Seeker of Truth

तीर्थोंमें पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बातें

संसारमें चार पदार्थ हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। तीर्थोंमें (पवित्र स्थानोंमें) यात्रा करते समय अर्थ (धन) तो व्यय होता है। अब रहे धर्म, काम और मोक्ष—जो राजसी पुरुष होते हैं वे तो तीर्थोंमें सांसारिक कामनापूर्तिके लिये जाते हैं और जो सात्त्विक लोग होते हैं वे धर्म और मोक्षके लिये जाते हैं। धर्मका पालन भी वे आत्मोद्धारके लिये ही निष्कामभावसे करते हैं। अतएव कल्याणकामी पुरुषोंको तो अन्त:करणकी शुद्धि और परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही तीर्थोंमें जाना चाहिये। तीर्थोंमें जाकर किस प्रकार क्या-क्या करना चाहिये, ये बातें बतलायी जाती हैं।

(१) पैदल यात्रा करते समय मनके द्वारा भगवान् के स्वरूपका ध्यान और वाणीके द्वारा नामजप करते हुए चलना चाहिये। यदि बहुत आदमी साथ हों तो सबको मिलकर भगवान् का नाम-कीर्तन करते हुए चलना चाहिये। रेलगाड़ी आदि सवारियोंपर यात्रा करते समय भी भगवान् को याद रखते हुए ही धार्मिक पुस्तकोंका अध्ययन अथवा भगवान् के नामका जप करते रहना चाहिये।

(२) गंगा, सिन्धु, सरस्वती, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी, कृष्णा, सरयू, मानसरोवर, कुरुक्षेत्र, पुष्कर, गंगासागर आदि तीर्थोंमें उनके गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और महिमाका स्मरण करते हुए आत्मशुद्धि और कल्याणके लिये स्नान करना चाहिये।

(३) तीर्थस्थानोंमें श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीशिव, श्रीविष्णु आदि भगवद्विग्रहोंका श्रद्धा-प्रेमपूर्वक दर्शन करते हुए उनके गुण, प्रभाव, लीला, तत्त्व, रहस्य और महिमा आदिका स्मरण करके दिव्य स्तोत्रोंके द्वारा आत्मोद्धारके लिये उनकी स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिये।

(४) तीर्थोंमें साधु, महात्मा, ज्ञानी, योगी और भक्तोंके दर्शन, सेवा, सत्संग, नमस्कार, उपदेश, आदेश और वार्तालापके द्वारा विशेष लाभ उठानेके लिये उनकी खोज करनी चाहिये। भगवान् ने अर्जुनके प्रति गीतामें कहा है—

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥
(४। ३४)

‘उस ज्ञानको तू समझ; श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्यके पास जाकर उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे परमात्मतत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले वे ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे।’

(५) कंचन-कामिनीके लोलुप, अपने नामरूपको पुजवाकर लोगोंको उच्छिष्ट (जूँठन) खिलानेवाले, मान-बड़ाई और प्रतिष्ठाके गुलाम, प्रमादी और विषयासक्त पुरुषोंका भूलकर भी संग नहीं करना चाहिये, चाहे वे साधु, ब्रह्मचारी और तपस्वीके वेषमें भी क्यों न हों। मांसाहारी, मादक पदार्थोंका सेवन करनेवाले, पापी, दुराचारी और नास्तिक पुरुषोंका तो दर्शन भी नहीं करना चाहिये।

तीर्थोंमें किसी-किसी स्थानपर तो पण्डे-पुजारी और महन्त आदि यात्रियोंको अनेक प्रकारसे तंग किया करते हैं। जैसे—यात्रा सफल करवानेके नामपर दुराग्रहपूर्वक अधिक धन लेनेके लिये अड़ जाना, देवमन्दिरोंमें बिना पैसे लिये दर्शन न करवाना, बिना भेंट लिये स्नान न करने देना, यात्रियोंको धमकाकर और पापका भय दिखलाकर जबरदस्ती रुपये ऐंठना, मन्दिरों और तीर्थोंपर भोग-भण्डारे और अटके आदिके नामपर भेंट लेनेके लिये अनुचित दबाव डालना, अपने स्थानोंपर ठहराकर अधिक धन प्राप्त करनेका दुराग्रह करना, सफेद चील (गिद्ध) पक्षियोंको ऋषि और देवताका रूप देकर और उनकी जूँठन खिलाकर भोले-भाले यात्रियोंसे धन ठगना तथा देवमूर्तियोंद्वारा शर्बत पिये जाने आदि झूठी करामातोंको प्रसिद्ध करके लोगोंको ठगना इत्यादि। यात्रियोंको इन सबसे सावधान रहना चाहिये।

(६) साधु, ब्राह्मण, तपस्वी, ब्रह्मचारी, विद्यार्थी आदि सत्पात्रोंकी तथा दु:खी, अनाथ, आतुर, अंगहीन, बीमार और साधक पुरुषोंकी अन्न, वस्त्र, औषध और धार्मिक पुस्तकें आदिके द्वारा यथायोग्य सेवा करनी चाहिये।

(७) भोग और ऐश्वर्यको अनित्य समझते हुए विवेक-वैराग्यपूर्वक वशमें किये हुए मन और इन्द्रियोंको शरीरनिर्वाहके अतिरिक्त अपने-अपने विषयोंसे हटानेकी चेष्टा करनी चाहिये।

(८) अपने-अपने अधिकारके अनुसार सन्ध्या, तर्पण, जप, ध्यान, पूजा-पाठ, स्वाध्याय, हवन, बलिवैश्व, सेवा आदि नित्य और नैमित्तिक कर्म ठीक समयपर करनेकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये। यदि किसी विशेष कारणवश समयका उल्लंघन हो जाय तो भी कर्मका उल्लंघन नहीं करना चाहिये।

गीता, रामायण आदि शास्त्रोंका अध्ययन, भगवन्नामजप, सूर्यभगवान् को अर्घ्यदान, इष्टदेवकी पूजा, ध्यान, स्तुति, नमस्कार और प्रार्थना आदि तो सभी वर्ण और आश्रमके स्त्री-पुरुषोंको अवश्य ही करने चाहिये।

(९) काम, क्रोध, लोभ आदिके वशमें होकर किसी भी जीवको किसी प्रकार किंचिन्मात्र भी दु:ख कभी नहीं पहुँचाना चाहिये।

(१०) कीर्तन और स्वाध्यायके अतिरिक्त समयमें मौन रहनेकी चेष्टा करनी चाहिये; क्योंकि मौन रहनेसे जप और ध्यानके साधनमें विशेष मदद मिलती है। यदि विशेष कार्यवश बोलना पड़े तो सत्य, प्रिय और हितकारक वचन बोलने चाहिये। भगवान् श्रीकृष्णने गीतामें वाणीके तपका लक्षण करते हुए कहा है—

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥
(१७। १५)

‘जो उद्वेग न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद-शास्त्रोंके पठन एवं परमेश्वरके नाम-जपका अभ्यास है—वही वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है।’

(११) निवासस्थान और बरतनोंके अतिरिक्त किसीकी कोई भी चीज काममें नहीं लानी चाहिये। बिना माँगे देनेपर भी बिना मूल्य स्वीकार नहीं करनी चाहिये। तीर्थोंमें सगे-सम्बन्धी, मित्र आदिकी भेंट-सौगात आदि भी नहीं लेनी चाहिये। बिना अनुमतिके तो किसीकी कोई भी वस्तु काममें लेना चोरीके समान है। बिना मूल्य औषधादि लेना भी दान लेनेके समान ही है।

(१२) मन, वाणी और शरीरसे ब्रह्मचर्यके पालनपर विशेष ध्यान रखना चाहिये। स्त्रीको परपुरुषका और पुरुषको परस्त्रीका तो दर्शन, स्पर्श, भाषण और चिन्तन आदि भी कभी नहीं करना चाहिये। यदि विशेष आवश्यकता हो जाय तो स्त्रियाँ परपुरुषोंको पिता या भाईके समान समझती हुई और पुरुष परस्त्रियोंको माता या बहिनके समान समझते हुए नीची दृष्टि करके संक्षेपमें वार्तालाप कर सकते हैं। यदि एक- दूसरेकी किसीके ऊपर पापबुद्धि हो जाय तो कम-से-कम एक दिनका उपवास करे।

(१३) ऐश, आराम, स्वाद, शौक और भोगबुद्धिसे तीर्थोंमें न तो किसी पदार्थका संग्रह करना चाहिये और न सेवन ही करना चाहिये। केवल शरीरनिर्वाहमात्रके लिये त्याग और वैराग्यबुद्धिसे अन्न-वस्त्रका उपयोग करना चाहिये।

(१४) तीर्थोंमें अपनी कमाईके द्रव्यसे पवित्रतापूर्वक बनाये हुए अन्न और दूध-फल आदि सात्त्विक पदार्थोंका ही भोजन करना चाहिये। सबके साथ स्वार्थ और अहंकारको त्यागकर दया, विनय और प्रेमपूर्वक सात्त्विक व्यवहार करना चाहिये।

(१५) तीर्थोंमें बीड़ी, सिगरेट, तमाखू, गाँजा, भाँग, चरस, कोकीन आदि मादक वस्तुओंका, लहसुन, प्याज, बिस्कुट, बर्फ, सोडा, लेमोनेड आदि अपवित्र पदार्थोंका; ताश, चौपड़, शतरंज खेलना और नाटक-सिनेमा देखना आदि प्रमादका तथा गाली-गलौज, चुगली-निन्दा, हँसी-मजाक, फालतू बकवाद, आक्षेप आदि व्यर्थ वार्तालापका कतई त्याग करना चाहिये।

(१६) गंगा, यमुना और देवालय आदि तीर्थस्थानोंसे बहुत दूरीपर मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये। जो मनुष्य गंगा-यमुना आदिके तटपर मल-मूत्रका त्याग करता है तथा गंगा-यमुना आदिमें दतुअन और कुल्ले करता है, वह स्नान-पानके पुण्यको न पाकर पापका ही भागी होता है।

(१७) काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मात्सर्य, राग-द्वेष, दम्भ-कपट, प्रमाद-आलस्य आदि दुर्गुणोंका तीर्थोंमें सर्वथा त्याग करना चाहिये।

(१८) सर्दी-गर्मी, सुख-दु:ख और अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थोंके प्राप्त होनेपर उनको भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार मानकर सदा-सर्वदा प्रसन्नचित्त और सन्तुष्ट रहना चाहिये।

(१९) तीर्थयात्रामें अपने संगवालोंमेंसे किसी साथी तथा आश्रितको भारी विपत्ति आनेपर काम, क्रोध या भयके कारण उसे अकेले कभी नहीं छोड़ना चाहिये। महाराज युधिष्ठिरने तो स्वर्गका तिरस्कार करके परम धर्म समझकर अपने साथी कुत्तेका भी त्याग नहीं किया। जो लोग अपने किसी साथी या आश्रितके बीमार पड़ जानेपर उसे छोड़कर तीर्थ-स्नान और भगवद्विग्रहके दर्शन आदिके लिये चले जाते हैं उनपर भगवान् प्रसन्न न होकर उलटे नाराज होते हैं; क्योंकि ‘परमात्मा ही सबकी आत्मा है’ इस न्यायसे उस आपद्ग्रस्त साथीका तिरस्कार परमात्माका ही तिरस्कार है। इसलिये विपत्तिग्रस्त साथीका त्याग तो भूलकर भी कभी नहीं करना चाहिये।

(२०) जैसे तीर्थोंमें किये हुए स्नान, दान, जप, तप, यज्ञ, व्रत, उपवास, ध्यान, दर्शन, पूजा-पाठ, सेवा-सत्संग आदि महान् फलदायक होते हैं, वैसे ही वहाँ किये हुए झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि पापकर्म भी वज्रपाप हो जाते हैं। इसलिये तीर्थोंमें किसी प्रकारका किंचिन्मात्र भी पाप कभी नहीं करना चाहिये।

शास्त्रोंमें तीर्थोंकी अनेक प्रकारकी महिमा मिलती है। महाभारतमें पुलस्त्य ऋषिने कहा है—

पुष्करे तु कुरुक्षेत्रे गंगायां मगधेषु च।
स्नात्वा तारयते जन्तु: सप्त सप्तावरांस्तथा॥
(वनपर्व ८५। ९२)

‘पुष्करराज, कुरुक्षेत्र, गंगा और मगधदेशीय तीर्थोंमें स्नान करनेवाला मनुष्य अपनी सात-सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है।’

पुनाति कीर्तिता पापं दृष्टा भद्रं प्रयच्छति।
अवगाढा च पीता च पुनात्यासप्तमं कुलम्॥
(वनपर्व ८५। ९३)

‘गंगा अपना नाम उच्चारण करनेवालेके पापोंका नाश करती है, दर्शन करनेवालेका कल्याण करती है और स्नान-पान करनेवालेकी सात पीढ़ियोंतकको पवित्र करती है।’

ऐसे-ऐसे वचनोंको लोग अर्थवाद और रोचक मानने लगते हैं, किन्तु इनको रोचक एवं अर्थवाद न मानकर यथार्थ ही समझना चाहिये। इनका फल यदि पूरा देखनेमें न आता हो तो उसका कारण हमारे पूर्वसंचित पाप, वर्तमान नास्तिक वातावरण, पण्डे और पुजारियोंके दुर्व्यवहार तथा तीर्थोंमें पाखण्डी, नास्तिक और भयानक कर्म करनेवालोंके निवास आदिसे लोगोंकी तीर्थोंमें श्रद्धा और प्रेमका कम हो जाना ही है।

अतएव कुसंगसे बचकर तीर्थोंमें श्रद्धा-प्रेम रखते हुए सावधानीके साथ उपर्युक्त नियमोंका भलीभाँति पालन करके तीर्थोंसे लाभ उठाना चाहिये। यदि इन नियमोंके पालनमें कहीं कुछ कमी भी रह जाय तो इतना हर्ज नहीं परन्तु चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते, भगवान् के नामका जप तथा गुण, प्रभाव और लीलाके सहित उनके स्वरूपका ध्यान तो सदा-सर्वदा निरन्तर ही करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur