Seeker of Truth

उपासनाका तत्त्व

शास्त्र और महात्माओंके अनुभवसे यह सिद्ध है कि साकार और निराकार दोनों प्रकारके उपासकोंको परमगति प्राप्त हो सकती है। साकारके उपासकको सगुण भगवान् के दर्शन भी हो सकते हैं, निराकारके उपासकको उसकी इच्छा न रहनेके कारण नहीं होते। साकार ईश्वरकी उपासना ईश्वरका प्रभाव समझकर की जानेसे सफलता शीघ्र होती है। साकार ईश्वरके प्रभाव समझनेका यही मतलब है कि साधक उस एक ईश्वरको ही सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान् समझे। जिस शिव या विष्णुरूपकी वह उपासना करे, उसके लिये उसे यह न समझना चाहिये कि मेरा इष्टदेव ईश्वर केवल इस मूर्तिमें ही है और कहीं नहीं है। ईश्वरमें इस तरहकी परिमित बुद्धि एक तरहका तामस ज्ञान है। गीता अध्याय १८ श्लोक २२में इसीकी निन्दा की गयी है। इसका यह अर्थ नहीं कि मूर्तिपूजा नहीं करनी चाहिये अथवा कोई भाई सरलभावसे तत्त्व न समझकर केवल मूर्तिमात्रमें ईश्वर समझकर ही उसकी उपासना न करें। किसी भी भाँति उपासनामें प्रवृत्त होना तो सर्वथा उपासना न करनेकी अपेक्षा उत्तम ही है, परन्तु यह ज्ञान अल्प होनेके कारण इससे की हुई उपासनाका फल बहुत देरसे होता है। अल्पज्ञानकी उपासनामें यदि हानि है तो केवल यही है कि इसकी सफलतामें विलम्ब हो जाता है; क्योंकि इसमें उपासक उपास्य वस्तुका महत्त्व कम कर देता है।

कोई अग्निका उपासक यज्ञके लिये अग्नि प्रज्वलित करके यदि यह मान ले कि बस, यही इतनी ही दूरमें अग्नि है और कहीं नहीं है तो इससे वह अग्निका महत्त्व कम करता है, वह एक व्यापक वस्तुको छोटी-सी सीमामें बाँध देता है। इसके विपरीत जो उपासक यह समझता है कि अग्नि वास्तवमें सर्वत्र व्यापक है, परन्तु अव्यक्त होनेके कारण सब जगह दीखता नहीं। प्रकट होनेपर ही दीखता है और चेष्टा करते ही वह प्रकट हो सकता है। यदि अभाव होता तो वह किसी भी जगह किसी भी वस्तुमें प्रकट कैसे होता? जैसे प्रज्वलित अग्नि हवनकुण्डमें दीखता है, परन्तु है सर्वत्र। इसी प्रकार भगवान् भी निराकाररूपसे सर्वत्र समभावसे व्याप्त हैं, भक्तके प्रेमसे साकाररूपसे प्रत्यक्ष होते हैं। निराकार ही साकार है और साकार ही निराकार है। इस प्रकार समझना ही साकारका प्रभाव समझना है। असलमें ईश्वरके साथ अग्निकी तुलना नहीं दी जा सकती। यह तो एक दृष्टान्तमात्र है; क्योंकि अग्नि परमात्माकी भाँति सर्वव्यापी नहीं है। एक स्थानमें पाँच वस्तुएँ सर्वव्यापी नहीं हो सकतीं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि अपने-अपने रूपमें स्थित हैं। पृथ्वीका प्रधान गुण गन्ध है, अग्निका रूप है, सर्वव्यापी परमात्मा तो कारणका भी महाकारण है इसलिये वह सबमें स्थित है। कार्य कभी सर्वव्यापी नहीं होता, व्यापक कारण होता है। जगत् का कारण प्रकृति है परन्तु परमात्मा तो उसका भी कारण होनेसे महाकारण है। प्रकृति जड़ होनेसे अपने जड़कार्यका कारण हो सकती है परन्तु वह चैतन्य परमात्माका कारण नहीं हो सकती। अतएव परमात्मा ही सबका महाकारण है, वही जड़-चेतन सबमें सदा पूर्णरूपसे स्थित है। सबके नाश होनेपर भी उसका नाश नहीं होता, वह नित्य अनादि है।

निराकार ब्रह्मका स्वरूप सत्, विज्ञान, अनन्त, आनन्दघन है। ‘सत्’ उसे कहते हैं, जिसका कभी अभाव या परिवर्तन न हो, जिसमें कभी कोई विकार न हो और जो सदा एकरस एकरूप रहे। ‘विज्ञान’ से बोध, चेतन, शुद्ध ज्ञान समझना चाहिये। ‘अनन्त’ उसे कहते हैं, जिसकी कोई सीमा न हो, कोई माप-तौल न हो, जिसका कहीं आदि-अन्त न हो, जो सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म और महान्-से-महान् हो, समस्त संसार जिसके एक अंशमें स्थित हो। ‘आनन्दघन’ से केवल आनन्द-ही-आनन्द समझना चाहिये, ‘घन’ का अर्थ यह है कि उसमें आनन्दके अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तुको किसी प्रकार भी अवकाश नहीं है, जैसे बर्फमें जल घन है इसी प्रकार परमात्मा आनन्दघन है। बर्फ तो साकार जड़ कठोर है परन्तु परमात्मा चेतन है, ज्ञानस्वरूप है, निराकार है। इस प्रकारका निराकार परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण है।

परमात्माकी आनन्दरूपताका वर्णन नहीं हो सकता, वह अनिर्वचनीय है। यदि आपको किसी समय किसी कारणसे महान् आनन्दकी प्राप्ति हुई हो तो उसे स्मरण कीजिये। उससे बड़ा आनन्द वह है जो सच्चे मनसे किये हुए सत्संग, भजन या ध्यानद्वारा उत्पन्न होता है, जिसका वर्णन गीताके अ० १८ श्लोक ३६, ३७ में है। इस सुखके सामने भोगसुख सूर्यके सामने खद्योतके सदृश भी नहीं है। परन्तु यह सुख भी उस परम आनन्दरूप ब्रह्मका एक अणुमात्र ही है; क्योंकि ब्रह्मानन्दके अतिरिक्त अन्य आनन्दघन नहीं हैं, एक सीमामें हैं, उनमें दूसरोंको अवकाश है।

इसी आनन्दरूप परमात्माका सब विस्तार है। इस परमात्मामें संसार वैसे ही समाया हुआ है, जैसे दर्पणमें प्रतिबिम्ब। वास्तवमें है नहीं, समाया हुआ-सा प्रतीत होता है। दर्पण तो जड़ और कठोर है परन्तु वह परमात्मा परम सुखरूप होनेपर भी चेतन है तथा वह इस प्रकार घनरूपसे व्याप्त है कि उसकी किसीसे तुलना ही नहीं की जा सकती। उसकी घनता किसी पत्थर, शिला, बर्फ आदि-जैसी नहीं है, इनमें तो अन्य पदार्थोंके लिये गुंजाइश भी है परन्तु उसमें किसीके लिये कुछ भी गुंजाइश नहीं है। जैसे इस शरीरमें ‘मैं’ (आत्मा) इतना सूक्ष्म घन है कि उसके अंदर दूसरेको कभी स्थान नहीं मिल सकता। शरीर, मन, बुद्धि आदिमें किसी दूसरेका प्रवेश हो सकता है परन्तु उस आत्मामें किसीका प्रवेश किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है। इसी प्रकार वह सर्वव्यापी निराकार परमात्मा भी घन है।

उसकी चेतनता भी विलक्षण है। इस शरीरमें जितनी वस्तुएँ हैं वह सब जड़ हैं, इनको जाननेवाला चेतन है। जो पदार्थ किसीके द्वारा जाना जाता है वह जड़ है, दृश्य है, वह आत्माको नहीं जान सकता। हाथ-पैर आत्माको नहीं जानते, पर आत्मा उनको जानता है। वही सबको जानता है, ज्ञान ही उसका स्वरूप है, वह ज्ञान ही परमेश्वर है जो सब जगह है। ऐसी कोई जगह नहीं है जो उससे रहित हो, इसीसे श्रुति उसे कहती है ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।’

वही ब्रह्म भक्तोंके प्रेमवश उनके उद्धारार्थ साकाररूपसे प्रकट होकर उन्हें दर्शन देते हैं। उनके साकार रूपोंका वर्णन मनुष्यकी बुद्धिके बाहर है; क्योंकि वह अनन्त हैं। भक्त जिस रूपसे उन्हें देखना चाहता है वह उसी रूपमें प्रत्यक्ष प्रकट होकर दर्शन देते हैं। भगवान् का साकार रूप धारण करना भगवान् के अधीन नहीं, पर प्रेमी भक्तोंके अधीन है। अर्जुनने पहले विश्वरूप-दर्शनकी इच्छा प्रकट की, फिर चतुर्भुजकी और तदनन्तर द्विभुजकी, भक्तभावन भगवान् कृष्णने अर्जुनको उसके इच्छानुसार थोड़ी ही देरमें तीनों रूपोंसे दर्शन दे दिये और उसे निराकारका भाव भी भलीभाँति समझा दिया। इसी प्रकार जो भक्त परमात्माके जिस स्वरूपकी उपासना करता है, उसको उसी रूपके दर्शन हो सकते हैं।

अतएव उपासनाके स्वरूप-परिवर्तनकी कोई आवश्यकता नहीं। भगवान् विष्णु, राम, कृष्ण, शिव, नृसिंह, देवी, गणेश आदि किसी भी रूपकी उपासना की जाय, सब उसीकी होती है। भजनमें कुछ भी बदलनेकी जरूरत नहीं है। बदलनेकी जरूरत है, यदि परमात्मामें अल्पबुद्धि हो तो उसकी। भक्तको चाहिये वह अपने इष्टदेवकी उपासना करता हुआ सदा यह समझता रहे कि मैं जिस परमात्माकी उपासना करता हूँ वही परमेश्वर निराकाररूपसे चराचरमें व्यापक है, सर्वज्ञ है, सब कुछ उसीकी दृष्टिमें हो रहा है। वह सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वगुणसम्पन्न, सर्वसमर्थ, सर्वसाक्षी, सत्, चित्, आनन्दघन मेरा इष्टदेव परमात्मा ही अपनी लीलासे भक्तोंके उद्धारके लिये उनकी इच्छानुसार भिन्न-भिन्न स्वरूप धारणकर अनेक लीला करता है। इस प्रकार तत्त्वसे जाननेवाले पुरुषके लिये परमात्मा कभी अदृश्य नहीं होते और न वह कभी परमात्मासे अदृश्य होता है।

श्रीभगवान् ने स्वयं कहा है—

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६।३०)

‘जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता; क्योंकि वह एकीभावसे मुझमें ही स्थित है।’ निराकार-साकारमें कोई अन्तर नहीं है, जो भगवान् निराकार हैं वही साकार बनते हैं।

भगवान् कहते हैं—

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥
(गीता ४।६)

‘मैं अविनाशीस्वरूप अजन्मा और सब भूतप्राणियोंका ईश्वर होनेपर भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके योगमायासे प्रकट होता हूँ।’ क्यों प्रकट होते हैं? इस प्रश्नका उत्तर भी भगवान् ही देते हैं—

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥

‘हे भारत! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है तब-तब ही मैं अपने रूपको प्रकट करता हूँ। साधु पुरुषोंका उद्धार और दूषित कर्म करनेवालोंका नाश करने तथा धर्म-स्थापनके लिये मैं युग-युगमें प्रकट होता हूँ।’

इस प्रकार अविनाशी निर्विकार परमात्मा जगत् के उद्धारके लिये भक्तोंके प्रेमवश अपनी इच्छासे आप अवतीर्ण होते हैं। वे प्रेममय हैं, उनकी प्रत्येक क्रिया प्रेम और दयासे ओतप्रोत है। वे जिनका संहार करते हैं उनका भी उद्धार ही करते हैं। उनका संहार भी परम प्रेमका ही उपहार है, परन्तु अज्ञ जगत् उनके दिव्य जन्म-कर्मोंकी लीलाका यथार्थ रहस्य न समझकर नाना प्रकारके सन्देह करता है। भगवान् कहते हैं—

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
(गीता ४।९)

‘हे अर्जुन! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है इस प्रकार जो पुरुष तत्त्वसे जानता है वह शरीर त्यागकर फिर जन्मको नहीं प्राप्त होता, वह तो मुझे ही प्राप्त होता है।’

सर्वशक्तिमान् सच्चिदानन्दघन परमात्मा अज, अविनाशी और सर्वभूतोंके परम गति और परम आश्रय हैं, वे केवल धर्मकी स्थापना और संसारका उद्धार करनेके लिये ही अपनी योगमायासे सगुणरूप होकर प्रकट होते हैं। अतएव उन परमेश्वरके समान सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है, यों समझकर जो पुरुष उनका अनन्य प्रेमसे निरन्तर चिन्तन करता हुआ आसक्तिरहित होकर संसारमें बर्तता है वही वास्तवमें उनको तत्त्वसे जानता है। ऐसे तत्त्वज्ञ पुरुषको इस दु:खरूप संसारमें फिर कभी लौटकर नहीं आना पड़ता।

भगवान् के जन्म-कर्म कैसे दिव्य हैं, इस तत्त्वको जो समझ लेता है वही सच्चा भाग्यवान् पुरुष है। उज्ज्वल, प्रकाशमय, विशुद्ध, अलौकिक आदि शब्द दिव्यके पर्यायवाची हैं। भगवान् के जन्म-कर्मोंमें ये सभी घटित होते हैं। उनके कर्म संसारमें विस्तृत होकर सबके हृदयोंपर असर करते हैं, कर्मोंकी कीर्ति ब्रह्माण्डभरमें छा जाती है, जो उनका स्मरण-कीर्तन करते हैं, उनका हृदय भी उज्ज्वल बन जाता है। इसलिये वे उज्ज्वल हैं। उनकी लीलाका जितना ही अधिक विस्तार होता है, उतना ही अन्धकारका नाश होता है। जहाँ सदा हरि-लीला-कथा होती है वहाँ ज्ञान-सूर्यका प्रकाश छा जाता है, पाप-तापरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है, इसलिये वे प्रकाशमय हैं। उनके कर्मोंमें किसी प्रकारका स्वार्थ या अपना प्रयोजन नहीं है, कोई कामना नहीं है, किसी पापका लेश नहीं है, मलरहित हैं, इसलिये वे शुद्ध हैं। उनके-जैसे कर्म जगत् मे कोई नहीं कर सकता, ब्रह्मा, इन्द्रादि भी उनके कर्मोंको देखकर मोहित हो जाते हैं। जगत् के लोगोंकी कल्पनामें भी जो बात नहीं आ सकती, जो बिलकुल असम्भव है, उसको भी वे सम्भव कर देते हैं, अघटन घटा देते हैं, जीवन्मुक्त या कारक सबकी अपेक्षा अद्भुत हैं इसलिये वे अलौकिक हैं। उनका अवतार सर्वथा शुद्ध है। अपनी लीलासे ही आप प्रकट होते हैं। वे प्रेमरूप होकर ही सगुणरूपमें प्रकट होते हैं। प्रेम ही उनकी महिमामयी मूरति है, इसलिये प्रेमी पुरुष ही उनको पहचान सकते हैं। इस तत्त्वको समझकर जो प्रेमसे उनकी उपासना करते हैं वे भाग्यवान् बहुत ही शीघ्र उन प्रेममयके प्रेमपूर्ण वदनारविन्दका दर्शन कर कृतार्थ होते हैं। अतएव शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा सब उनके चारु चरणोंमें अर्पण कर दिन-रात उन्हींके चिन्तनमें लगे रहना चाहिये। उनका प्रेमपूर्ण आदेश और आश्वासन स्मरण कीजिये—

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय:॥
(गीता १२।८)

‘मुझमें मन लगा दो, मुझमें ही बुद्धि लगा दो, ऐसा करनेपर मुझमें ही निवास करोगे अर्थात् मुझको ही प्राप्त होओगे, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।’


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur