त्रिविध तप
शास्त्रोंमें तीन प्रकारके पाप बतलाये गये हैं—(१) कायिक अर्थात् शरीरसे होनेवाले, (२) वाचिक अर्थात् वाणीसे होनेवाले और (३) मानसिक अर्थात् केवल मनसे होनेवाले। वैसे तो तीनों प्रकारके पापोंमें मनका संयोग रहता है; क्योंकि मनके बिना कोई भी क्रिया फलदायक नहीं हो सकती।
भगवान् मनुने कायिक पाप तीन बतलाये हैं—बिना दिया हुआ धन लेना, शास्त्रविरुद्ध हिंसा और परस्त्रीगमन।१
१-अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानत:।
परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम्॥
(मनु० १२। ७)
वाचिक पाप चार हैं—कठोर वचन कहना, झूठ बोलना, चुगली करना और बे-सिर-पैरकी व्यर्थ बातें करना।२
२-पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वश:।
असम्बद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्॥
(मनु० १२। ६)
और मानसिक पाप तीन हैं—दूसरेका माल मारनेका दाँव सोचना, मनसे दूसरेका अनिष्ट-चिन्तन करना और मैं शरीर हूँ, इस प्रकारका झूठा अभिमान करना।३
३-परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्।
वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्॥
(मनु० १२। ५)
इन त्रिविध पापोंका नाश करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णने गीतामें तीन प्रकारके तप बतलाये हैं—शारीरिक तप, वाङ्मय तप और मानस तप। उक्त तीन प्रकारके तपका स्वरूप भगवान् ने इस प्रकार बतलाया है—
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥
(१७। १४)
‘देवता, ब्राह्मण, गुरु एवं ज्ञानीजनोंका पूजन, शरीर, द्रव्य एवं आचरणकी पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य एवं अहिंसा—यह शरीरसम्बन्धी तप कहा जाता है।’
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥
(१७। १५)
‘जो उद्वेगको न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रोंके पठन एवं परमेश्वरके नाम-जपका अभ्यास है, वही वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है।’ तथा—
मन:प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह:।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥
(१७। १६)
‘मनकी प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवत्-चिन्तन करनेका स्वभाव, मनका निग्रह और अच्छी प्रकार अन्त:करणकी पवित्रता—इस प्रकारका यह मनसम्बन्धी तप कहा जाता है।’
शारीरिक पापोंमें बिना दिये हुए धनके ग्रहणरूपी पापका नाश शौच अर्थात् द्रव्यकी पवित्रतासे होता है। न्यायोपार्जित द्रव्य ही पवित्र होता है और जिसने हकका पैसा ग्रहण करनेका ही नियम ले लिया है, उससे फिर बिना हुक्म या बिना दिये हुए किसीका धन या किसीकीवस्तुको लेनारूप, पापकर्म नहीं बन सकता। हिंसारूपी पापका नाश अहिंसारूपी तपसे होता है; जिसने अहिंसाका व्रत ले लिया है, उसके द्वारा किसी प्रकारकी हिंसा कभी हो ही नहीं सकती और जिसने ब्रह्मचर्यका व्रत ले लिया है, उसके द्वारा परस्त्रीगमन हो ही कैसे सकता है?
इसी प्रकार जिसने अनुद्वेगकर एवं प्रिय वचन बोलनेका नियम ले लिया है, उसके मुखसे परुष वचन कभी निकल नहीं सकते। जिसने हितकर वाणी बोलनेका संकल्प कर लिया है, वह किसीकी चुगली कैसे कर सकता है और जिसने सत्यभाषण तथा स्वाध्यायके अभ्यासका नियम ले लिया है, वह न तो झूठ बोल सकता है और न असम्बद्ध प्रलाप ही कर सकता है; क्योंकि वह सदा सतर्क रहेगा कि मेरे मुखसे कोई झूठ बात भूलसे भी न निकल जाय, किन्तु जो असम्बद्ध तथा व्यर्थकी बातें करता है उसके द्वारा पद-पदपर असत्यभाषणकी गुंजाइश रहती है। सत्यभाषणके लिये मितभाषणकी भी आवश्यकता होती है। जिसकी वाणीपर लगाम नहीं है, जो अनर्गल बोलता रहता है, उसके द्वारा और नहीं तो, भूलमें ही असत्यभाषण हो सकता है।
मानस पापोंमें दूसरेके धनको हड़पनेका भाव एवं दूसरेका अनिष्टचिन्तन तथा मैं देह हूँ, इस प्रकारका मिथ्याभिमान—ये तीनों ही अन्त:करणकी संशुद्धिरूपी तपसे नष्ट हो जाते हैं।
उक्त तीनों प्रकारके तपकी विस्तृत व्याख्या गीता-तत्त्वविवेचनीमें* ऊपर उद्धृत किये हुए तीनों श्लोकोंकी व्याख्यामें देखनी चाहिये।
* ‘गीता-तत्त्वविवेचनी’ गीताप्रेससे प्रकाशित है, कृपया मँगाकर पढ़ लेनी चाहिये।
इस प्रकारके तपको भगवान् ने मनुष्यमात्रके लिये अवश्यकर्तव्य बतलाया है। ‘तप’ का अर्थ है तपाना। तपके द्वारा मन, इन्द्रिय एवं शरीरको तपाया जाता है, इसीलिये उसे ‘तप’ कहते हैं। जैसे सोनेको अग्निमें तपानेसे उसके सारे विकार जल जाते हैं और उसका शुद्ध निखरा हुआ रूप सामने आ जाता है, उसी प्रकार तपके द्वारा मनुष्यके अन्त:करण तथा इन्द्रियोंका मल नष्ट होकर वे पवित्र हो जाते हैं। गीताने तपको पुन: तीन भेदोंमें विभक्त किया है—सात्त्विक, राजस, तामस। सात्त्विक तपका लक्षण इस प्रकार किया गया है—
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरै:।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तै: सात्त्विकं परिचक्षते॥
(१७। १७)
‘फलको न चाहनेवाले साधक पुरुषोंद्वारा परम श्रद्धासे किये हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकारके तपको सात्त्विक कहते हैं।’ राजस तपका स्वरूप इस प्रकार है—
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥
(१७। १८)
‘जो तप सत्कार, मान और पूजाके लिये अथवा केवल पाखण्डसे ही किया जाता है, वह अनिश्चित एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है।’ और तामस तपका लक्षण इस प्रकार है—
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तप:।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥
(१७। १९)
‘जो तप मूढ़तापूर्वक हठसे, मन, वाणी और शरीरकी पीड़ाके सहित अथवा दूसरेका अनिष्ट करनेके लिये किया जाता है, वह तामस कहा गया है।’
मनुष्य यदि उपर्युक्त कायिक, वाचिक, मानसिक तपसे जो स्थायी लाभ उठाना चाहे अर्थात् अतीत एवं अनागत सभी प्रकारके शुभाशुभ कर्मोंसे छूटकर परमात्माकी प्राप्ति करना चाहे तो उसे ऊपर कहे हुए सात्त्विक तपका ही आचरण करना चाहिये; क्योंकि मोक्ष अथवा भगवत्प्राप्तिके लिये कर्मकी उतनी प्रधानता नहीं है जितनी भावकी। कर्म चाहे ऊँचा न हो, कर्ताका भाव यदि ऊँचा है तो उसका फल ऊँचा ही होगा। इसके विपरीत यदि कर्म ऊँचे-से-ऊँचा हो, किन्तु भाव नीचा हो, तो उसका फल नीचा ही होगा। पूर्ण निष्कामभावसे केवल कर्तव्य समझकर अथवा भगवत्प्राप्ति, भगवत्प्रेम अथवा मुक्तिकी कामनासे किये हुए शिल्प, व्यापार एवं सेवा आदि लौकिक दृष्टिसे छोटे माने जानेवाले कर्म भी महान् फलके देनेवाले होते हैं और लौकिक फलकी कामनासे किये हुए यज्ञ, दान, तप आदि ऊँचे-से-ऊँचे कर्म भी तुच्छ फल देनेवाले ही होते हैं; क्योंकि जिस उद्देश्यसे जो कर्म किया जाता है, उसका वैसा ही फल मिलता है। जो कर्म स्त्री, पुत्र, धन, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा अथवा स्वर्गसुख आदिके लिये किया जाता है, उसके फलरूपमें यही नाशवान् पदार्थ मिलते हैं। स्वर्गसुख यद्यपि इहलौकिक सुखोंकी अपेक्षा अधिक स्थायी है, किन्तु है वह अनित्य ही; क्योंकि स्वर्गप्राप्ति करानेवाले शुभ कर्मके समाप्त हो जानेपर स्वर्गस्थ जीव पुन: मर्त्यलोकमें ढकेल दिये जाते हैं (गीता ९। २१)। इसीलिये सत्कार, मान, पूजा आदिके लिये अथवा दम्भसे किये जानेवाले राजस तपको भगवान् ने अध्रुव और चल बतलाया है।अध्रुव तो उसे इसलिये कहा कि उससे सत्कार, मान, पूजा आदिका मिलना निश्चित नहीं है और वे मिल जायँ तो भी क्षणिक हैं; और अस्थायी उसको इसलिये कहा कि मान, सत्कार आदि उससे मिलनेवाली वस्तुएँ अनित्य हैं, उनका सम्बन्ध इसी लोकसे है और जबतक हम मान-सत्कारके योग्य कर्म करते हैं तभीतक हमें ये मिलते हैं। अवश्य ही तामस तपकी भाँति राजस तप निषिद्ध नहीं है।
इसलिये ऊँचे-से-ऊँचा फल चाहनेवालोंको ऊपर कहे हुए सात्त्विक तपका ही आचरण करना चाहिये; क्योंकि उपर्युक्त तपरूप कर्म स्वरूपत: सात्त्विक होनेपर भी वास्तवमें सात्त्विक तभी होता है जब हमारा भाव भी सात्त्विक हो अर्थात् उसे हम किसी लौकिक कामनाके लिये न करें। हमारा भाव यदि राजस है तो उसका फल भी उसके अनुसार ही होगा। रजोगुण एवं तमोगुणका फल भगवान् ने क्रमश: दु:ख एवं अज्ञान बतलाया है (गीता १४। १६)। अतएव कल्याणकामी पुरुषके लिये राजस एवं तामस दोनों ही प्रकारके तप त्याज्य हैं।
तामस तप तो स्वरूपसे ही त्याज्य है; क्योंकि उसका तो आरम्भ ही अज्ञान एवं हठसे होता है और अज्ञान एवं हठ तमोगुणके कार्य होनेसे अधोगतिको ले जानेवाले हैं (गीता १४। १८)। इसलिये जो तप दूसरेका अनिष्ट करनेके उद्देश्यसे किया जाता है, वह तो प्रत्यक्ष ही हानिकारक है, उसके तो मूलमें ही हिंसा रहती है; अत: उसका फल नरकोंकी प्राप्ति होना ही चाहिये।
जो अशास्त्रविहित घोर तप करते हैं, उनको भगवान् ने अज्ञानी एवं आसुर स्वभाववाला बतलाया है। भगवान् कहते हैं—
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना:।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ता: कामरागबलान्विता:॥
कर्शयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस:।
मां चैवान्त:शरीरस्थं तान् विद्धॺासुरनिश्चयान्॥
(गीता १७। ५-६)
‘जो मनुष्य शास्त्रविधिसे रहित केवल मन:कल्पित घोर तपको तपते हैं तथा दम्भ और अहंकारसे युक्त एवं कामना, आसक्ति और बलके अभिमानसे भी युक्त हैं तथा जो शरीर-रूपसे स्थित भूतसमुदायको और अन्त:करणमें स्थित मुझ अन्तर्यामीको भी कृश करनेवाले हैं, उन अज्ञानियोंको तू आसुर स्वभाववाले जान।’ इसलिये अशास्त्रविहित तप वास्तवमें तप ही नहीं है, वह तो तामसी पुरुषोंकी दृष्टिमें ही तप है।’
शास्त्रविधिका उल्लंघन करके जो मनमाने ढंगसे तप आदि करते हैं, उनके विषयमें भगवान् ने कहा है कि उन्हें न तो लौकिक सिद्धि (ऐश्वर्य आदि) मिलती है, न सात्त्विक सुख मिलता है और न मोक्ष अथवा भगवत्प्राप्तिरूप परमगति ही मिलती है*।
* य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
(गीता १६। २३)
इसलिये कौन-सा तप करना चाहिये और कौन-सा नहीं करना चाहिये, इसका निर्णय भी हमें शास्त्रोंके द्वारा ही करना चाहिये। भगवान् कहते हैं—
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥
(गीता १६। २४)
‘इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्रविधिसे नियत कर्म ही करनेयोग्य है।’
इससे यह सिद्ध हुआ कि तप भी हमें वही करना चाहिये, जो शास्त्रविहित हो। इस प्रकारके तपको ही भगवान् ने (गीता १८। ५ में) अवश्यकर्तव्य बताया है।
केवल तपसे ही मनुष्य सारे पापोंसे मुक्त होकर परमात्माको प्राप्त हो सकता है, यह बात भगवान् ने गीताके चौथे अध्यायमें कही है। चौथे अध्यायके २८ वें तथा ३१ वें श्लोकोंको मिलाकर पढ़नेसे यह बात स्पष्ट हो जाती है। २८ वें श्लोकमें भगवान् ने तपको भी एक यज्ञ बतलाया है और ३१ वें श्लोकमें भगवान् ने यज्ञशेषरूप अमृत खानेवालोंको सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति बतलायी है। ४।३१ में ‘यज्ञ’ शब्द परमात्मप्राप्तिके सभी साधनोंका उपलक्षण है और उन साधनोंके अनुष्ठान करनेसे साधकोंका अन्त:करण शुद्ध होकर उसमें जो प्रसादरूप प्रसन्नताकी उपलब्धि होती है (गीता २।६४-६५; १८। ३६-३७), वही यहाँ यज्ञसे बचा हुआ अमृत समझना चाहिये। उस विशुद्ध भावसे उत्पन्न सुखमें नित्य तृप्त रहना ही उस यज्ञशेष अमृतको खाना है और उसको खानेवाला समस्त पापोंसे छूटकर सनातन ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है, यही बात भगवान् ने ४।३१ में कही है।
अब जब यह बात सिद्ध हो गयी कि यज्ञरूपमें केवल तपके आचरणसे ही मनुष्य समस्त पापोंसे छूटकर परमात्माको प्राप्त हो सकता है, तब यह प्रश्न होता है कि इस प्रकारके तपरूपी यज्ञमें सबका अधिकार है अथवा किसी खास वर्ण अथवा आश्रमवालोंका ही? इसका उत्तर यह है कि गीतामें बताये हुए शारीरिक, वाचिक, मानसिक—तीनों प्रकारके तपका सभी वर्ण और सभी आश्रमवालोंको अधिकार है। केवल कुछ बातें ऐसी हैं जिनका स्वरूप अधिकारके अनुसार कुछ बदल जाता है। उदाहरणके लिये शारीरिक तपमें ब्रह्मचर्यका रूप गृहस्थाश्रमियोंके लिये कुछ और है और इतर आश्रमवालोंके लिये कुछ और है। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ एवं संन्यासीके लिये स्त्रीसंगका सर्वथा त्याग कहा गया है; अतएव उनके लिये अष्टविध मैथुनका त्याग ही ब्रह्मचर्य है। किन्तु गृहस्थोंके लिये, जिन्हें पितृ-ऋणसे मुक्त होनेके लिये सन्तानोत्पादनके हेतु ऋतुकालमें शास्त्रानुकूल अपनी विवाहिता पत्नीके साथ सहवास करनेकी आज्ञा दी गयी है, ऋतुकालकी भी सोलह रात्रियोंमेंसे छ: निन्दित रात्रियाँ और शेष दस रात्रियोंमेंसे आठ और रात्रियाँ छोड़कर केवल दो ही रात्रियोंमें सन्तानोत्पादनके हेतु स्त्रीसहवास करना ब्रह्मचर्यके ही अन्तर्गत माना गया है। भगवान् मनु कहते हैं—
निन्द्यास्वष्टासु चान्यासु स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन्।
ब्रह्मचार्येव भवति यत्र तत्राश्रमे वसन्॥
(३। ५०)
अर्थात् जो मनुष्य निन्दित छ: रात्रियोंमें तथा आठ अन्य रात्रियोंमें स्त्रीसंगका त्याग कर देता है, वह चाहे जिस आश्रममें रहे, ब्रह्मचारी ही है।
निन्दित छ: रात्रियाँ कौन हैं, इस सम्बन्धमें मनुजीका वचन है—
तासामाद्याश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या।
त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दश रात्रय:॥
(३। ४७)
अर्थात् ऋतुकालकी सोलह रात्रियोंमें पहली चार रात्रियाँ तथा ग्यारहवीं और तेरहवीं रात्रियाँ निन्दित हैं, शेष दस रात्रियाँ प्रशस्त हैं।
इन दस रात्रियोंमेंसे भी पुत्रकी कामनावालेको चार अयुग्म रात्रियाँ अर्थात् पाँचवीं, सातवीं, नवीं और पंद्रहवीं रात्रि टाल देनी चाहिये; क्योंकि भगवान् मनु कहते हैं—
युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु।
तस्माद् युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदार्तवे स्त्रियम्॥
(३। ४८)
अर्थात् छठी, आठवीं, दसवीं, बारहवीं, चौदहवीं तथा सोलहवीं रात्रिमें स्त्रीसंग करनेसे पुत्र उत्पन्न होते हैं और अयुग्म रात्रियोंमें संगम करनेसे कन्याएँ होती हैं। इसलिये पुत्र चाहनेवालेको ऋतुकालमें स्त्रीके पास युग्म रात्रियोंमें ही जाना चाहिये।
इस प्रकार सोलह रात्रियोंमेंसे पुत्र चाहनेवालेके लिये छ: निन्दित और चार अयुग्म—यों दस रात्रियाँ तो टल गयीं। शेष बची हुई छ: युग्म रात्रियोंमें भी पर्वदिनोंको छोड़कर स्त्रीसंगम करनेकी आज्ञा है—‘पर्ववर्जं व्रजेच्चैनाम्’ (मनु० ३।४५)। पर्वके दिन हैं चार—अष्टमी, चतुर्दशी, अमावास्या और पूर्णिमा। इसी प्रकार एकादशी, संक्रान्ति आदि पुण्यतिथियाँ भी स्त्रीसंगके लिये वर्जित हैं। इनमेंसे कुछ तो पहले बतलाये हुए दस वर्जित दिनोंके अन्तर्गत ही आ जायँगी। इस प्रकार महीनेभरमें शायद दो ही दिन ऐसे मिलेंगे जिनमें गृहस्थ स्त्रीसंग कर सकता है। इसीलिये मनुजीने ऋतुकालकी भी चौदह रात्रियोंको टालनेवालेको ब्रह्मचारी बतलाया है। महीनेभरमें केवल एक बार स्त्रीसंग करनेवालेकी शास्त्रोंने विशेष प्रशंसा की है।
इसी प्रकार यदृच्छा अर्थात् अनिच्छासे प्राप्त हुए धर्मसंगत युद्धको शास्त्रोंने क्षत्रियोंके लिये धर्म बतलाया है। स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने गीतामें कहा है—
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥
(२। ३१)
‘तथा (युद्ध करनारूप) अपने धर्मको देखकर भी तू भय करनेयोग्य नहीं है, अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्मयुक्त युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है’ और युद्धमें हिंसा आवश्यक होती है। ऐसी दशामें क्षत्रियके लिये धर्मयुद्धमें अनिवार्यरूपसे की जानेवाली हिंसा अहिंसाके ही अन्तर्गत मानी जायगी; वैसी हिंसासे उसे पाप नहीं लगेगा। इसीलिये भगवान् श्रीकृष्णने कहा है—
श्रेयान् स्वधर्मो विगुण: परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥
(गीता १८। ४७)
‘अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरेके धर्मसे गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है; क्योंकि स्वभावसे नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्मको करता हुआ मनुष्य पापको नहीं प्राप्त होता।’
यही नहीं; भगवान् तो यहाँतक कह देते हैं कि अपने स्वाभाविक कर्मका, चाहे वह दोषयुक्त ही क्यों न हो, त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि जिस प्रकार अग्निके साथ धूएँका सम्बन्ध किसी-न-किसी मात्रामें रहता ही है, उसी प्रकार क्रियामात्रमें—चाहे वह कितनी ही सात्त्विक क्यों न हो कोई-न-कोई दोष रहता ही है।*
* सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:॥
(गीता १८। ४८)
अत: अनिच्छासे प्राप्त धर्मयुक्त युद्धमें उसके द्वारा अनिवार्यरूपमें होनेवाली हिंसा क्षत्रियके लिये अहिंसा ही है।
वाचिक तपमें शूद्रके लिये स्वाध्यायका अर्थ भगवन्नामका जप ही लेना चाहिये; क्योंकि शूद्रके लिये वेदाध्ययनकी आज्ञा शास्त्रोंने नहीं दी है। किन्तु द्विजाति वर्णोंके लिये वेद-शास्त्रोंका अध्ययन तथा भगवन्नामका जप दोनों ही स्वाध्यायके अन्तर्गत माने गये हैं। इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिये कि वेदाध्ययनका अधिकार न देकर शास्त्रोंने शूद्रोंको घाटेमें रखा है। जो फल द्विजातियोंको भगवन्नामजप तथा वेदाध्ययनरूप तपसे प्राप्त हो सकता है, वही शूद्रोंको केवल भगवन्नामजपसे मिल सकता है। परमात्माकी प्राप्तिमें सभीका समान अधिकार माना गया है।
मानसिक तपका आचरण सभी वर्णों और सभी आश्रमोंके लोग समानरूपसे कर सकते हैं और मानसिक तप कायिक, वाचिक दोनों प्रकारके तपसे श्रेष्ठ एवं कठिन भी है। मानसिक तपके द्वारा जिसका मन निगृहीत, शुद्ध एवं शान्त हो गया है, उसके द्वारा शारीरिक एवं वाचिक तप तो स्वाभाविक ही होने लगेंगे; क्योंकि शरीर एवं वाणीके द्वारा जितने दोष होते हैं, उनका हेतु कोई-न-कोई मानसिक विकार ही होता है। अत: कल्याणकामी पुरुषको चाहिये कि गीतोक्त तीनों प्रकारके तपको परम श्रद्धा एवं तत्परताके साथ निष्कामभावसे करे।