उठती चली जा रही है। ब्राह्मणोंमें भी वैदिक विद्वान् खोजनेपर भी कठिनतासे मिलते हैं। कारण यही है कि वेदोंका सांगोपांग अध्ययन करनेके लिये प्रचुर समय एवं प्रखर बुद्धिकी आवश्यकता है और वर्तमान युगमें दोनोंकी ही न्यूनता दृष्टिगोचर हो रही है। मनुष्यकी आयु और बुद्धि दोनोंका ही क्रमश: ह्रास होता चला जा रहा है। वेदोंके अध्ययनके लिये ब्रह्मचर्यकी भी परमावश्यकता है और ब्रह्मचर्याश्रमका तो प्राय: लोप ही होता जा रहा है। इन्हीं सब बातोंका विचार करते हुए हमारे त्रिकालदर्शी महर्षियोंने वैदिक ज्ञानको सरल एवं सुबोध भाषामें तथा रोचक ढंगसे जन-साधारणके सामने रख देनेके उद्देश्यसे ही इतिहास एवं पुराणोंको प्रकट किया। इतिहास-ग्रन्थोंमें रामायण और महाभारत—ये दो ही ग्रन्थ इस समय उपलब्ध हैं। दोनों ही ग्रन्थ भारतीय वाङ्मयके मुकुटमणि एवं आर्यसभ्यताके गौरवरूप हैं। दोनोंमें ही भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार, नीति एवं धर्मकी शिक्षा कूट-कूटकर भरी हुई है। एकमें मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामकी दिव्य लीलाओंका वर्णन है तो दूसरेमें मालामें सूतकी भाँति लीला-पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णकी महिमा ओत-प्रोत है। दोनोंमें ही भारतीय संस्कृतिका जीता-जागता रूप दृष्टिगोचर होता है। संस्कृत-साहित्यमें दृश्य एवं श्रव्य काव्यके जितने भी ग्रन्थ बने, उन सबकी रचना प्राय: इन्हीं दोनों ग्रन्थोंके आधारपर हुई है।
आर्य-जातिके ऋषिप्रणीत सच्चे इतिहास होनेके साथ-साथ दोनों ही ग्रन्थोंका कविताकी दृष्टिसे भी बहुत ऊँचा स्थान है। फिर भी महाभारतकी ‘इतिहास’ संज्ञा ही है, उसकी काव्योंमें गणना नहीं है। इतिहासके साथ-साथ ‘आदिकाव्य’ कहलानेका गौरव तो वाल्मीकीय रामायणको ही प्राप्त है। काव्यकी विशेषता यही है कि उसके द्वारा हमें ‘कान्ता-सम्मित’ उपदेश मिलता है। जहाँ वेद ‘सत्यं वद’, ‘धर्मं चर’, ‘आचारान्मा प्रमद:’, ‘प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सी:’ आदि विधिवाक्योंके द्वारा गुरुकी भाँति उपदेश करते हैं और इतिहास-पुराण हमें ‘रामवद्वर्तितव्यं न रावणवत्’ इस रूपमें मित्रकी भाँति हितपूर्ण सलाह देते हैं, वहाँ काव्य हमें कान्ताकी भाँति रोचक एवं मधुर शब्दोंमें प्यारभरी मृदु मन्त्रणा देते हैं। ‘मातृदेवो भव,’ ‘पितृदेवो भव’ इत्यादि वेदवाक्योंका हमपर उतना असर नहीं होता, जितना भगवान् श्रीरामकी मातृभक्ति एवं पितृभक्तिके काव्यमय वर्णनका। इस प्रकारके ‘कान्ता-सम्मित’ उपदेश देनेवाले काव्योंमें वाल्मीकीय रामायणका स्थान सर्वोपरि है। रचना-कौशल एवं काव्य-वस्तु दोनोंकी दृष्टिसे ही रामायण जगत् के समस्त काव्योंका शीर्षस्थानीय है।
मनुष्यको कैसी स्थितिमें किसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये; किस प्रकार अपने कुटुम्बके एवं संसारके दूसरे व्यक्तियोंको सुख पहुँचानेके लिये अपने सब प्रकारके सुखोंका त्याग करके स्वयं हर तरहका कष्ट सहन करनेको तैयार रहना चाहिये; किस प्रकार सत्य, न्याय, सदाचार और प्रतिज्ञापालनपर दृढ़ रहकर जीवनको आदर्श बनाना चाहिये—इत्यादि सामाजिक, नैतिक एवं धार्मिक शिक्षाओंका तो वाल्मीकीय रामायण भण्डार ही है। इसमें पूर्णब्रह्म परमात्मा श्रीरामचन्द्रजीकी पवित्र मनुष्य-लीलाका सर्वांग-सुन्दर चित्रण किया गया है। साथ ही जगज्जननी जानकीका आदर्श पातिव्रत्य, भरतका अनुपम भ्रातृप्रेम और त्याग, राजा दशरथका अपूर्व वात्सल्य-प्रेम, कौसल्याका महान् सौजन्य, श्रवणकी अनुकरणीय पितृभक्ति, हनुमान् जीकी अतुलनीय स्वामिभक्ति; विभीषणकी असाधारण न्यायप्रियता, अयोध्याकी प्रजाका श्रीरामके प्रति स्वाभाविक स्नेह तथा भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका सबके साथ श्रद्धा, दया एवं प्रेमपूर्ण यथायोग्य बर्ताव—इत्यादि सभी विषयोंका सांगोपांग वर्णन हुआ है। इसके श्लोक बड़े ही मधुर, काव्योचित गुणों एवं अलंकारोंसे विभूषित, ताल-स्वरके साथ गाये जानेयोग्य एवं गम्भीर अर्थसे युक्त हैं। इसमें सभी रसोंका बड़े ही सुन्दर ढंगसे समावेश किया गया है। करुण-रस तो इस ग्रन्थका प्राण ही है। इस प्रकार यह ग्रन्थ सभी दृष्टियोंसे अत्यन्त उपादेय है।
वाल्मीकीय रामायण उच्च कोटिका महाकाव्य होनेके साथ ही भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी अवतार-लीलाका सच्चा इतिहास है—इस बातको हमें नहीं भूलना चाहिये। साक्षात् स्वयम्भू ब्रह्माजीने ग्रन्थकर्ताको ग्रन्थ-रचनाके पूर्व यह वरदान दिया था कि ‘राम-चरित्रसम्बन्धी सारी बातें तुम्हें अपने-आप विदित हो जायँगी।’ इसी वरदानके अनुसार सारी बातोंको भलीभाँति जानकर महर्षिने उन्हें अपने चरित-नायकके अवतारकालमें ही श्लोकबद्ध करके उन्हींके पुत्र कुश और लवको कण्ठस्थ करा दिया तथा उन्हींके द्वारा आगे होनेवाली घटनाओंसहित पूरा-का-पूरा चरित्र स्वयं चरित्र-नायकको भरी सभामें सुनवा दिया। इससे बढ़कर इस ग्रन्थकी ऐतिहासिकताका प्रमाण और क्या हो सकता है। ऐसी दशामें इसमें असत्य, प्रमाद अथवा अतिशयोक्तिकी कल्पना भी नहीं हो सकती। ऐसे सर्वमान्य एवं सर्वोपयोगी ग्रन्थका जनतामें जितना भी प्रचार होगा, उतना ही जगत् का कल्याण होगा।
मेरी रायमें इस ग्रन्थको पढ़ने-सुननेका अधिकार मनुष्यमात्रको है, चाहे वह किसी भी समुदाय अथवा जातिका क्यों न हो। प्रत्येक मनुष्य इसका अध्ययन करके इसमें आये हुए उत्तमोत्तम उपदेशोंको यथाधिकार आचरणमें लाकर अपने मनुष्य-जीवनको आदर्श एवं सफल बना सकता है।