Seeker of Truth

वैराग्य-चर्चा

वैराग्यका विषय बड़े ही महत्त्वका है। वन हो, पहाड़ हो, गंगाका किनारा हो—ऐसे स्थलोंमें वैराग्यकी चर्चा अधिक शोभा देती है। ऋषि-महात्मालोग वनों, पहाड़ों और गंगातटपर रहकर ही तप किया करते थे। अब भी उत्तराखण्डमें रहनेसे स्वाभाविक ही वैराग्य होता है। वहाँके स्थानोंमें वैराग्यके परमाणु ओत-प्रोत हैं। वैराग्यके योग्य भूमि हो, वक्ता वैराग्यमय हो और श्रोता सत्पात्र हो तो वैराग्यका वर्णन करते ही वैराग्य जाग्रत् हो जाता है—वैसे ही, जैसे कामीके हृदयमें कामिनीके वर्णनसे काम जाग्रत् हो जाता है। वैराग्यकी बात वैराग्यवान् ही कह सकता है। सच्चे वैराग्यवान् पुरुषको तो कहनेकी भी जरूरत नहीं पड़ती, उसके साथ तो वैराग्य मूर्तिमान् होकर चलता है। वह जिस मार्गसे जाता है, उस मार्गमें मानो वैराग्यकी बाढ़ आ जाती है। उसके नेत्रोंसे वैराग्यका भाव निकलकर सब जगह व्याप्त हो जाता है।

वैराग्यके साथ उपरामता लगी रहती है और उसके साथ भगवान् का ध्यान लगा रहता है। आगे वैराग्य, बीचमें उपरामता, पीछे ध्यान, इस प्रकार तीनों साथ-साथ चलते हैं—जैसे वन जाते समय राम, सीता और लक्ष्मण चलते हैं। रामके साथ सीता रहती ही हैं, साथ ही रामके बिना लक्ष्मणको चैन नहीं और लक्ष्मणके बिना रामको चैन नहीं रहता। राम सीताको बीचमें रखते हैं। जहाँ सच्चा वैराग्य हो, ध्यान होता हो, साधन तीव्र हो, वहाँ उपरामता रहती ही है।

वैराग्यवान् के दर्शनमात्रसे वैराग्य हो जाता है, फिर उसके इशारेसे— व्याख्यानसे वैराग्य हो जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? वैराग्यवान् के व्याख्यानसे तो वेश्याका हृदय पलट सकता है। दत्तात्रेयजीके दर्शनसे ही एक वेश्याको वैराग्य हो गया। भक्त हरिदासजीके सम्पर्कमें आकर एक दूसरी वेश्या वैराग्यवती हो गयी। इसी प्रकार और भी कई उदाहरण दिये जा सकते हैं—

शुकदेवजी राजा परीक्षित् की सभामें जा रहे हैं, रास्तेमें बालक उनके ऊपर धूल फेंकते हैं, पर वे उनकी ओर ध्यानतक नहीं देते, अपनी मस्तीमें चले जाते हैं। सभामें पहुँचनेपर उनका महान् आदर होता है। शुकदेवजीमें अलौकिक उपरामता थी, अलौकिक वैराग्य था। नदीके किनारे स्त्रियाँ नहा रही थीं। शुकदेवजी उसी मार्गसे होकर निकल गये, पर किसीने लज्जा नहीं की। जब वेदव्यासजी आये तो उनको देखकर सभी स्त्रियोंने लज्जावश कपड़े पहन लिये। वेदव्यासजीने इसका कारण पूछा, तब स्त्रियोंने कहा कि ‘शुकदेवजीकी दृष्टिमें स्त्री-पुरुषका भेद ही नहीं है। आप हमें स्त्री समझते हैं, इसलिये हमने मर्यादावश आपको देखकर कपड़े पहन लिये।’ इतनी भारी उपरामता शुकदेवजीमें थी!

जडभरतजीपर भी वैराग्यका इतना नशा चढ़ा रहता था, मानो किसीने शराब पी ली हो! शराबका नशा तामसिक है, अन्नका राजसिक है और वैराग्यका सात्त्विक है। जडभरत वैराग्य और उपरामताके सात्त्विक नशेमें चूर रहते थे। तीनों जन्मकी बातें उनको याद थीं! मस्त बने बैठे रहते थे। घरवालोंने उन्हें मूर्ख समझ रखा था। पर जडभरतजीको किसीकी परवा नहीं थी। देवी भद्रकालीकी बलिके लिये जडभरतजीको राजाके आदमी पकड़ ले गये, उन्होंने उनकी गरदनपर तलवार मारनेको ज्यों ही हाथ उठाया कि देवी प्रकट हो गयीं और उन्होंने मारनेवालोंको मार डाला। तत्पश्चात् देवीने जडभरतजीको वरदान माँगनेको कहा। देवीके आग्रहसे उन्होंने यही वर माँगा कि ‘मेरे मारनेवालोंको जिला दो।’ ऐसे ही एक बार राजा रहूगणकी पालकीमें जडभरतजी जोत दिये गये, वे अपने नित्यके अभ्यासके अनुसार कूदते-फाँदते चलने लगे। राजाने यह देखकर उन्हें बहुत डाँटा-डपटा तथा मारनेकी धमकी दी। जडभरतजी राजाकी बातोंको शान्तिपूर्वक सुनते रहे और अन्तमें उन्होंने उसकी बातोंका बड़ा सुन्दर और ज्ञानपूर्ण उत्तर दिया। जब राजाने इस प्रकारका सुन्दर उत्तर उस पालकी ढोनेवाले मनुष्यसे सुना तो उसके मनमें यह निश्चय हो गया कि हो-न-हो, ये कोई छद्मवेषधारी महात्मा हैं। वह तुरंत पालकीसे उतरकर जडभरतजीके चरणोंमें गिर पड़ा और लगा उनसे गिड़गिड़ाकर क्षमा माँगने। दयालु जडभरतजीने उसे उपदेश दिया।

ध्यान लगानेके लिये सौ युक्तियोंकी एक युक्ति वैराग्य है। युक्तियाँ तो फिर अपने-आप उपजने लगती हैं। ध्यान करनेवाले योगी महात्मालोग वैराग्यका ही आश्रय लेते हैं।

ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित:॥
(गीता १८। ५२)

फलत:—

ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
(गीता १८। ५४)
—इत्यादि

‘फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्ममें एकीभावसे स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसीके लिये शोक करता है और न किसीकी आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियोंमें समभाववाला योगी मेरी परा भक्तिको प्राप्त हो जाता है।’

इन श्लोकोंके अनुसार उनकी स्थिति हो जाती है। जब वैराग्यकी इतनी महिमा है, तब पर-वैराग्यका तो कहना ही क्या है?

संसारके पदार्थोंमें आसक्ति न होनेका नाम वैराग्य है। संसारके किसी भी भोगमें आसक्ति न रहे, प्रीति न रहे, लगाव न रहे—यहाँतक कि ब्रह्मलोकके सम्पूर्ण भोग भी काकविष्ठावत् प्रतीत होने लगें; यही वैराग्य है। भोग्य पदार्थोंकी ओर वृत्तियाँ ही न जायँ, यह उपरामता है। वैराग्ययुक्त उपरामता ही श्रेष्ठ है, बिना वैराग्यके उपरामता कच्ची होती है। ऋषभदेवजीमें बड़ी भारी उपरामता थी, गौतमबुद्धसे भी बढ़कर! ऋषभदेवजीके समान उपरामताका कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। संसारमें विचरते हुए भी उन्हें संसारका ज्ञान न था। वनमें आग लगी है; किन्तु उन्हें इस बातका पता भी नहीं। अन्तमें शरीरमें आग लग गयी, शरीर आगमें जलकर भस्म हो गया; पर ऋषभदेवजीको तब भी आगका पता न चला। यह उपरामताकी सीमा है। ऐसी मस्तीमें स्थित हो जाया जाय कि कुछ पता ही न चले। शरीरका अध्यास ही न रह जाय! किसी भी संन्यासी अथवा गृहस्थमें ऐसी उपरामता आ जाय तो वह बहुत प्रशंसनीय है। केवल भीतरी उपरामता कम महत्त्वकी बात नहीं है। आत्माके कल्याणके लिये तो भीतरी उपरामताकी ही विशेष आवश्यकता है। राजा जनकमें बाहरी उपरामता नहीं थी। वास्तवमें तो उनकी दृष्टिमें जगत् का अभाव ही था। शुकदेवजीमें बाहरी-भीतरी दोनों प्रकारकी उपरामता थी। जनकजीने शुकदेवजीसे कहा था—‘महाराज! आपमें बाहरी और भीतरी—दोनों प्रकारकी उपरामता है, अत: आप मुझसे श्रेष्ठ हैं। आपको कुछ सीखना नहीं है। जाकर ध्यान लगाइये।’ यह सुनकर शुकदेवजी चले गये, जाकर उन्होंने ध्यान लगाया। ध्यान लगाते ही उनको समाधि लग गयी, भगवान् की प्राप्ति हो गयी।

समुद्रमें अनेकों नदियोंका जल पड़ता है; परन्तु वह ज्यों-का-त्यों गम्भीर है, अपनी महिमामें परिपूर्ण है। ऐसे ही ज्ञानी, महात्मा, विरक्त निष्कामी पुरुष अपनी महिमामें परिपूर्ण होते हैं। उन्हें संसारके पदार्थ आप-से-आप आकर प्राप्त होते हैं। वे व्यवहार भी करते हैं, परन्तु विकारको नहीं प्राप्त होते; उन्हें शान्ति ही प्राप्त होती है (देखिये गीता २। ७०)। ज्ञानी महात्माकी दृष्टिमें संसारका अत्यन्त अभाव होता है और संसारी नास्तिक पुरुषोंकी दृष्टिमें परमात्माका अत्यन्त अभाव है। विषयी पुरुषके मनमें यह शंका रहती है कि ‘परमात्मा है या नहीं। किन्तु नास्तिक कहता है कि परमात्मा है ही नहीं।’ इसी प्रकार ज्ञानीके लिये संसार नहीं है। सच्ची उपरामता वैराग्यसे ही होती है। उसीका फल है ब्राह्मी स्थिति। उसे जो प्राप्त कर लेता है, वह मोहको नहीं प्राप्त होता। अन्तकालमें भी उस स्थितिके प्राप्त हो जानेपर ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है। गीताके दूसरे अध्यायके ६८, ६९, ७०, ७१, ७२— इन श्लोकोंमें महात्माओंके स्वाभाविक वैराग्य एवं उपरामताका दिग्दर्शन कराया गया है। ६८ वें, ६९ वें श्लोकमें उपरामताकी तथा ७० वें और ७१ वें श्लोकमें वैराग्यकी बातें कही गयी हैं। ये प्राप्त पुरुषोंके लक्षण हैं और साधकोंके लिये यही साधन हैं। इनको लक्ष्यमें रखकर साधन करनेवाले विरक्त पुरुषोंका भाव और आचरण संसारी पुरुषोंकी अपेक्षा विलक्षण होते हैं।

रागी और विरागी पुरुषोंमें रात-दिनका अन्तर है, अन्धकार और प्रकाश जितना अन्तर है। वास्तवमें तो वैराग्यवान् पुरुषकी पहचान होना ही कठिन है। कपूर और कस्तूरीकी गन्धको कुत्ता और गदहा क्या पहचान सकता है? वैराग्यवान् पुरुष ही वैराग्यवान् की स्थितिका थोड़ा अनुमान कर सकता है। जो पदार्थ रागी पुरुषको प्रिय होते हैं, वे वैराग्यवान् को उलटे ही प्रतीत होते हैं। मान-बड़ाई रागी पुरुषको अमृत-सी लगती है, पर वैराग्यवान् को वह विष-सी प्रतीत होती है। रागीको इत्र, फुलेल, लवेंडर आदि सुगन्धित द्रव्य अच्छे लगते हैं; पर वैराग्यवान् इनको घृणाकी दृष्टिसे देखता है। दोनोंकी रुचि विपरीत होती है। मखमलका गद्दा रागीको अच्छा मालूम देता है, पर वैराग्यवान् को वह अच्छा नहीं लगता। जहाँ मन आया वहीं पड़ रहे; भूमि हो या चटाई, उसके लिये सब बराबर है—वैराग्यके नशेमें उसे सब कुछ अमृततुल्य भासता है। वैराग्यवान् की वृत्तियाँ संसारसे तनी हुई होती हैं। किसी स्थानपर रातको रागी-विरागी सभी सो रहे हों, जाड़ा पड़ रहा हो, आस-पास दुशाले, कम्बल और चट्टियाँ पड़ी हों; उस स्थितिमें रागीका हाथ सर्वप्रथम दुशालेपर पड़ेगा। कम्बलपर वह तभी हाथ डालेगा, जब दुशालेसे उसकी सर्दी दूर होती नहीं दीखेगी। परन्तु वैराग्यवान् का हाथ उस स्थितिमें भी स्वाभाविक ही चट्टियोंपर जायगा, दुशालेपर नहीं।

वैराग्यवान् को जो सुख प्राप्त होता है, वह रागीको कभी नहीं मिलता। वैराग्यवान् का सुख सात्त्विक सुख होता है। जहाँ फूलोंकी वर्षा हो रही होगी वहाँ वह जायगा ही नहीं। उसे तो संसारके सभी सुख बुरे मालूम होते हैं। संसारके सुख ही क्यों, देवता उसके सामने विमान लेकर आवें तो भी वह उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखेगा। दधीचिके पास इन्द्र जाता है, ऋषि ध्यानमें मस्त हैं। आँख खुलनेपर इन्द्र उन्हें कुछ उपदेश सुनानेके लिये कहता है। ऋषि कहते हैं—‘इन्द्र! तेरा सुख कुत्तोंका-सा है।’ जिस स्थितिमें इन्द्रलोकका सुख—इन्द्राणीका सुख भी कुत्तोंके सुख-सा लगता है, वह कितने अगाध सुखकी स्थिति है, जरा इसका विचार तो कीजिये! छोटे बच्चे मखमलके कोट पहनते हैं, गोटेकी कामदार टोपी पहनते हैं, खिलौनोंको लेकर खूब आमोद-प्रमोद करते हैं। वे अपने पितासे कहते हैं कि ‘तुम भी खेलो।’ पर पिता उनके इस आग्रहपर हँसता है। बालकके चमकीले कपड़ोंसे हम सबको स्वाभाविक ही वैराग्य होता है, वे हमें अच्छे नहीं लगते। इसी प्रकार वैराग्यवान् पुरुषोंको जो भोगकी चीजें देते हैं, उनकी इस चेष्टापर वैराग्यवान् हँसते हैं। उनकी वृत्तियोंमें वैराग्यके कारण इतना आनन्द भरा रहता है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उसे अमृतकी भी उपमा नहीं दी जा सकती! उनके हृदयमें क्षण-क्षणमें आनन्दकी लहरें उठा करती हैं। हम उनकी स्थितिको कैसे समझें, वैराग्य हो तो कुछ समझें भी। साँपके काटनेपर जिस प्रकार क्षण-क्षणमें विषकी लहरें आती हैं, समुद्रमें जिस प्रकार जलकी लहरें उठती हैं, बिजलीका करेन्ट छू जानेपर जिस प्रकार रक्तमें दु:खद लहरें उठती हैं, वैसे ही वैराग्यमें सुख और शान्तिकी लहरें उठती हैं। वास्तवमें ये उदाहरण भी वैराग्यजनित सुखकी लहरोंको समझा नहीं सकते। उनको समझानेके लिये संसारमें कोई उदाहरण है ही नहीं। यदि कामी पुरुषका दृष्टान्त दें तो उसको शान्ति और सच्चे सुखका क्या पता! लोभीको पारस मिलनेपर जो आनन्द मिलता है, उसके साथ भी इसकी तुलना नहीं की जा सकती; क्योंकि उस आनन्दके साथ यह भय भी लगा रहता है कि उस पारसको कोई छीन न ले जाय। पारसके छिन जानेके भयके साथ उसे अपनी मृत्युका भी भय रहता है कि इस पारसके पीछे कोई उसे मार न दे। अस्तु, वैराग्यवान् के अनन्त सुखके सामने सांसारिक सुखका कोई भी उदाहरण नहीं ठहरता। रागीको संसारके विषयभोगोंको भोगनेमें जो आनन्द प्रतीत होता है, वैराग्यवान् को वही दु:ख प्रतीत होता है। वैराग्यवान् पर वैराग्यका ऐसा नशा चढ़ा रहता है कि भोगोंकी ओर वह दृष्टि ही नहीं डालता, उनमें उसे रस ही नहीं मिलता। वह तो वैराग्यके रसमें ही सराबोर रहता है। उपरामता होनेपर जो रस मिलता है, वह वैराग्यसे भी अधिक होता है और भगवान् के ध्यानमें तो और भी विशेष सुख मिलता है। गीताके ५ वें अध्यायका २१ वाँ श्लोक देखिये—

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥

‘बाहरके विषयोंमें आसक्तिरहित अन्त:करणवाला साधक आत्मामें स्थित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनन्द है, उसको प्राप्त होता है; तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके ध्यानरूप योगमें अभिन्नभावसे स्थित पुरुष अक्षय आनन्दका अनुभव करता है।’

इस सुखको कैसे समझाया जाय! सारा जगत् तो परमात्मरूप अमृतसागरकी एक बूँदके आभासमें ही आनन्दित हो रहा है—मुग्ध हो रहा है; ध्यानजनित सुख उसकी एक बूँदके समान है। जिसकी बूँदमें इतना सुख है, उस सुखसागरके साक्षात् मिल जानेपर कितना अपार सुख मिलता है, उसे कोई समझा नहीं सकता। वह तो मन-वाणीसे अतीत है। अत: इसकी प्राप्तिके लिये संसारके भोगोंसे विरक्त और उपराम होकर मनको परमात्माके ध्यानमें लगानेके लिये कटिबद्ध होकर चेष्टा करनी चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur