तेईस प्रश्न
एक सज्जनके प्रश्न हैं—(प्रश्नोंकी भाषा कुछ सुधार दी गयी है, भाव वही हैं। लेख बड़ा होनेसे बचनेके लिये उत्तर संक्षेपमें ही दिया गया है।)
प्र०—जीव कितनी जातिके होते हैं और जीवोंके कितने भेद होते हैं?
उ०—आत्मरूपसे जीव एक ही है। परन्तु शरीरोंके सम्बन्धभेदसे उसकी अनन्त जातियाँ हैं। शास्त्रोंमें स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज और जरायुजभेदसे चौरासी लाख जातियाँ मानी गयी हैं।
प्र०—जीवके कर्ता-हर्ता भगवान् हैं या नहीं?
उ०—शरीरके कर्ता-हर्ता तो ईश्वर हैं। जीव आत्मरूपसे अनादि है, उसका कोई कर्ता नहीं।
प्र०—जीवके कर्म साथ हैं या नहीं?
उ०—जीवके कर्म अनादि हैं और जबतक उसको सम्यक् ज्ञान नहीं हो जाता, तबतक साथ रहते हैं।
प्र०—जीव और कर्म एक ही वस्तु है या भिन्न-भिन्न?
उ०—जीव और कर्म भिन्न-भिन्न वस्तु है। जीव चेतन और नित्य है। कर्म जड और अनित्य है।
प्र०—जीवके कर्म जन्मसे साथ हैं या अनादि हैं?
उ०—इस प्रश्नका उत्तर तीसरे उत्तरमें दिया जा चुका है। विशेष देखना हो तो ‘कल्याण-प्राप्तिके उपाय’ में प्रकाशित ‘मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र है या परतन्त्र?’, ‘कर्मका रहस्य’ शीर्षक लेख देखने चाहिये।
प्र०—पुण्य और धर्म एक ही वस्तु है या दो?
उ०—पुण्य और धर्म भिन्न-भिन्न है। पुण्य उस सुकृतको कहते हैं जो धर्मका एक प्रधान अंग है और धर्म कर्तव्य-पालनको कहते हैं। धर्मके सम्बन्धमें विशेष जानना हो तो गीताप्रेससे प्रकाशित ‘धर्म क्या है?’ नाम्नी पुस्तिका देखनी चाहिये।
प्र०—पाप और अधर्म एक ही वस्तु है या दो?
उ०—पाप और अधर्म भिन्न-भिन्न है। दुष्कृत यानी निषिद्ध कर्मको पाप कहते हैं जो अधर्मका एक प्रधान अंग है और कर्तव्य-विरुद्ध कर्म करने अथवा कर्तव्यके परित्याग करनेको अधर्म कहते हैं।
प्र०—धर्म हिंसामें है या अहिंसामें?
उ०—धर्म अहिंसामें है। परन्तु ऐसी क्रिया जो देखनेमें हिंसाके सदृश प्रतीत होती है, पर जो नि:स्वार्थभावसे परिणाममें (जिसके प्रति हिंसा-सी दीखती है) उस व्यक्तिके हितके लिये अथवा लोक-हितके लिये की जाती है, वह वास्तवमें हिंसा नहीं है।
प्र०—दया कितने प्रकारकी होती है तथा कौन-सी दयाके पालनसे पुण्य होता है?
उ०—मेरी समझसे दया मुख्यत: एक ही प्रकारकी होती है। दु:खी जीवोंका किसी प्रकारसे भी हित हो, ऐसे विशुद्ध भावका नाम दया है।
प्र०—किन लक्षणोंवाले ब्राह्मणको दान देनेसे पुण्य होता है?
उ०—शास्त्रोंके ज्ञाता और गीताकथित ब्राह्मणके स्वाभाविक लक्षणोंसे युक्त ब्राह्मण सब प्रकारसे दानके पात्र हैं। गीतामें ब्राह्मणके लक्षण यह बतलाये हैं—
शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥
(१८। ४२)
‘अन्त:करणका निग्रह, इन्द्रियोंका दमन, बाहर-भीतरकी शुद्धि, धर्मके लिये कष्टसहनरूप तप, क्षमा, मन-इन्द्रियाँ और शरीरकी सरलता, आस्तिक बुद्धि, शास्त्र-ज्ञान और परमात्म-तत्त्वका अनुभव—ये ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्म हैं।’
प्र०—सुपात्र साधुके लक्षण क्या हैं और उनके कैसे कर्म होते हैं?
उ०—साधुके लक्षण और कर्म ऐसे होने चाहिये—
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रह:॥
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदोषानुदर्शनम् ॥
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥
(गीता १३। ७—११)
‘श्रेष्ठताके अभिमानका अभाव, दम्भाचरणका अभाव, प्राणिमात्रको किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणीकी सरलता, श्रद्धा-भक्तिसहित गुरुकी सेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि, अन्त:करणकी स्थिरता, मन और इन्द्रियोंसहित शरीरका निग्रह, इस लोक और परलोकके सम्पूर्ण भोगोंमें आसक्तिका अभाव, अहंकारका अभाव, जन्म-मृत्यु-जरा-रोग आदिमें बारम्बार दु:ख-दोषोंका विचार करना, प्रिय-अप्रियकी प्राप्तिमें सदा ही चित्तका सम रहना अर्थात् मनके अनुकूल तथा प्रतिकूलकी प्राप्तिमें हर्ष-शोकादि विकारोंका न होना। परमेश्वरमें एकीभावसे स्थितिरूप ध्यानयोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति* एकान्त और शुद्ध देशमें रहनेका स्वभाव, विषयासक्त मनुष्योंके समुदायमेें प्रेम न होना, अध्यात्मज्ञानमें नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्माको सर्वत्र देखना—ये ज्ञानके (साधन) हैं, जो इससे विपरीत है वही अज्ञान है, ऐसा कहा गया है।’
* केवल एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वरको ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके श्रद्धा और भावसहित परम प्रेमसे भगवान् का निरन्तर चिन्तन करना अव्यभिचारिणी भक्ति है।
इनके अतिरिक्त भगवान् ने अपने प्यारे भक्तोंके निम्नलिखित लक्षण और कर्म बतलाये हैं—
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी॥
सन्तुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय:॥
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संगविवर्जित:॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर:॥
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:॥
(गीता १२।१३—२०)
(जो पुरुष) ‘सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित, स्वार्थरहित सबका प्रेमी, हेतुरहित दयालु, ममतासे रहित, अहंकारादिसे रहित, सुख-दु:खोंकी प्राप्तिमें सम और क्षमावान् अर्थात् अपराध करनेवालेको भी अभय देनेवाला है, जो ध्यानयोगमें युक्त हुआ निरन्तर लाभ-हानिमें सन्तुष्ट है तथा मन और इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें किये हुए मुझ (भगवान्)-में दृढ़ निश्चयवाला है, वह मुझमें अर्पण किये हुए मन और बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है। जिससे कोई भी जीव उद्वेगको प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीवसे उद्वेगको प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, ईर्ष्या, भय और उद्वेगसे रहित है, वह भक्त मुझको प्रिय है। जो पुरुष आकांक्षासे रहित, बाहर-भीतरसे शुद्ध और चतुर है अर्थात् जिस कामके लिये आया था उसको पूरा कर चुका है एवं जो पक्षपातसे रहित और दु:खोंसे छूटा हुआ है वह सर्व आरम्भोंका त्यागी अर्थात् मन, वाणी, शरीरद्वारा प्रारब्धसे होनेवाले सम्पूर्ण स्वाभाविक कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानका त्यागी, मेरा भक्त मुझको प्रिय है। जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मोंके फलका त्यागी है वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है। जो शत्रु-मित्र और मान-अपमानमें सम है तथा जो सर्दी-गर्मी और सुख-दु:खादि द्वन्द्वोंमें सम है और सब संसारमें आसक्तिसे रहित है, जो निन्दा-स्तुतिको समान समझनेवाला और मननशील है, जो जिस किसी प्रकारसे भी शरीरका निर्वाह होनेमें सदा ही सन्तुष्ट है, अपने रहनेके स्थानमें ममतासे रहित है, वह स्थिर-बुद्धिवाला भक्तिमान् पुरुष मुझको प्रिय है। जो मेरे परायण हुए श्रद्धायुक्त पुरुष इस उपर्युक्त धर्ममय अमृतको निष्कामभावसे सेवन करते हैं वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं।’
ऐसे भगवान् के प्यारे पुरुष ही वास्तवमें सर्वथा सुपात्र साधु हैं।
प्र०—भगवान् किसे कहते हैं? भगवान् के क्या लक्षण हैं?
उ०—भगवान् वास्तवमें अनिर्वचनीय हैं, जिसको भगवान् के स्वरूपका तत्त्वसे ज्ञान है, वही उनको जानता है परन्तु वह भी वाणीसे उनका वर्णन नहीं कर सकता। भगवान् के सम्बन्धमें विस्तारसे जानना हो तो गीताप्रेससे प्रकाशित ‘भगवान् क्या हैं?’ नामक पुस्तकको ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिये।
प्र०—सुपात्र मनुष्यके क्या लक्षण हैं?
उ०—सुपात्र मनुष्य वही है, जिसमें दैवी-सम्पदाके गुण विकसित हों। दैवी-सम्पत्तिके गुणोंके विषयमें भगवान् ने कहा है—
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति:।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥
(गीता १६। १—३)
‘हे अर्जुन! सर्वथा भयका अभाव, अन्त:करणकी अच्छी प्रकारसे स्वच्छता, तत्त्वज्ञानके लिये ध्यानयोगमें निरन्तर दृढ़ स्थिति, सात्त्विक दान, इन्द्रियोंका दमन, भगवत्पूजा और अग्नि-होत्रादि उत्तम कर्मोंका आचरण, वेद-शास्त्रोंके पठन-पाठनपूर्वक भगवत् के नाम और गुणोंका कीर्तन, स्वधर्म-पालनके लिये कष्ट-सहन, शरीर और इन्द्रियोंसहित अन्त:करणकी सरलता, मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकार भी किसीको कष्ट नहीं देना, सबसे यथार्थ और प्रियभाषण, अपना अपकार करनेवालेपर भी क्रोध न होना, कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानका त्याग, अन्त:करणकी उपरामता अर्थात् चित्तकी चंचलताका अभाव, किसीकी भी निन्दा आदि न करना, सब भूतप्राणियोंमें हेतुरहित दया, इन्द्रियोंका विषयोंके साथ संयोग होनेपर भी आसक्तिका न होना, कोमलता, लोक और शास्त्रसे विरुद्ध आचरण करनेमें लज्जा, व्यर्थ चेष्टाओंका अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर-भीतरकी शुद्धि, किसीमें भी शत्रुभावका न होना और अपनेमें पूज्यताके अभिमानका अभाव दैवी-सम्पदाको प्राप्त हुए पुरुषके ये (२६) लक्षण हैं।’
प्र०—मुक्ति-धर्म और सांसारिक धर्म एक है या दो? मनुष्यको कौन-से धर्मका पालन करना चाहिये, जिससे मुक्तिकी प्राप्ति हो?
उ०—क्रियाके स्वरूपसे अलग-अलग है। सांसारिक धर्म भी निष्कामभावसे किया जाय तो वह भी मुक्तिदायक हो सकता है। मुक्ति-धर्म तो मुक्तिदायक है ही। वर्णभेदके अनुसार सांसारिक धर्मका स्वरूप और निष्कामभावसे भगवत्-पूजाके रूपमें किये जानेपर परमसिद्धिरूप परमात्माकी प्राप्तिका विवेचन गीता १८वें अध्यायके श्लोक ४१ से ४६ तक और मुक्ति-धर्म यानी ज्ञाननिष्ठाका स्वरूप १८वें अध्यायके श्लोक ४९ से ५५ तक देखना चाहिये।
प्र०—स्वर्ग और देवताओंका भवन एक ही है या दो?
उ०—एक ही है, देवताओंके भिन्न-भिन्न लोकोंको ही स्वर्ग कहते हैं।
प्र०—किन-किन देवताओंका स्मरण करना चाहिये, जिससे जीवका निस्तार हो?
उ०—परम दयालु, परम सुहृद्, परम प्रेमी, परम उदार, विज्ञानानन्दमय, नित्य, चेतन, अनन्त, शान्त, सर्वशक्तिमान् सृष्टिकर्ता परमात्मदेव एक ही है। उसीको लोग ब्रह्म, विष्णु, शिव, ब्रह्मा, सूर्य, शक्ति, गणेश, अरिहन्त, बुद्ध, अल्लाह, जिहोवा, गॉड आदि अनेक नामोंसे पुकारते हैं। इस भावनासे ऐसे परमात्माके किसी भी नाम-रूपका स्मरण-पूजन करनेसे जीवका निस्तार हो सकता है।
प्र०—जीव कौन-कौन-सी गतिमें जाते हैं?
उ०—नीच कर्म करनेवाले तामसी पापी जीव नरकोंमें जाते हैं। नारकीय गतिके दो भेद हैं—स्थानविशेष और योनिविशेष। रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक आदि नरकोंमें यमराजके द्वारा जो यातना मिलती है वह स्थानविशेषकी गति है और देव, पितर, मनुष्यके अतिरिक्त पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदिमें जन्म लेना योनिविशेषकी गति मानी जाती है। राजसी कर्म करनेवाले मनुष्य-योनिको प्राप्त होते हैं और सात्त्विक पुरुष ऊँची गति—देव-योनिमें जाते हैं। गीतामें भगवान् कहते हैं—
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा:।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा:॥
(१४।१८)
‘सत्त्वगुणमें स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकोंको जाते हैं, रजोगुणमें स्थित राजस पुरुष मध्यमें अर्थात् मनुष्यलोकमें ही रहते है एवं तमोगुणके कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादिमें स्थित हुए तामस मनुष्य अधोगतिको अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियोंको प्राप्त होते हैं।
प्र०—स्वर्गमें गया हुआ जीव वापस आता है या नहीं? क्या कोई वापस आया है?
उ०—मुक्त होनेपर जीव वापस नहीं आते। स्वर्गमें गये हुए जीव वापस आते हैं। गीतामें कहा है—‘तीनों वेदोंमें विधान किये हुए सकाम कर्म करनेवाले, सोमरसका पान करनेवाले, स्वर्ग-प्राप्तिके प्रतिबन्धक देव-ऋणरूप पापसे मुक्त हुए पुरुष मुझको यज्ञोंद्वारा पूजकर स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्योंके फलरूप इन्द्रलोकको प्राप्त होकर स्वर्गमें दिव्य देवताओंके भोगोंको भोगते हैं और वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मके शरण हुए भोगोंकी कामनावाले पुरुष बारम्बार जाने-आनेमें ही लगे रहते हैं।’ (९।२०-२१) इससे वापस आना सिद्ध है। प्राचीनकालमें महाराजा त्रिशंकु, ययाति, नहुष आदि अनेक वापस आये हैं।
प्र०—देवताओंके भवनमें गया हुआ जीव फिर इस संसारमें जन्म ले सकता है या नहीं?
उ०—निष्काम साधक जो अर्चिमार्गसे ब्रह्मलोकमें जाते हैं, वापस नहीं आते। वे क्रममुक्तिके द्वारा परमात्माके परमधाममें जा पहुँचते हैं। परन्तु धूममार्गसे जानेवाले सकामी वापस आते हैं (गीता अध्याय ८ श्लोक २४ से २६ देखना चाहिये)। ‘छान्दोग्य और बृहदारण्यक’ उपनिषद् में में भी इसका विस्तारसे वर्णन है। विशेषरूपसे यह विषय समझना हो तो ‘जीव-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर’ शीर्षक लेख इसी पुस्तकमें आगे देखना चाहिये।
प्र०—मान लीजिये, किसी बीमार आदमीका रोग दो कबूतरोंका खून व्यवहार करनेसे दूर होता हो, इसमें कबूतर मारकर खून लगाना बतलानेवाले और मारकर खून लगानेवाले, इन दोनोंमेंसे किसको पुण्य हुआ और किसको पाप?
उ०—बीमारी आदिके लिये किसी भी जीवकी हिंसा करनेवाले, बतलानेवाले और हिंसासे मिली हुई वस्तु काममें लानेवाले—तीनों ही आसक्ति और स्वार्थ होनेके कारण पापके भागी होते हैं।
प्र०—एक अविवाहित मनुष्य परस्त्रीके पास जाता है, उसको परस्त्रीसे छुड़ाकर कोई उसका विवाह करा दे तो विवाह कराने और करनेवालेमेंसे कौन-सा पापका भागी हुआ और कौन-सा पुण्यका?
उ०—विवाहके योग्य पुरुषका शास्त्रानुकूल विवाह हो और विवाहके पश्चात् स्त्री-पुरुष न्याययुक्त गृहस्थाश्रमका पालन करें तो विवाह करने-करानेवाले—दोनों ही पुण्यके भागी होते हैं।
प्र०—गति कितने प्रकारकी होती है?
उ०—गति अर्थात् मुक्ति दो प्रकारकी होती है। शरीर रहते भी सम्यक् ज्ञान प्राप्त होनेपर जीवन्मुक्ति हो सकती है, जीता हुआ ही वह पुरुष मुक्त हो जाता है। इसीलिये उसको जीवन्मुक्त कहते हैं और उसके शरीरका कार्य भी प्रारब्धानुसार चलता रहता है। ऐसे जीवन्मुक्तकी स्थिति बतलाते हुए भगवान् कहते हैं—‘हे अर्जुन! जो पुरुष सत्त्वगुणके कार्यरूप प्रकाशको और रजोगुणके कार्यरूप प्रवृत्तिको तथा तमोगुणके कार्यरूप मोहको भी न तो प्रवृत्त होनेपर बुरा समझता है और न निवृत्त होनेपर उनकी आकांक्षा ही करता है। जो साक्षीके सदृश स्थित हुआ गुणोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं, ऐसा समझता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें एकीभावसे स्थित रहता है, उस स्थितिसे कभी चलायमान नहीं होता और जो निरन्तर आत्मभावमें स्थित हुआ दु:ख-सुखको समान समझनेवाला है तथा मिट्टी, पत्थर और सुवर्णमें समानभाववाला और धैर्यवान् है तथा जो प्रिय-अप्रियको बराबर समझता है, अपनी निन्दा-स्तुतिमें भी समानभाववाला है, मान-अपमानमें सम है, मित्र और वैरीके पक्षमें भी सम है वह सम्पूर्ण आरम्भोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है (गीता १४। २२—२५)। यह गुणातीत ही जीवन्मुक्त है। दूसरी विदेहमुक्ति मरणके अनन्तर होती है। अत्यन्त ऊँची स्थितिमें मरनेवालेकी यही गति होती है। गीतामें कहा है—
‘स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।’
(२। ७२)
‘अन्तकालमें भी इस निष्ठामें स्थित होकर ब्रह्मानन्दको प्राप्त हो जाता है।’
प्र०—दान देनेवाले और दान लेनेवाले—इन दोनोंमें किसको पुण्य होता है और किसको पाप होता है?
उ०—आसक्ति और स्वार्थको त्यागकर सत्पात्रमें जो दान दिया-लिया जाता है उसमें देने और लेनेवाले—दोनोंको ही परम धर्म-लाभ होता है। स्वार्थबुद्धिसे लेनेवाले सुपात्रका पुण्य क्षय होता है और कुपात्रको नरककी प्राप्ति होती है। इसी प्रकार स्वार्थबुद्धिसे सुपात्रके प्रति दान देनेवालेको पुण्य और कुपात्रके प्रति देनेवालेको पाप होता है।